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भने सामान्य उपहन कुछ मानव सभ्यताके अध्ययन
जैन कला और पुरातत्त्व
२७७ इन चित्रोंकी परम्परा अजंता, एलौरा, बाघ, और सितनवासलके भित्तिचित्रोंकी है। समकालीन सभ्यताके अध्ययनके लिए इन चित्रोंसे बहुत कुछ ज्ञानवृद्धि होती है। खासकर पोशाक, सामान्य उपयोगमें आनेवाली चीजें आदिके सम्बन्धमें अनेक बातें ज्ञात होती हैं।'
मूर्तिकला जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, अतः प्रारम्भसे लेकर आजतक उसके मूर्तिविधानमें प्रायः एकही रीतिके दर्शन होते हैं। ई० स० के आरम्भमें कुशान राज्यकालकी जो जैन प्रतिमाएँ मिलती हैं उनमें और सैकड़ों वर्ष पीछेकी बनी जैन मूर्तियों में बाह्य दृष्टिसे थोड़ा बहुत ही अन्तर है । प्रतिमाके लाभणिक अंग लगभग दो हजार वर्षतक एक ही रूपमें कायम रहे हैं। पद्मासन या खड्गासन मूर्तियोंमें लम्बा काल बीत जानेपर भी विशेष भेद नहीं पाया जाता। जैन तीर्थक्करकी मूर्ति विरक्त, शान्त, और प्रसन्न होती है। उसमें मनुष्यहृदयकी विकृतियोंको स्थान नहीं होता। इससे जैन प्रतिमा उसकी मुखमुद्राके ऊपरसे तुरन्त ही पहचानी जा सकती है। खड़ी मूर्तियोंके मुखपर प्रसन्नता और दोनों हाथ निर्जीव जैसे सीधे लटकते हुए होते हैं । बैठी हुई प्रतिमा ध्यानमुदामें पद्मासनसे विराजमान होती है। दोनों हाथ गोदीमें सरलतासे स्थापित रहते हैं। २४ तीर्थकरोंके प्रतिमाविधानमें व्यक्तिभेद न होनेसे उनके आसनके ऊपर अंकित चिह्नोंसे जुदे जुदे तीर्थङ्करोंकी प्रतिमा पहचानी जाती है । दिगम्बर और श्वेताम्बर मूर्तियोंमें भेद और उसके कारणको चर्चा इसी पुस्तकके 'संघभेद' शीर्षकमें की गयी है।
मध्यकालीन जैन मूर्तियोंमें बौद्ध प्रथाके समान कपालपर ऊर्णा और मस्तकपर उष्णीष तथा वक्षस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न भी अंकित होने लगा। किन्तु जैन मूर्तियोंकी लाक्षणिक रचनामें कोई परिवर्तन नहीं हुआ।