Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकधम्यूकाव्य मणिलाभादिव फलितं ममोरयः, कामधेसुसमागमायिव चाभवस्कृतार्थागमा समतोऽपि प्रजापालमाश्रमः परिश्रमः ।
ततस्तच्ययनतले बक्षिणतः ससंबाधमुपविश्य तस्यास्ततस्तेन तेना|क्तिमुभगेन मुग्धविवग्पभाषितेन मनागरिसमाप्तम्यापारेण निधमपुरावलोकितेन ईवन्निषेधार्पणरसिफेन समालिङ्गितेनान्यश्च स्तरनमा नटरहस्योपदेशप्रगल्भवृत्तिभिषिलासेस्सत्र तत्रावस्यान्तरं सुखस्रोतसि विशम्भमाणमनःकलहंसः, वसन्त इय बक्षिणाशाप्रवृत्तमावतः विसर्य मनसिजरसोल्लासादिव तरलतारोक्येम लोचनपेन कामसमीरसमागमादिव सपारिफ्लवेनापरपरलयेन पृङ्गापामृतपानाविव संजातोरसेकेम कपोलपुलकेन मरनानलसंधुक्षणादियोष्मलेन स्तनयुगलेनानन्यापर्जन्यामिवर्षाविध घ साम्बसन तेमाल न संपानष्ट हो गया जिसप्रकार सिद्धपुरुषों की औषधिके सम्बन्ध से ज्वर नष्ट होता है एवं मेरे मनोरथ उसप्रकार सफल हुए जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति से मनोरथ सफल होते हैं और मेरा प्रजारालन में समर्थ हुआ समम्म खेत जसप्रकार मारला कामनार कामधेनु को प्राप्ति से समस्त खेद सफल होता है ।
प्रसङ्गानुवाद-इसके बाद मैं उस महादेवी के पलंग पर नींद-सी लेता हुआ। इसके पूर्व में अमृतमति महादेबी के दक्षिण पार्श्वभाग से शरीर के संघटन सहित बैठा। बाद में उसके कामीजनों में प्रसिद्ध, आधी उक्ति से मनोहर, कोमल और चतुर बचन द्वारा और कुछ आधे बिलोकनवाली स्नेह-पूर्ण अमृतधारा-सी चितवन द्वारा तथा कुछ निषेध व अङ्गापंण से रसिकता को प्राप्त हुए आलिङ्गन द्वारा एवं दूसरे चतुर कामीजनों में प्रसिद्ध ऐसे विलासों द्वारा, जिनमें कामदेवरूपी नट की कामदेव सम्बन्धी गोप्यत्तत्व की शिक्षा सम्बन्धी उपदेया को प्रौढतर प्रवृत्ति पाई जाती है, उस उस सुख के प्रवाह में जिसका हृदयरूपी राजहँस विस्तृत हो रहा है, ऐसा हुआ। उस दूसरी सुख की दशा को प्राप्त हुआ मैं उसप्रकार दक्षिणाशाप्रबृत्तमारुतशाली हुआ। अर्थात्जिसकी श्वासोच्छ्वास वायु पिङ्गला नाड़ी में संचार कर रही है, ऐसा हुआ जिमप्रकार वसन्त ऋतु, दक्षिणाशाप्रवृत्तमारुतवाली होती है। अर्थात् जिसमें वायु का संचार दक्षिण दिशा में होता है। इसके बाद मैंने ऐसे स्मरमन्दिररूपी महल का चितवन किया, जिसमें निम्न प्रकार की घटनाओं-मुख साधनों द्वारा मानसिक हर्ष उत्पन्न किया गया है।
जैसे चञ्चल व उज्वल उदयवाले दोनों नेत्रों से, जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-कामदेव सम्बन्धी रस { रागरूप जल ) के उल्लसन से ही चञ्चल व उज्ज्वल हुए हैं, अर्थात्-जिसप्रकार जल के उल्लास से वस्तु चञ्चल व उज्ज्वल होती है और चन्चल ओष्ठपल्लव से, मानों--कामदेवरूपी वायु के समागम से ही 'पञ्चल हुए हैं। अर्थात्-जिसप्रकार वायु से वस्तु चञ्चल होती है। एवं गालों के स्थल पर उत्पन्न हुए प्रचुर रोमाञ्चों से, मानों--पृङ्गाररूपी अमनपान से ही जिनमें भली प्रकार प्रचुरता उत्पन्न हुई है, अर्थात्जिसप्रकार अमृतपान से गालों पर रोमाञ्च प्रकट होते हैं। मानों-कामरूपी अग्नि के संयुक्षण से ही कम होनेवाले कुचकलशों ( स्तनों) से, अर्थात्-जिसप्रकार अग्नि के संधुक्षण से ऊष्मा प्रकट होती है। एवं कामदेवरूपी मेघ की चारों ओर वृष्टि होने से ही मानों-स्वेद जल से व्याप्त हुए शरीर से 1
१. तथा धौनं स्वरोदयशास्त्रे-'दाक्षिणात्योऽनिलः श्रेयान् कामसंग्रामयाणाम् ।
क्रियास्वन्यास्वन्यः स्पासामनाडीप्रभजन: 1।' २. सथा चौक्तम्-'पारिप्लवं नयनपोरघर प्रकम्पः कामं कपोलफलके पुलकप्रबन्धः । मागमः स्तनयुगै मकरन्धसङ्गः क्रीडाम्बुजे च नियतं वनितासु रागः ॥'
-सं०टी०१० ३५ से संकलित--सम्पादक