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जैनधर्म
होता है कि वस्तुओंकी ही तरह उनके गुण और स्वभाव भी अनादि-अनन्त हैं ।
इसी प्रकार संसारकी वस्तुओंकी जाँच करनेपर यह भी मालूम होता है कि दो या तीन वस्तुओंको मिलानेसे जो वस्तुएँ आज बन सकती हैं वे पहले भी वन सकती थीं। जैसे नीला और पीला रंग मिलानेसे आज हरा रंग बन जाता है, यह रंग पहले भी बन सकता था और आगे भी बनता रहेगा। ऐसे ही किसी एक वस्तुकं प्रभावसे जो परिवर्तन दूसरी वस्तुमें हो जाता है वह पहले भी होता था या हो सकता था और आगे भी होता रहेगा । जैसे; आगकी गर्मी से जो भाप आज बनती है वही पहले भी बनती थी और आगेकी भी बनती रहेगी। जलानेसे जैसे आज लकड़ी, आग, कोयला राखरूप हो जाती हैं वैसे ही वे पहले भी होती थीं और आगे भी होंगी । सारांश यह है कि अन्य वस्तुसे प्रभावित होने तथा अन्य वस्तुओंकों प्रभावित करनेके गुण और स्वभाव भी वस्तुओंमें अनादि हैं।
इस प्रकार विचार करनेपर जब यह बात सिद्ध हो जाती हैं। कि वृक्षसे बीज और बीजसे वृक्षकी उत्पत्ति के समान या मुर्गीसे अण्डा और अण्डेसे मुर्गीकी उत्पत्तिके समान संसारके सभी मनुष्य, पशु पक्षी और वनस्पतियाँ सन्तान दर सन्तान अनादि कालसे चले आते हैं। किसी समय में इनका आदि नहीं हो सकता और इन सबके अनादि होनेसे इस पृथ्वीका भी अनादि होना जरूरी हैं। साथ ही वस्तुओंके गुण स्वभाव और एक दूसरेपर असर डालने तथा एक दूसरेके असरको ग्रहण करनेकी प्रकृति भी अनादि कालसे ही चली आती है, तब जगतके प्रबन्धका सारा ढाँचा ही मनुष्यकी आँखोंके सामने हो जाता
। उसे स्पष्ट प्रतीत होते लगता है कि संसारमें जो कुछ हो रहा है वह सब वस्तुओंके गुण और स्वभावके ही कारण हो रहा है। इसके सिवा न तो कोई ईश्वरीय शक्ति ही इसमें कोई कार्य कर रही है और न उसकी कोई जरूरत ही है। जैसे, जब समुद्रके