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जैनधर्म
होता है तो कर्मपरमाणु भी अधिक तादाद में जीवकी ओर आते हैं । यदि योग जघन्य होता है तो कर्मपरमाणु भी कम तादाद में जीव की ओर आते हैं । इसी तरह यदि कपाय तीव्र होती है तो कर्मपरमाणु जीवके साथ बहुन दिनांतक बँधे रहते हैं और फल भीती देते हैं । यदि कपाय हल्की होती है तो कर्मपरमाणु जीव के साथ कम समय तक वे रहते हैं और फल भी कम देते हैं । यह एक साधारण नियम है किन्तु इसमें कुछ अपवाद भी हैं।
इस प्रकार योग और कषायसे जीवके साथ कर्मपुद्गलोंका बन्ध होता है । वह बन्ध चार प्रकारका है - प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध । बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओंमें अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना प्रकृतिबन्ध हैं । उनकी संख्याका नियत होना प्रदेशबन्ध है । उनमें कालकी मर्यादाका पड़ना, कि ये अमुक कालतक जीव के साथ बँधे रहेंगे, स्थितिबन्ध है और उनमें फल देनेकी शक्तिका पड़ना अनुभागबन्ध है । कर्मों में अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना तथा उनकी संख्याका कमती बढ़ती होना योगपर निर्भर हैं । तथा उनमें जीवके साथ कम या अधिक कालतक ठहरनेकी शक्तिका पड़ना और तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्तिका पड़ना कपायपर निर्भर है । इस तरह प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध तो योगसे होते हैं और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं ।
इनमेंसे प्रकृतिबन्धके आठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । ज्ञानावरण नामका कर्म जीवके ज्ञानगुणको घानता है । इसकी वजहसे कोई अल्पज्ञानी और कोई विशेषज्ञानी देखा जाता है । दर्शनावरण कर्म जीव के दर्शनगुणको घातता है । आवरण ढाँकनेबाली वस्तुको कहते हैं, अर्थात् ये दोनों कर्म जीवके ज्ञान और दर्शनको ढाँकते हैं, उन्हें प्रकट नहीं होने देते। वेदनीयकर्म - जो सुख और दुःखका वेदन-अनुभवन कराता है । मोहनीयकर्म -