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सामाजिक रूप
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विषद्वारा मुहम्मदशाहकी मृत्यु होनेपर लोंकाशाहको बहुत खेद हुआ। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और लेखन कार्य में लग गये । उनके सुन्दर अक्षरोंसे आकृष्ट होकर ज्ञानश्री नामक मुनिराजने दश वैकालिक सूत्रकी एक प्रति लिखनेके लिये दी । फिर तो मुनिश्री के पाससे अन्य शास्त्र भी लिखने के लिये आने लगे । और वे उनकी दो प्रतियाँ करके एक अपने पास रखने लगे। इस तरह अन्य ग्रन्थोंका भी संग्रह करके लोंकाशाहने उनका अभ्यास किया । उन्हें लगा कि आज मन्दिरोंमें जो मूर्ति पूजा प्रचलित है वह तो इन ग्रन्थोंमें नहीं है । इसके सिवा जो आचार आज जैनधर्म में पाले जाते हैं उनमेंसे अनेक इन ग्रन्थोंको दृष्टि धर्मसम्मत नहीं हैं। अतः उन्होंने जैनधर्म में सुधार करनेका वीड़ा उठाया ।
अहमदाबाद गुजरातकी राजधानी होनेके साथ व्यापारका भी केन्द्र था । अतः व्यक्तियोंका आवागमन लगा ही रहता था । जो वहाँ आते थे लोंकाशाहका उपदेश सुनकर प्रभावित होते थे । जब कुछ लोगोंने उनसे धर्म में दीक्षित करनेकी प्रार्थना की तो लोकाशाहने कहा मैं स्वयं गृहस्थ होकर आपको अपना शिष्य कैसे बना सकता हूँ । तब ज्ञानजी महाराजने उन्हें धर्मकी दीक्षा दी। और उन्होंने लोंकाशाह के नामपर अपने गच्छका नाम लोंकागच्छ रखा | इस तरह लोकागच्छकी उत्पत्ति हुई ।
पीछेसे लोकामत में भी भेद-प्रभेद हो गये। सूरतके एक जैन साधुने लोकामत में सुधार कर एक नये सम्प्रदायकी स्थापना की जो हँढिया सम्प्रदायके नामसे प्रसिद्ध हुआ । पीछेसे लोंकाके सभी अनुयायी हँढिया कहे जाने लगे। इन्हें स्थानकवासी भी कहते हैं, क्योंकि ये अपना सब धार्मिक व्यवहार मन्दिर में न करके स्थानक यानी उपाश्रयमें करते हैं । इस सम्प्रदायक माननेवाले गुजरात, काठियावाड़, मारवाड़, मालवा, पंजाब तथा भारतके अन्य भागोंमें रहते हैं। इनकी संख्या मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके जितनी ही है। अतः इस सम्प्रदायको जैनधर्मका