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सिद्धान्त
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माणुओंसे है। वे कर्मपरमाणु जीवकी प्रत्येक क्रियाके साथ, जिसे जैनदर्शन में योगके नामसे कहा गया है, जीवकी ओर आकृष्ट होते हैं और आत्माके राग, द्वेष और मोह आदि भावोंका. जिन्हें जैनदर्शनमें कषाय कहते हैं, निमित्त पाकर जीवसे बँध जाते हैं। इस तरह कर्मपरमाणुओंको जीवतक लानेका काम जीवकी योगशक्ति करती है और उसके साथ बन्ध करानेका काम कषाय अर्थात् जीवके राग-द्वेषरूप भाव करते हैं । सारांश यह है कि जीवको योगशक्ति और कषाय ही बन्धका कारण हैं । कषायके नष्ट हो जानेपर योगके रहनेतक जीव में कर्मपरमाणुओंका आस्रव आगमन तो होता है किन्तु कषायके न होनेके कारण
ठहर नहीं सकते। उदाहरणके लिए, योगको वायुकी, कषायको गोंदकी, जीवको एक दोवारकी और कर्मपरमाणुओंको धूलकी उपमा दी जा सकती है । यदि दीवारपर गोंद लगी हो तो वायुके साथ उड़कर आनेवाली धूल दीवारसे चिपक जाती है, किन्तु यदि दीवार साफ, चिकनी और सूखी होती है तो धूल दीवारपर न चिपककर तुरन्त झड़ पड़ती है। यहाँ धूलका कम या ज्यादा परिमाणमें उड़कर आना वायुके वेगपर निर्भर है । यदि वायु तेज होती है तो धूल भी खूब उड़ती है और यदि
धीमी होती है तो धूल भी कम उड़ती है । तथा दीवारपर धूलका थोड़े या अधिक दिनोंतक चिपके रहना उसपर लगी गोंद आदि गीली वस्तुओंकी चिपकाहटको कमीबेशी पर निर्भर है। यदि दीवारपर पानी पड़ा हो तो उसपर लगी हुई धूल जल्दी झड़ जाती है । यदि किसी पेड़का दूध लगा हो तो कुछ देरमें झड़ती है और यदि कोई गोंद लगी हो तो बहुत दिनों में झड़ती है । सारांश यह कि चिपकानेवाली चीजका असर दूर होते ही चिपकनेवाली चीज स्वयं झड़ जाती है। यही बात योग और कषायके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिये। योगशक्ति जिस दर्जे की होती है आनेवाले कर्मपरमाणुओंकी संख्या भी इसीके अनुसार कमती या बढ़ती होती है। यदि योग उत्कृष्ट