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जैनधर्म
और मन विकारी होनेके बदले उल्टा इन दर्शनोंके कारण ही निर्विकारी होनेका अनुभव करता है। मैंने ऐसी भी मूर्तियाँ तथा चित्र देखे हैं कि जो वस्त्राभूषणसे आच्छादित होनेपर भी केवल विकारप्रेरक और उन्मादक जैसी प्रतीत हुई हैं । केवल एक औपचारिक लंगोट पहननेवाले नग्न साधु अपने समक्ष वैराग्यका वातावरण उपस्थित करते हैं। इसके विपरीत सिर से पैर पर्यन्त वस्त्राभूषणोंसे लदे हुए व्यक्ति आंखके एक इंगित मात्र अथवा अपने नखरे के थोड़से इशारेसे मनुष्यको अस्वस्थ कर देते हैं, नीचे गिरा देते हैं । अतः हमारी नग्नताविषयक दृष्टि और हमारा विकारोंकी ओर झुकाव दोनों बढ़लने चाहियें। हम विकारोंका पोषण करते जाते हैं और विवेक रखना चाहते हैं।"
काका साहबके इन उद्गारोंके बाद नग्नताके सम्बन्धमें कुछ कहना शेष नहीं रहता । अतः जैनमूर्तियोंकी नग्नताको लेकर जैनधर्मके सम्बन्धमें जो अनेक प्रकारके अपवाद फैलाये गये हैं वे सब साम्प्रदायिक प्रद्वेपजन्य गलतफहमीके ही परिणाम हैं। जैनधर्म वीतरागताका उपासक है । जहाँ विकार है, राग है, कामुकप्रवृत्ति है, वहीं नग्नताको छिपाने की प्रवृत्ति पाई जाती है । निर्विकारकके लिये उसकी आवश्यकता नहीं है। इसी भाव से जैनमूर्तियाँ नग्न होती हैं। उनके मुखपर सौम्यता और विरागता रहती है। उनके दर्शनसे विकार भागता है न कि उत्पन्न होता है। अतः जैनमन्दिरोंमें न जानेकी जनश्रुति भी एक मिथ्या प्रवाद हैं ।
जैनमन्दिर शान्ति और भव्यताके प्रतीक होते हैं । उनमें मनुष्यका मन पवित्र होता है। निर्विकार मूर्ति तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण प्राचीन शास्त्र और उपयोगी चित्रकारी यही वहाँकी प्रधान वस्तुएँ हैं, जिनके दर्शन और अध्ययनसे मनुष्य के मनको शान्ति मिलती है ।