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जैन कला और पुरातत्त्व
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जो द्रबेड़ियन शैलीके हैं। कनाड़ा जिलेमें अथवा तुलु प्रदेशमें जैन मन्दिरोंकी बहुतायत है किन्तु उनकी शैली न दक्षिण भारतकी द्रवेड़ियन शैलीसे ही मिलती है और न उत्तर भारतकी शैली । मूढविद्रीके मन्दिरोंमें लकड़ीका उपयोग अधिक पाया जाता है और उसकी नक्काशी दर्शनीय है । सारांश यह कि भारतवर्षका शायद ही कोई कोना ऐसा हो जहाँ जैन पुरातत्त्व के अवशेष न पाये जाते हों । जहाँ आज जैनोंका निवास नहीं है वहाँ भी जैन कलाके सुन्दर नमूने पाये जाते हैं ।
इसीसे प्रसिद्ध चित्रकार श्रीयुत रविशंकर रावलका कहना है - 'भारतीय कलाका अभ्यासी जैनधर्मकी जरा भ उपेक्षा नहीं कर सकता। मुझे जैनधर्म कलाका महान् आश्रयदाता, उद्धारक और संरक्षक प्रतीत होता है ।'
स्व० के०पी० जायसवालने जैनधर्मसे सम्बद्ध वास्तुकलाके विषयमें एक भ्रामक बात कही है'। जैन और बौद्ध मन्दिरोंपर अप्सराओं आदिकी मूर्तिको लेकर उन्होंने लिखा है- 'अब प्रश्न यह है कि बौद्धों और जैनोंको ये अप्सराएँ कहाँ से मिलों X XX मेरा उत्तर यह है कि उन्होंने ये सब चीजें सनातनी हिन्दू (वैदिक) इमारतोंसे ली हैं ।
भारतीय कलाको इस तरह फिकोंमें बांटने के सम्बन्धमें व्युहलरका मत उल्लेखनीय है जो उन्होंने मथुरा से प्राप्त पुरातत्त्व से शिक्षा ग्रहण करके निर्धारित किया था। उनका कहना है - 'मधुरासे प्राप्त खोजोंने मुझे यह पाठ पढ़ाया है कि भारतीय कला साम्प्रदायिक नहीं है। बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्मोने अपने-अपने समयको और देशकी कलाओंका उपयोग किया है । उन्होंने कलाके क्षेत्रमें प्रतीकों और रूढ़िगत रीतियों को एक ही स्रोतसे लिया है। चाहे स्तूप हों, या पवित्र वृक्ष या चक्र या और कुछ हों, ये सभी धार्मिक या कलात्मक तत्त्वोंके रूपमें जैन,
१. अन्धकार युगीन भारत, पृ० ९५–६६ ।