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अपेक्षित
अप्रचार अपेक्षित-वि. ( सं० ) जिसकी अपेक्षा अप्रकाश-संज्ञा, पु. (सं० ) अंधकार, हो, आवश्यक, अभीष्ट, ईप्सित, अभिलषित, तम, अँधेरा, प्रकाश-हीनता, अज्ञान । वांछित, इच्छित, चितचाही, प्रतीक्षित । वि० अप्रगट, अप्रसिद्ध, गुप्त, छिपा हुआ। स्त्री० अपेक्षिता।
अप्रकाश्य-वि० ( सं० ) गोपनीय, न अपेख-वि० दे० ( सं० अ+प्र- इक्ष) प्रकाशित करने योग्य । अदृष्ट, अलेख, अलक्ष, अदृश्य, जो न स्त्री० अप्रकाश्या। दिखाई दे।
अप्रकाशित- वि० (सं० ) जिसमें उजाला अपेम--संज्ञा, पु० दे० ( सं० अप्रेम )
या कान्ति न हो, अँधेरा, जो चमक न प्रेम-रहित ।
सके, जो प्रगट न हुआ हो, गुप्त, अप्रगट, वि० अप्रेमी।
छिपा हुआ, जो सर्व साधारण के सामने अपेय-वि० (सं० ) न पीने-योग्य, जो न |
न रक्खा गया हो, जो बाहर न आया हो, पिया जा सके, जिसके पान करने का
जो छप कर प्रचलित न हुआ हो। निषेध किया गया है।
अप्रकृत-वि. ( सं० ) अस्वाभाविक, अपेल वि० दे० (सं० अ-पीड़ =दबाना)
बनावटी, कृत्रिम, झूठा। जो न हटे, न टाला जा सकने वाला,
अप्रकृति--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रकृति का
अभाव। अटल, दृढ़, स्थिर, अखंड, अचल, निश्चल,
प्रकृतिवाद--संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकृति पक्का, मान्य, अनुल्लंघनीय ।
की सत्ता को न मानने वाला सिद्धान्त । अपैठ-वि० दे० ( हि० पैठना-प्रविष्ट करना ) |
संज्ञा, पु० अप्रकृतिवादी-ब्रह्मवादी, जहाँ पैठ ( प्रवेश ) न हो सके, अगम, अद्वैतवादी, प्रकृति की सत्ता को न मानने दुर्गम, जहाँ कोई प्रविष्ट न हो सके।
वाला, ( विलोम ) प्रकृतिवादो। प्रपोगंड-वि० (सं० ) सोलह वर्ष से अप्रकट-अप्रगट-वि० (सं०) अप्रकाशित, ऊपर की अवस्था वाला, बालिग।
गुप्त, छिपा हुआ। अपाच-वि० दे० (हि. अ---पोच ) जो अप्रगटनीय--वि० (सं० ) प्रकट न करने नीच न हो, जो पोच या पोछा या पतित योग्य, गोपनीय, छिपाने योग्य, प्रकाशित न हो, श्रेष्ठ ।
न करने योग्य । अपेाहन- संज्ञा, पु. ( सं० ) तर्क के द्वारा | वि० अप्रगटित, अप्रकटित-प्रगट न बुद्धि का परिमार्जन करना।
किया हुश्रा, गुप्त । वि० अपाहित—परिमार्जित, परिष्कृत ।।
अप्रगल्भ-वि. ( सं० ) अप्रौढ़, कच्चा,
निरुत्साहित, शान्त, जो बकबादी न हो। अपौरुष-संज्ञा, पु० (सं० ) कापुरुषत्व,
संज्ञा, स्त्री. भा० (सं०) अप्रगल्भता । असाहस, पुरुषार्थ-हीनता, नपुंसकता।
| अप्रचलित-वि० (सं०) जो प्रचलित न वि० अपौरुषी-कापुरुष, नपुंसक ।
| हो, अव्यवहृत, अप्रयुक्त, जिसका चलन अपौरुषेय-वि० (सं० ) जो पौरुषेय या
न हो। पुरुषकृत न हो, दैविक, ईश्वरीय । अप्रचार-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रचाराभाव, प्रपौत्र-वि० ( सं० अ+पौत्र ) पौत्र- प्रयोग का अभाव, जिसका चलन न हो, विहीन, जिसके नाती ( नप्ता) या पोता उपयोग-रहित, अव्यवहार, जिसकी चाल न हो, जिसके लड़का न हो।
न हो।
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