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इतिहास
६६ मात्र नहीं है। किन्तु बन्ध उस सम्बन्ध विशेषको कहते हैं, जिसमें दो चीजें अपनी असली हालतको छोड़कर एक तीसरी हालतमें हो जाती हैं। उदाहरणके लिये आक्सीजन और हाइड्रोजन नामक दो हवाएँ हैं। ये दोनों जब परस्परमें मिलती है तो पानीरूप हो जाती हैं। इसी तरह कपूर पीपरमेण्ट और सत अजवायन परस्परमें मिलकर एक द्रव औषधीका रूप धारण कर लेते हैं । यह बन्ध है । यदि ऐसा न माना जाये तो जिस तरह वस्त्रमें रंग-विरंगे धागोंका संयोग होनेपर भी सब धागे अलग-अलग ही रहते हैं, एकका दूसरेपर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी तरह यदि परमाणुओंका भी केवल संयोगमात्र ही माना जाये और बन्धविशेष न माना जाये तो उनके संयोगसे स्थिर स्थूल वस्तुकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि बन्धमें जो रसायनिक सम्मिश्रण होता है, केवल संयोगमें वह संभव नहीं है । और रसायनिक सम्मिश्रणके बिना स्कन्ध उत्पन्न नहीं हो सकता । इसीलिये जैन दर्शनमें बन्धके स्वरूपका विश्लेपण बड़ी बारीकीसे किया गया है । उसमें बतलाया है कि स्निग्ध
और रूक्षगुणके निमित्तसे ही परमाणुओंका बन्ध होता है। परमाणुमें अन्य भी अनेक गुण हैं, किन्तु बन्ध करानेमें कारण केवल दो ही गुण हैं-स्निग्धता-चिक्कणता और रूक्षता-रूखापना । स्निग्ध गुणवाले परमाणुआंका भी बन्ध होता है, रूक्षगुणवाले परमाणुओंका भी बन्ध होता है और स्निग्ध रूक्षगुणवाले परमाणुओंका भी बन्ध होता है। किन्तु जघन्य गुणवालोंका वन्ध नहीं होता और न समान गुणवालोंका ही वन्ध होता है, क्योंकि इस प्रकारके गुणवाले परमाणु यद्यपि परस्परमें मिल सकते हैं किन्तु स्कन्धको उत्पन्न नहीं कर सकते । अतः दो अधिक गुणवालोंका ही परस्परमें बन्ध हो सकता है; क्योंकि अधिक गुणवाला परमाणु अपनेसे दो कम गुणवाले परमाणुसे मिलकर एक तीसरी अवस्था धारण करता है, इसीका नाम बन्ध है । यदि दोसे अधिक या कम गुणवालोंका भी बन्ध मान लिया