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________________ विविष ३६७ मान बतलाया गया। इस प्रकार उपनिषदोंने ऊँचे आध्यात्मिक सिद्धान्तका प्रतिपादन तो किया किन्तु वैदिक क्रियाकाण्डका विरोध नहीं किया। सर राधाकृष्णनके अनुसार'-'जब समय आध्यात्मिक सिद्धान्तके प्रति एक निष्ठा चाहता था तब हम उपनिषदोंमें टालनेकी नीतिका व्यवहार होता हुआ पाते हैं। वे प्रारम्भ तो करते हैं आत्माको समस्त बाय प्रवृत्तियोंसे स्वतंत्र करनेसे, किन्तु उसका अन्त होता है उसी पुरानी लड़ीको जोड़नेमें। जीवन का नया आदर्श स्थापित करनेके बदले वे पुराने मार्गको ही फैलाते हुए दिखाई देते हैं । आध्यात्मिक राज्यका उपदेश देना उसको स्थापित करनेसे एक बिल्कुल जुदी ही वस्तु है। उपनिपदोंने प्राचीन वैदिक क्रियाकाण्डको ऊँचे अध्यात्मवादसे जोड़नेका प्रयत्न किया, किन्तु तत्कालीन पीढ़ीने इसमें कतई अभिरुचि नहीं दिखाई । फलतः उपनिषदोंका ऊँचा अध्यात्मवाद लोकप्रिय नहीं हो सका। इसने पूरे समाजको कभी प्रभावित नहीं किया। एक ओर यह दशा थी, दूसरी ओर याज्ञिक धर्म अब भी बलशाली था। फल यह हुआ कि निम्न ज्ञानके द्वारा उच्च ज्ञान दलदलमें फंसा दिया गया।' भारतके एक माने हुए दार्शनिकके उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि उपनिषदोंका तत्त्वज्ञान वैदिक आर्योंकी उपज नहीं थी बल्कि वह भारतके आदिवासी द्रविड़ों आदिसे लिया गया था, इतना ही नहीं, बल्कि परिस्थितिवश लेना पड़ा था। यही कारण है कि उसे अपना कर भी वैदिक आर्य उसका उपदेश तो देते रहे किन्तु वैदिक क्रियाकाण्ड स्थानमें उसकी स्थापना नहीं कर सके; क्योंकि वैदिक क्रियाकाण्डके उनकी अपनी चीज थी, उसका मोह वे कैसे छोड़ सकते थे ? फलतः सर राधाकृष्णनके शब्दों में झूठेके द्वारा सच्चा कुचल डाला गया और उपनिषद्कालके पीछे ब्राह्मण धर्मका यह विद्रोह अपने सब परस्पर विरोधी सिद्धान्तोंके साथ जल्दी ही शिखर पर जा पहुँचा।' १. इंडियन फिलासफी, भा० १ पृ० २६४-६५ ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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