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________________ १६८ जैनधर्म कारण बनता है । अतः इनका सत्प्रयोग करना और दुष्प्रयोग न करना शुभाचरण कहा जाता है। यथार्थमें चारित्रके दो अंश हैं-एक प्रवृत्तिमूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक । जितना प्रवृत्तिमूलक अंश है वह सब बन्धका कारण है और जितना निवृत्तिमूलक अंश है वह सब अवन्धका कारण है। ____ यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्तिके विपयमें थोड़ा सा प्रकाश डाल देना अनुचित न होगा। प्रवृत्तिका मतलब है इच्छा-पूर्वक किसी कार्य में लगना और निवृत्तिका मतलब है प्रवृत्तिको रोकना। प्रवृत्ति अच्छी भी होती और बुरी भी। प्रवृत्तिके तीन द्वार हैं-मन, वचन और काय । किसोका बुरा विचारना, किसीसे ईर्षाभाव रखना आदि बुरी मानसिक प्रवृत्ति है। किसीका भला विचारना, किसीकी रक्षाका उपाय सोचना आदि अच्छी मानसिक प्रवृत्ति है। झुठ बोलना, गाली बकना आदि बुरी वाचनिक प्रवृत्ति है। हित मित वचन बोलना, अच्छी वाचनिक प्रवृत्ति है । किसीकी हिंसा करना, चोरी करना, व्यभिचार करना आदि बुरी कायिक प्रवृत्ति है और किसीकी रक्षा करना, सेवा करना आदि अच्छी कायिक प्रवृत्ति है। इस तरह प्रवृत्ति अच्छी भी होती है और बुरी भी होती है। किन्तु प्रवृत्तिका अच्छापन या बुरापर कर्ताकी क्रिया या उसके फलपर निर्भर नहीं है किन्तु कर्ताके इरादे पर निर्भर है। कर्ता जो कार्य अच्छे इरादेसे करता है वह कार्य अच्छा कहलाता है और जो कार्य बुरे इरादेसे करता है वह कार्य बुरा कहलाता है। जैसे, एक डाक्टर अच्छा करनेके भावसे रोगीको नश्तर देता है। रोगी चिल्लाता है और तड़फता है फिर भी डाक्टरका कार्य बुरा नहीं कहलाता क्योंकि उसका इरादा बुरा नहीं है । तथा एक मनुष्य किसी धनी युवकसे मित्रता जोड़कर उसका धन हथियानेके इरादेसे प्रतिदिन उसकी खुशामद करता है, उसे तरह तरहके सब्जबाग दिखाकर वेश्या और शराबसे उसकी खातिर करता है। उसका यह काम बुरा है क्योंकि
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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