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हेतु है, ऐसा कोई नहीं मानता है । कर्म की स्थिति का हेतु तो कषाय को ही बताया गया है । लेश्या कषाय की उत्तेजक या सहायक है अतः अनुभाग बंध की उपचार से हेतु कही गयी है । २ सब लेश्याओं में प्रत्येक की अनंत वर्गणा कही गयी है तथा सबके अनंत प्रदेश कहे गये हैं । सब लेश्या असंख्यात क्षेत्र प्रदेश में अवगाहन करती है तथा लेश्या के अध्यवसाय के असंख्यात कहे गये हैं । यह स्थान क्षेत्र उपमा से लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश जितने हैं तथा काल तुलना से असंख्यात काल चक्र में जितने समय होते हैं उतने कहे गये हैं । कृष्ण, नील और कापोत- ये तीनों अधर्म लेश्यायें हैं, इन से जीव दुर्गति में जाता है । तेजो, पद्म और शुक्ल — ये तीन धर्म लेश्यायें हैं- इन से जीव सुगति में उत्पन्न होते हैं । ४ सभी लेश्याओं की प्रथम समय की परिणति में तथा सभी लेश्याओं की अंतिम समय की परिणति में किसी भी जीव की परभव में उत्पत्ति नहीं होती है । ५ लेश्या की परिणति के बाद अन्तर्मुहूर्त बीतने पर अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर जीव परलोक में जाता है । प्रज्ञापना में श्यामाचार्य ने कहा है
"जल्लेस्साई दव्वाई आदि अंति तल्ले से परिणामे भवति” ।
अर्थात् जिस लेश्या के योग्य कर्म द्रव्य जीव ग्रहण करता है उसके निमित्त से उसी लेश्या रूप उसके परिणाम हो जाते हैं । जब योग होता है तब लेश्या होती है, योग के अभाव में लेश्या नहीं होती है । अतः लेश्या के साथ योग का अन्वय और व्यतिरेक सम्बन्ध होने के कारण लेश्या का कारण योग है यह निश्चित हो जाता है । ७ लेश्या योग का निमित्त भूत कर्म द्रव्य रूप नहीं है, क्योंकि यदि है तो या घाती कर्म द्रव्य है या आघाती कर्म द्रव्य रूप है । लेकिन घाती कर्म रूप तो नहीं है क्योंकि सयोगी केवली के घाती कर्म के अभाव में भी लेश्या होती है । और अघाती कर्म द्रव्य रूप भी नहीं है कर्म के होते हुए भी अयोगी केवली के लेश्या नहीं होती हैं |
क्योंकि अघाती
२. लोक प्रकाश । श्लो २६६ से २६७
३. लोक प्रकाश । श्लो ३६०, ३६१, ३६२
उत्तराध्ययन अ ३४ । ३३ पर नेमीचंद्राचार्य टीका
४. उत्तराध्ययन अ ३४ । गा ५६, ५७
५. उत्तराध्ययन अ ३४ । गा ५८, ५६ ६. उत्तराध्ययन अ ३४ । गा ६० ७. प्रज्ञापना लेश्या पद १७ । ८. प्रज्ञापना लेश्या पद १७ ।
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१ की टीका
१ की टोका
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