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षड्दर्शन समुच्चय भाग - २, श्लोक - ४५-४६, जैनदर्शन
परंतु ज्ञान जीव का सहजधर्म है और अपने आश्रय में विशेषता को उत्पन्न करता है । इसलिए ज्ञान के निरंतर अभ्यास से उत्तरोत्तर अपने आश्रय में (ज्ञान) विशेषता को उत्पन्न करता करता परमप्रकर्ष पर्यन्त को प्राप्त करता है। वैसा कहना अयोग्य नहीं है । इसलिए अभ्यास से ऊंचे कूदने से... इत्यादि आपने जो पहले कहा वह असत्य सिद्ध होता है । अर्थात् उसका खंडन होता है । क्योंकि लंघन आत्मा का सहजधर्म नहिं है और वह अपने आश्रय में विशेषता को उत्पन्न भी नहि करता है । उल्टा उसका बहोत ज्यादा अभ्यास करने से आत्मा का सामर्थ्य नष्ट भी हो जाता है । इस प्रकार जिन में ज्ञान का परमप्रकर्ष है वह सर्वज्ञ है
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तथा जलधिजलपलप्रमाणादयः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, प्रमेयत्वात् E-36, घटादिगतरूपादिविशेषवत् 1 न च प्रमेयत्वमसिद्धं, अभावप्रमाणस्य व्यभिचारप्रसक्तेः तथाहिप्रमाणपञ्चकातिक्रान्तस्य हि वस्तुनोऽभावप्रमाणविषयता भवताभ्युपगम्यते । यदि च जलधिजलपलप्रमाणादिषु प्रमाणपञ्चका-तिक्रान्तरूपमप्रमेयत्वं स्यात्, तदा तेष्वप्यभाव-प्रमाणविषयता स्यात् । न चात्र तत्त्वेऽपि सा संभाविनीति । यस्य च प्रत्यक्षाः, स भगवान् सर्वज्ञ इति 1 तथास्ति E-37 कश्चिदतीन्द्रियार्थसार्थसाक्षात्कारी, अनुपदेशालिङ्गाविसंवादिविशिष्टदिग्देशकालप्रमाणाद्यात्मक चन्द्रादिग्रहणाद्युपदेशदायित्वात् । यो यद्विषयेऽनुपदेशालिङ्गा-विसंवाद्युपदेशदायी स तत्साक्षात्कारी यथास्मदादिः, अनुपदेशालिङ्गाविसंवाद्युपदेशदायी च कश्चित् तस्मात्तत्साक्षात्कारी, तथाविधश्च श्रीसर्वज्ञ एवेति । यचोक्तं “प्रमाणपञ्चकाप्रवृत्तेः सर्वज्ञस्याभावप्रमाणगोचरत्वं,” तदपि वाङ्मात्रं, प्रमाणपञ्चकाप्रवृत्तेरसंभवात् । सा हि बाधसद्भावत्वेन स्यात्, न च सर्वज्ञे बाधकसंभवः । तथाहि-E-38 तद्बाधकं प्रत्यक्षं १, अनुमानं २, आगमः ३, उपमानं ४, अर्थापत्तिर्वा ५ । तत्राद्यः पक्षो न श्रेयान् - 39, यतो यदि प्रत्यक्षं वस्तुनः कारणंE-40 व्यापकं वा स्यात्, तदा तन्निवृत्तौ वस्तुनोऽपि निवृत्तिर्युक्तिमती, वह्न्यादिकारणवृक्षत्वादिव्यापक निवृत्तौ धूमत्वादिशिंशपात्वादिनिवृत्तिवत् । न चार्थस्याध्यक्षं कारणं, तदभावेऽपि देशादिव्यव-धानेऽर्थस्यभावात् । नापि व्यापकं तन्निवृत्तावपि देशादिविप्रकृष्टवस्तूनामनिवर्त्तमानत्वात् । न चाकारणाव्यापकनिवृत्तावकार्याव्याप्यनिवृत्तिरूपपन्ना, अतिप्रसक्तेरिति ।
(E-36-37-38-39-40 ) - तु० पा० प्र० प० ।
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व्याख्या का भावानुवाद :
अब सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए दूसरा अनुमान देते है - समुद्र के पानी के जत्थे का प्रमाणादि किसी को प्रत्यक्ष से प्रतिभासित होता है, क्योंकि प्रमेय है। जैसे घटादि में रहनेवाले रुप, स्पर्श आदि। इस अनुमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि होती है
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समुद्र में कितने प्रमाण में पानी है, वह प्रमेय = प्रमाण का विषय तो है ही। "उपरांत जो वस्तु सत्
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