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________________ सामाजिक रूप ३१३. तपागच्छके नामसे प्रसिद्ध हुआ । श्रीजगच्चन्द्र सूरि और उनके शिष्योंका दैलवाराके प्रसिद्ध मन्दिरोंका निर्माता वस्तुपाल बड़ा सन्मान करता था । इससे गुजरातमें आजतक भी तपागच्छका बड़ा प्रभाव चला आता है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह गच्छ सबसे महत्वका समझा जाता है। इसके अनुयायी बम्बई पंजाब, राजपूताना, मद्रास आदि प्रान्तों में पाये जाते हैं । श्रीजगन्चन्द्र सूरिके दो शिष्य थे, देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्रसूरि । इन दोनों में मतभेद हो गया । विजयचन्द्र सूरिने कठोर आचारके स्थान में शिथिलाचारको स्थान दिया । उन्होंने घोषणा की कि गोतार्थ मुनि वस्त्रोंकी गठड़ियाँ रख सकते हैं, हमेशा घी दूध खा सकते हैं, कपड़े धो सकते हैं, फल तथा शाक ले सकते हैं, साध्वी द्वारा लाया हुआ आहार खा सकते हैं, और और श्रावकोंको प्रसन्न करनेके लिए उनके साथ बैठकर प्रतिक्रमण भी कर सकते हैं 1 ४. पार्श्वचन्द्र गच्छ — यह तपागच्छकी शाखा है । तपागच्छके आचार्य पार्श्वचन्द्र वि० सं० १५१५ में इस गच्छसे अलग हो गये । कारण यह था कि इन्होंने कर्मके विषय में नया सिद्धान्त खड़ा किया था और निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और छेद ग्रन्थोंको प्रमाण नहीं मानते थे । इस गच्छके अनुयायी अहमदाबाद जिलेमें पाये जाते हैं । ५. सार्ध पौर्णमीयक गच्छ— पौर्णमीयक गच्छकी स्थापना चन्द्रप्रभसूरिने की थी । कारण यह था कि प्रचलित क्रियाकाण्डसे उनका मतभेद था तथा वे महानिशीथ सूत्रकी गणना शास्त्रग्रन्थों में नहीं करते थे । आचार्य हेमचन्द्रकी आज्ञासे राजा कुमारपालने इस गच्छके अनुयायियोंको अपने राज्यमेंसे निकलवा दिया था। इन दोनोंकी मृत्युके बाद एक सुमतिसिंह नामके पौर्णमीयक कुमारपालकी राजधानी अणहिलपुर में आये और इन्होंने इस गच्छको नवजीवन दिया। तबसे यह गच्छ सार्व
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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