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चारित्र
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उसका इरादा बुरा है । इसी तरह और भी अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं । अतः प्रवृत्तिका अच्छा या बुरापन कर्ताके भावोंपर निर्भर है, न कि कार्यपर। ऐसी स्थिति में जो लोग लौकिक सुखकी इच्छासे प्रेरित होकर धर्माचरण करते हैं उनका वह धर्माचरण यद्यपि बरे कार्यों में लगनेकी अपेक्षा अच्छा ही है तथापि जिस दृष्टि धर्माचरणको कर्तव्य बतलाया है उस दृष्टिसे वह एक तरह से निष्फल ही है, क्योंकि लौकिक वैषयिक सुखकी लालसामें फँसकर हम उस चिरस्थायी आत्मिक सुखकी बातको भूल जाते हैं, जो धर्माचरणका अन्तिम लक्ष्य है, और ऐसे कार्य कर बैठते हैं जिनसे बहुत कालके लिये उस चिरस्थायी सुखकी आशा नष्ट हो जाती है ।
यद्यपि सुखलाभकी प्रवृत्ति जीवका स्वभावसिद्ध धर्म है । वही प्रवृत्ति जीवोंको अच्छे या बुरे कार्यों में लगाती है । किन्तु एक तो जीवोंको सच्चे सुखकी पहिचान नहीं है । वे समझते हैं कि इन्द्रियोंके विषयों में ही सच्चा सुख है। इसलिये वे उन्हींकी प्राप्तिका प्रयत्न करते हैं और उसीके लोभसे धर्माचरण भी करते हैं । किन्तु ज्यों-ज्यों उन्हें विषयोंकी प्राप्ति होती जाती है त्यों-त्यों उनकी विषयतृष्णा बढ़ती जाती है। उस तृष्णाकी पूर्ति के लिये वे प्रतिदिन नये-नये उपाय रचते हैं, अनर्थ करते हैं, बलात्कार करते हैं, दूसरोंको सताते हैं, उचित अनुचितका विचार किये बिना जो कुछ कर सकते हैं करते हैं, किन्तु उनकी तृष्णा शान्त नहीं होती । अन्तमें तृष्णाको शान्त करनेकी धुन में वे स्वयं ही शान्त हो जाते हैं और अपने पीछे पापोंकी पोटरी बाँधकर दुनियासे चल बसते हैं । इसीलिये वैषयिक सुखको खोज इतनी निन्दनीय है। दूसरे, प्रवृत्तिमें एक बड़ा भारी दोप यह है कि प्रवृत्ति मात्र ही सहजमें असंयत हो उठती है और उचित सीमाको लाँघकर कार्य करने लगती है । इसीसे प्रवृत्तिके दमनपर इतना जोर दिया गया है और प्रवृत्तिको विश्वस्त पथप्रदर्शक नहीं माना जाता । इसीलिये दूरदर्शी धर्मोपदेष्टाओंने