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इतिहास
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अनुयायी थे । किन्तु लगभग ई० १००० में जैनोंके विरुद्ध वातावरण ने जोर पकड़ा। उस समय चोलोंने मैसूरको जीतनेका प्रयत्न किया । फलस्वरूप गंगवाड़ी और नोलम्बवाड़ीका एक बड़ा प्रदेश चोलोंके अधिकारमें चला गया, और इस तरह मैसूर देशमें चोलोंके शैवधर्म और चालुक्योंके जैनधर्मका आमना सामना हो गया । जब विष्णुवर्धनने मैसूरकी राजनीति में भाग लिया उस समय मैसूरकी धार्मिक स्थिति अनिश्चित थी । यद्यपि जैनधर्म प्रवल स्थितिमें था फिर भी शेवधर्म और वैष्णव धर्म के भी अनुयायी थे । ई० १११६ के लगभग विट्टिदेवको रामानुजाचार्यने वैष्णव बना लिया और उसने अपना नाम विष्णुवर्धन रखा ।' विष्णुवर्धनकी पहली पत्नी शान्तलदेवी जैन थी । श्रवणवेलगोला तथा अन्य स्थानोंसे प्राप्त शिलालेखों में उसके धर्मकायोंकी बड़ी प्रशंसा की गई है। शांतल देवीका पिता कट्टर शैव और माता जैन थी । शान्तल देवीके मर जाने पर जब उसके माता पिता भी मर गये तो उनका जामाता अपने धर्मसे च्युत हो गया । किन्तु फिर भी जैनधर्मसे उसकी सहानुभूति बनी रही । उसने अपनी विजयके उपलक्ष में हलेवीडके जिनालय में स्थापित जैनमूर्तिका नाम 'विजय पार्श्वनाथ' रक्खा। उसके मंत्री गंगराज तो जैनधर्मके एक भारी स्तम्भ थे । उनकी धार्मिकता और दानवीरताका विवरण अनेक शिलालेखोंमें मिलता है। इनकी पत्नीका नाम भी जैनधर्मके प्रचारके सम्बन्धमें अति प्रसिद्ध है । उसने कई जिनमन्दिरोंका निर्माण कराया था जिनके लिये गंगराजने उदारतापूर्वक भूमिदान दिया था । विट्टिदेव के पश्चात् नरसिंह प्रथम राजा हुआ। इसके मंत्री हुल्लप्पने जैनधर्मकी बड़ी उन्नति की ।
उसने जैनोंके खोये हुए प्रभावको फिरसे स्थापित करनेका प्रयत्न किया । किन्तु होयसल राजाओंके द्वारा संरक्षित वैष्णव
१. 'स्टडीज़ इन साउथ इन्डियन जैनिज्म' ।