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जैनधर्म
सुनिश्चित हो तो राग-द्वेष और परिग्रहको छोड़कर, शुद्ध मनसे सबसे क्षमा माँगे और जिसने अपना अपराध किया हो उसे क्षमा कर दे। फिर बिना किसी छलके अपने किये हुए पापोंकी आलोचना करे और मरण पर्यन्तके लिये सम्पूर्ण महात्रतोंको धारण करे । उस समय समाधिमरणत्रत धारण करानेवाले आचार्य और उनका सब संघ उस साधकको साधनाको सफल बनाने में तत्पर रहते हैं। आचार्य साधकसे पूछकर यदि उसकी इच्छा कुछ खानेकी होती है तो खिलाकर आहारका त्याग करा देते हैं और केवल दूध वगैरह उसे देते हैं । फिर दूधका भी त्याग कराकर गर्म जल देते हैं । फिर गर्म जलका भी त्याग करा देते हैं । किन्तु यदि उसे कोई ऐसी बीमारी हो जिसके कारण बार-बार प्यास लगती ही तो गर्म जल देते रहते हैं, और जब मृत्युका समय निकट देखते हैं तो गर्म जलका भी त्याग करा देते हैं ।
उसके बाद आचार्य साधकके कानमें अच्छे-अच्छे उपदेश सुनाते हैं । और साधक पञ्च नमस्कार मन्त्रका जप करता हुआ शान्तिके साथ प्राणविसर्जन करता है ।
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समाधिमरणव्रतके भी पाँच दोष बतलाये हैं । समाधिमरण करते हुए साधकको जीनेकी इच्छा नहीं करनी चाहिये । न कष्टके भयसे मरनेकी ही इच्छा करनी चाहिये । इच्छा करनेसे
आयु बढ़ सकती है और न घट सकती है, अतः उसमें मनको लगाना बेकार है । इसी तरह मित्रोंका प्रेम और जीवनमें भोगे हुए सुखोंका भी स्मरण नहीं करना चाहिये। ये सभी चीजें मनुष्यके चित्तको कमजोर बनाती हैं और साधकको उसकी साधना से च्युत करती हैं। तथा यह भी नहीं सोचना चाहिये कि मैंने इस जन्म में जो धर्माराधन किया है उसके फलसे दूसरे जन्म में इन्द्र या चक्रवर्ती या और कुछ होऊँ; क्योंकि ऐसा करनेसे धर्माराधनका मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। धर्मके लिये जो कुछ छोड़ा, धर्म करके उसीको माँगना