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चारित्र
२२५ में फैलनेवाली बहुतसी बुराइयोंसे समाजका छुटकारा हो सकता है
जैनधर्मके नियम यद्यपि कड़े दिखायी देते हैं किन्तु उनके पालनेमें मनुष्यकी शक्ति और परिस्थितिका ध्यान रखा जाता है इसलिए उनकी कठोरता खलती नहीं । उसका तो एक ही ध्येय है कि मनुष्य स्वयं अपनी अनियंत्रित स्वेच्छाचारिता पर 'ब्रेक' लगाना सीखे और बुराईको करते हुए भी कमसे कम इतना तो न भूले कि मैं बुरा करता हूँ। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई कर सकता है।
इसी तरह वृद्धावस्था में अपने मांसारिक उत्तरदायित्वोंसे अवकाश लेकर और उनका भार अपने उत्तराधिकारीको मौंपकर यदि मनुष्य आत्मसाधनाका मार्ग स्वीकार कर लिया करें तो उससे एक ओर तो कार्यक्षेत्रमें आनेके लिए उत्सुक नये व्यनियोंको स्थान मिलने में सहूलियत होगी, दूसरी ओर कौटुम्बिक कटुता घटेगी। साथ ही साथ आध्यात्मिक विकासका मार्ग भी चालू रहेगा और उससे संसारको बहुत लाभ पहुँचेगा।
७. मुनिका चारित्र मुनि या साधुके २८ मूलगण होते हैं। १-५ पाँच महाव्रतअहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महावन, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महावत । श्रावक जिन पाँच व्रतोंका एक देशसे पालन करता है साधु उन्हें ही पूरी तरहसे पालते हैं। अर्थात् वे छहों कायके जीवोंका घात नहीं करते और राग,द्वेष, काम, क्रोध आदि भावांको उत्पन्न नहीं होने देते । अपने प्राणोंपर संकट आनेपर भी कभी झूठ नहीं बोलते । बिना दी हुई कोई भी वस्तु नहीं लेते। पूर्ण शीलका पालन करते हैं और अन्तरंग तथा बहिरंग, सभी प्रकारके परिग्रहके त्यागी होते हैं। केवल शौच आदिके लिए पानी आवश्यक होनेसे एक कमंडलु