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योग के अन्तर्गत द्रव्य जहाँ तक कषाय है वहाँ तक कषाय के उदय को बढाते हैं। योग्यन्तर्गत द्रव्यों में कषाय के उदय को बढाने का सामर्थ्य है। जैसे पित्त के प्रकोप से क्रोध की वृद्धि होती है ।
(योग के अन्तर्गत द्रव्य रूप ) लेश्या से स्थिति पाक विशेष होता है-ऐसा शास्त्र में कहा गया है सो वह पूरा उतरता है। क्योंकि स्थिति पाक विशेष अर्थात् अनुभाग, उसका निमित्त कषायोदय के अन्तर्गत कृष्णादि लेश्या के परिणाम है। और वास्तव में उसके अन्तर्गत होने से कषायोदय रूप ही हैं। केवल योगान्तर्गत द्रव्यों की सहकारिता के कारण तथा उन द्रव्यों की विचित्रता के कारण, कृष्णादि भेदों से भिन्नता आती है तथा प्रत्येक लेश्या के तारतम्य भेद से विचित्र परिणाम होते हैं।
कषायोदय के अन्तर्गत कृष्णादि लेश्या के परिणाम भी कषाय रूप है। लेकिन लेश्या स्थिति बंध का कारण नहीं है, पर कषाय रूप है। लेश्या तो कषायोदय के अंतर्गत अनुभाग का कारण होता है। स्थिति पाक विशेषलेश्या विशेष से होता है। प्रज्ञापना में कहा है
"एवं जहेव वन्नेण भणिया तहेव लेसासु विसुद्धलेसतरागा अविसुद्धलेसतरागा य भाणियव्वा ।" यह पद इस प्रकार घटेगा ।
हे भगवन ! क्या सब नारकी समान लेश्या वाले होते हैं ?
हे गौतम ! ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि सब नारकी समान लेश्या वाले नहीं है । नारकी दो तरह के होते हैं-(१) पूर्वोत्पपन्नक और (२) पश्चादुत्पपन्नक।
१-पूर्व उत्पन्न नारकी विशुद्ध लेश्या वाले हैं क्योंकि पूर्वोत्पपन्नक नारकी ने बहुत से अप्रशस्त द्रव्य लेश्या को अनुभव कर-कर के क्षीण कर दिया है इसलिये वह विशुद्ध लेश्या वाला है। यह तुलना समान स्थिति वाले नारकियों की समझना चाहिए। प्रज्ञापना के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने कहा है
'कर्मनिःश्यन्दो लेश्या"।
-प्रज्ञापना १७ । १ टीका ६. प्रज्ञापना लेश्या पद १७ । १ की टीका
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