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जैन साहित्य
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महाराष्ट्र और सुदूर दक्षिण प्रान्तके जैनी भी उनसे लाभ उठाते हैं । इस तरह जैनधर्मका साहित्य हिन्दी भाषाके प्रचार में भी सहायक रहा है । प्रायः सभी पुराण ग्रन्थों और अनेक कथाग्रन्थोंका अनुवाद हिन्दी भाषामें हो चुका है । अनुवादका यह कार्य सर्वप्रथम जयपुर के विद्वानोंके द्वारा दुढारी भाषामें प्रारम्भ किया गया था । आज भी उनके अनुवाद उसी रूपमें पाये जाते हैं।
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यह तो हुई अनुवादित साहित्यकी चर्चा | स्वतंत्ररूपसे भी हिन्दी गद्य और हिन्दी पद्य दोनों में जैनसिद्धान्तको निबद्ध किया गया है । गद्य साहित्य में पं० टोडरमलजीका मोक्षमार्ग - प्रकाशक ग्रन्थ और पद्य साहित्य में पं० दौलतरामजीका छहढाला जैनसिद्धान्तके अमूल्य रत्न है। पं० टोडरमलजी, पं० दौलतराम, पं० सदासुख, पं० बुधजन, पं० द्यानतराय, भैया भगवतीदास, पं० जयचन्द आदि अनेक विद्वानोंने अपने समयकी हिन्दी भाषामें गद्य अथवा पद्य अथवा दोनोंमें अपनी रचनाएँ की हैं। वीनती, पूजापाठ, धार्मिक भजन, आदि भी पर्याप्त हैं । पद्य साहित्य में भी अनेक पुराण और चरित रचे गये हैं ।
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हिन्दी जैन साहित्यकी एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें शान्तरसकी सरिता ही सर्वत्र प्रवाहित दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत और प्राकृतके जैन ग्रन्थकारांके समान हिन्दी जैन ग्रन्थकारोंका भी एक ही लक्ष्य रहा है कि मनुष्य किसी तरह सांसारिक विषयोंके फन्देसे निकलकर अपनेको पहचाने और अपने उत्थानका प्रयत्न करे । इसी लक्ष्यको सामने रखकर सबने अपनी-अपनी रचनाएँ की हैं। हिन्दी जैन साहित्य में ही नहीं, अपि तु हिन्दी साहित्य में कविवर बनारसीदासजीकी आत्मकथा तो एक अपूर्व ही वस्तु है । उनका नाटक समयसार भी अध्यात्मका एक अपूर्व ग्रन्थ है ।
श्वेताम्बर - साहित्य
पाटलीपुत्रमें जो अंग संकलित किये गये थे, कालक्रमसे वे