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जैनधर्म वर्तमानमें जो वीर निर्वाण सम्वत् जैनोंमें प्रचलित है, उसके अनुसार ५२७ ई० पू० में वीरका निर्वाण हुआ माना जाता है । कुछ प्राचीन जैन-ग्रन्थोंमें शकराजासे ६०५ वर्ष ५ मास पहले वीरके निर्वाण होनेका उल्लेख मिलता है। उससे भी इसी कालकी पुष्टि होती है।
४. भगवान महावीर के पश्चात्
जैनधर्मकी स्थिति भगवान महावीरके सम्बन्धमें जैन और बौद्धसाहित्यसे जो कुछ जानकारी प्राप्त होती है, उसपरसे यह स्पष्ट पता चलता है कि महावीर एक महापुरुप थे, और उस समयके पुरुषोंपर उनका मानसिक और आध्यात्मिक प्रभाव बड़ा गहरा था। उनके प्रभाव, दीर्घदृष्टि और निस्पृहताका ही यह परिणाम है जो आज भी जैनधर्म अपने जन्मस्थान भारतदेशमें बना हुआ है जब कि बौद्धधर्म शताब्दियों पूर्व यहाँसे लुप-सा हो गया था।
भगवान महावीरका अनेक राजघरानोंपर भी गहरा प्रभाव था। भगवान महावीर ज्ञातृवंशी थे और उनकी माता लिच्छवि गणतंत्रके प्रधान चेटककी पुत्री थी। ईसासे पूर्व छठी शताब्दीमें पूर्वीय भारतमें लिच्छवि राजवंश महान और शक्तिशाली था। डा० याकोवीने लिखा है कि जब चम्पाके राजा कुणिकने एक बड़ी सेनाके साथ राजा चेटकपर आक्रमण करनेकी तैयारी को तो चेटकने काशी और कौशलके अट्ठारह राजाओंको तथा लिच्छवि और मल्लोंको बुलाया और उनसे पूछा कि आप लोग कुणिककी माँग पूरा करना चाहते हैं अथवा उससे लड़ना चाहते हैं ? महावीरका निर्वाण होनेपर इस घटनाकी स्मृतिमें उक्त अट्ठारह राजाओंने मिलकर एक महोत्सव भी मनाया था।" १ 'णिव्वाणे वीरजिणे छव्वाससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ॥१४६६॥"
-त्रि० प्र० ।