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लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति
दाऊणं पिंडग्गं समणा कालोय अंतराणं पि । गच्छंति ओहिणाणं उप्पजइ तेसु एकं पि ॥ १०२॥ अह कोवि असुरदेवा ओहीदो मुणिगणाण उवसग्गं । णादणं तकक्की मारेदि हु धम्मदोहि त्ति ॥ १०३ ॥ कक्किसुतो अजिदंजयणामो रक्खंति णमदि तञ्चरणे । तं रक्खदि असुरदेओ धम्मे रजं करेजं ति ॥ १०४॥ तत्तो दोवे वासो सम्मं धम्मो पयदि जणाणं । कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे ॥१०५॥ एवं वस्ससहस्से पुह कक्की हवेइ एक्केको। पंचसयवच्छरेसुं एक्केको तहय उवकक्की ।। १०६ ॥ अर्थ- जब कल्किने अपने योग्य देशोंको यत्नपूर्वक जीत लिया, तब वह अतिशय लुब्ध बनकर जिस तिस श्रमण ( जैनमुनि ) से शुल्क या कर माँगने लगा। इसपर श्रमण अपना पहला ग्रास देकर भोजनमें अन्तराय हो जानेसे जाने लगे। उन मुनियों से किसी एकको अवधिज्ञान हो गया। फिर कोई असुर अवधिज्ञानसे यह जानकर कि मुनियोंको उपसर्ग हो रहा है, आया और उसने धर्मद्रोही कल्किको मार डाला । कल्किका अजितंजय नामका पुत्र था । उसको असुरने बचा दिया और उससे धर्म-राज्य कराया। इसके बाद दो वर्ष तक लोगोंमें धर्मकी प्रवृत्ति अच्छी तरह होती रही परन्तु फिर दिनों दिन कालके माहात्म्यसे उसकी हीनता होने लगी। आगे इसी तरह प्रत्येक एक एक हजार वर्षमें एक एक कल्कि और प्रत्येक पाँच पाँच सौ वर्षमें एक एक उपकल्कि होगा ॥ १०१-१०६ ॥
कल्कि एक ऐतिहासिक राजा हुआ है । इसके विषयमें स्वर्गीय महामहोपा. ध्याय काशीप्रसाद जायसवालने हिन्दू पुराणों और जैनग्रन्थोंके आधारसे एक विस्तृत लेख लिखा था और उसमें बतलाया था कि मालवाधिपति विष्णु यशोधर्मा ही कल्कि है जिसका विजयस्तंभ मन्दसौर ( ग्वालियर ) में खड़ा है और जिसने मिहिरकुलको काश्मीरमें पराजित किया था। मन्दसोरका विजयस्तंभ
१ देखो जैनहितैषी भाग १३ अंक १२ में · कल्कि अवतारकी ऐतिहासिकता' शीर्षक लेख।