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जैनधर्म तो वह मूल कण है जो दूसरोंके मेलके विना स्वयं कायम रहता है। पुद्गल द्रव्यकी अनेक पर्यायें होती हैं । यथा
'सदो बंधो सुहुमो थूलो संठाणभेदतमछाया ।
उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥१६॥'-द्रव्यसं० 'शब्द, वन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अन्धकार, छाया, चाँदनी और धूप ये सब पुद्गल द्रव्यकी पर्यायें हैं।' ___ अन्य दार्शनिकोंने शब्दको आकाशका गुण माना है, किन्तु जैन दार्शनिक उसे पुद्गल द्रव्यकी पर्याय मानते हैं। वे लिखते हैं
'सद्दो खंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो ।
पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादगो णियदो ॥७१॥'-पञ्चास्ति. 'शब्द स्कन्धसे उत्पन्न होता है। अनेक परमाणुओंके बन्धविशेषको स्कन्ध कहते हैं। उन स्कन्धोंके परस्परमें टकरानेसे शब्दोंकी उत्पत्ति होती है।' __ जैनोंका कहना है कि यदि शब्द आकाशका गुण होता तो मूर्तिक कर्णेन्द्रियके द्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता था, क्योंकि अमूर्तिक आकाशका गुण भी अमूर्तिक ही होगा। और अमूर्तिकको मूर्तिक इन्द्रिय नहीं जान सकती। तथा शब्द टकराता भी है, कुएँ वगैरहमें आवाज करनेसे प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है । शब्द रोका भी जाता है, ग्रामोफोनके रिकार्ड, टेलीफोन
आदि इसके उदाहरण हैं। शब्द गतिमान भी है। आधुनिक विज्ञान भी शब्दमें गति मानता है। तथा स्कूल में लड़कोंको प्रयोग द्वारा बतलाया जाता है कि शब्द ऐसे आकाशमें गमन नहीं कर सकता जहाँ किमी भी प्रकारका 'मैटर' न हो। अतः विज्ञानसे भी शब्द आकाशका गुण सिद्ध नहीं होता। अतः शब्द मूर्तिक है।
बन्धका मतलब केवल दो वस्तुओंका परस्परमें मिल जाना