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पद्म लेश्या तथा शुक्ल लेश्या केवल गर्भज तियंच पंचेन्द्रिय, गर्भ मनुष्य ( अकर्म भूमिज नहीं, कर्म भूमिज ) तथा वैमानिक देव के ही होती है । तेजो लेश्या - नारकी, अग्नि, वायु तथा विकलेन्द्रियों के संभव नहीं है । वृहद् संग्रहणी में कहा है
भवनपति और व्यन्तर देवताओं में प्रथम चार लेश्यायें होती हैं, ज्योतिष्क, सौधर्म तथा ईशान में केवल तेजो लेश्या होती है । सानत्कुमार, माहेन्द्र तथा ब्रह्मलोक इन कल्पों में पद्म लेश्या होती है, इसके ऊपर के देवों में शुक्ल लेश्या होती है, बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पति काय में प्रथम चार लेश्या होती है । गर्भज तिर्यञ्च तथा गर्भज मनुष्य में छओं लेश्या होती है । अवशेष जीवों में प्रथम तीन लेश्या होती है ।
अस्तु सैद्धान्तिक बोलों के प्रामाण्य का बोध और आगमों के संदर्भ स्थलों की खोज – ये दोनों ही काम श्रम के साथ एकाग्रता सापेक्ष है ।
लेश्या शाश्वत भाव भी है । जैसे लोक- अलोक लोकान्त- अलोकान्त - दृष्टि, कर्म ज्ञान आदि शाश्वत भाव है वैसे लेश्या भी शाश्वत भाव है । लोक आगे भी है । पीछे भी है । दोनों अनानुपूर्वी है । इनमें आगे-पीछे का क्रम नहीं है । इसी प्रकार अन्य सभी शाश्वत भावों के साथ लेश्या का आगे-पीछे का क्रम नहीं है । सब शाश्वत भाव अनादि काल से है, अनंत काल तक रहेगा ।
सिद्ध जीव अलेशी होते हैं तथा चतुर्दशर्वे गुणस्थान के जीव को छोड़ कर अवशेष संसारी जीव सब सलेशी है | सलेशी जीव अनादि है । अतः कहा जा सकता है कि लेश्या और जीव का सम्बन्ध अनादि काल से है । ( देखे '६४ )
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द्रव्य लेश्या - छत्र अष्टस्पर्शी है । भाव लेश्या जीव है छओं पुद्गल है, अजीव पदार्थ है, पुण्य, पाप, बंध नहीं है । लेश्या जीव, आस्रव है | जोग आस्रव है, अवशेष चार आस्रव योग में अशुभ लेश्या होती है । तीनों योग—सलेशी है वहाँ सयोगी है | जहाँ योग है— वहाँ लेश्या भी है | शुभ भाव लेश्या जीव, आश्रव, निर्जरा है, पुण्य का बंधन होता है इसलिए आस्रव --- जोग आस्रव कहा गया है । कर्म भी कटते हैं अतः निर्जरा भी कहा गया है । उत्तराध्ययन अ ३४ में शुभ-अशुभ दोनों लेश्या को-कर्म लेश्या कहा है ।
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शुभ लेश्या
१. भगवती श १२ । श ५
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द्रव्य लेश्या
प्रथम तीन भाव
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नहीं है । अशुभ
जहाँ सलेशी है
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