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जैनधर्म तीसरा सम्प्रदाय कहा जा सकता है। किन्तु ये अपनेको श्वेताम्बर ही मानते हैं, क्योंकि कुछ मतभेदोंको यदि छोड़ दिया जाये तो श्वेताम्बरोंसे ही इनका मेल अधिक खाता है।। ___यह सम्प्रदाय श्वेताम्बरोंके ही ४५ आगमोंमेंसे ३३ आगमोंको मानता है। लोंकाने तो ३१ आगम ही माने थे-व्यवहारसूत्रको वह प्रमाण नहीं मानता था। किन्तु पीछेके स्थानकवासियोंने उसे प्रमाण मान लिया। धर्माचरणमें स्थानकवासी श्वेताम्बरोंसे भिन्न पड़ते हैं। वे मूर्तिपूजा नहीं मानते, मन्दिर नहीं रखते और न तीर्थयात्रामें ही विशंप श्रद्धा रखते हैं। इस सम्प्रदायके साधु सफेद वस्त्र धारण करते हैं तथा मुखपर पट्टी वाँधते हैं । इन अमूर्तिपूजक श्वेताम्बर साधुआंसे भेद दिखानेके लिए सत्यविजय पंन्यासने अठारहवीं सदी मूर्तिपूजक श्वेताम्बर साधुओंको पीला वस्त्र धारण करनेका रिवाज चालू किया, जो अब भी देखने में आता है। इसी सदीके अन्तमें भट्टारकोंको गद्दियाँ हुई और यति तथा यतिनियाँ हुई। खूब विरोध होनेपर भी इनके अवशेष आज भी मौजूद हैं।
मूर्तिपूजाविरोधी तेरापन्थ मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदायमें भी अनेक पन्थ प्रचलित हुए, जिनमेंसे उल्लेखनीय एक तेरापन्थ है। इस पन्थकी स्थापना मारवाड़ में आचार्य भिक्षु (भीखम ऋषि ) ने की थी।
आचार्य भिक्षुका जन्म जोधपुर राज्यके अन्तर्गत कन्टालिया ग्राममें सं० १७८३ में हुआ था। सं० १८०८ में इन्होंने जैनी दीक्षा ग्रहण की। उन्हें लगा कि जिस अहिंसाकी साधनाके लिये हम सब कुछ त्याग कर निकले हैं, यथार्थ में उस अहिंसाके समीप भी नहीं पहुंचे हैं। जीवन व्यवहारमें अहिंसाके नामपर हिंसाको प्रश्रय देते हैं और धर्मके नामपर अधर्मको । अतः उन्होंने एक नवीन साधु संघकी स्थापना की, जो 'तेरापन्थ' कहलाया।