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जैन सूक्तियां
३८३ और निन्दामें, मिट्टी और सोनेमें तथा जीने और मरने में सम है, वही श्रमण-जैनसाधु है।
६ भावरहिमओ न सिज्मइ जइवि तवं चरइ कोडिकोडीयो।
जम्मतराई बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो॥ -कुन्दकुन्द ।
अर्थ-भाव रहितको सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती, भले ही वह बिल्कुल नग्न हुआ, हाथोंको लम्ब करके, करोड़ों जन्मोंतक नाना प्रकारके तप करता रहे। ७ जेसि विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं ॥
जदि तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥ -कुन्दकुन्द ।
अर्थ-जिनकी इन्द्रियविषयों में आसक्ति है उनको स्वाभाविक दुःख समझना चाहिये, क्योंकि यदि उन्हें स्वाभाविक दुःख नहीं होता तो वे विषयोंकी प्राप्तिके लिए यत्न ही क्यों करते ?
८ वउ तउ संजमु सोलु जिय ए सब्बई अकयत्थु । जाव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥-योगीन्दु ।
अर्थ-व्रत, तप, संयम और शीलका पालन तबतक निरर्थक है जबतक इस जीवको अपने पवित्र शुद्ध स्वभावका बोध नहीं होता। ६ राए रंगिए हियवडए, देउ ण दीसह संतु ।
दप्पणि मइलइ बिबु जिम, एहउ जाणि णिभंतु ॥ -योगोन्दु । अर्थ जैसे मैले दर्पणमें मुख दिखलायी नहीं देता, उसी प्रकार रागभावसे रँगे हुए हृदयमें बीतराग शान्त देवका दर्शन नहीं होता, यह सुनिश्चित जानो।
१० जो ण विजादि वियारं तरुणियणकडक्खवाणविदो वि। ___ सो चेव सूरसूरो रणसूरो णो हवइ सूरो ।। -स्वामी कार्तिकेय ।
अर्थ-तरुणी स्त्रियोंके कटाक्ष बाणोंसे वेधा जानेपर भी जो विकार भावको प्राप्त नहीं होता, वही शूरवीर है। जो रणमें शूर है वह शूर नहीं है।