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________________ जैनधर्म ३१४ पौर्णमीयक कहलाया । इस गच्छके अनुयायी आज नहीं पाये जाते । ६. अंचल गच्छ — इस गच्छके संस्थापक उपाध्याय विजयसिंह थे। पीछे वे आर्यरक्षित सूरिके नामसे विख्यात हुए । इस गच्छ में मुखपट्टी के बदले अंचलका ( वस्त्रके छोरका ) उपयोग किया जाता है. इससे इसका नाम अंचल गच्छ पड़ा है । ७. आगमिक गच्छ — इस गच्छके संस्थापक शीलगुण और देवभद्र थे। पहले ये पौर्णमीयक थे पीछेसे आंचलिक हो गये थे । ये क्षेत्रपालकी पूजा करनेके विरुद्ध थे । विक्रमकी १६ वीं शती में इस गच्छकी एक शाखा कटुक नामसे पैदा हुई । इस शाखा के अनुयायी केवल श्रावक ही थे । 1 इन गच्छों में से भी आज खरतर, तपा और आंचलिक गच्छ ही वर्तमान हैं । प्रत्येक गच्छकी साधु-सामाचारी जुदी - जुदी है | श्रावकोंकी सामायिक प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाविधि भी जुदी - जुदी है। फिर भी सबमें जो भेद है वह एक तरहसे निर्जीव-सा है । कोई कल्याणक दिन छै मानता है तो कोई पाँच मानता है । कोई पर्युषणका अन्तिम दिन भाद्रपद शुक्ला चौथ और कोई पंचमी मानता है। इसी तरह मोटी बातोंको लेकर गच्छ चल पड़े हैं । स्थानकवासी सिरोही राज्य के अरहट वाड़ा नामक गाँव में, हेमाभाई नामक ओसवाल के घर में, विक्रम सम्बत् १४७२ में लोंकाशाहका जन्म हुआ । २५ वर्षकी अवस्थामें लोंकाशाह स्त्री-पुत्र के साथ अहमदाबाद चले आये। उस समय अहमदाबादकी गद्दीपर मुहम्मदशाह बैठा था । कुछ जवाहरात खरीदने के प्रसंगसे लोकाशाहका परिचय मुहम्मदशाह से होगया और मुहम्मदशाहने लोकाशाहकी चातुरीसे प्रसन्न होकर उन्हें पाटनका तिजोरीदार बना दिया ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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