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अर्थात् कोई कहते हैं कि लेश्या कर्म निष्यन्द रूप है। लेकिन जहाँ तक कषाय का उदय होता है वहाँ तक कर्म का निष्यन्द होता है अतः लेश्या कर्म के निष्यन्द रूप है तो कर्म की स्थिति का कारण भी है। यह संगत नहीं है क्योंकि लेश्या अनुभाग बंध का कारण है, स्थिति बंध का कारण नहीं है।
प्रज्ञापना लेश्या पद टीका १७ । १ में कहा है
"पूर्व में उत्पन्न ( देव ) अविशुद्ध लेश्या वाले होते हैं तथा पीछे उत्पन्न देव विशुद्ध लेश्या वाले होते हैं।" इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि यहाँ देवता तथा नारकी के उस प्रकार के भव स्वभाव के कारण लेश्या के परिणाम उत्पत्ति के समय से लेकर भव के क्षयपर्यंत निरन्तर होते हैं । प्रज्ञापना लेश्या पद १७ । १ टीका में उद्धरण-वृहत्संग्रहणी टीका में कहा है
अंत मुहुत्तमि गए अंतमुहुत्तंमि सेसए चेव । लेस्साहिं परिणयाहिं जीवा वच्चंति परलोयं ॥
अर्थात् परिणत हुई सर्व लेश्याओं के प्रथम समय में परभव में किसी जीव की उत्पत्ति नहीं होती हैं-उसी प्रकार अन्तिम समय में भी नहीं होती है। आगामी भाव की लेश्या का अंतमुहर्त बीतने के बाद तथा चालू भव की लेश्या का अंतमुहूर्त बाकी रहने पर जीव परलोक जाता है। केवल तिथंच और मनष्य आगामी भाव की लेश्या के अंतमहर्त बीतने के बाद तथा देव और नारकी स्वभाव की लेश्या के अंतमुहर्त बाकी रहने पर परलोक जाता हैं। प्रज्ञापना के लेश्या पद १७ । १ की टीका में उद्धरण है
अंतोमुहुत्तमद्धा लेसाण ठिई जहिं जहिं जाउ। तिरियं नराणं वा वज्जिजा केवलं लेसं॥
अर्थात् तियंच और मनुष्यों में जिसके जो-जो लेश्या होती है उसकी शुक्ललेश्या को बाद देकर जघन्य तथा उत्कृष्ट रूप से अंतमुहर्त की स्थिति होती है। तिर्यञ्च की अपेक्षा शुक्ल लेश्या की स्थिति भी अंतमुहूर्त की होती है। परन्तु मनुष्यों की अपेक्षा शुक्ल लेश्वा की स्थिति जघन्य अन्तमुहर्त, उत्कृष्ट नव वर्ष न्यून एक पूर्व कोटि की होती है। देव और नारकी के उस प्रकार के भव के कारण लेश्या के परिणाम उत्पत्ति के समय से लेकर भव के क्षयपर्यंत निरंतर होते हैं।
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