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सिद्धान्त 'एक राजाके एक पुत्र है और एक पुत्री। राजाके पास एक सोनेका घड़ा है । पुत्री उस घटको चाहती है, किन्तु राजपुत्र उस घटको तोड़कर उसका मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्रकी हठ पूरी करनेके लिए घटको तुड़वाकर उसका मुकुट बनवा देता है। घटके नाशसे पुत्री दुखी होती है, मुकुटके उत्पादसे पुत्र प्रसन्न होता है और चूंकि राजा सुवर्णका इच्छुक है जो कि घट टूटकर मुकुट बन जानेपर भी कायम रहता है अतः उसे न शोक होता है और न हर्ष । अतः वस्तु त्रयात्मक (तीनरूप) है।' दूसरा उदाहरण
‘पयोव्रतो न दध्यति न पयोऽत्ति दधिव्रतः ।
अगोरसबतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् ॥६०॥ 'जिसने केवल दूध ही खानेका व्रत लिया है, वह दही नहीं खाता । जिसने केवल दही खानेका व्रत लिया है वह दूध नहीं खाता । और जिसने गोरसमात्र न खानेका व्रत लिया है वह न दूध खाता है और न दही; क्योंकि दूध और दही दोनों गोरस की दो पायें हैं अतः गोरमत्व दोनोंमें है। इससे सिद्ध है कि वस्तु त्रयात्मक-उत्पादन्ययधोव्यात्मक है।
मीमांसादर्शनके पारगामी महामति कुमारिल भी वस्तुको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप मानते हैं। उन्होंने भी उसके समर्थनके लिए स्वामी समन्तभद्रके उक्त दृष्टान्तको ही अपनाया है । वे उसका खुलासा करते हुए लिखते हैं
'वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥२१॥ हेमाधिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम् ॥२२॥ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥३२॥'
-मी० श्लो० वा० ।