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अर्थात् यह पुरुष अनेक चित्तवाला है। उसका चित्त एक नहीं है, अनेक है, व्यक्तित्व को जानने के तीन साधन हैं-इन्द्रियां, मन और चित्त या बुद्धि । हमारे आसपास या किसी के भी आसपास रंग और लेश्या के परमाणु हैं, और न जाने परमाणुओं के कितने जाल बिछे हुए हैं। द्रव्य लेश्या के परमाणुओं के सहयोग के बिना किसी भी व्यक्ति की भाव लेश्या कार्य कर नहीं हो सकती है। द्रव्य लेश्या के परमाण समचे आकाश में फैले हुए हैं, भरे पड़े हैं। जैसे भाव लेश्या का प्रयोग किया द्रव्य लेश्या के परमाणु भीतर आते हैं, द्रव्य लेश्या के रूप से परिणित होते हैं फिर उनकी आकृतियां समूचे आकाश में फैल जाती है। अध्यवसाय का सम्बन्ध सूक्ष्म और अति सूक्ष्म शरीर से है। यह वनस्पति आदि में भी है। अध्यवसाय के स्पन्दन स्थूल शरीर ( चित्त तन्त्र और मस्तिष्क ) के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
साधना के जितने मार्ग है, उनमें सबसे ज्यादा कठिन है, शुभ योग में रहना,
संकल्प में रहना, विशुद्ध भाव-धारा–लेश्या में रहना। साधना की एक भूमिका है-यथालंदक । हथेली का पानी सुखे इतने समय के लिए भी यदि वे प्रमाद करते हैं तो एक बेले का प्रायश्चित आता है। उसकी साधना करने वाले निरन्तर अप्रमाद अवस्था का अनुभव करते हैं। प्रायः वे प्रशस्त लेश्या में रहते हैं।
गणधर विद्या एक शक्तिशाली विद्या है। गणधर विद्या जिससे प्राप्त हो जाय अथवा अन्तमुहर्त में जो चौदह पूर्वो के ज्ञान को ग्रहण कर और उसकी पुनरावृत्ति कर ले, वह गणधर बन सकता है। गणधर विद्या के कारण अन्तमुहूर्त में पूर्वो का ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता का जागरण होता है।
राजवातिक में अकलंकदेव ने कहा है कि जिसका वीर्य स्वप्न में भी स्खलित न हो, वह घोर ब्रह्मचारी है। जिसका मन स्वप्न में भी अणुमात्र विचलित न हो, उसे घोर ब्रह्मचर्य की लब्धि प्राप्त होती है। शुभ लेश्या व शुभ संकल्पों से इस भूमिका तक पहुंचा जा सकता है।
तन्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने कहा हैस्थितिप्रभावसुखयुतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिका।
-तत्व० अ ४ । सू २१ अर्थात् स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या-विशुद्धि, इन्द्रिय-विषय और अवधि विषय की अपेक्षा ऊपर के देव अधिक हैं ।
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