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जैनधर्म
इसका यह मतलब है कि द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है, किन्तु उसकी पर्यायें उत्पन्न होती और नष्ट होतो हैं और वे पर्यायें चूँकि द्रव्यसे अभिन्न हैं अतः द्रव्य भी उत्पादव्ययशील है ।
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जैन दर्शनके इस सिद्धान्तका प्रतिपादन महर्षि पतञ्जलिने भी अपने महाभाष्यके पपशाह्निक में निम्नलिखित शब्दों में किया है
" द्रव्यं नित्यम्, आकृतिरनित्या | सुवर्णं कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते । पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः पुनरपरयाऽऽकृत्या युक्तः खदिरांगारसदृशे कुण्डले भवतः । आकृतिरन्या च अन्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्देन द्रव्यमेवावशिष्यते । "
अर्थात् - 'द्रव्य नित्य है और आकार यानी पर्याय अनित्य है। सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकारसे पिण्डरूप होता है । पिण्डरूपका विनाश करके उससे माला बनाई जाती है । मालाका विनाश करके उससे कड़े बनाये जाते हैं । कड़ोंको तोड़कर उससे स्वस्तिक बनाये जाते हैं । स्वस्तिकोंको गलाकर फिर सुवर्णपिण्ड हो जाता है । उसके अमुक आकारका विनाश करके खदिर अङ्गारके समान दो कुण्डल बना लिये जाते हैं । इस प्रकार आकार बदलता रहता है परन्तु द्रव्य वही रहता है । आकार के न होनेपर भी द्रव्य शेष रहता ही है ।'
इससे द्रव्यकी नित्यता और पर्यायकी अनित्यता प्रमाणित होती है। जैन दर्शन भी ऐसा ही मानता है और इसीसे वह वस्तु का लक्षण उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य करता हैं । उसके मत से तत्त्व त्रयात्मक है | आचार्य समन्तभद्रने दो दृष्टान्त देकर इसी बातको प्रमाणित किया है। आप्तमीमांसा में वे लिखते हैं
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'घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥५९॥