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जैनधर्म
एक दिन भगवान ऋषभदेव राजसिंहासनपर विराजमान थे । राजसभा लगी हुई थी और नीलांजना नामकी अप्सरा नृत्य कर रही थी । अचानक नृत्य करते करते नीलाञ्जनाका शरीरपात हो गया । इस आकस्मिक घटनासे भगवानका चित्त विरक्त हो उठा । तुरन्त सव पुत्रोंको राज्यभार सौंप कर उन्होंने प्रव्रज्या ले ली और छ माहकी समाधि लगाकर खड़े हो गये । उनकी देखादेखी और भी अनेक राजाओंने दीक्षा ली। किन्तु वे भूख प्यासके कष्टको न सह सके और भ्रष्ट हो गये । छ माह के बाद जब भगवानकी समाधि भंग हुई तो आहारके लिये उन्होंने बिहार किया । उनके प्रशान्त नग्न रूपको देखनेके लिये प्रजा उमड़ पड़ी। कोई उन्हें वस्त्र भेंट करता था, कोई भूषण भेंट करता था, कोई हाथी घोड़े लेकर उनकी सेवामें उपस्थित होता था । किन्तु उनको भिक्षा देनेकी विधि कोई नहीं जानता था । इस तरह घूमते-घूमते ६ माह और बीत गये ।
इसी तरह घूमते-घूमते एक दिन ऋषभदेव हस्तिनापुर में जा पहुँचे । वहाँका राजा श्रेयांस बड़ा दानी था । उसने भगबानका बड़ा आदर सत्कार किया । आदरपूर्वक भगवानको प्रतिग्रह करके उच्चासनपर बैठाया, उनके चरण धोये, पूजन की और फिर नमस्कार करके बोला- भगवन् ? यह इक्षुरस प्रासुक है, निर्दोष है इसे आप स्वीकार करें। तब भगवानने खड़े होकर अपनी अञ्जलिमें रस लेकर पिया । उस समय लोगों को जो आनन्द हुआ वह वर्णनातीत है । भगवानका यह आहार वैशाख शुक्ला तीजके दिन हुआ था । इसीसे यह तिथि 'अक्षय तृतीया' कहलाती है । आहार करके भगवान फिर वनको चले गये और आत्म ध्यानमें लीन हो गये । एक बार भगवान 'पुरिमताल' नगरके उद्यानमें ध्यानस्थ थे । उस समय उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई । इस तरह 'जिन' पद प्राप्त करके भगवान बड़े भारी समुदायके साथ धर्मोपदेश देते हुए विचरण करने लगे । उनकी व्याख्यान सभा 'समवसरण' कहलाती थी ।