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________________ १० सिद्धान्त r भाव होते रहते हैं । यह चक्र 'अभव्यजीवकी अपेक्षासे अनादि अनन्त है और भव्यजीवकी अपेक्षासे अनादि सान्त है। इससे स्पष्ट है कि संसारी जीव अनादिकालसे मूर्तिक कर्मोंसे बँधा हुआ है और इसलिये एक तरहसे वह भी मूर्तिक हो रहा है; जैसा कि कहा है 'वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो ॥ ७ ॥ द्रव्यसं० । अर्थात् — वास्तव में जीवमें पाँचों रूप, पाँचों रस, दोनों गन्ध और आठों स्पर्श नहीं रहते इसलिये वह अमूर्तिक है, क्योंकि जैनदर्शनमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शगुणवाली वस्तुको ही मूर्तिक कहा है । किन्तु कर्मबन्धके कारण व्यवहारमें जीव मूर्तिक है | अतः कथचित् मूर्तिक आत्माके साथ मूर्तिक कर्मद्रव्यका सम्बन्ध होता है । सारांश यह है कि कर्म के दो भेद हैं- द्रव्यकर्म और भावकर्म । जीवसे सम्बद्ध कर्मपुद्गलोंको द्रव्यकर्म कहते हैं. और द्रव्यकर्मके प्रभावसे होनेवाले जीवके राग-द्वेषरूप भावको भावकर्म कहते हैं । द्रव्यकर्म भावकर्मका कारण है और भावकर्म द्रव्यकर्मका कारण है । न बिना द्रव्यकर्मके भावकर्म होते हैं और न बिना भावकर्मके द्रव्यकर्म होते हैं। कर्म अपना फल कैसे देते हैं ? ईश्वरको जगत्का नियन्ता माननेवाले वैदिकदर्शन जीवको कर्म करनेमें स्वतंत्र किन्तु उसका फल भोगनेमें परतंत्र मानते हैं। उनके मतसे कर्मका फल ईश्वर देता है और वह प्राणियोंके अच्छे या बुरे कर्म के अनुरूप ही अच्छा या बुरा फल देता है किन्तु जैनदर्शनका कहना है कि कर्म अपना फल स्वयं देते हैं, उसके लिये किसी न्यायाधीशकी आवश्यकता नहीं है । जैसे, १. जो जीव इस चक्रका अन्त नहीं कर सकते उन्हें अभव्य कहते है और जो उसका अन्त कर सकते हैं उन्हें भव्य कहते हैं ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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