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चारित्र
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न समझ कर इसे आत्मघात बतलाते हैं । किन्तु धर्मपर आपत्ति आनेपर धर्म की रक्षाके लिये शरीरकी उपेक्षा कर देनेका नाम आत्मघात नहीं है, परन्तु क्रोधमें आकर विष आदिके द्वारा प्राणोंके घात करनेका नाम हो आत्मघात हैं । धर्मकी रक्षाके लिये अपने जीवनको बलिदान कर देनेवाले वीरोंकी अनेक गाथाएँ भारत के इतिहासमें निबद्ध हैं। लोग भौतिक जीवनको ही सब कुछ समझ कर उसीकी रक्षामें लगे रहते हैं, वे सचमुच - में जीना नहीं जानते । इसीलिये कहा गया है
'जिसे मरना नहीं आया उसे जीना नहीं आया ।'
जो मरना नहीं जानता वह जीना भी नहीं जानता । अपने धर्म कर्म और मान-मर्यादाको गँवाकर जीना भी कोई जीना है ? जीवन क्षणिक है, लाख प्रयत्न करनेपर भी वह एक दिन अवश्य नष्ट होगा । अतः उसकी रक्षाके लिये कर्तव्यसे विमुख होना उचित नहीं है । इसी बातको जैन शास्त्रोंमें एक दृष्टान्त के द्वारा समझाया है। उसमें लिखा है ।—
'देन लेनकी अनेक वस्तुओंका संचय करनेवाला व्यापारी अपने घरका नाश नहीं चाहता। अगर उसके घर आग लग जाती है तो उसके बुझानेकी चेष्टा करता है। किन्तु जब देखता है कि इसका बुझना कठिन है तो घरकी परवाह न कर संचित धनकी रक्षा करता है । इसी तरह व्रत और शील रूपी धनका संचय करनेवाला व्रती शरीरका नाश नहीं चाहता । और शरीरनाशके कारण उपस्थित होनेपर 'अपने धर्म में बाधा न आवें' इस रीतिसे उनको दूर करनेकी चेष्टा करता है । परन्तु जब यह निश्चित हो जाता है कि शरीरका नाश अवश्य होगा तो वह शरीरकी पवहन करके अपने धर्मकी रक्षा करनेका प्रयत्न करता है । ऐसी स्थितिमें समाधिमरणको आत्मघात कैसे कहा जा सकता है ?'
समाधिमरणका उद्देश है अन्तक्रियाको सुधारना । जब मृत्यु