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जैनधर्म
६८ मानते । इस तरह प्रायः सभी धर्मोंने पुरुषको अल्पज्ञ मानकर उसे अपने धर्मका प्रवर्तक स्वीकार नहीं किया। किन्तु पुरुषके मध्यमें हुए बिना न तो ईश्वरीय ज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है,
और न उसके अर्थका व्याख्यान हो सकता है; क्योंकि ईश्वर स्वयं शरीर रहित होनसं हमे अपना ज्ञान किसी न किसी पुरुषके द्वारा ही दे सकता है, तथा उसका व्याख्यान भी पुरुष ही कर सकता है। किन्तु यदि वह पुरुष अल्पज्ञ हुआ या रागद्वपी हुआ तो उसके व्याख्यानमें भ्रम भी हो सकता है। अतः उसे भी कमसे कम विशिष्ट ज्ञानी तो मानना ही पड़ता है। यह सब इसलिये किया गया है कि वे धर्म पुरुपकी सर्वज्ञता स्वीकार नहीं करते। उनकी दृष्टिसे पुरुषकी आत्माका इतना विकास नहीं हो सकता। किन्तु जैनधर्म इस तरहके किसी ईश्वरकी सत्तामें विश्वास नहीं करता। वह जीवात्माका सर्वज्ञ हो सकना स्वीकार करता है। अतः जैनधर्म किसी ईश्वर या किसी स्वयंसिद्ध पुस्तकके द्वारा नहीं कहा गया है। बल्कि मानवके द्वारा, उस मानवके द्वारा जो कभी हम ही जैसा अल्पज्ञ और रागद्वेषी था किन्तु जिसने अपने पौरुषसे प्रयत्न करके अपनी अल्पज्ञता और रागद्वेषके कारणोंसे अपने आत्माको मुक्त कर लिया और इस तरह वह सर्गज्ञ और वीतरागी होकर जिन बन गया, कहा गया है। अतः 'जिन' हुए उस मानवके अनुभवोंका सार ही जैनधर्म है। ____अब हम 'धर्म' शब्दके वारेमें विचार करेंगे। धर्मशब्दके दो अर्थ पाये जाते हैं-एक, वस्तुके स्वभावको धर्म कहते हैं जैसे अग्निका जलाना धर्म है, पानीका शीतलता धर्म है, वायुका बहना धर्म है, आत्माका चैतन्य धर्म है । और दूसरा, आचार या चारित्रको धर्म कहते हैं। इस दूसरे अर्थको कोई इस प्रकार भी कहते है जिससे अभ्युदय और निःश्रेयसमुक्तिकी प्राप्ति हो उसे धर्म कहते हैं। चूंकि आचार या चारित्रसे इनकी प्राप्ति होती है इसलिये चारित्र ही धर्म है।