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________________ १३४ जैनधर्म कल्याणकी भावनासे उस मार्गको बतलाया जिसपर चलकर उन्होंने स्वयं मुक्तिलाभ किया। उनके गुणानुवादका प्रयोजन उन्हें रिझाना या प्रमन्न करना नहीं है। वे तो राग-द्वेपकी इस घाटीसे बहुत दूर हैं । न वे किसीकी स्तुनिसे प्रसन्न होते हैं और न निन्दासे नाराज । किन्तु उनके गुणोंका कीर्तन करनेसे हमें अपने गुणोंका बोध होना है, क्योंकि जो गुण उनमें हैं वही हममें भी हैं. किन्तु हम अपनेको भूल हुए हैं। अतः उनका गुणानुवाद हमें अपनी स्मृति कराकर वुर कामोंसे बचाता है । कहा भी है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवरे । तथापि तव पुण्यगुणस्मृतिनः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।।५७।।' -बृहत्स्वयं० अर्थ हे नाथ ! तुम वीतराग हो इसलिये तुम्हें अपनी पूजास कोई प्रयोजन नहीं है । और चूंकि तुम वीतद्वेप हो इसलिये निन्दासे भी कोई प्रयोजन नहीं है । फिर भी तुम्हारे पुण्य गुणोंकी स्मृति हमारे चित्तको पापम्पी कालिमासे बचाती है। ___अतः मूर्तिपूजाका उद्देश्य मूर्तिमें अंकित भावोंको अपने में लाकर जिसकी वह मूर्ति है उसके ही समान अपनेको बनाना है। अर्थात् जो जैसा होना चाहता है वह अपने सामने वैसा ही आदर्श रखता है। जैनधर्मका उद्देश्य आत्माको समस्त कर्मवन्धनोंसे छुड़ाकर उसके असली स्वरूपकी प्रानि कराना है जिसे वह भूला हुआ है । अतः उसका आदर्श वे पुनीन आत्माएँ हैं, जिन्होंने अपनेको वैसा बना लिया है। उन्हों आदीकी मूर्ति स्थापना करके सच्चा जैन अपनेको वैसा ही बनानेका प्रयत्न करता है। - प्रत्येक जैनमन्दिर में शास्त्रभंडार भी रहता है, जिसमें जनशास्त्रोंका संग्रह होता है । जो दर्शन या पूजनके लिये जाना है उसे दर्शन या पूजन कर चुकनेके बाद शास्त्रस्वाध्याय भी अवश्य करनी होती है। क्योंकि उन शास्त्रोंको जाने बिना दर्शक
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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