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जैनधर्म
समयपर होती है और कभी कुसमयमें। बल्कि कभी कभी तो ऐसा होता है कि सारी फसल भर अच्छी वर्षा होकर अन्तमें एक आध वर्षाकी ऐसी कमी हो जाती हैं कि सारी करी कराई खेती मारी जाती है। यदि वस्तु स्वभावके सिवाय कोई दूसरा प्रबन्धकर्ता होता तो ऐसी अन्धाधुन्धी कभी भी न होती । इसपर शायद यह कहा जाये कि उसकी तो इच्छा ही यह थी कि इस खेत में अनाज पैदा न हो या कम पैदा हो | परन्तु यदि यही बात होती तो वह सारी फसल भर अच्छी वर्षा करके उस खेतीको इतनी बड़ी ही क्यों होने देता। बल्कि वह तो उस किसानको बीज ही न बोने देता। यदि किसानपर उसका काबू नहीं चल सकता था तो खेतमें पड़े बीजको ही वह न उगने देता यदि बीजपर भी उसका काबू न था तो बारिशकी एक बूँद भी उस खेतमें न पड़ने देता । तथा यदि संसारके उस प्रबन्धकर्ता की यही इच्छा होती कि इस वर्ष अनाज ही पैदा न हो या कमती पैदा हो तो वह उन खेतोंको ही न सुखाता जो बारिशके ही ऊपर निर्भर हैं बल्कि उन खेतोंको भी जरूर सुखाता जिनमें नहरसे पानी आता है । परन्तु देखनेमें यही आता है कि जिस वर्ष वर्षा नहीं होती उस वर्ष उन खेतोंमें तो कुछ भी पैदा नहीं होता जो वर्षापर निर्भर हैं, और नहरसे पानी आनेवाले खेतों में उसी वर्ष सब कुछ पैदा हो जाता है । इससे सिद्ध है कि संसारका कोई एक प्रबन्धकता नहीं है बल्कि वस्तुस्वभाव के कारण ही जब वर्षाके निमित्त कारण जुट जाते हैं तब पानी बरस जाता है और जब वे कारण नहीं जुटते तब पानी नहीं बरसता । वर्षाको इस बातका ज्ञान नहीं है कि उसके कारण कोई खेती हरी होगी या सूखेगी और संसारके जीवोंका लाभ होगा या हानि । इसीसे ऐसी गड़बड़ी हो जाती हैं कि जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ एक बूंद भी पानी नहीं पड़ता और जहाँ आवश्यकता नहीं होती वहाँ खूब वर्षा हो जाती है। किसी प्रबन्धकर्ताके न होनेके कारण ही मनुष्यने नहर निकालकर और