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जैनधर्म प्रवृत्ति-मूलक कार्यकी अपेक्षा निवृत्तिमूलक कार्यकी ही अधिक प्रशंसा की है। और निवृत्तिमार्गको ही ग्रहण करनेका उपदेश दिया है। ___ अनेक लोग सोचा करते हैं कि प्रवृत्ति मनुष्यको यथार्थकर्मा बनाकर जगतका हित करने में लगाती है और निवृत्ति मनुष्यको निष्कर्मा बनाकर जगतका हित करनेसे रोकती है। किन्तु यह बात ठीक नहीं है। यह सच है कि निवृत्तिमार्गकी अपेक्षा प्रवृत्तिमार्ग आकर्षक है। पर उसका कारण यह है कि प्रवृत्तिमार्गसे जिस सुखकी खोज की जाती है वह क्षणिक होनेपर भी सहजलभ्य
और सहजभोग्य है। उधर निवृत्तिमार्गसे जिस सुखको खोजा जाता है वह नित्य होनेपर भी अतिदूर है और संयतचित्त हुए बिना कोई उसे भोग नहीं सकता। अतः निवृत्तिमार्ग यद्यपि आकर्षक नहीं है तथापि एक बार जो उसपर पग रख देता है वह बराबर चलता रहता है, क्योंकि उस मार्गपर चलनेसे जोसुख प्राप्त होता है वह नित्य है और उसको भोगनेकी शक्तिका कभी ह्रास नहीं होता। इसके विपरीत प्रवृत्तिमार्गसे जो सुख प्राप्त होता है उस मुखके लिये जिन भोग्य सामग्रियोंकी आवश्यकता है वे सब अस्थायी हैं और उस सुखको भोगनेके लिये हममें जो शक्ति है वह भी क्षय होनेवाली है ! दूसरे, प्रवृत्तिसे प्रेरित होकर जो कार्य किया जाता है उसके अन्त तक चालू रहनेमें बहुत कुछ शंका रहती है, क्योंकि कर्ता किसी लौकिक इच्छासे हो उसमें प्रवृत्त होता है। किन्तु निवृत्तिमार्गपर चलनेवालेके विषयमें यह शंका नहीं रहती, क्योंकि वह अपने सुख-लाभपर दृष्टि न रखकर कार्य करनेमें ही रत रहता है। शायद कोई कहे कि प्रवृत्तिमार्गी लोगोंने ही परिश्रम करके अनेक प्रकारके विषय-सुखके उपायोंका आविष्कार करके मनुष्यजातिका महान् हित किया है और निवृत्तिमार्गियोंने कुछ नहीं किया। तो उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि उन सब सुखसाधनोंके रहते हुए भी जब कोई आदमी दुस्सह शोकसागरमें निमग्न होता है, या