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सामाजिक रूप
३११ इन बातोंको श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय नहीं मानता।
श्वेताम्बर चैत्यवासी इवेताम्बर चैत्यवासी सम्प्रदायका इतिहास इस प्रकार मिलता है
संघभेद होने के पश्चात् वीर नि० सं० ८५० के लगभग कुछ शिथिलाचारी मुनियोंने उग्र विहार छोड़कर मन्दिरोंमें रहना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गयी और आगे जाकर वे बहुत प्रबल हो गये । इन्होंने निगम नामके शास्त्र रचे, जिनमें यह बतलाया गया कि वर्तमान कालमें मुनियोंको चैत्योंमें रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादिके लिये आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करके रखना चाहिये । ये वनवासियोंकी निन्दा भी करते थे।
इन चैत्यवासियोंके नियमोंका दिग्दर्शन चैत्यवासके प्रबल विरोधी श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरिने अपने संबोध प्रकरण' के गुर्वधिकारमें विस्तारसे कराया है। वे लिखते हैं___ "ये चैत्य और मठोंमें रहते हैं, पूजा और आरती करते हैं; जिनमन्दिर और शालाएँ वनवाते हैं, देवद्रव्यका उपयोग अपने लिये करते हैं, श्रावकोंको शास्त्रकी सूक्ष्म बातें बतानेका निषेध करते हैं, मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, रंगीले सुगन्धित और धूपसे सुवासिन वस्त्र पहिनते हैं, स्त्रियोंके आगे गाते हैं, साध्वियोंके द्वारा लाये गये पदार्थोंका उपयोग करते हैं, धनका संचय करते हैं, केशलोच नहीं करते, मिष्ट आहार, पान, घी, दूध और फलफूल आदि सचित्त द्रव्योंका उपभोग करते हैं । तेल लगवाते हैं, अपने मृत गुरुओंके दाह-संस्कारके स्थानपर स्तूप बनाते हैं, जिन प्रतिमा बेचते हैं, आदि।"
वि० सं० ८०२ में अणहिलपुर पट्टणके राजा चावड़ासे उनके गुरु शीलगुण सूरिने, जो चैत्यवासी थे, यह आज्ञा जारी