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________________ २१२ जैनधर्म कोमल वस्त्र वगैरहसे उस स्थानको साफ कर लेता है, जिससे उसके बैठने या लेटनेसे किसी जन्तुको कोई पोड़ा न पहुँच सके । ___ इस पहले भेदवाले उत्कृष्ट श्रावकके भी दो विभाग हैं । एक वह जो अनेक घरोंसे भिक्षा लेता है और दूसरा वह जो एक घरसे ही भिक्षा लेता है। जो अनेक घरोंसे भिक्षा लेता है वह भोजनके समय श्रावकके घर जाकर उसके आँगनमें खड़ा होकर 'धर्मलाभ हो' ऐसा कहकर भिक्षाकी प्रार्थना करता है, अथवा मौनपूर्वक केवल अपनेको दिखाकर चला आता है। यदि श्रावक कुछ देता है तो उसे अपने पात्र में ले लेता है। किन्तु वहाँ देर नहीं लगाता और वहाँसे निकलकर दूसरे श्रावकके घर जाकर ऐसा ही करता है। यदि कोई श्रावक अपने घरपर ही भोजन करनेकी प्रार्थना करता है तो अन्य घरोंसे जो भोजन मिला है पहले उसे खाकर पीछे आवश्यकताके अनुसार भोजन उस श्रावकसे ले लेता है। यदि कोई ऐसी प्रार्थना नहीं करता तो कई घरोंमें जाकर अपने उदर भरने लायक भोजन माँगता है और जहाँ प्रासुक पानी मिलता है वहाँ उसे देख भालकर खा लेता है। खाते समय स्वादपर ध्यान नहीं देता और न गृहस्थके घरसे कुछ मिलने या न मिलने अथवा मिलनेवाले द्रव्यकी सरसता और विरसतापर ही ध्यान देता है। भोजन करनेके पश्चात् अपना जूठा बर्तन स्वयं ही माँजता और धोता है। यदि वह मानमें आकर दूसरेसे ऐसा काम कराता है तो यह महान् असंयम समझा जाता है। भोजन करनेके पश्चात् अपने गुरुके पास जाकर दूसरे दिन तकके लिए वह आहार न करनेका नियम ले लेता है और गुरुके पाससे जानेके बादसे लेकर लौटने तक जो कुछ भी वह करता है वह सब सरलतापूर्वक गुरुसे निवेदन कर देता है। जो उत्कृष्ट श्रावक एक घरसे हो भिक्षा ग्रहण करता है वह किसी मुनिके पीछे-पीछे श्रावकके घर जाकर भोजन कर आता है। और यदि भोजन नहीं मिलता तो उपवास कर लेता है।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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