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अप्रमेय
अप्रैल अप्रमेय - वि० (सं० ) जो नापा न जा परोक्ष, अनागत, अप्रत्यक्ष, परोक्ष सके, अपरिमित, अपार, अनंत, जो प्रमाण अप्रस्तुत, जो न मिला हो । से सिद्ध न हो सके।
संज्ञा, स्त्री० अप्राप्ति-प्राप्त न होना। अप्रयुक्त-वि० (सं० ) जो प्रयोग में न अप्राप्त-व्यवहार-वि० यौ० (सं० ) सोलह लाया गया हो, अव्यवहृत, जो काम में न वर्ष से कम का बालक, नाबालिग़ । पाया हो।
प्राप्य-वि० (सं०) जो प्राप्त न हो सके, संज्ञा, स्त्री० अप्रयुक्तता।
अलभ्य, जो न मिल सके, दुर्लभ । अप्रसंग-संज्ञा, पु. (सं०) प्रसंगाभाव, अप्रामाणिक--वि० (सं० ) जो प्रमाणजिसका प्रसंग न हो।
पुष्ट न हो, जो प्रमाण-युक्त न हो, प्रमाण अप्रसन्न-वि० (सं० ) असंतुष्ट, नाराज़,
से न सिद्ध हो सकने वाला, प्रमाण-शून्य, खिन्न, दुखी, उदास, मलिन ।
ऊटपटांग, जिसपर विश्वास न किया जा अप्रसन्नता--संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) नाराज़गी, सके। असंतोष, रोष, कोप, खिन्नता।
अप्रामाण्य-वि० (सं० ) जो प्रमाण के अप्रसाद-संज्ञा, पु. ( सं० ) निग्रह,
योग्य न हो।
अप्रासंगिक-वि० (सं० ) प्रसंग-विरुद्ध, अप्रसन्नता, श्रसम्मति । अप्रसार-संज्ञा, पु० (सं० अ--प्रसार
जिसकी कोई चर्चा न हो, विषयान्तर । प्रसारण) अविस्तार, फैलाव-रहित, अप्रस्तार।।
अप्रिय-वि० (सं० ) अहित, जो प्रिय वि० अप्रसारित ।
न हो, अरुचिकर, अनभीष्ट, अरोचक, अप्रसिद्ध-वि० (सं०) जो प्रसिद्ध न हो,
अनचाहा (दे०)।
संज्ञा. पु० (सं० ) शत्रु । अविख्यात, गुप्त, छिपा हुआ।
अप्रिय-वचन--- संज्ञा, पु० यौ० कुवाक्य, अप्रसिद्धि-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अख्याति, निष्टुर वाणी। अप्रतिष्ठा।
अप्रियवक्ता---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) निष्ठुर अप्रस्ताविक-वि० (सं० अ-प्रस्ताव+ भाषी, उग्रवक्ता । इत ) जिसका प्रस्ताब न किया गया हो। अग्रीति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) अप्रणय, अप्रस्तुत-वि० (सं० ) जो प्रस्तुत या असदभाव, अप्रेम, अरुचि, बैर।। विद्यमान न हो, अनुपस्थित, जिसकी चर्चा | | अप्रीतिकर-वि० ( सं० ) अरुचिकर, न श्राई हो।
निठुर, कठोर, जो प्रेमकारक न हो। संज्ञा, पु० (सं० ) उपमान ( काव्य० )। वि० अप्रीतिकारक, अप्रीतिकारी, अप्रस्तुन-प्रशंसा-संज्ञा, यौ० स्त्री० ( सं०)। अग्रीतिकरी। एक प्रकार का अलंकार जिसमें अप्रस्तुत के | अप्रेम-संज्ञा पु० (सं० ) प्रेमाभाव, प्रीतिकथन से प्रस्तुत का बोध कराया जाय, | रहित, अप्रीति। ( काव्य०, श्र० पी०)।
वि० अप्रेमी-प्रेमी जो न हो। अप्राकृम-वि० (सं० ) जो प्राकृत न हो, | अप्रैल-संज्ञा, पु. (अ.) वर्ष का चौथा अस्वाभाविक, असाधारण ।
महीना, जिसमें ३० दिन होते हैं. इसका वि० अप्राकृतिक।
प्रथम दिवस हासोपहास का दिन माना अप्राप्त-वि. ( सं० ) जो प्राप्त न हो, जाता है और उसे अप्रैल-फूल ( Aprilदुर्लभ, अलभ्य, जिसे प्राप्त न हुआ हो, fool ) कहते हैं ।
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