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जैन साहित्य
२५५ है-"जैनी कन्नड़ भाषा के आदि कवि हैं। आज तक उपलब्ध सभी प्राचीन और उत्तम कृतियाँ जैन कवियोंकी ही हैं। विशेषतया प्राचीन जैन कवियों के कारण ही कन्नड़ भाषाका सौन्दर्य एवं कान्ति है। पंप, रन्न और पोन्नको कवियोंमें रत्न मानना उचित है । अन्य कवियोंने भी १४वीं शताब्दोके अन्त तक सर्वइलाध्य चम्पूकाव्योंकी रचना की है। कन्नड़ भापाके सहायक छन्द, अलंकार, व्याकरण, कोष आदि ग्रन्थ अधिकतया जैनियोंके द्वारा ही रचित हैं।" ___ यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि दक्षिण और कर्नाटकका जितना जैन साहित्य है वह सब ही दिगम्बर जैन सम्प्रदायके विद्वानोंकी रचना है। तथा दिगम्बर सम्प्रदायके जितने प्रधान-प्रधान आचार्य हैं वे प्रायः सब ही कर्नाटक देशके निवासी थे और वे न केवल संस्कृत और प्राकृतके ही ग्रन्थकर्ता थे, किन्तु कनड़ीके भी प्रसिद्ध ग्रन्थकार थे। ____ तमिल भाषाका साहित्य भी प्रारम्भ कालसे ही जैनधर्म
और जनसंस्कृतिसे प्रभावित है । 'कुरल' और 'नालदियार' नामके दो महान् ग्रन्थ उन जैनाचार्या की कृति हैं जो तमिलदेशमें बस गये थे । इन ग्रन्थोंके अवतरण उत्तरवर्ती साहित्यमें बहुतायतसे पाये जाते हैं। तमिलका नीनिविपयक साहित्य काव्यसाहित्यकी अपेक्षा प्राचीन है और उसपर जैनाचार्यों का विशेष प्रभाव है । 'पलमोलि' के रचयिता भी जैन थे। इसमें बहुमूल्य पुरातन सूक्तियाँ हैं। कुरल और नालदियारक बाद इसका तीसरा नम्बर है। 'तिनै माले नू रेम्बतु' के लेखक भी जैन थे। यह ग्रन्थ शृंगार तथा युद्धक सिद्धान्तोंका वर्णन करता हैं । पश्चान्वों टीकाकारोंके द्वारा इस ग्रन्थके अवतरण खूब लिये गये हैं। इसी समुदायका एक ग्रन्थ 'नान मणिक्कडिगे' है जो वेणवा छन्दमें हैं। ___ तमिल भाषाके पाँच महाकाव्यों में से चिंतामणि, सिलप्पडिकारम् और वलैतापति जैनलेखकोंकी कृति हैं । सिलप्पडिका