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जैनधर्म स्वरूप एकका दूसरेपर असर भी पड़ा है। मुसलमानोंका सबसे अधिक असर तो जैनोंकी स्थापत्यकला और चित्रकलापर पड़ा है। साथ-साथ जैनोंकी स्थापत्यकलाका असर मुसलमानोंकी स्थापत्यकलाके ऊपर भी पड़ा है। किन्तु इससे हमारा प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन तो धार्मिक क्षेत्रमें मुसलमानधर्मने जैनधर्मके ऊपर जो प्रभाव डाला है उससे है। मुसलमान धर्मका जैनधर्मके ऊपर महत्त्वका असर तो उसके अन्दर उत्पन्न होनेवाले मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदायोंका जन्म लेना है । मुसलमानोंके मूर्तिपूजा विरोध और मूर्ति खण्डनने ही लोंकाशाह वगैरहके चित्तमें इस भावनाको जन्म दिया, जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय और तारणपन्थकी स्थापना हुई।
मुसलमान धर्मपर जैनधर्मका असर बतलाते हुए प्रो० ग्लेजनपने 'जैनिज्म' नामक ग्रन्थमें A. furher. V. kremer के एक निबन्धका हवाला देते हुए लिखा है कि अरब कवि और दार्शनिक अबुलअलाने (९७३-१०५८) अपने नैतिक-सिद्धान्त जैनधर्म के प्रभावमें स्थापित किये थे। इसका वर्णन करते हुए क्रेमरने लिखा है-'अबुलअला केवल अन्नाहार करता था
और दूध तक नहीं पीता था। कारण, वह मानता था कि माताके स्तनमेंसे बच्चेके हिस्सेका दूध भी दुह लिया जाता है इसलिये इसे वह पाप मानता था । जहाँ तक बनता था वह आहार भी नहीं करता था। उसने मधुका भी त्याग कर दिया था। अंडा भी नहीं खाता था। आहार और वस्त्रकी दृष्टिसे वह संन्यासियोंकी तरह रहता था। पैरमें लकड़ीकी पावड़ी पहरता था । कारण, पशुको मारना और उसका चमड़ा काममें लाना पाप है। एक स्थानपर वह नग्न रहनेकी भी प्रशंसा करता है
और कहता है-'ऋतु ही तुम्हारे लिये सम्पूर्ण वस्त्र हैं।' उसका कहना है कि भिखारीको पैसा देनेके बदले मक्खीको जीवनदान देना श्रेष्ठ है।
नग्नता, जीवरक्षा, अन्नाहार और मधुका त्याग आदि