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________________ -२१४ जैनधर्म करके आगेके दर्जे में पहुँच जाये । यदि कोई ऐसा करता तो आगे बढ़ जानेपर भी उसे उस दर्जेवाला नहीं कहा जा सकता । जैनधर्म में शक्तिके अनुमार किये गये कार्यका ही महत्त्व है। 'आगेको दौड़ और पीछेको छोड़' वाली कहावत यहाँ चरितार्थ नहीं होती। जो लोग उत्तरदायित्व से बचनेके लिये त्यागी बनना चाहते हैं, उनके लिये भी यहाँ स्थान नहीं है । किन्तु जो अपने गार्हस्थिक उत्तरदायित्वका यथोचित प्रबन्ध करके केवल आत्मकल्याणकी भावना से इस मार्गका अवलम्बन लेते हैं वे ही इस पथके योग्य समझे जाते हैं । साधक श्रावक 1 । श्रावकका तीसरा भेद साधक है । मरणकाल उपस्थित होनेपर, शरीरसे ममत्व हटाकर, भोजन वगैरहका त्याग करके, प्रेमपूर्वक, ध्यानके द्वारा जो आत्माका शोधन करता है उसे साधक कहते हैं । साधककी इस क्रियाको समाधिमरण व्रत या सल्लेखना व्रत कहते हैं। जब कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग ऐसी हालत में पहुँच जाये, जिसका प्रतीकार कर सकना शक्य न हो तो धर्मके लिये शरीर छोड़ देना सल्लेखना या समाधिमरण कहाता है । समाधिमरण करनेकी विधि बतलाते हुए लिखा है कि शरीर धर्मका साधन है इसलिये यदि वह धर्म - साधन में सहायक होता हो तो उसे नष्ट नहीं करना चाहिये और यदि वह विनष्ट होता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिये । तथा धर्मका साधन समझकर ही शरीरको स्वस्थ रखना चाहिये और यदि कोई रोग हो जाये तो उसका प्रतीकार भी करना चाहिये । किन्तु जब शरीर धर्मका बाधक वन जावे तो शरीरको छोड़कर धर्मकी ही रक्षा करनी चाहिये, क्योंकि शरीर नष्ट होनेपर पुनः मिल जायेगा किन्तु धर्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । कोई कोई भाई समाधिमरण व्रतके स्वरूप और महत्वको
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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