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सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध भी आचारांग से किंचित् ही परवर्ती माना जाता है। सूत्रकृतांग के काल में यह प्रश्न बहुचर्चित था कि कर्म का फल संविभाग सम्भव है या नहीं ? इसमें स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि व्यक्ति अपने स्वकृत कर्मों का विपाक अनुभव करता है। बन्धन के सम्बन्ध में सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से कहता है कि कुछ व्यक्ति कर्म और अकर्म को वीर्य (पुरुषार्थ) कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कर्म के सन्दर्भ में यह विचार लोगों के मन में उत्पन्न हो गया था कि यदि कर्म ही बन्धन है तो फिर अकर्म अर्थात् निष्क्रियता ही बन्धन से बचने का उपाय होगा, किन्तु सूत्रकृतांग के अनुसार अकर्म का अर्थ निष्क्रियता नहीं है। इसमें प्रतिपादित है कि प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म है। वस्तुतः किसी क्रिया की बन्धकता उसके क्रिया-रूप होने पर नहीं, अपितु उसके पीछे रही प्रमत्तता या अप्रमत्तता पर निर्भर है। यहाँ प्रमाद का अर्थ है आत्मचेतना (Self-awareness) का अभाव। जिस आत्मा का विवेक जाग्रत नहीं है और जो कषाययुक्त है, वही परिसुप्त या प्रमत्त है और जिसका विवेक जाग्रत है और जो वासना-मुक्त है, वही अप्रमत्त है। सूत्रकृतांग में ही हमें क्रियाओं के दो रूपों की चर्चा भी मिलती है-(१) साम्परायिक और (२) ईर्यापथिका राग, द्वेष, क्रोध आदि कषायों से युक्त क्रियायें साम्परायिक कही जाती हैं, जबकि इनसे रहित क्रियायें ईर्यापथिक कही जाती हैं। साम्परायिक क्रियायें बन्धक होती हैं, जबकि ईर्यापथिक बन्धनकारक नहीं होतीं। इससे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सूत्रकृतांग में कौन-सा कर्म-बन्धन का कारण होगा और कौन-सा कर्म-बन्धन का कारण नहीं होगा, इसकी एक कसौटी प्रस्तुत कर दी गई है। आचारांग सूत्र में प्रतिपादित ममत्व की अपेक्षा इसमें प्रमत्तता और कषाय को बन्धन का प्रमुख कारण माना गया है।
यदि हम बन्धन के कारणों का ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करें, तो यह पाते हैं कि प्रारम्भ में ममत्व (मेरेपन) को बन्धन का कारण माना गया, फिर आत्म-विस्मृति या प्रमाद को। जब प्रमाद की व्याख्या का प्रश्न आया तो स्पष्ट किया गया कि राग-द्वेष की उपस्थिति ही प्रमाद है। अतः राग-द्वेष को बन्धन का कारण बताया गया। राग-द्वेष का कारण मोह माना गया, अतः उत्तराध्ययन में राग-द्वेष एवं मोह को बन्धन का कारण बताया गया है। इनमें मोह मिथ्यात्व और कषाय का संयुक्त रूप है। प्रमाद के साथ इनमें अविरति एवं योग के जुड़ने पर जैन परम्परा में बन्धन के ५ कारण माने जाने लगे। समयसार आदि में प्रमाद को कषाय का ही एक रूप मानकर बन्धन के चार कारणों का उल्लेख मिलता है। इनमें योग बन्धनकारक होते हुए भी वस्तुतः जब तक कषाय के साथ युक्त नहीं होता है, बन्धन का कारण नहीं बनता है। अतः प्राचीन ग्रन्थों में बन्धन के कारणों की चर्चा में मुख्य रूप से राग-द्वेष (कषाय) एवं मोह (मिथ्या-दृष्टि) की ही चर्चा हुई है।
जैन कर्म-सिद्धान्त के इतिहास की दृष्टि से कर्म-प्रकृतियों का विवेचन भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कर्म की अष्ट मूल-प्रकृतियों का सर्वप्रथम निर्देश ऋषिभाषित के पार्श्व नामक अध्ययन में उपलब्ध होता है। इसमें ८ प्रकार की कर्म-ग्रन्थियों का उल्लेख है। यद्यपि वहाँ इनके नामों की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ८ प्रकार की कर्म-प्रकृतियों के नामों का स्पष्ट उल्लेख हमें उत्तराध्ययन के ३३वें अध्याय में
और स्थानांग में मिलता है।६ स्थानांग की अपेक्षा भी उत्तराध्ययन में यह वर्णन विस्तृत है, क्योंकि इसमें अवान्तर कर्म-प्रकृतियों की चर्चा भी हुई है। इसमें ज्ञानावरण कर्म की ५, दर्शनावरण की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २ एवं २८, नाम-कर्म की २ एवं अनेक, आयुष्य-कर्म की ४, गोत्र-कर्म की २ और अन्तराय-कर्म की ५ अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख मिलता है। आगे जो कर्म-साहित्य सम्बन्धी ग्रन्थ निर्मित हुए उनमें नाम-कर्म की प्रकृतियों की संख्या में और भी वृद्धि हुई, साथ ही उनमें आत्मा में किस अवस्था में कितनी कर्म-प्रकृतियों का उदय, सत्ता, बन्ध आदि होते हैं, इसकी भी चर्चा हुई। वस्तुतः जैन कर्म-सिद्धान्त ई. पू. आठवीं शती से लेकर ईस्वी सन् की सातवीं शती तक लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्यवस्थित होता रहा है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि कर्म-सिद्धान्त का जितना गहन विश्लेषण जैन परम्परा के कर्म-सिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य में हुआ उतना अन्यत्र किसी भी परम्परा में नहीं हुआ है। कर्म शब्द का अर्थ
जब हम जैन कर्म-सिद्धान्त की बात करते हैं, तो हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि उसमें कर्म शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वह अर्थ कर्म के उस सामान्य अर्थ की अपेक्षा अधिक व्यापक है। सामान्यतया कोई भी क्रिया कर्म कहलाती है, प्रत्येक हलचल चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो या शारीरिक हो कर्म है। किन्तु जैन परम्परा में जब हम कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वहाँ ये क्रियायें तभी कर्म बनती हैं, जब ये बन्धन का कारण हों। मीमांसा-दर्शन में कर्म का तात्पर्य यज्ञ-याग आदि क्रियाओं से लिया जाता है। गीता आदि में कर्म का अर्थ अपने वर्णाश्रम के अनुसार किये जाने वाले कर्मों से लिया गया है। यद्यपि गीता एक व्यापक अर्थ में भी कर्म शब्द का प्रयोग करती है। उसके अनुसार मनुष्य जो भी करता है या करने का आग्रह रखता है, वे सभी प्रवृत्तियाँ कर्म की श्रेणी में आती हैं। बौद्ध-दर्शन में चेतना को ही कर्म कहा गया है। बुद्ध कहते हैं कि "भिक्षुओं कर्म, चेतना ही है", ऐसा मैं इसलिए कहता हूँ कि चेतना के द्वारा ही व्यक्ति कर्म को करता है, काया से, मन से या वाणी से। इस प्रकार बौद्ध-दर्शन में कर्म के समुत्थान या कारक को ही कर्म कहा गया है। बौद्ध-दर्शन में
१. रविन्द्रनाथ मिश्रा, जैन कर्म-सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास (पार्श्वनाथ ५. (अ) अट्ठविहं कम्मगंथि-इसिभासियाई, ३१ शोधपीठ, वाराणसी-५, १९८५), पृ. ९-१०
(ब) अट्ठविहं कम्मरयमल-इसिभासियाई, २३ रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, उत्तराध्ययन सूत्र, ३२/७
६. उत्तराध्ययन सूत्र (सं. मधुकर मुनि), ३३/२-३ ३. (अ) समवायांग सूत्र, ५१४ (ब) इसिभासियाई, ९/५
७. वही, ३३/४-१५. (स) तत्त्वार्थ सूत्र, ८/१
८. अंगुत्तर निकाय उपाध्याय भरतसिंह, बौद्ध-दर्शन व अन्य भारतीय-दर्शन, ४. कुन्दकुन्द, समयसार, १७१
पृ. ४६३
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