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महाकवि स्वयम्भूदेव विरचित पउमचरिउ (पद्मचरित)
भाग ४
मूल-सम्पादक डॉ. एच.सी. भायाणी
अनुवाद डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर
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भारतीय ज्ञानपीठ
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विषय-सूची
संतावनी सन्धि
रामकी सेनाको हंसीपमें देखकर, निशाचर सेनामें खलबली । विभीषणका अपने भाई रावणको समझाना एवं रावण द्वारा विभोषगका अपमान । इन्द्रजीत द्वारा रावणका समर्थन, और सन्धि का प्रस्ताव, विभीषण और रावणमें भिड़न्त, मन्त्रिवृद्धों द्वारा बीच-बचाव, विभीषणका रावणपक्षसे कूच, रामके अनुषरों द्वारा निशाचरोंके आकस्मिक माझमणको निन्दा । विभीषणके दूतका रामसे मिलना, दूतके प्रस्तावकी रामको फूटनीतिज्ञ परिषदमें प्रतिक्रिया, विभीषणको रामसे मेंट और सन्धि ।
अट्ठावनवीं सन्धि
१७-३५ राम द्वारा दूत भेजनेका प्रस्ताव, दूतके गुणों दोषोंकी पर्चा, प्रस्तुत विभिन्न नामोंमें-से अंगदका दूत पदपर चुना जाना,प्रमुख पात्रों द्वारा रावणके लिए सन्देश ( राम, लक्ष्मण, भामण्डल, हनुमान, सुग्रीव आदि) । अंगदका रावणके दरवारमें प्रवेश, और सीता वापिष कर देनेको शर्तपर, सन्षिका प्रस्ताव, रावण द्वारा दूतका उपहास, इन्द्रजीतका उत्तेजनात्मक प्रस्ताव, दूतका आक्रोश और वापसी। राम और लक्ष्मणका कुछ होमा।
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उनसठवीं सन्धि
निशाचरराज रावणकी युद्धको तयारी, विभिन्न योद्धाओंकी तैयारी, उनकी पत्नियों को प्रतिक्रिया, योद्धाओं और उनकी पत्तियों के संवाद, दूसरे वीर सामन्तों का युद्ध के लिए प्रस्थान । युद्धके प्रांगण में दोनों सेनाओंका जमाव ।
साठवीं सन्धि
५०-६३ राम द्वारा युद्ध के लिए कूच । रामपक्षके सभी योद्धाओंका परिषय । उनकी तैयारीका चित्रण, रावण पक्ष के पोळाओंके नाम । सैन्यब्यूह रचना । सेनाका प्रस्थान । फई मल्लयुद्ध हो रहे थे। युद्धका थीगणेश । युद्धको लेकर दो देवदालाओंकी हार्दिक प्रतिक्रिया ।
इकसठयी सन्धि
सनिक अभियानका वर्णन । दोनों सेनाओंमें भिडन्त, आपसी द्वन्द्र और वीरतापूर्वक युद्ध लड़ना । रामको सेनाकी प्रथम पराजय, देवबालाओं द्वारा टोका-टिप्पणी, नल और नील एवं हस्त-प्रहस्तमें इन्द्र युद्ध, दूसरे प्रमुख नेताओंमें इन्द्र युद्ध, हस्त-प्रहस्तको मृत्यु ।
बासठवीं सन्धि
राम द्वारा विजेता नल और नोलका स्वागत, युद्ध भूमिमें रावणके लिए अपशकुन, रावणका गुप्तवेशमें नगरमें भ्रमण, प्रमुख पोताओं को अपनी पत्नियोंसे बात-चीत । योदामोंकी स्वामिभक्ति देखकर रावणको प्रसन्नता और उत्साह ।
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वेसठवीं सन्धि
९७११३ सूर्योदय होते ही दोनों सेनाओंको तयारी। रावणकी सेना द्वारा प्रस्थान, सेनाओं में टक्कर, प्रमुख योद्धाओंम द्वन्द्वयुद्ध, आकाशसे देवताओं द्वारा युद्ध का अवलोकन, समके प्रमुख योशाओंकी हार, संध्या समय युद्धको परिसमाप्ति, रामका चिन्तातुर होना, सैनिक-सामन्तों द्वारा ढाढस देना।
चौसठी सन्धि
११३-१३३ सवेरै दोनों सेनाओंमें भिडन्त, शर सन्धानको व्याकरणसे पलेपये तुलना, रामरूपी सिंहका वसोवरपर हमला, तुभुलयुद्ध, दूसरे प्रमुम्न योद्धाओंमें इन्द्रयुद्ध, सुग्रीव और हनुमानका युद्ध में प्रवेश, हनुमानको गहरी और तूफ़ानी भिड़न्त । मालि द्वारा उसका सामना, तुमुल ग्रुद्ध, हनुमानका घिर जाना।
पैसठवीं सन्धि
१३३-१४७ हनुमानके उत्साह और तेजका वर्णन, उसके द्वारा व्यापक मारकाट, हनुमानकी मुक्ति । रामके सामन्तोंका कुम्भकर्णपर घेरा डालना, कुम्भकर्ण द्वारा मायावी अस्त्रों द्वारा उसका सामना, इन्द्रजीतका पुसमें प्रवेश, सुग्रीवका पकड़ा जाना । मेघवाहन और भामण्डलमें भिडन्त, भामण्डलका घिर जाना, राम द्वारा गारुडी विद्याका स्मरण । विद्याका साजडामामफे साथ आना । नागपाशका छिर-भिन्न होना, भामण्डल और सुग्रीवको अपनो सेनामें वापसी। जय-जय शब्दसे उनका स्वागत
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छियासठवीं सन्धि
१४८-१६७ सूर्योदय होनेपर पुनः पुख, दोनों सेनाओं का वर्णन, सैनिकोंसे आहत धूलका वर्णन, सैनिकों के घायल होने का वर्णन । नल और नील द्वाग युद्ध के मैदानमें आकर अपने पक्षको स्थिति संभालना । रावणका गृह में प्रवेष, विभीषणसे उसको दोदो बातें । विभीषगका रावणको खरी-खोटी सुनाना, दोनों भाइयों में संघर्ष, विविध शस्त्रोंका प्रयोग, विद्याओंका प्रयोग, सवण द्वारा शक्तिका प्रमोग, लक्ष्मणका शक्तिसे आहत होना, रामकी रावणसे भिड़न्त, अप्सराएं यह देखकर प्रसन्न पी। संन्या गा गुदनी जोगा. मग जमणके आहत होनेपर विलाप ।
सरसठवीं सन्धि
१६८-१८५ सेनाकी पशा देखकर राम द्वारा विलाप, संयास्पी निशाचरीका वर्णन, राम द्वारा लक्ष्मणका गुणानुवाद, अभागिनी सीतादेवीको लक्ष्मणके आहत होनेकी खबर लगना, एक निशाचर द्वारा सीताको पुनः रावणके पक्षमें फुसलाना। रावण द्वारा सांध्यकालीन युद्ध समाभिपर अपने सैनिकों को खोज-सर, मृत सामन्तोंके प्रति उसकी समवेदना और परपात्ताप । राम द्वारा अपने सैनिकों को समझामा, राम द्वारा शत्रुसंहारको प्रतिमा, पाम्यूहकी
रचना । माहत लक्ष्मगकी पर्चा । अड़सठवीं सन्धि
१८६-२०१ लक्ष्मणके वियोगमें फरुण विलाप, राजा प्रतिबन्द्रका मागमन, उसके द्वारा विशाल्पाका परिचय, और यह संबेद कि उसके
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स्नान जलसे लक्ष्मण शक्तिके प्रभावसे मुक्त हो सकता है । विशल्याका आख्यान, उसके पूर्व जन्मका वृत्तान्त, भरत द्वारा महामुनिसे पूछना, 'अनंगसरा' (जो आगामी अन्म विशल्या
बनी) का वर्णन। उनहत्तरवी सन्धि
२८२-२२९ राम द्वारा विशल्याको लाने के लिए, सामन्तोंको नियुक्ति, विभिन्न सामन्तों द्वारा प्रस्ताव । एक पूरे दलका प्रस्थान, उनकी यात्राका वर्णन, लकाग समद्रका वर्णन. पर्वतका वर्णन, नदीका वर्णन, (महानदी, नर्वदा ) विन्ध्याचलमें प्रवेश, उज्जन पारियाव होते हुए मालव जनपदमें प्रवेश, मालव जनपदका वर्णन, अयोध्यानगरीमें प्रवेश, उसका वर्णन, भरत से दलके नेता भामण्डलकी भेंट, लक्ष्मणफे शक्तिसे आहत होनेपर, भरतको प्रतिक्रिया, भरतका विलाप, अपराजिताका कन्दन, विशल्याके पिलासे निवेदन, विशल्याका वर्णन आगन्तुक दल द्वारा, विशल्याका का युद्ध शिविरमें आना, उसके तेजसे शक्तिका लक्ष्मण के शरीरसे निकलकर भागना, लक्ष्मणका विशस्याके सुगन्धित बलसे लेप । रामकी सेनामें नवीन हलघल, सचेतम होनेपर लक्ष्मणका विशल्याको देखना, उसके
रूपका चित्रग, विवाह । सत्तरवी सन्धि
२३०-२४७ वृक्ष के रूपकमें प्रभावका वर्णन, लक्ष्मणके जीवित होमेको खबर पाकर रावणका आग-बबूला होना, मन्दोदरीका अपने पतिको समझाना, मन्त्रियों द्वारा मन्दोदरीको प्रांखा, रावण पर इसकी उलटी प्रतिक्रिया, रावण द्वारा रामके सम्मुख दुप्तक
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माध्यमसे सन्धिका प्रस्ताव, राम द्वारा रावणके प्रस्तावको ठुकरा देना, दूत द्वारा रामको सेनाका वर्णन, दूतकी वापसी, लक्ष्मणकी उसे कड़ी फटकार, दर्पोक्तियाँ, वसन्तका आगमन । नन्दीश्वरकी पूजाका ममारोह ! लंका नगरीमें धार्मिक समारोह।
इकहत्तरवी सन्धि
२४७-२७३
रावणका शान्तिनाथ जिन मन्दिरमें प्रवेश, नन्दोश्वर पर्वतमें प्रकृतिका सौन्दर्य, विविध क्रीड़ाओंका वर्णन, घरको स्वच्छता और सफ़ाई, शानदार जिनपूजा, शान्तिनाथ जिनालयका वर्णन, रावण द्वारा बहुरूपिणो विद्याकी आराधना के पूर्व जिनेन्द्रका अभिषेक, शान्तिनाथ प्रभुको स्तुति, स्तोत्रपाठ । बहुरूपिणी विद्याकी आराधना । राम-सुग्रीव और हनुमान द्वारा उसमें विघ्न डालना, रावणकी अडिगता ।
बहत्तरवीं सन्धि
२७३-२२५ अंग, अंगदका लंकामें प्रवेश, संकाका वर्णन, रावणके महलका वर्णन, शान्तिनाथ मन्दिर में उनका प्रवेश, रावणके अन्तःपुरमें प्रवेश, जिम भगवान्की वन्दना, रावणको बाधाएँ पहुँचाना, रावणके अन्तःपुरका मायावी प्रदर्शन, रावणको अगिता और बहुरूपिणी विद्याको सिदि । रावण द्वारा, शान्तिनाथ भगवानकी स्तुति । बहुरूपिणी विद्याफे साथ उसका बाहर निकलना । अन्तःपुरको दोमवशा देखकर रावणका क्रोध 1 समारोहके साच रारणका वहाँले प्रस्थान । मन्तःपुरकी यात्राका वर्णन । रावणका अपने घरमें प्रवेश ।
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तिहत्तरवी सन्धि
२२६-३१३ रावणकी दिनचर्या, तेल मालिश, उबटन स्नान, जिन भगवान्के दर्शन, स्तुति वन्दना । आकर भोजन, विश्राम, त्रिजगभूषणपर बैठकर रावणका सीतादेवोंके निकट जाना । बहुरूपिणी विशका प्रदर्शन । महासती सीतादेवीको बायंका, रावण द्वारा प्रलोभन, सीता द्वारा फटकार, रावणका निराश होकर, अपने अन्तःपुरमें जाना । चौहत्तरवी सन्धि
३१४-३४१ सूर्योदय--प्रभातका वर्णन, राप्रपाका दरबार में आकर बैठना. उसे अपने पुत्र और भाईके अपमानकी याद आना। रावणाका अपनी आयुषशालामें प्रवेश, तरह-तरह के अपशकुन होमा । मन्त्रिवृद्धोंके अनुरोधपर मन्दोदरी दुबारा रावणको समझाती है। रावणकी दर्पोक्ति, मन्योदरी द्वारा रावणको कड़ी आलोचना, युद्धकी तैयारी, युद्धके लिए प्रस्थान । युद्ध संनन राषणका वर्णन । लक्ष्मणका अपना धनुष चढ़ाना, विभिन्न सामन्तों द्वारा अपने-अपने शस्त्र संभालना, सेनावोंका व्यूह, विभिन्न दलों, टुकड़ियों और योद्धाओंमें भिडन्त । गजघटाका वर्णन । उभय सेनाओंमें व्यापक क्षति, युद्धको धूलका फैलना, मोटाका गजघटासे लगना, युद्धका वर्णन । एक दूसरेपर योद्धाओंका प्रहार ।
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पउमचरिउ
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कहराय-सयम्भुएक-किउ
पउमचरिउ चउत्थं जुज्झकण्ड
[ ५७. सत्तवण्णासमो संधि ] हंमदी थिएँ राम-बले खोड जाउ णिसियर-सङ्घायहौं । झत्ति महीहर-सिहरु जिह णिवदिउ हियर दसाणग-रायहाँ।
सूरही सन्दु सुगेचि रउडों। खुहिय लक्षणं वेल समुदहाँ ॥१॥ पहम् काल अगेयइँ जाणउ । मणॆण विसपशु विहीसणु राणा ॥२॥ 'कुल-सेलु समाहर वज्ज । पुरि णन्दन्ति णट्ट विणु का ॥३॥ कल्ले जि मस्उ ण किउ णिवारिज 1 एहि दूसन्धवउ णिरारित ॥१॥ तो वि सहें परिहम्छामि । उपपहें थियउ सुपन्) लावमि ॥५॥ जई कया कि उनसमइ दसा गणु । पावें छाइड पर-महिलाणणु ।।६।। एम वि जद्द महु ण क्रियउ छत्तउ । तो रिउ-साहणे मिलमि गिरुत्तर ॥॥ अप्पाणु वि ण होइ संसारिउ । परिहरिएवउ पारावारिस ॥८॥
पत्ता
सुहि में सूलु परिक्रूणउ परु जै सहोयरु जी अणुभत्ता । भोसह तूरुप्पण्णउ यि चाहि सरीरहों का वि घसा' ॥५॥
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पद्मचारित युद्ध काण्ड
ससावनवीं सन्धि संस द्वीपमें रामकी सेनाको स्थित देखकर निशाचरसमूहमें नोभकी लहर दौड़ गयी । रावणका हृदय पर्वत शिखरकी तरह पलभरमें दो टूक हा गया।
[१] तुरहीका भयंकर शब्द सुनकर लंका नगरी ऐसी क्षुब्ध हो उठी, मानो समुद्रकी वेला हो! इस समय तक यह अनेक लोगोंको विदित हो गया। राजा विभीषण भी मन-हीमन खूब दुःखी हुआ । उसे लगा, मानो कुलपर्वत वन से आहत हो गया है, हँसती-खेलती लंका नगरी व्यर्थ ही नष्ट होने जा रही है. कल मैंने उसे मना किया था, परन्तु वह नहीं माना। और अब भी, उसे समझाना अत्यन्त कठिन है ? फिर भी मैं प्रेमसे उसे समझाऊँगा। वह खोटे राहे पर है ! सीधे रास्तेपर लाऊँगा | शायद रावण किसी तरह शान्त हो जाये । परस्त्रीचोर वह पापसे भरा हुआ है । इस समय भी यदि वह मेरा कहा नहीं करता नो यह निश्चित है कि मैं शत्रुसेना में मिल जाऊँगा ! क्यों कि अपहरण की हुई भी, दूसरेकी स्त्री संसारमें अपनी नहीं होती। सजन भी यदि प्रतिकूल चलता है तो वह काँटा है, शत्रु भी यदि अनुकूल चलता है तो वह सगा भाई है ! क्यों कि दूर उत्पन्न भी दवाई शरीरसे रोगको बाहर निकाल फेंकती है ! ।।१-६||
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पउमचरिट
जो परतिय-परदचाहिसणु । मणे परिचिन्तवि एम विहीसणु ॥ अहिमुडु वलिंग दसाणण-रायहीं। शं गुण-णिबहु दोस-सङ्घायहीं ॥२॥ "मो मो भू-भूमण मड-माण । स्खलहु मि खल सजणहु मि समण ॥३॥ रायण किण्ण गहि महु ययगई। किरण णियहि जन्दल, मयणई ॥४॥ किं स-गेहु णिय-गकरु ण इच्छति । किं वजासणि सिरेय पहिच्छति ॥५॥ कि देवायति सेणु दिसा-वलि । किं उर धरहि जलण-जालावलि ||६॥ कि आरोड हि रामव-केसरि । किं जाणन्तु ग्वाहि बिस-मारि ॥७॥ किं गिरि समु बरुष भाण्डहि । कि चार साल यह छह ॥६॥ कि बिहडन्तउ कक्जु ण सहि । तइयएँ गरएँ भाउ किं वन्धहि ॥१॥ एक्कु अजसु आगगेक्कु भमङ्गन्छ । आण देन्तह पर गुणु कंवलु' 101
धत्ता भणड दसाणणु 'भाइ सुणि जाणमि पंक्समि परमही सङ्कमि । णवर सरीर वसन्ताइ पश्चिन्दियई जिणेवि ण समि' ॥११॥
[1] सो अण-मण-यणाहिरावणो । पर-पगारवर-हरिणादशवणो ॥१॥ दुन्दर-धरणिधर-धरावणो । मह-थर-ऋउमद्ग-करावा ॥२॥ दुञ्ज मजण-मग-जरज्ञरावणों। करिवर-कुम्मथल-कप्परावणो ॥३॥
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सतवण्णासो संधि
[२] विभीषण, जो परस्त्री और परधनका अपहरण नहीं करता, मन में यह सोचकर, दशाननराज के सामने इस प्रकार मुड़ा मानो दोषसमूहके सामने गुणसमूह मुड़ा हो ! उसने कहा, "हे धरती के आभूषण और योद्धाओंके संहारक रावण, तुम दुष्टों में दुष्ट हो, और सज्जनोंमें सज्जन रात्रण, तुम मेरे कथनपर ध्यान क्यों नहीं देते, आनन्द' करते हुए अपने स्जनोंको क्यों नहीं देखते ? घरसहित अपने नगरकी क्या तुम्हें अब इच्छा नहीं है। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारे ऊपर वज्र आकर गिरे ? क्यों तुम अपनी सेनाकी बलि, चारों दिशाओं में बिखेरना चाहते हो ? ईर्ष्याकी आग तुम अपने हृदयमें क्यों रखना चाहते हो ? रामरूपी सिंहको तुम क्यों छेड़ते हो ? विकी बेल जान-बूझ कर तुम क्यों खाना चाहते हो ? पहाड़ के समान अपने महान बड़प्पनको खण्डखण्ड क्यों करना चाहते हो ? अपने चरित्र, शील और व्रतको क्यों छोड़ना चाहते हो ? अपने विगड़ते हुए कामको क्यों नहीं बना लेते, तीसरे नरककी आयु क्यों बाँध रहे हो ? एक तो इसमें अपकीर्ति है, दूसरे अनेक अमंगल भी हैं ! इस लिए तुम्हारे लिए एक ही लाभदायक बात है, और वह यह कि तुम जानकीको अभी भी वापस कर दो।" यह सुनकर दशाननने कहा, " हे भाई, सुन मैं जानता हूँ, देख रहा हूँ, और मुझे नरककी आशंका भी है। फिर भी शरीरमें बसने वाली पाँचों इन्द्रियोंको जीत सकना मेरे लिए सम्भव नहीं" || १-११॥
[ ३ ] जो जनोंके मन और नेत्रोंके लिए अत्यन्त प्रिय था, शत्रु राजाओंके लिए इन्द्रके समान था, जो दुर्द्धर भूधरों ( राजा और पहाड़ ) को उठा सकता था, सैन्या धकापेल मचा सकता था, दुर्जन लोगोंके मनको दहला देता, बड़े-बड़े
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परम चरित
धणय-पुरन्दर-थरहरावणो । सरणाय-मय-परिहराणी ॥४॥ दाणविन्द-दुइम-डरावणो। अमर-मणोहर-बहुअ-रावणी ॥७॥ दाणे महाहरणे तुरावणो । णिसुणिउ जं जम्पन्तु रावणी ॥६॥
भणई विहीसणु कुइय-मणु वयंणु णिएवि दसाणण-करउ । 'मरण-काले प्रासपणे थिएँ सम्वहाँ होइ विसु विचररउ ॥७॥
पुणु वि गरुड संताउ विहीसणे । काई णिवारिउ ण किउ बिहीसणे ॥१॥ काई गरिष्ऽप्पाण सोसहि। एण णिहण पइटु त्रिसोसहि ॥२॥ जण्य-विटेहि-धीय पह-सारिय । परै सयणहुँ भधित्ति पहमारिय ॥३॥ एह ग सीय वणे हिय मल्ली। सध्चहुँ हिंग, पइट्टिय मल्ली ॥ १ ॥ एह ण सीय सांय-संपत्ती । सरह बजासणि संपत्ती ॥५|| एह ण सीय दाव पर सीहाँ। गरगरल्थल-बहल-रसीहाँ ॥६॥ एह ग सीय जोह जमरायहीं। केवक हाणि जसुज्जम-रायहाँ ॥७॥
पत्ता पन्दउ ला स-तोरणिय अणुणहि रामु पमाहि जुन्छ । जाणइ सिविणा-रिद्धि जिह का हुआ ण होइ ण होसई सुना ॥
ते सुणेवि सत्तुत्त-मरणो। स-पुरन्दर-बिजयन्त-मदशो ॥१॥ रयणासव-माहिणन्दणो। दहमुह-दिविचिसाहि-णन्दा ॥२॥ इन्दई णिन-मणे विस्तुओ। जेण हणुठ पहरंदि रुडलो ॥३॥
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सप्तवण्णासमो संधि
गजवके गण्डस्थल काट डालता, कुबेर और इन्द्रको थर-थर कँपा देता, शरणागतके भयको दूर करता, दुर्दम दानवेन्द्रोंको डरा देता, देवताओंकी सुन्दर स्त्रियोंके साथ रमण करता, दान और युद्धमें स्वरा मचाता उस रावणको विभीषणने या कहते हुए सुना। तब रावणके मुखको देखकर कुपित मन विभीषण बोला, "मृत्यकाल पास आने पर सब का चित्त उलटा हो जाता है" ॥१
[४] विभीषणको फिर भी इस बातका बहुत संताप था कि भाईने उसकी बात क्यों नहीं मानी ? राजा क्यों अपना बदनामी करा रहा है, और इस प्रकार जहरीली दवा प्रविष्ट कराना चाहता है ! जो तुमने विदेहराज जनककी कन्याका नगरमें प्रवेश कराया है, वह तुमने अपने ही लोगोंके लिए उनकी होनहारको प्रवेश दिया है। यह (अशोक) वनमें अच्छी भली सीता देवी नहीं बैठी हुई है, यह सबके हृदयमें भालेकी नोक लगी हुई हैं ! यह सीता देवी नहीं, परन् शोकसंपदा है ! लंकापर तो यह गाज ही आ गिरी है ! यह सीता देवी नहीं, किसी श्रेष्ठ सिंहकी दाह है, या किसी गजवरके गण्डस्थलकी खीस है ! यह सीता देवी नहीं, यमराजकी जीभ है और है तुम्हारे उद्यम एवं यशकी हानि । हे भाई, तुम रामको मना लो, युद्ध छोड़ दो | तोरणांसे सजी लंका नगरीको फलने-फूलने दो, स्वानको सम्पदाकी नरद्द सीता देवी न कभी तुम्हारी थी, न अब है, और न आगे कभी होगी ॥१-८॥
५] यह सुनकर इन्द्रजीत अपने मनमें भड़क उठा । इन्द्र और वैजयन्तको चूर-चूर करने वाला, रत्नाश्रवके कुलका अभिनन्दन करने वाला और रावणकी नजरको साधने बाला ! जिसने प्रहार कर हनुमान तक को रोक लिया था। जो आगके
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पउमचरित
हुभ्रषहो च बालोलि-भासुरो । हर सणे व कुही वि मासुरो ॥४॥ कंपरि व्य उद्धसिय-कन्यरो ! गारो लस नाम-धरी ॥५॥ 'तं बिहीसणा पई पनम्पियं । दहमुहस्ल पकयाइ जं पिथं ॥६॥
पत्ता
को तुहुँ के बोल्लावियउ को सो लमषणु को किर रामु । जइ तहाँ अप्पिय जय-सुय तो ह प यहमि इन्दइ णामु' ॥७॥
मणिमुवि विहाँसणु जम्पइ । विरुवउ गिन्दिउ सोयह जं पह ॥१॥ पप्फुल्लिय-अरविन्द-प्पहरण । दुद्धर-गरवरिन्द-टप्प-हरणें ॥२॥ पुरम-दाणव-विन्द-प्पहर” । णीसरन्त-वलहदाँ पहरणे ॥३॥ अणुहरमाण-वाय-फरुपक्कहीं। जे मनन्ति मराफरु साकहाँ ॥४।। से रणे जाणे णियारं चि सकहाँ। तुम्हहुँ मजहों सति परिसकहाँ ॥५॥ जम सम्वु मुहें छुद्धु किनम्तहाँ । मिलेंवि अससे हिँ का कियं तहाँ ॥६॥ जेण खरहीं सिरु खुदिउ जियन्तहों। घउदह-सइसे हिं का कियं तहाँ ॥७॥ सो हरि सारहि जसु पघराहउ । दुज्जउ केण परजिउ राहज ॥६॥
घत्ता
अग्णु वि हणुकहाँ काइँ किड तुम्हहँ तणएँ पइट्ठट जो वणे । दक्खबस्तु णिय-चिन्धाई जिह वियतु कण्णागिहें जोरपणे' ॥९॥
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सप्तवण्णासमो संधि समान ज्वालमालासे प्रचलित, हर और शनिकी भाँति क्रुद्ध होकर भी कान्तिमय । सिंहकी भाँति उसके कन्धे उठे हुए थे
और पावसकी धरती की तरह, जो रोमाच ( अंकुर ) धारण किये था । उसने कहा -"तुमने जो कुछ भी कहा, वह रायणके लिए किसी भी तरह प्रिय नहीं हो सकता। तुम कौन हो ? किसने तुमसे यह सब कहलवाया ? लक्ष्मण कौन है ? और राम कौन है ? यदि सीता देवी उसे सौंप दी गयी, तो मैं अपना इन्द्रजीत नाम छोड़ दूंगा ? ॥१-७॥ .. [६] यह सुनकर विभीषणने कहा, "यह बहुत बुरी बात है, जो तुमने सीता देवीके बारेमें बुरा-भला कहा । यदि युद्ध हुआ तो मुझे हांका है कि दु. में शादी शक्ति नहीं कि तुम उसका सामना कर सको। वह युद्ध, जो खिले हुए कमलोकी भाँति चमक रहा है, जिसमें दुर्द्धर नरेशोंका घमण्ड चूर-चूर हो चुका है, जिसमें दुर्दमदानव मौतके घाट उतर रहे हैं, जो आगे बढ़ते हुए रामके हथियारोंसे आक्रान्त हैं। अनुरूप बाण और फरसों से लैस इन्द्रका भी अहं, जो चूर-चूर कर देते हैं। रामने जब शम्बूकको यमके मुख में डाल दिया था, तब तुम सबने मिलकर भी उनका क्या कर लिया था ? जिन्होंने जीते जी खरका सिर काट डाला, तब चौदह हजार होकर भी तुमने उनका क्या कर लिया था: अनेक युद्धोंका विजेता लक्ष्मण, जबतक रामका सारथि है, तबतक यह अजेय है। उसे कौन युद्धमें जीत सकता है ? इसके अतिरिक्त, हनुमानने जब तुम्हारे नन्दनं वनमें प्रवेश किया था, तब तुमने उसका क्या कर लिया? उसने अपने निशान उस उपवनमें वैसे ही छोड़ दिये थे जैसे कोई विदग्ध, कर्णाटक बालाके यौवन में अपने चिल्ल अंकित कर देता है ।।१-९॥
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पड़मचरित्र
तं णिसुणे वि रूसित दसाणणो। जो सयं मुरिन्दभ्स हाणणों ॥३॥ करें समुक्षयं चन्द्रहासयं । विष्फुरन्तमिव चन्दहासयं ॥२॥ 'मरु पाढमि महि-मगरले सिरं। मम गिन्दय पर पसंसिर' ॥३॥ ताहि अवसर कुही विहीसणो । जो अणे मुम्युइओ विहीसी ॥३॥ लइउ खम्भु मणि-स्यण-भूसिओ । दहवयणस्स जसो च भू-सिधा । वे वि पधाइय एकमक्कहो । जणु जम्पद सिय एकमे कहो ॥ ६ ॥
मण्ड परन्त-धरन्ताहुँ गाइँ परोप्यरु ओवडिय
घत्ता म-तरु म-खम्ग विहीसण रावण । उद्ध-सोगड अइरावय चारण ॥७॥
[८] नरबह धरिट कडर, मन्तिहिं । कर भवराहु सशरा म तिहिं ॥ ५॥ विहि भाइहि अपोकही तणयहीं । जो जीवियही सारु सउ तणयहाँ '॥२॥ तो वि पा थकाइ अमरिस-कुनउ । जो घर-जयहि-बिहूसिय-कु-खुउ ॥३॥ 'अरे रथल खुद पिसुण अकलकहें । मरु मर गोसरु णासरु लकहें ॥४॥ भपाद विहीसणु 'जण-अहिरामहौँ । जप अच्छमि तो दोहउ रामही ॥५॥
वरि गरिन्द मूठ अवियपा । जिस मक्कहि तिह सरवहि अप्पड' ॥६॥ एम भणपिशु गाउ णिय-भवणहाँ । णाई गहन्दु रम्म-सम्म-वणहाँ ॥ ७ ॥ तीसक्खोहहिं हरि-सेवकही। गिरउ मिलन्तु हरिमें णही ॥६॥
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ससवपणासमो संधि [७] यह सुनकर रावण को भर उटा ! वहाण, डो सैकड़ों इन्द्रों को मार सकता था, चन्द्रकी तरह अपनी चमचमाती चन्द्रहास तलवार हाथ में लेकर उसने कहा, "मैं तुम्हारा सिर अभी धरती पर गिराता हूँ | तू मेरी निन्दा कर रहा है और शत्रकी प्रशंसा ।' तब विभीषण भी आवेशमें आ गया। वह विभीषण, जो ऋद्ध होनेपर, लोगों में निडर घूमता था उसने मणि और रत्नोंसे अलंकृत खम्भा उठा लिया, जो रावणके यशकी तरह शोभित था । जब वे इस प्रकार एक दूसरे पर दौड़े तो लोगों में कानाफूसी होने लगी कि देखें जयश्री दोनों में से किसे अपनाती है। बलपूर्वक एक दूसरेको पकड़नेके प्रयासमें, पेड़ और तलवार लिये हुए वे ऐसे लग रहे थे मानो अपनी सूंड़ उठा कर ऐरावत हाथी एक दूसरे पर टूट पड़े हों ॥१-७॥
[८] इतने में मन्त्रियोंने ताना कसते हुए उन दोनोंको रोक लिया और कहा, "आदरणीयो, आप लोग आपस में एक-दूसरेके प्राण न लें, वे प्राण जो अनेकों और स्वयं आपके जीवनका सार हैं।" यह सुनकर भी अमर्षसे क्रुद्ध रावण नहीं माना । उसकी पताका धरती पर समुद्र पर्यन्त फहरा रही थी। उसने विभीषणको लक्ष्य करके कहा, "अरे दुष्ट क्षुद्र चुगलखोर जा मर, मेरी कलंकहीन लंकासे निकल जा।" विभीषण इस पर कहता है, "यदि अब भो मैं यहीं रहता हूँ तो अभिराम रामका विद्रोही बनता हूँ। रावण, तुम मूर्ख एवं विवेकशून्य हो, जिस तरह सम्भव हो अपने आपको बचाना।" विभीषण वहाँ से अपने भवनमें उसी प्रकार चला गया, जिस प्रकार महागज कदली वनमें प्रवेश करता है। इधर लक्ष्मणकी, इर्षसे भरी हुई तीस हजार अक्षौहिणी सेना आकाशको रौंधती हुई कूच
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पउमचरित
घत्ता
सहद विहोस यीमरिउ सुहि-सामन्त-मन्ति-परियार (य)उ । जसु मुहु मइलेंवि रावणहाँ रामही संमुटु णाई णिसरियड ॥९॥
[९] हंसदीव-तारोवर-अयं । वर-मुरा-वर-करि-वरन्धयं ॥३॥ सुहद-मुहर- पंखाह-मासुरं । परह-भरि-संग्बोह-मासुर ।।२।। णि वि सेण्णु रत्रि-मण्डल-गण । दइ दिदि हरि मणलग्गः ॥३॥ दुरिणवार-वइरी सरासणे। राहवो वि स-परे सरासणे ॥३॥ ताव तेण बहु-पुण्णमाइया । स-विणएण दहवयण-माइणा ||५|| दण्डपाणिपट्टविउ महचलो। जहिं स-कण्हु पष्टिचक्रल-मल-वको ॥६॥ पदिऊण विण्णबिर हो । जरे गिलुट-सरणिपुरायो ||sil एक क्यणु पमपाइ विहीसणां । 'तुम्ह भिच्चु पवहि विहीसणो |||
पत्ता ण किंउ णिवारिउ रावणेण लज वि माणु नि मी परिचत्तउ । परम-जिणिन्दही इन्दु जिह नेम बिहीमाणु सम्हहँ भत्त' ॥९॥
[१०] तं गिसुणेचि वयगु तहाँ जोहों । जे जे के त्रि राय रज्जोहहाँ ।।१।। ते ते मिलिया रणे इ सुमन्तहों । महकन्तेण बुत्तु सामन्तहाँ ॥२॥ 'इच्छहाँ क्लाहों देव पतिजा । तो ग णिसायरा पत्तिजह ॥३॥
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सप्तवण्णासमो संधि करने लगी। पण्डितों, सामन्तों और मन्त्रियोंसे घिरा हुआ विभीषण जा रहा था। उस समय वह ऐसा लग रहा था,जैसे राषणका यश और मुख मैलाकर रामके सम्मुख जा रहा हो॥१-९||
[.] विभीषणने देखा कि इंसद्वीपमें रामकी सेना ठहरी हुई है। अश्वों, गजों और अस्त्रोंसे युक्त है। रथों और योद्धाओंके नामसे मकर, और नगाड़ों एवं भरीस भयावह ! जब लक्ष्मण ने सूर्यमण्डल में सेना देखी तो उसने अपनी नजर तलवारकी नोक पर डाली। शत्रुओंके लिए दुनिवार, रामकी दृष्टि भी शत्रुओंके सिर काटनेवाले तीरों सहित अपने धनुपपर चली गई । परन्तु इतने में, रावणके भाई, महापुण्यशाली विभीषणने अत्यन्त विनयके साथ, अपना महाबल नामका दूत भेजा। उसके हाथमें दण्ड था। वह वहाँ गया जहाँ लक्ष्मण के साथ राम थे। उसने, युद्धमें संहारक तीर छोड़नेवाले रामसे प्रणामपूर्वक निवेदन किया, "विभीषण शक ही बात आपसे कहना चाहता है, और वह यह कि आजसे वह तुम्हारा अनुचर है। उसने बहुतेरा मना किया। परन्तु रावण नहीं मानता उसने अपने मनमें लङजा और मानका भी परित्याग कर दिया है । जिस प्रकार इन्द्र परम जिनेन्द्रका भक्त है, उसी प्रकार आजसे विभीषण तुम्हारा भक्त होगा।" ||१-९॥
[१०] उस योद्धा इतके शब्द सुनकर चे सब राजा इकटूटे हो गये जो उस राजन्य समूहमें वहाँ थे। इसी बीच, रामके मन्त्री मतिकान्तने सभी विचारशील सामन्तोंके सम्मुख यह निवेदन किया, "हे राम, इस बातको निश्चित समझा जाय कि रावण चाहे अन्न सीता देवीको वापस भी कर दे, तब भी निशाचरोंका विश्वास नहीं करना चाहिए । इसका चरित कौन
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पउमचरित
एयो साग चारु की जाइ । जहि लेण लिय चणे जाणइ॥४॥ पभग इ महसमुह इमु आवइ । पनिर बल पर-पुणे हि श्रावह ॥ २॥ पत्तिय पहिं रावण जिजइ । गिय-मण सचल सजिइ ।।। किङ्कर-वहा हिँ : जि पहुच्चइ । नाह मि पाहणे ऐहु जि पशुबइ ॥७॥ मिहिउ विहम ल पईसहौँ । लग्गड करयल पाय हलासहीं ॥४॥
घना द्विजउ रज विहीमणहाँ जण वे वि जुज्झन्नि पगप्परु । अम्हहुँ काइँ महाहवेण पर जे परण जार सब-सकरु ॥९॥
[ १] में णिमुणघिणु पण्डि माई । जो किर वम्महु मयाणु मा-रुई ॥१॥ 'देव देव दविन्द-मासणं । माउ कला वि मा दसामणं ॥२॥ आउ विहीसणु परम-सजणी । विणयनन्त दुम्पाय-विसजणी ॥३॥ सज्ञवाद जिण-धम्म-चरलो । सयल-काल-परिचात-बच्छलो ||t मई समाणु एणासि अम्पियं । तं रेमि हलहरहों जं पियं ।।५।। जह महु युक्त ण किउ राणं । तो रिउ-साहणे मिलमि राण' ॥६॥
पत्ता
नं णिमुप्पणु राहण पसिट दण्डपाणि हकारउ । आउ विहीपणु गह-सहिउ एयारामु गाई अङ्गारउ ||७||
[१२] जय-जय-सर मिलिउ बिहीसणु । विहि मि परोप्पर किस संमासणु ॥१॥ मणइ रामु ‘णउ पइँ कजामि । गोसावण्ण ला भुशवमि ॥२॥ सिस तोडमि रावणहाँ जियन्तौँ । संसमि पाणश कयन्तहों ॥३॥
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सत्सवण्णासमो संधि जान सकता है ? इसने वनमें सीता देवीका अपहरण किया है।” इसपर मतिसमुद्रने कहा, "मेरी समझ में तो इतना ही आता है कि इतनी सेना पुण्यसे मिलती है। विश्वास कीजिए रावण अब जीत लिया जायगा, अपने मनसे समस्त शंकाएँ निकाल दीजिए। बहुत-से अनुचरोंके साथ, यह जैसे यहाँ
आया है, जैसे ही यह यहाँ भी जा सकता है। अब विभीषण मिल गया है । लंकामें प्रवेश कीजिए। हे राम, समझ लो अब सीता हाथ लग गयी।" विभीषणको राज्य दे दो जिससे वे दोनों आपस में लड़ जॉय । यदि दुश्मनसे दुश्मनके सौ टुकड़े हो सकते हैं, तो हमें महायुद्धसे क्या करना है।॥१-६॥
[११] यह सुनकर हनुमानने, जो कामदेवके समान सुन्दर और लक्ष्मीकी भाँति कान्तिमय था, कहा-हे देव, यह सच है कि इन्द्रको पराजित करनेवाला रावण युद्ध में मेरा शत्र है । परन्तु यह जो विभीषण आया है वह अत्यन्त सज्जन, विनीत, अनीतियोंको दूरसे छोड़ देनेवाला, सत्यवादी और जिनधर्म वत्सल है। छलकी बातें इसने हमेशाके लिए छोड़ दी है ? मुझसे इसने कहा है-मैं वही करूँगा जो रामको प्रिय होगा । यदि राजाने मेरी बात नहीं मानी तो भी शत्र सेनामें जा मिलूँगा।" यह सुनकर रामने दूतको विसर्जित कर उसे बुला भेजा। विभीषण भी अपने परिकरके साथ आया। वह ऐसा जान पड़ रहा था मानो ग्यारहवाँ मंगल नक्षत्र हो।।१-७॥
[१२] विभीषण जय जय शन्दके साथ आकर मिला। दोनोंकी आपसमें बातें हुई | रामने उससे कहा - "मैं तुम्हें शर्मिन्दा नहीं होने दूंगा, तुम समस्त लंकाका भोग करोगे।" रावणका में जीते जी सिर तोड़ दूंगा और उसे यमका अतिथि
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पउभचार
तेण चि पुत्तु 'महारा राहव । सुहउ-सीह शिष्चूढ-महाहव ॥ ७॥ जिह अरहन्स-णाहु पर-लोयहाँ। तिह तह सामिसालु इह-लोयही ' ॥५॥ एच जाम्ब पचवन्ति परोप्यरु । ताम विदेह हे णपण-मुहका ॥६॥ अक्योइणि सहामु मामण्डलु । पाइँ मुहि समाण वा]म्यण्डलु ॥७॥ आउ प्याहमा गाणा-जाणेहि। मणि-मोतिय-बाल अपमाणे हि ॥८॥
पत्ता मणे परितुहं राहवेण गरवइ-विन्दु सग्रलु ओसार वि । अवण्डिउ पुष्फवइ-मुर साहसु म ई भु अ-जुअल परमार वि ॥९॥
[ ५८ अट्ठवण्णासमो संधि ] मामण्डलें भीसणे मिलिग विहीमणे कुणय-कुबुद्धि-विजयउ । वस्थाणे दसासहाँ लच्छि-णिवासह) अङ्गः दुट त्रिसब्जियउ ।।
घलए पमणिउ जम्बवन्तु । 'एप्तिहुँ म को वुदिषन्तु ||१|| किं गवउ गवस्तु सुमेणु नारु । किं अक्षणेउ रणें दुण्णिवारु ॥२॥ किं णलु किं पाल किमिन्दु कुन्दु 1 किं अउ कि पिहुमह महिन्दु ॥३॥ किं कुमुउ विहिउ त्यणमि । कि भामण्डलु किं चन्दरासि ॥४॥ जं एव पपुच्छिउ राहवेण । विष्णविड णवंपिणु जम्वघेण ॥५॥ 'पसणे सुरेणु विष्णए वि कुम्नु । पन्नों मम्र्स भइसमुदु ।।६।।
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अट्टबपणालमो संधि बनाऊँगा।” तब विभीषणने भी कहा, “आदरणीय राम, आप सुभदों में सिंह हैं, आपने बड़े-बड़े युद्धोंका निर्वाह किया है। जिस प्रकार परलोकमें अरहन्त नाथ मेरे स्वामी हैं, उसी तरह इस लोकके मेरे स्वामीश्रेष्ठ आप हैं।" इस प्रकार उनमें बातें हो ही रही थी कि सीता देवीके नयनोंके लिए शुम भामण्डल भी एक हजार अक्षौहिणी सेनाके साथ ऐसे आ गया मानो देवताओंके साथ इन्द्र ही आ गया हो । मणि, मोती और मूंगोंसे युक्त तरह-तरह के विमान उसके साथ थे। राम मन ही मन गद्गद हो उठे । नरपति समूहको उन्होंने विदा दी। और पुष्पषतीके पुत्र भामण्डलको अपनी हर्ष-भरी भुजाएँ फैलाकर गरेसमा लिगा । १...।।
अट्ठावनवीं सन्धि भीषण भामण्डल और विभीषणके मिलनके अनन्तर, रामने कुनीति और कुबुद्धिसे रहित अंगद को, लक्ष्मीके निवास, राषणके पास भेजा।
[१] रामने जाम्बवन्तसे पूछा-'बताओ इनमें से कौन बुद्धिमान है। क्या गवय और गवान, या सुसेन और तार ? क्या युद्ध में दुनियार हनूमान ? क्या नल और नील ? क्या इन्द्र और कुन्द ? क्या अंगद पृथुमती या महेन्द्र ? क्या कुमुद विराधित और रत्नकेशी ? क्या भामण्डल और चन्द्रराशि " रामने जब इस प्रकार पूछा तो जाम्बवन्तने प्रणामपूर्वक निवेदन किया,--"आज्ञापालनमें सुसेन निपुण है और पिनयमें कुन्द । पंचांगमन्त्रमें मतिसमुन्द्र विशेष योग्यता रखता है।
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पउमचरिउ
अङ्ग दूसरों महत् ।
पाल-गील पयाग सइ समत्य ॥७॥
महुमह हणुषु हव बनाएँ । सुग्गीज कुहु मि पुजु विजय-कार्ले ' ॥८॥
घत्ता
५८
नं णिमुवि रामें शिग्गय-नामें अनड जोसिउ दूक्ष मरें ।
'भणु " किं विश्वारे समड कुमारं अअ वि रात्रण सन्धि करें" ॥९॥
अणु मिसन्देस
बुच्चइ "लक्सर चारु चारु ।
हि नासु ।
जइ सच्चड रयणास वहीं पुत्तु ।
हउँ लग्गत कुठे फक्खड़ आम
एत्तिय वि तो वि त भाउ बुद्धि
।
तं णिसुर्णेवि मड-डम
।
'दादिपट जासु जसु वाहु-दण्ढ सो दीण वय पहुच के
आहिँ आत्ताचे हिँ
वायर सुमन्त हुँ
जं सन्धि इच्छिय हुजूरेण हरि-यहिँ अमरिस कुए
।
[R]
बहु-दुष्णय वन्हों रावणासु ॥१॥
को परतिम लेन्ज
पुरिसयारु ॥२॥
तो एकाई वह
जु ॥ ३ ॥
पहुँ छम्मेंषि णिय वइदेहि ताम ॥ ४॥
अहिमाणु मुएप्पिणु करहि सम्धि" ॥५॥
वसा
गलिय-पया हि एउँ तुम्हइँ बाहिर सिंह | सन्धि करन्तहुँ अदन्ताह- शिवाड जिह' ॥१॥
वि
।
किमक्रिउ रामु जणणेण ॥५॥
असु व पुत्तिय णरवर पयण्ड ॥ ७ ॥ एक्कल करें सम्भाणु देव ॥ ८ ॥
[ ३ ]
तं वज्रावत-धगुदरेण ॥ १॥
सन्देस दिष्णु विरुद्धएण ॥ २ ॥
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अनपणासमो संधि दूतकार्य में अंग और अंगद बड़ा महत्त्व रखते हैं। प्रस्थानके समय नल और नील बहुत समर्थ हैं। युद्धके कोलाहलमें मधुको मौतके घाट उतारनेवाला लक्ष्मण, हनूमान और विजयादों आप और सुगीन मार्ग है!" ' सुनकर विख्यातनाम रामने दूतका कार्यभार अंगदको सौंपते हुए उससे कहा-"शीघ्र तुम रावणसे जाकर कहो कि अधिक बात बढ़ाने में कोई लाम नहीं है । तुम आज भी कुमार लक्ष्मणके साथ सन्धि कर लो" ॥ १-२॥
[२] अपना संदेश जारी रखते हुए रामने और कहा"अनेक अन्यायोंके विधाता रावणसे यह भी जता देना कि हे रावण ! दूसरे की स्त्रीके अपहरणमें कौन सा पुरुषार्थ है ? यदि तुम रत्नाश्रवके सच्चे बेटे हो, तो क्या तुम्हारा यह आचरण ठीक है ? मैं जब लक्ष्मणका अनुसरण कर रहा था, तब तुम धोखा देकर सीता देवीको ले गये । और अब यह सम हो जाने पर भी, तुममें कुछ बुद्धि हो तो घमण्ड छोड़कर सन्धि कर लो।" यह सन्देश सुनकर, योद्धाओंको चकनाचूर कर देनेवाला लक्ष्मण रामपर बरस पड़ा। उसने झिड़ककर कहा, "जिसकी भुजाएँ और यश इतने ठोस हो, जिसकी सेनामें एकसे एक बढ़कर नरश्रेष्ट हो? फिर श्राप इतने दीन शब्दोंका प्रयोग क्यों कर रहे हैं ? हे देव, आप तो केवल धनुष हाथमें लीजिए और उसपर झर सन्धान कीजिए ! आपकी इन "ओजहीन बातोंसे मैं उतना ही दूर हूँ जिस प्रकार व्याकरण सुनने वाले और सन्धि करने वालोंसे उदन्तादि निपात दूर रहते हैं।" ॥ १-९॥ .
[३] वशावर्त धनुष धारण करनेवाले लक्ष्मणके शब्द सुनकर राम भी एकदम भड़क उठे। उन्होंने सन्धिकी बात
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पडमचरित
'भणु"दहमुह-गयवर गिल्ल पाण्डे । किय कुम्भथषण-उदण्ड-सोपा ॥३|| हत्य-'यहत्य-दारुण-बिसाणे । सुथसारण-षण्य-रुपदमाण ॥४॥ णि वडेसह तहि वळएव-सीहु । हणुचन्त महन्त-मतान्त-जीहु ॥५॥ कुन्देन्दु-कग्ण-सोमित्ति-वयणु ।। विषफारिश्र-गयय-गवरब-गायशु ॥॥ पल-गील-वियद-दावा-करालु । जम्वच-भामण्डल-कसराल ॥७॥ भाजय-तार-सुसंणणहरु । साहण-
पगुलगिगाण-पहरू ॥८॥
घसा
सा राहव-कसरि शिव वि उपपरि मिसियर करिकुम्भधळई । लोकगू 0 दळेसइ कादों वि लेसइ जाणइ-अस-मुत्ताहल." ' ॥९॥
समाङ्गणे एके लक्षणेण । ससउ एसिड तकखणेण ॥६॥ 'भ'जहि जे जहि जे सुहें कुमुभ सण्ड। सहि तहि सो दियश्लेय-पिण्डु॥२॥ जहि नहि नहुँ गिरिषरु सिहर-खण्टु । सहि तहि सो कासव-कुलिस-दण्दु॥३॥ जहिँ जहिं आसीधिसु हाँफणिन्दु । वहि तहि सो भासणु वर-खगिन्दु।।७।। जहि जहिं सुहुँ गलगजिय-गहन्दु । तहि तहि सो बहु-माया-मइन्दु ॥५|| जहिं नहुँ हवितहि जमणिहि-णिहाउ | जहि तुहुँ घणुतहिं सोपलय-चाउ ॥३॥ जहि तुहुँ उन्भ तहि सो विणासु । जहि नुहुँ च-
ससहि सोसमासु॥॥ जहिं तुहूं णिसि तहि सो पवर-दिवमु । जहि नहुँ तुरङ्ग सहि सोवि महिसु ॥८॥
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अढवण्यासमो संधि छोड़ दी। उन्होंने फिर अपना सन्देश दिया-"जाकर उस रावणसे कहना कि दशमुखरूपी हाथीपर रामरूपी सिंह आक्रमण करेगा । उस दशमुख गजके गाल आर्द्र हैं । कुम्भकर्ण उसकी उरण्ड सुंदके समान है, हरन और पदमा उसके विषम दाँत हैं। मन्त्री सुत सारण बजते हुए घण्टारवके समान है। इधर रामरूपी सिंह भी कम नहीं है । हनुमान उसकी जीभ है, कुन्द और इन्द्र कर्ण तथा लक्ष्मण उसका शरीर है। गवय और गवाल उसके विस्फारित नेत्र हैं । नल और नील उसकी दो भयंकर दाद हैं। वह रामरूपी सिंह एकदम भयंकर है। जामवन्त और भामण्डल उसकी अयालकी भाँति है। अंग और अंगद तार, मुसेन, उसके नख हैं। उसकी पूंछके बाल है, पीछे लगी हुई सेना । ऐसा रामरूपी सिंह निश्चय ही, निशाचररूपी हाथियोंके गण्डस्थलोंको एक ही आक्रमणमें चूर चूर कर देगा, और उससे जानकोरुपी मोती निकालकर ही रहेगा।" ॥ १-२॥
[४] तब, समराङ्गणमें अजेय लक्ष्मणने भी फौरन अपना सन्देश भेजा,-"जाकर रावणसे कहना जहाँ जहाँ कुमुद समूह है, वहाँ पर मैं तेजस्वी दिनकरके समान हूँ। यदि तुम गिरिशिखरोंकी तरह लम्बे-तडंगे हो तो मैं भी इन्द्रका वन्न हूँ । यदि तुम नागराजके विषले दाँत हो तो मैं भी भयंकर पक्षियोका राजा गरुड़ हूँ। यदि तुम गरजते हुए हाथी हो तो मैं बहुमायावी मृगेन्द्र हूँ| यदि तुम आग हो तो मैं समुद्र समूह हूँ। यदि तुम महामेघ हो तो मैं प्रलयपवन हूँ । यदि तुम उद्भट हो, तो निश्चय ही अपना विनाश समझो। यदि तुम 'च' शब्द हो तो मैं उसके लिए समास हूँ। यदि तुम रात हो तो मैं दिन हूँ। यदि तुम अश्व हो तो मैं महिष हूँ |
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पउमचरित
धत्ता जालें थलें पायालहि विसम-खयाल ह तुहूँ जर-पायवु-जहि जे जहि । लग्गेसह विसङ प्रत्ति पक्त्तिर लक्षण-हुअवहु तहिं जें सहि" '॥९॥
[५] पुत्थन्तर रण-मर-भोसणेण । सन्देसर दिगु घिहीसणेण ॥१॥ 'मणु “रावण आईं कियईं छलाई । दरिसावमि ताई महाफलाई ॥२॥ में हत्थे कदिडत चन्दहासु । जे हत्थे चारिहि किउ विणासु ॥३॥ जे हाय पणहुँ दिष्णु दाणु । जे हरर्थे भणयहाँ मजिउ माशु ॥४॥ जे हत्थे साहुकारु दु । जे हत्थं सुरवइ समरे बबु ॥५॥ ज हत्य सइँ समल हु। जे हत्थे वरुणही क्रियउ भा ॥६॥ जे हत्थें फदिदय राम-परिणि । पजाणण वणे जम हरिणि ॥७॥ तहाँ हत्यहाँ आइज पलय कालु । मइँ उप्पाडेबउ जिह मुणालु" ||८||
धत्ता भगणु वि सविसेसउ कहि सन्दसउ "प पीवि जम-सामणहौँ । राहव-संसगी पुरि आवगी होसर पर विहीसाणहाँ" ' ||
एत्थन्तर दिण्णु स-मच्छरेण । सन्दसर किन्धंसरण ।।१।। 'भणु "गवण कलकवणु चौजु । सुम्गाउ करेसइ समर मोज ।।२।। दुप्पेकप-तिक्ख-णाराय-भतु । कपिप्पथ-बुरुप्प-अग्गिमउ देन्तु ॥३॥ मुच्छक-क-बाप्पदयाभार । सर-मसर-मत्ति-सालणय-सार ॥४॥ सीरिय-तोमर-तिम्मण-णिहाउ । मामार-मुसण्डि-गय-पत्त-साउ ॥५॥
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अण्णासो संधि
२३.
जल, स्थल या आकाशमें कहीं भी तुम रहो, तुम जैसे जीणं वृक्षों पर प्रक्षिप्त शीघ्र प्रदीप्त लक्ष्मणरूपी आग लग कर रहेगी | ॥१-८॥
[4] इसी समय, रणभारमें भीषण, विभीषणने भी अपना सन्देश दिया - "रावणसे जाकर कहना कि तुमने जो भी भयंकर छल किये हैं, उनका फल तुम्हें खाऊँगा । तुम्हारे जिस हाथने चन्द्रहास तलवार प्राप्त की, जिस हाथने शत्रओं का विनाश किया है, जिस हाथने याचकोंको दान दिया जिन हा दिवा जिन हाथने 'जय' अर्जित की, जिन हाथोंने इन्द्रको बन्दी बनाया, जिन हाथोंसे तुम्हें कामदेव उपलब्ध हुआ, जिन हाथोंने वरुणको भंग किया, जिन हार्मोने रामकी पत्नीका अपहरण किया, ठीक उसी प्रकार जैसे वनमें सिंह हिरनीका अपहरण कर ले, लगता है अब उन हाथोंका प्रलय काल आ गया है। मैं उन हाथोंको कमलनालकी भाँति उखाड़ फेकूँगा ।" विभीषणने अपने सन्देश में यह विशेष बात भी कही"उसे ( रावणको ) बता देना कि तुम्हें यमके शासन में भेज दिया जायगा, और श्री राघवके सहयोगसे कल लंका नगरी मेरे अधीन हो जायगी । ” ।। १-२ ।।
[६] उसके बाद, किष्किन्धा नरेशने भी मत्सरसे भरकर अपना सन्देश देना प्रारम्भ किया, "जाकर रावणसे पूछना कि कल कौन सा महोत्सव है, सुग्रीव कल युद्धके आँगन में हो भोज देगा, दुर्दर्शनीय तीखे तीर उस भोजनमें भात होंगे। कर्णिका और खुरुप अस्त्रोंसे मैं पहला कौर ग्रहण करूँगा । छोड़ा गया एक चक्र उस भोजनमें घृतधाराका काम देगा । सर, झसर और शक्ति (अस्त्र) उसमें सालनका स्वाद देंगे 1 तीरिय और तोमर मिष्ठान्न के संघात होंगे। मुद्गर और
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२४
पउमचरिउ
सचल-हुलि हल करवाक - इलु । फर-कराय कोन्स कलवण - विक्खु॥ ६ ॥
तं नेह भोजु अकाय रेहिं * इन्द्रइ चष्णवाहण- रावणेहि ।
सुपरऍणियारेहिं ॥ ७ ॥ हाथा-पहस्थ-सुसारहि ॥ २४ ॥
प्रधा
भुत्तोसर - काले हि रणउह सार्लेशि दीहर-णि मुतहिँ । अच्छेवर सार्वेहि चिंगय-पयावहिं मधु सर-सेज हि सुत्नऍहि" ॥९॥
3,
[ + ]
गुगु पच्छले सुर-कार-करण | सन्देस दिनइ मरु-सुरण ॥१॥ 'भणु इन्द्र "इच्छिउ देहि जुज्छ । हणुवन्तु भिडेस पर तुच्छ ॥२॥ स्त्रियण-वयमा । भन्तु मम्फर रिड-मडा है || ३ || अलि चुम्बिय-लम्बिय-मुहवडा । असि घाय हेतु सिरें गय घटाइँ ||४|| पढिकूल पवर-पवगुच्छाहूँ । मोदन्तु अधया ॥ ५॥ विहढप्फट-कम कराएँ । भजन्तु पलक रुर्णे रहबराई ॥ ६ ॥ दिव गुड न्तु तुरक्रमाएँ । पर-बलु बलि दिन्तु विहङ्गमाएँ ॥ * ॥ दरिखन्तु चदि मह-चियाहूँ । धूमन्तहुँ जिह जण मुहाई ॥ ८ ॥
घत्ता
इय लीलाएं साणु रह गथ वाहणु जिड़ उपवणु विह विभि जें पन्थे अक् णि दुप्पेक्खड ते पाव पहुँ पटुवमि" ' ॥ २ ॥
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सीय-सहावरे ||१||
पुणु दिष्णु अफरेण । सम्देस 'मणु "एसई अजउ अलख थाहु । कल्लऍ मामण्डल - जलपवाहु ||२॥
पहरण कर णरवर जरूयगेहु |
य-धवल-छत्त डिण्डीर सोडु || ३ || पवणाय-पय-रि-विहङ्गुः || ४ ||
उच्चु तुरङ्ग-तरङ्गमञ्जु |
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सभी मंधि
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भुसुण्डी पत्तांक साग होंगे। सव्वल, हुलि, हल तथा करवाल इसकी जगह होंगे, पर कणय, कोंत और कल्लवण नमकीनका काम देंगे। कल सहस्त्रप्राप्त शुक्रवार आदि निशाचरोंको मैं ऐसा हो भोज दूँगा । भोजके अनन्तर रग में श्रेष्ठ, गहरी नींद से अभिभूत प्रतापशुन्य वे जब मेरी शरशय्या पर सो रहे होंगे तो मैं भी वहाँ रहूँगा " ।। १-६ ॥
[७] अन्तमें गजशुण्डके समान हाथ वाले पवनसुत हनुमान ने भी अपना सन्देश दिया – “इन्द्रजीत से कहना, मुझे इच्छित for a दो, कल सबेरे तुमसे लड़ेंगा, अपने भयावह नेत्रों युद्ध और मुखोंसे अत्यन्त उट शत्रुयोद्धाओं का घमण्ड, मैं चूर-चूर कर दूँगा । सोरोंसे चूमी गयी और लम्त्रे मुखपट वाली राजपटाके सिर पर मैं तलवार की चोट करूँगा। जल्दी हवा में, और प्रयोपित ध्वजाओंके डोंको मोड़ दूँगा। व्याकुलता और करनेवाले रथोंका प्रसार, मैं युद्धमें एकदम रोक दूँगा । अश्वोंकी मजबूत लगामोंको तोड़ दूँगा । शत्रुसेनाकी पक्षियोंको बलि दूँगा | भटसमूहको चारों दिशाओं में ऐसा घुमा दूंगा जैसे दुर्जनों को घुमाया जाता है । रथ हाथी आदि वाहनोंको मैं उद्यान की ही भाँति खेलमें उजाड़ दूँगा, है पाप, मैं तुझे भी उसी रास्ते भेज दूँगा जिस रास्ते दुर्दर्शनीय अन्नयकुमार गया है । " ।। १-२ ।।
[८] इसके बाद, अखण्डितमान, सीताके भाई भामण्डलने अपना सन्देश दिया और कहा, "कल भामण्डल एक ऐसे जल प्रवाहकी भाँति आयेगा, जिसकी थाह, कोई नहीं पा सकता । प्रहार करनेवाले नरवर उस प्रवाहके जलकी मछलियाँ होंगी । चंचल श्वेत छत्र, उसमें फैनकी शोभा देंगे। ऊँचे अड़ों रूपी लहरोंसे वह प्रवाह अत्यन्त कुटिल होगा। पवनाइत पताकाएँ
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पउमचरि
चाहरुरह ? सुसुपर-पयस् । गज्जन्त-सप्त-भागङ्ग-मगरु ||५|| विगाह फरोह- कच्छु ॥ ॥ ॥ सिय-चमर-दखायाषकि समूहु ॥७॥ रोल पसइ अथाहु" " ॥८॥
करवा-पहर-परिहल-मच्छु | इम्मयल-सिलायल-विसम-हु
तेल भामण्डल- अपबाहु |
२६
धत्ता
वुच्चाइ गल-गीर्केहिँ दूसम-सी हिँ 'अय गम्पिशु एम भ । "अरे हत्य-पहत्यों पहर-हस्वद्द जिह क्यों लिह थाडु रण" ||९||
[ ५ ]
निम-वहरु सरेषि जसाहिएन । सन्देस दिष्णु विशहिरण || १ || मणु " रावण जिह पहूँ कि भज्छ । चन्दोयरु मा बि लड्ड रज्छ ||२॥ वायर प्रेम जं पुज्वणी । वायरणु जेम स-विसज्जनोड ॥३॥ कायर प्रेम आगम-गिद्दाशु | वायर जेम एस थाणु ॥४॥ पाथरशु प्रेम अम्वहन्तु । श्रायश्णु जेम गुण-विद्धि देन्तु ||५|| वायरण जेम विग्गह- समाशु | वायर प्रेम सन्धिमाणु ॥ ६॥ वायर जेम अवय-शिवाउ । वायरण प्रेम किरिया - सहाउ ||७||
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२७
अण्णासमो संधि
उड़ते हुए पक्षियोंके समान दिखाई देंगी । चक्रधारी सामन्त, उसमें ऐसे जान पढ़ेंगे मानो सुंसमार जलचरोंका समूह हो । गरजते हुए, मतवाले हाथी ऐसे लगेंगे मानो मगर हाँ । तलवारोंकी चोटें मछलियोंकी कम्पन उत्पन्न करेगी। राजा लोग उसमें मगर प्राइ फरोह और कछुए होंगे। गण्डस्थलरूपी चट्टानोंसे उस प्रवाहका तट अत्यन्त विषम होगा। श्वेत चमर, बगुलोंकी कतारके समान जान पडेंगे। भामण्डलरूपी ऐसा अथाह जल प्रवाह, रेलपेल मचाता हुआ लका नगरीमें प्रवेश करेगा ।" उसके बाद विषमस्वभाव नल और नीलने अपना सन्देश दिया – “अंगद, तुम जाकर हस्त प्रहस्तसे कहना कि तुम लोग जिस तरह भी बन सके, युद्धमें जमे रहना ॥ १-९॥
[९] तदनन्तर अपने पुराने बैरको याद कर, यशाधिप विराधितने अपने सन्देशमें कहा, "रावणको याद दिला देना कि तुमने चन्द्रोदरको मारकर उसका राज्य हड़प लिया है, इससे बढ़कर बुरा काम, दूसरा क्या हो सकता है ? इतना ही नहीं, गौरवशाली मेरा वह राज्य तुमने खर-दूषणको दे दिया । वह राज्य, जो व्याकरणकी भाँति अत्यन्त 'विसर्जनीय- सहित' (विसर्गों (:) और दूत एवं सन्देशहरोंसे युक्त ) था, जो व्याकरणकी भाँति, आगम ( वर्णागम और द्रव्यागम ) का स्रोत था । व्याकरणकी भाँति जिसमें आदेशके लिए स्थान प्राप्त था, व्याकरणकी भाँति जो अर्थोंको धारण करता था । व्याकरणकी भाँति जो गुण और वृद्धिको प्रश्रय देता था । व्याकरणकी भाँति जिसमें विग्रह ( पदच्छेद और सेना ) की परिपूर्णता थी । व्याकरणकी भाँति ही जिसमें सन्धियोंकी व्यवस्था थी । व्याकरणको भौति जिसमें अव्यय और निपात थे । व्याकरणकी भाँति जिसमें
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पउमचरित
वायरणु जैम परदोम-करणु ।
वापरणु जेम गण-लिङ्ग-सरणु
मा
वत्ता तं रज्जु महारउ गुणा-यउआरउ विष्णु जेम खर-दूलाई । तिह भीक म राष्ट्रहि अज समोहहि मम णारायQ मीसगहुँ' ' ॥९॥
[..] अवरो विकी वि जो ज्ञामु मल्लु । जो जसु उप्परि उवह इ सल्लु ।।३।। समरकणे जेण समाणु जासु । सन्दमउ पसिद्ध नेण ताम ॥२॥ मीसावणु रावाणु राउ जत्थु । गउ भाउ उ पहलु नेन्थु ॥३॥ 'मो मयान भुवण-पकल्ल-मल्छ । हरि-हर घराणण-
हिय-मल्ल || जम-धागय पुरन्दर मझ्यवह। णिल्लोष्टाविय-दुग्बोट्ट-थट्ट ।।५।। दुदम-दणुबह-णिदलणसील | तिमिन्द-निन्द-पान्द-लील ।।।। थिर-थोर-हथि-णिदछुर-पवट्ठ। कहलाय-कोटि कन्दर-णि? ।।६।। दिर्चे दिवे किय-तइलोकक-सेव । मन्धाशु पयाँ करहि देव ॥८॥
पत्ता विजाहर-सामिय अम्बर-गामिय धन्दिण-चिन्द-परिन्द-थु। चन्दकिय-पाम? प्लपखण-रामहुँ धुउ अप्पिन्नड जय-सुथ' ।।९।।
[११] सं णिसुणेवि हसिब दसाणणेण । 'किं बुजिमय सन्धि समासु केण ।।१।। के लक्णु केण पमाणु सारु । किं बल्ल कि साहय पुषिणमा ॥२॥
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असमी संधि
क्रियाकी सहायता ली जाती थी । व्याकरणकी भाँति जिसमें दूसरों ( वर्णो शत्रुओं) का कर दिया जाय पा व्याकरणकी भाँति जिसमें गण और लिङ्गसे सहायता ली जाती थी । "गुण और गौरवका स्रोत मेरा राज्य, जो तुमने खर-दूषणको दे दिया है, ठीक हैं। तुम अपना धीरज नहीं छोड़ना, शीघ्र तुम मेरे भयंकर तीरोंके सम्मुख अपने अंग मोड़ोगे । " ॥ १६ ॥
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२९
[१०] इस प्रसंगमें और भी जो प्रतिद्वंदी योद्धा वहाँ मौजूद थे, और जिसका जिससे वैर था, युद्ध प्रांगण में जो जिसका प्रतियोगी था. उसने भी अपने प्रतिद्वंदी को सन्देश भेजा । अंगद ( सचके सन्देश लेकर ) वहाँ पहुँचा जहाँ । रावण था। भीतर प्रवेश करते ही उसने कहना प्रारम्भ कर दिया - "हे रावण, तुम निस्सन्देह समस्त विश्व में अद्वितीय मल्ल हो, ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तुम्हें अपने हृदयका काँटा समझते हैं। यम, कुबेर और इन्द्रका तुमने विनाश किया है। जटाओं को तुम धरतीपर लिटा देते हो । दुर्दम दानवोंका दमन करना तुम्हारा स्वभाव है, देवताओंके समूहको मलाना तुम्हारे लिए एक खेल है। बड़े-बड़े हाथियों को तुम निर्दयतासे फुचल देते हो, कैलासपर्वतकी सैकड़ों गुफाओं को तुमने न किया, तीनों लोक दिन-रात तुम्हारी सेवामें लीन हैं। इसलिए आप प्रयत्नपूर्वक सन्धि कर लें । आप विद्याधरोंके स्वामी हैं और आकाशमें विचरण करते हैं। चारणवृन्द्र और राजा निरन्तर आपकी स्तुति करते हैं। आप प्रशस्तनाम वाले राम-लक्ष्मणको सीतादेवी सौंप दें" ॥ १-६ ॥
[११] यह सुनकर, रावणने मुसकराकर कहा, "क्या कोई सन्धि और समासकी बात समझ सका है। लक्षणको
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पउमचरि
जो ण खलिड देवहिँ दाणवेहि । तहों कवणु गहणु किर माणचे हिं ॥३॥
जर होह सन्धि गरुडोरगा हुँ ।
जड़ होइ सम्भि हुमबह-पयाहुँ । जय हो सन्धि समि कञ्जयाहुँ । जड़ हो सन्धि खर- कुञ्जराहुँ । जड़ होइ सम्धि सम्यरि-दिणाहुँ ।
सुर-कुलिस-विहाय महाणगा हुँ ॥४॥ पश्चाणण-मत्त महागया हूँ ||५|| दिणयर करोह- चन्दुअथाहुँ ||६|| उदयकाल - पहण - अलहराहुँ ||७| जइ होइ सम्धि धम्मह - जिणा हुँ ||८||
धत्ता
अगड (?) घ पणस नायणहुँ ।
छलियवरवर-अध्यहुँ दूर-बरध्यहुँ जड़ सन्धि पहाव को विघव तो रण राहक- रावण ॥९॥
।
संणिसुण व समरें अभङ्गएण । 'भो रावण किं गलगज्जिए भसीय ण देन्हों वहा किं जो सो सम्बुकुमार-णासु किं ओ सो चन्द्रगही पचम्बु । किं जो सो मसान्तकाछु । कि जो लो पवज्जाणभङ्गु ।
[१२]
पुणु पुणु वि पोल्लिड अङ्गपूर्ण || 10 गिफ्फार्येण परक्कम वज्जिएण ॥२॥
। किं जो सो सज्जन-हिषय बहु ||३|| किं जो सो पर-गय-सूरहासु ॥ ४ ॥ किं जो सो खर-व-बकि विरन् ॥५॥ कि जो सो विशिय कोवालु ||६|| किं जो सो हउ बलु चास्तु ॥७॥
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अण्णास्मो संधि
कौन समझ सका है, कौन उसके प्रमाण और शनिको पहचान सका है ? क्या बल, और क्या दुर्निवार सेना ? जो देवताओं और दानवोंकी भी सेनासे नहीं डिगा, उसे मनुष्य कैसे पकड़ सकते हैं? यदि गमड़की सर्पसे और इन्द्रके
की कुल पर्वतोंसे सन्धि सम्भव हो, यदि आग और पानी, सिंह और गजराजों में सन्धि हो सकती हो,' यदि चन्द्रमा और कमल, सूर्यकी किरणों और चाँदनी में सन्धि होती हो, यदि गधे और हाथी, प्रलयकालके पवन और मेघों में सन्धि होती हो, यदि दिन-रात में सन्धि सम्भव हो, यदि कामदेव और जिन भगवान् में सन्धि सम्भव हो, सुन्दर अक्षरवाले अर्थों और शब्दसे दूर रहनेवाले अर्थों में, अथवा उदंड और नये विनीत राजजनों में सन्धि सम्भव हो तभी राम और रावणमें सो सकती है१५॥
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[१२] यह सुनकर, युद्धमें अडिग अंगदने, रावणको बारबार समझाया, और कहा, "हे रावण, तुम बार-बार व्यर्थ गरजते हो। तुम्हारा यह गरजना, एकदम व्यर्थ और पराक्रम शून्य है। बताओ, सीतादेवीको वापस न करनेमें तुम्हें क्या लाभ है, वह कौन है, जो इस प्रकार सज्जनोंके हृदयको जला रहा है, वह कौन है, जिसके कारण शम्बुकुमार का नाश हुआ । वह कौन है, जिसके कारण सूर्यहास खन दूसरेके हाथ में चला गया । वह कौन है, जिसके कारण चन्नखा की विडम्बना हुई । वह कौन है, जिसके कारण खरकी सेना और बलिकी भी विडम्बना हुई, वह कौन है, जिसके कारण आशाली विद्याका अन्त हुआ। वह कौन है, जिसके कारण कोटपाल मारा गया । वह कौन है, जिसके कारण विशाल उद्यान उजड़ गया। वह कौन है, जिसके कारण चतुरंग सेनाका नाश
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पडमचरित
कि जो सो उपरि दिप पाड | कि जो सी मोडिङ घर णिहाउ ॥८॥ किं जो सो एको घर-विभेड । कि जो सो काल पाण-छेउ' ।।५।।
पत्ता तंगिण वि राषणु मय-मीसावणु अमरिस कुछउ अङ्गयहाँ । उसिम-कसरु णहर-मयारु जिह पन्धमुहु महगयहाँ ।।५ ०३
[३] 'महु भगाएँ मद-पकहिं काई । सन्ति जामु रण सुर सयाई ।।१।। दाहिण करें कनिएँ चन्दहासें । मई सरिसु कवणु तिझुअणे असेसें ॥२॥ किं यरुण पवणुवइसगणु खन्दु । किं हरिहरु वम्भु फगिन्दु चम्दु ।।३।। जं चुकाइ हरु तं कलुणु भाउ । म गरिह होसहकाहि मि घाय।।४।। ज बुक्क वम्भु महन्त-युदि। संकिर दम्मणे मारिएँ पा सुन्द्रि ॥५। जं चुकाइ जम् अण-सपिणघाउ । तं को किर एत्तिड लेइ पाउ ।।६।। जं सुखद ससि सारण भरणु । तं किर स्यणि उज्जोय करणु ।।७।। जं तबह भाणु ववगय-समालु । तं किर हु पप्रमु लोयपाल |८||
घसा दिवएँ रहुणन्दगै स-धएँ स-सन्दर्गे जा एक वि पर ओसरमि । सो भय-मीसागः (१) भगधगमाञहें (१) हुभवाह-पुणे पईसरमि'॥९॥
2.
[१४] लियसिन्द-चिन्द बन्दावणेण । जं सन्धि न इच्छिय रावणेण ॥३॥ संपन्दह-मुहें गांसरिउ वा । 'पर सन्धिहें कारणु अन्धि पछु ।।२।।
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अामा मोति हो गया। वह कौन है, जिसके ऊपर पैर रखा गया। वह कौन है जिसके कारण सैकड़ों घर बरबाद हुए। वह कौन है, जिसके कारण घरमें भेद हुआ । वह कौन है, जिसके प्राणीका कल अन्त होकर रहेगा।" यह सुनकर भयसे डरावना
और क्रोधसे भरकर रावण अंगद पर उसी प्रकार टूट पड़ा जिस प्रकार नखोंसे भयंकर सिंह अपनी अयाल उठाकर महागजपर टूट पड़ता है ।। १-- ।।
[१३] "मेरे सम्मुख भटनगृह क्या कर सकता है, युद्ध में मुझसे देवता भी भय ग्वाते हैं। जब मैं दायें हाथमें तलवार निकाल लेता हूँ तो समम्त त्रिलोकमें, मेरी समानता कौन कर सकता है ? क्या वाण, पवन, वैश्रवण या कातिकेय ? क्या विष्णु ब्रह्मा-शिव-नागदा या पन्द्र ? यदि कहीं शिव युद्ध में धोखा खा गये, तो बड़ा कण प्रसंग होगा, कहीं ऐसा न हो कि इससे बेचारी गौरीपर आघात पहुँचे। कहीं, विशालबुद्धि विधाता धोखा खा गये, तो ब्रह्महत्याकी शुद्धि मैं कहाँ करेगा! यदि यम जनता का नाश करने में चूक गया और मेरे हाथों भरा गया, तो इतना बड़ा पाप कौन अपने माथे पर लेगा, मृगधारण करने में यदि चन्द्रमा चूक गया तो फिर रात में प्रकाश कौन करेगा: यदि मैं अन्धकार दूर करनेवाले सूर्यको तपाता हूँ तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यह पाँचौं लोकपाल हैं ! ध्वज और रथके साथ रामको देखकर यदि मैं एक भी पग पीछे हहूँ तो मैं अत्यन्त डरावनी धकधक जलती हुई अग्निज्वालामें प्रवेश करूँ" || १-६॥
[१४] जय देवसमूहके लिए पीड़ादायक रावणने सन्धिकी बात ठुकरा दी तो इन्द्रजीतने अपने मुँहसे यह कहा, “परन्तु सन्धिका एक ही कारण हो सकता है ? राम अपने मन में
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पचमचरित
जइ मणे परिय वि पडमणाहु । आमेला सीयहें तणउ गाहु ।।३।। तो तहाँ ति-एण्ड महि एच-छत्त । पारख णिहिउ रयणाहँ सत्त था सामन्त-मस्ति-पाइक-तन्तु । रहवर-गरवर-गन-तुरय-चन्तु ।।५।। अन्तेउरु परियशु पियवासु । सकलसु स-बम्धउ हउ मि दासु ।।२।। कुस-दीउ चीर-चाहणु असेसु । बजरउ चीशु छोहार-देसु | ववस्उलु जवण सुवण्ण-दीउ । वेलन्धर हंसु सुत्रेल-दीड ॥८॥
अपणइ मि पएमई लेउ असेसई गिरि रोयड जाम्ब धरैवि ! रावणु मग्दोयरि सीय किसोयरि तिपिप नि वाहिराह करें वि' ॥ ९॥
[१५] तं णिसुर्णेदि रोस-वसं-गएण । णिमच्छिउ इन्दई पक्रएण ।।१।। 'खलु खुद पिसुण पर-णारि-छ । सप-सपर केचे तज ण गय जीह ॥२॥ जसु तणिय परिणि तासुजें ण देहि । राहवें जियन्तें जन्में वि ण लेहि ॥३॥ जो रक्षा पर-परिहव-सयाई। सो णिय-काने भोसरह काई' ॥ ने दिग्ण विहीसण-हरि-वलेोहि । सुग्गीव-हणुव-मामडकेहि ।।५।। सन्देसा ते घम्नरेंवि तासु । गट अगाड वळ-छक्खणहँ पासु ॥१॥ 'सो रावणु सन्भिण करह देव । सहुँ सरेण अमी-ईयार जेम्ब' ||७||
पत्ता सं णिपुर्णवि कुर्दै हिँ जय-जस-लद्धेहि कहकइ-अपरज्जिय-सुऍहिं । बेहि मि बे चावई भतुल-पपाई भप्फालियाँ स ईभु ऍहि ॥८॥
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अट्टवण्णासमो संधि अच्छी तरह समझ-बूझकर यदि सीतामें अपनी आसक्ति छोड़ सके, तो उन्हें मैं तीनखण्ड धरतीका एकाधिकार दूं ( एकछत्र शासन), चार ऋद्धियाँ और सात रत्न-सामन्त, मन्त्री, पैदलसेना,रथवर,नरवर, रथ और अश्व अन्तःपुर परिजन, सगोत्री, पत्नी, बन्धु-बान्धवोंके साथ मैं भी दास हो जाऊँगा ? इसके अतिरिक्त कुशद्वीप, समस्त चीरवाइन, वज्जर चीन, छोहार देश, बर्बर, कुल यवन, सुवर्णद्वीप, वेलन्धर, इंस और सुवेल द्वीप ले लें। जहाँतक विजया पर्वत है, वहाँ तकके प्रदेश वह ले सकते हैं, केवल तीन चीजोंको छोड़ कर, राक्षण, मन्दोदरी और सीता देवी ॥ १-५॥
[१५ ] यह सुनकर अंगद भाग-जयूला हो जटा । पन्द्रजीदको बुरा-भला कहा, "दुष्ट नीच परनिन्दक, दूसरेकी स्त्रीको चाहनेवाली तेरी जीभके सौ टुकड़े क्यों नहीं हो गये है स्रीया जिसकी पत्नी है, वह यदि उसे वापस नहीं मिलती, तो राम के रहते, तुम्हारा जीवित रहना असम्भव है । जो दूसरों को सैकड़ों अपमानोंसे बचाता है, क्या वह स्वयं अपमानित होकर, चुपचाप बैठा रहेगा ? इसके बाद, अंगदने वे सन्देश भी कह सुनाये जो लक्ष्मण, विभीषण, सुमीष और हनुमान एवं भामण्डलने दिये थे। अंगद वापस राम-लक्ष्मणके पास आ गया। उसने बताया, हे देव ! रावण सन्धि नहीं करना चाहता, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार 'अमी' शब्दके ईकारकी स्वरके साथ सन्धि नहीं होती !' ! १-७॥ ।
अंगद की बात सुनकर जय और यशके लोभी कैकेयी और अपराजिताके पुत्र राम एवं लक्ष्मण सहसा गुस्सेसे भर उठे। दोनोंने अपने अतुल प्रतापी धनुष चढ़ा लिये ॥८॥
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पडमचरित [ ५९, एक्कुणसहिमो संधि] दूभागमणे परोप्परु कुतुइँ जय-सिरि-रामालिका-लुई । किय-कलयल, समुठिमय-चिन्ध रामण-राम-बलई सणार ।।
(ध्रुवकम् )
मा
[] गएँ अङ्ग्य-कुमार उग्गिषण-चन्हासी ।
सइँ सपणहै वि णिनगमो सरहमो दसासो ।। १ ( हेलादुबई ) धुरे अङ्गलक्यो समास्ट-चरणो। धए वन्धुरी रखरखसी रत्त-णयायो ।।२।। रहे रावणी दुणियारी असाझे । कयन्तु उस बयकाल-मण माझे ॥३॥ थिर-श्रीर-मुव-पारो वियह-चच्छी । सु-भीसावी भू-लया-भगुरच्छो ।।३।। महा-पलय-कालो कहकहकहन्ती। समुप्पाय-जलणां च धगधगधगन्नो।' समालोमणे सणि व मुह-विष्फुरन्तो । फणिन्दो व्व फर-फार-फुक्कार देन्तो।।६।। गइन्दो ब्व मुक्छङ्कासी गुलगुलन्सी । मइन्दो व्च महागम थरहरन्तो ।।७।। समुदा ठच पक्खुसणे मज्जाय-चसो । सुरिन्दो व बहु-रण रसुमिण्या-गतो।।८।। ण असणि-जल उच्च धुसुद्ध वन्तो । महा-विज्जु-पुझा व सहसातजन्ती ।।५।।
(मयणावयारो णाम छन्दो)
पत्ता
अमर-वराया-जण-जूरावणे सरह0 सणसन्त रावण । विक्कर साहागु कहि मिन मन्तट णिमा पुर-पभोलि भल्लन्त उ ॥५॥
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एक्छुणसट्रिमो संधि
उनसठवीं सन्धि दूतके इस प्रकार वापस होनेपर, जयश्रीके आलिंगनके लोभी, राम और लक्ष्मण, दोनों गुस्सेसे भर उठे। कलकल ध्वनिके बीच राम और रानाकी सेनाएँ नैयार ने उनी । उनकी पताका, उड़ रही थीं।
[१] कुमार अंगदक जानेपर, रात्रणने अपनी चन्द्रहास सलवार निकाल ली। कवच पहनकर वह सहर्ष निकल पड़ा । आगे उसके अंग दिखाई दे रहे थे । उसका मुख ऋद्ध दिखाई दे रहा था। उसकी वजोपर, सुन्दर लाल-लाल आँखवाले 'निशाचर अंकित थे । असाध्य रथपर बैठा हुआ रावण ऐसा दिखाई देता था, मानो क्षयकाल और मृत्यु के बीच यमराज हो । उसका शारीर स्थूल और दृढ़ भुजाओंवाला था। विशाल यक्षवाला रायण अत्यन्त भीपण लग रहा था। भौहोंसे उसकी
आँखें भयानक लग रही धों। महाप्रलय कालकी भाँति वह कहकहा लगा रहा था । प्रलयाग्निकी भौति वह धकधका रहा था । देखने में उसका मुख शनिकी भाँति तमतमा रहा था । नागराजकी भाँति, वह अपनी फूत्कार छोड़ रहा था । अंकुश विहीन हााकी भाँति वह गरज रहा था। बादल आनेपर, सिंहकी तरह दहाड़ रहा था। कृष्णपक्ष की समाप्ति होनेपर, समुद्र की भाँति वह एकदम मर्यादाहीन हो रहा था । इन्द्रकी तरह, उसका शरीर कई युद्धोंकी चाहसे रोमांचित हो रहा था। आकाश में, बरवालाको भाँति, वह धू-धू कर रहा था, विजलियोंके महापुंजको भाँति तड़तड़ा रहा था। देवताओंके अंगनाजनको सतानेयाला राषण जब इस प्रकार युद्धके लिए स्वयं सजने लगा तो उसके अनुचर सैनिक फूले नहीं समाये । नगर और गलियों में रेल-पेल मचाते हुए चल पड़े ।। १-१०।।
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परमचरिड
[२] के वि जय-जस-लुद्ध सम्णन्द्र बन्दु-कोहा । के वि सुमित्त-पुस-सुकलत-बस-मोहा ।।१॥ (हेलादुबई ) के विणीसरन्ति वीर । भूधर व तुज धीर ॥२॥ सायर ग्च
व दगण । केसरि उच उन्-कंस । चत्त-सब-सीवियास । के वि सामि-भति-पन्त । मच्छरम्गि-पज्जलन्त ||५|| के वि आहवे अमङ्ग । कम-प्पसाहिबग ॥६॥ के वि सूर साहिमाणि । मत्ति-मूल- घास-पाणि ॥७॥ के वि गीत-वारुणस्थ । तीण-वाण-घाव-हस्थ ||८|| कुद्ध सुद्ध-लुख के वि । णिग्गया मु-सपणहति ॥५॥
( तोमरो णाम छन्दो)
पत्ता को वि पधाइड हाणु-हणु-सएँ परिहा कवउ को वि आणन्द । रण-रसियहाँ रोमनुभिण्णहाँ ठर सम्णाहु ण माइउ अण्णहाँ ।।१०॥
पमण का वि कन्त 'करि-कुम्भ लेतराई।
भुप्ताहलई लेवि महु देज्ज तेत्तदाई ।।१॥ (हेलावुषई ) का वि कन्त चिन्धई अप्पाहड् । का वि कन्त णिय-कन्तु पसाहह ॥२॥ का वि कन्त मुह-पति करावह । का वि कन्त दपणु दरिसावा ॥३॥ का वि कन्त पिय-णयणई अनह । का वि कन्त रण-तिलज पवइ ॥! का वि कन्त स-वियारड जम्पइ । का वि कन्त तम्बोलु समप्पा ॥५॥ का घि कन्त विम्वाहर छग्गइ | का विन्त आलिगणु मगइ ॥६॥
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पकुणसहिमो संधि [२] जय और यशके लोभी कितने ही निर्दय सैनिक, गुस्सेसे भरकर तैयार होने लगे। कितनोंने अपने अच्छे मित्रों, पुत्र और पत्नियोंका मोह छोड़ दिया।
पहाइकी भाँति ऊँचे और धीर कितने ही योद्धा निकल पड़े। वे समुद्रकी दर अप्रमेय थे और दापीकी भांति दान देनेवाले 1 उनके केश, सिंहकी अयालकी भाँति उठे हुए थे। ये सब जीवनकी आशा छोड़ चुके थे। स्वामीकी भक्तिसे परिपूर्ण वे ईर्ष्याकी आगमें जल रहे थे । अनेक युद्धोमें अजेय कितनोंके शरीर केशरसे प्रसाधित थे। अपने प्राणको साधनेवाले कितने ही योद्धाओंके हाथमें शक्ति, त्रिशूल और चक्र था। किसीने वरुणास्त्र ले रखा था। किसीके हाथमें तीर तरकश
और धनुष था। कितने ही ऋद्ध एवं युद्धके लोभी योधा सन्नद्ध होकर निकल पड़े। कोई 'मारो मारो' कहता हुआ दौड़ पड़ा। कोई योद्धा आनन्दके मारे अपना कवच ही छोड़े दे रहा था। वीररससे भरपूर, एक दूसरा योद्धा इतना रोमांचित हो उठा कि उसके शरीरपर कवच नहीं समा पा रहा था ||१-१०॥
[३] किसीकी पत्नी कह रही थी, "देखो हाथीके सिरमें जितने मोती हों, वे सब मुझे लाकर देना।" कोई पत्नी अपने पतिको वस्त्रसे ढक रही थी, कोई पत्नी अपने पतिका श्रृंगार कर रही थीं । कोई कान्ता मुखराग लगा रही थी, कोई दर्पणमें मुत्र दिखा रही थी। कोई कान्ता अपने प्रियके नेत्रोंको आँज रही थी। कोई कान्ता अपने प्रियके भालपर. युद्धका तिलक निकाल रही थी। कोई कान्ता विकारग्रस्त होकर कुछ काह रही थी। कोई कान्ता पान समर्पित कर रही थी। कोई कान्ता अपने प्रियके ओठोंको चम रही थी, और कोई अपने
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४०
पदमचरित
का वि कन्न ण गणेह गियारिख । सुरथारम्भु कोइ णिसरिड ||७|| का वि कन्न सिरे बन्धन फुल्लई। बाथइ परिहाइ अमुलई |८|| का वि कन्त आहरण ,ई। का बिफन्त पर-मुहु जे पलोय।।९।।
प्रत्तमाया म छन्दो )
घत्ता कहें वि अरोमा जे ण माइ पिय-रणबया सहुँ हुन्छाउ । 'जह तुई तहें अराइड वह तो मड़ पह-त्रय देवि पयहि ॥1॥
[४] पभगइ की वि वीर 'जय पचहि एवं भजे ।
तो वरि ता] देमि जा जुनु सामि-कन्ज' ।।३।। ( हेलादुबई ) को भिगइ 'मय-गण्ड वारमा। आगपि मुत्ताहता पयगई ॥२॥ को वि मग ' विमि पसाहणु । जाम ण मजिमि हव-साहणु ।।३।। को वि मणइ 'मुह-पशि ण इच्छमि । जाम " सुर-शाडक्क पहिच्छमि ॥३॥ को विभाइ ण गिहालांम दुप्पणु । जाम्ब ण रण विणिवाइउ लक्रवणु।।५।। का वि भाइ 'गउणयाइँ अवमि । जाम्न " सुरब-जण-मगु रश्रमि'।।६।। को विमण 'मुहं पाणु ण लायमि । जाम्न ण रुण्ड-शिवणयामि'||७|| की वि भणइ पाउ सुरउ समामि । जाम्ब ण भइहुँ कुल्ह खड आगमि |८|| को वि भगइ धणे फुल पारधाम । जाम्ब ण सरवर-धारगि सन्धमि'||९|
(स्या णाम छम्दो)
धत्ता की वि मणइ धणे गड आजिमि जाम्ब ण दन्ति-दन्नँ भालग्गमि' । को किरह णिनिति आहरणहों जाम्ब ण दिपण सीप दृह वयणहाँ ॥१॥
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पाणसट्टिमो संधि प्रियसे आलिंगन माँग रही थी। कोई कान्ता मना करनेपर भी नहीं मान रही थी और निराकुल होकर, सुरतिकी तैयारी कर रही थी। कोई कान्ता अपने सिरमें फूल खोंस रही थी।
और अमूल्य वस्त्र पहन रही थी। कोई कान्ता गइने ढो रही थी । कोई कान्दा दूसरेका मुख देख रही थी। किसी कान्ताके अंगों में क्रोध नहीं समा रहा था, प्रियकी रणवधूके प्रति ईर्ष्यासे भरकर बोली, “यदि तुम्हें युद्धलक्ष्मीसे इतना अनुराग है तो मुझे मरणप्रत देकर ही जा सकते हो" ॥ १-१०॥
[४] कोई वीर योद्धा अपनी पत्नीसे बोला, “यदि कहती हो कि मैं यों ही नष्ट हो जाऊँ, तो उससे अच्छा तो यही है कि मैं स्वामी के काजके लिए अपने प्राणोंका उत्सर्ग करूँ। कोई एक और योद्धा बोला, "गण्डस्थलों और ध्वजामोंमें लगे हुए मोती लाऊँगा।" कोई बोला, "मैं तब तक प्रसाधन प्रहण नहीं करूंगा कि जयतक रावणकी सेनाको नष्ट नहीं करता।" कोई कहने लगा, "जब तक मैं सुभटोंकी चपेट में सफल नहीं उतरता मैं अंगराग पसन्द नहीं करूंगा।" कोई बोला, “मैं तबतक दर्पणमें मुख नहीं देखूगा कि जबतक अपनी वीरताका प्रदर्शन नहीं कर लेता। किसी एकने कहा, "मैं तबतक अपनी
आँखोंमें अञ्जन नहीं लगाऊँगा कि जबतक सुरवधुओंके नेत्रोंका रंजन नहीं करता!” एक और योद्धाने कहा, "जबतक मैं योद्धाओंक धड़ोंको नहीं नचाता, मैं अपने मुख में पान नहीं रतूंगा।" एक बाला, "मैं सुरतिक्रीड़ाका सम्मान तबतक नहीं कर सकता कि जबतक योद्धाओंके कुलोको मौतके घाट नहीं उतार देता।" कोई योद्धा कह रहा था, "धन्ये ! मैं तबतक फूल नहीं बाँधूंगा कि जबतक उत्तम दीरोंकी कतार नहीं बाँध देता!" एक योद्धाने कहा, "मैं तुम्हारा आलिंगन तबतक नहीं
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१२
पउमचरित
गरुम-पोष्ठराएँ अञ्चन्त-रोहिणीए ।
रणे पहसन्तु को पि सिक्सविउ गेहिप्पीय ॥१।। ( ईसादुवई ) 'याह णाह समरकण-काले । दूर-भेरि-दखि-सङ्क-चमाले १२।। उत्थरन्त-वर-वीर-समुरे । सोह-णाय-पर-पाय-उद्दे ।।३।। मत-इस्मि-गलगज्जिय-सरे। अमिमधिज्ज पर राहयचन्द' ॥१ का वि णारि परिहासइ एमं । 'नेम जुनु गउ लन्ममि जेम' ।।५।। का वि णारि पनिचोहई णाहं । 'भग्गमाण पइँ जीवमि णाई' ॥६॥ का वि णारि पडिचुम्यणु देह । को वि वीरु अवहरि करेइ ।।७।। कन्स कन्से मई मण्ड लएवी । भज्ज वि कत्ति-बहुअ चुम्नेवी' ||८k का वि णाहूँ वकार करेइ । को वि श्रीरु रण-दिवा लपड ।।९।।
(परिवन्दियं जाम लन्दो)
साम्व मयर विप्फुरियाणणु पवर-विमा लिपुल-पहरणु । णिगउ कुम्मयण्णु भणे कुझ्यउ गहयले धूमकरण उझ्यत ॥१०॥
णिगएँ कुम्मयों मारीइ-मल्लयामा !
जम्वन-जम्युमालि-वीमच्छ-वासना ।।।। (लामुबई ) धरणिवर-कुवर-बज्जधरा । बल-त्रुद्ध-विन्द-पथकाल-करा ॥२॥ अय-दुज्जय-दुन्दर-दुदस्सिा । दुहउम्मुह-दुम्मुख-दुम्मरिसा ॥३॥
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एकुणसहिमो संधि कर सकता कि जस्तक हाथीकी खींसोंसे भिड़कर लड़ नहीं लेता।" एक योद्धाने अपने समस्त अलंकार तबतकके लिए उतार दिये कि जबतक वह रावणसे सीतादेवीका उद्धार नहीं फा धा" HE-१०
५] पीन पयोधरा और स्नेहमयी कोई एक गृहिणी, युद्धोन्मुख अपने प्रियको सीन दे रही थी,
"युद्ध में तुम रामके लिए अवश्य संघर्ष करना । असमय नगाड़ों, भेरी, दाढ़ और शंखोंकी धनि हो रही होगी। श्रेष्ठ वीरोंका समुद्र उछल रहा होगा । सिंहनाद और नरहुंकारसे भयंकर, उस युद्धमें मतवाले हाथियोंकी गर्जना हो रही होगी। राघवचन्द्र निश्चय ही, शत्रुसे भिड़ जाँचगे।" कोई नारी कह रही थी, "इस प्रकार लड़ना जिससे मैं लजाई न जाऊँ" | कोई स्त्री अपने प्रियको समझा रही थी, "तुम्हारे नष्ट हानेपर मैं जीवित नहीं रहूँगी। कोई स्त्री प्रतिचुम्बन दे रही थी और कोई वीर, उसकी उपेक्षा कर रहा था", वह कह रहा था, "हे प्रिये, मैं बलपूर्वक कीर्तिवधूको घूमूंगा।" कोई अपने प्रियको नमस्कार कर रही थी और कोई वीर सामन्त युद्धकी दीक्षा ले रहा था" | इसी बीच, कुम्भकर्ण कोधसे तमतमाता हुआ निकला, वह एक भारी विमानमें बैठा था, और निशुल अस्त्र उसके पास था। ऐसा लगता था मानो आकाश में धूमकेतु उग आया हो" ।।१-१०॥
[६] कुम्भकर्णके निकलते ही, मारी और माल्यवन्त भी निकल आये। भयानक और वन्न नेत्रवाले जाम्बवन्त और जम्यूमाली भी निकल आये। दुष्ट और क्षुद्रोंके समूहके लिए प्रलयंकर, धरणीधर कूबर और वधर भी निकल आये । अयमें दुर्जय दुर्द्धर और देखने में डरावने, दुभगमुख दुख और
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पउमचरित
दुरियाणण-दुस्सर बुचिसहा । ससि-सूर-मऊर-कुरूर-गहा ॥४॥ सुभसारण सुन्द-णिसुन्द-गया । करि-कुम्भ-णिसुम्भ-पियम्भ-मया ||५|| सिव-सम्भु-सयम्मु-णिसुम्ब-बिह। पिहु आसग-पिअर-पिन वि हू ॥६॥ कलुभान-कराल-तमाल-तमा । जमघण्ट-सिही जमदण्ड-समा ॥७॥ जमणाय-समुग्गणिणाय-लुली । हल-हाल-लालह-हेल-इली ॥८ मया - समिपाकरवी । लण-पण्णय-पय-सक-हवी ॥९॥
(तोट्टको शाम छन्दो)
घता सोहणियम्ब-पलम्ब-भुवग्गल चौर गहीर-णिणाय महवल । एवमाइ सण्णाहें वि विणिग्गय पत्राणण-रह पञ्चाणण-धय IFFolt
[ ] धुन्धुद्धाम-धूम-धूमल-धूमदेया । डिण्डिम-उमर-डिण्डिरह-चण्डि-चण्डवेया ||१॥ (इलादुवई)
विस्थ-उित्थ-सम्बरा । जमक्ख-डाहस्बरा ॥२॥ सिहण्डि पिण्डि-पण्डवा । वितण्डि-सुण्डमण्डवा || पचण्ड-कुण्ठमण्डला ! कवोल-कपण-कुण्डला ॥४॥ भयाल-मोल-भुम्मला ।। विसालाखु-कोहला ।।। कियन्स-ढा-दण्डरा । कालचूल-सहा ।।६।। चकोर-चारूपारणा। सिलिन्धनान्धवारणा ।। पियक-णिक-सीहया । णिरीह-
विजुजीया ॥८॥ सुमालि-मनु-भोसणा ।
दुरन्त-युदरीसणा ||५||
(णाराउ गाउ अन्दो)
छत्ता पज्जोपर-वियोपर-घहत असणिणिकोस-डूल-झालावक । इस णवहसण्णव समुषणय वाय-महारह बन्ध-महाभय ॥१०॥
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एसटिमो संधि दुर्मर्ष भी निकल आये 1 दुरितानन दुर्गम्य और असा, चन्द्रमा सूर्य मऊर और कुरूर ग्रह भी निकल आये । हाथियोंकी सूड़ों. को कुचलनेसे भयंकर, सुत सारण सुन्द और निसुन्व भी गये । शिष शम्मु स्वयंमु और विसुम्भ भी। पिछ आसण पिंजर और पिंग भी। कटुकालके समान भर्यकर, तमालके समान श्याम, यम घण्ट आग और यमदण्डके समान भी। यमनादसे उत्पन्न निनादको भी मात देनेवाले हल हाल हलायुध और हुली। मयरंक शशांक मियंक रवि फणी पन्नग णकाय शक और हविने कूच किया। सिंहके समान नितम्बोचाले अर्गलाके समान विशाल बाहु, वार गम्भीर नादवाले और महाबली, ऐसे वे वीर तैयार होकर निकल पड़े। उनके रथों में सिंह जुते हुए थे और बजों पर भी सिंह अंकित थे ।। १-१० ॥
[७] धुंधुधाम, धूम्र, धूम्रान, धूम्रवेगा, डिण्डिम, डमर, डिण्डिरथ, चण्डि, चण्डवेग, डविथ, डिस्थ, हुम्बर, यमाक्ष, डाइडम्बर, शिखण्डी, पिण्डि, पण्डय, वितण्डि, तुण्ड, मण्डव, प्रचण्ड, कुण्ड, मण्डल, कपोलकर्ण, कुण्डल, भयाल, भोल, भुम्भल, विशालचक्षु, फोइल, कृतान्त, दल, ढपडर, कपालचूर्ण, सेखर, चकोर, चारुचारण, शैलिन्ध्र, गंधवारण, प्रियार्क, णिक्क, सीड्य, निरीह, विद्यजिवा, सुमालि, मृत्युभीषण, दुरन्त, दुर्दशन आदि राजा भी निकल पड़े । वनोदर, विकटोदर, घंधल, अशनिनिर्घोष, हूल , छालाहल आदि राजा भी तैयार हो गये। इनके रथों में बाघ जुते हुए थे और उनकी ध्वजाओंमें भी बाघ अंकित थे ॥१-१०॥
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१६
पउमचरिउ
[6] मामह-नक सि-सदृल-मीहणाया ।
पञ्चल-चठ्ठल-चवल-चल-धील-मीमकाया ||३( हेलावुवई) हत्य-विहस्थ-पहाथ-माहत्या । मुस्थ-सुहस्थ-मुमस्थ-पसत्था ॥२॥ दारुण-कर-उद-णिधोरा। हंस-पास-किरीडि-किसीरा ॥३॥ मन्दिर-मन्दर-मरु-मयरथा । गन्धविमरण-रुच्छ-विहल्या ॥४॥ अरण-महण्णव-गण-दिगण्णा। घोषिय-वीर-धुरन्धर-वण्णा ॥५॥ मोम-मग्राणय-माणगाया । काम-कोव-यम्ब-कसाया ॥६॥ कण-को-यिकोच-पवि। कोमल-कोन्तम-विस-विचिता ॥७॥ माय-माह-महोअर-महा।। पायव-वायत्र-वारुण-दहा ॥4॥ सीहबिम्भिय-कुक्षरलोला । चिटमम-हंसविलास-सुसीला ॥९॥
(दोद्धकं णाम आन्दो)
घत्ता
मल्हण लदहोल्हास-उल्हावण, पस-पमत-सत्सन्ताषण । एम्ब णगहिव अगा घिणिगय । हस्थि-महारह हरिथ-महाधय ॥1॥
स-पसङ्ख-त-मिपक्षण-पहला ।
पुक्तर-पुष्फयूड-घण्टाउह-प्पिहना ॥१॥ ( हेलानुबई ) पुण्फासवाण-पुप्फक्खयरा । फुल्लोअर-फुल्लन्धुअ-भमरा ॥२॥ पम्मह-कुसुमाठह-कसुमसरा । मयरय-मयानुषपसा ॥३॥ मयणाणल-मयणारसि-सुसमा 1 घरकामावस्थ-कामकुसुमा ॥ मयणोदय-मयणोयर-अमया । पए तुरामह सुरप-मया ॥५॥ अवरे वि के वि मिग-सम्बरहि । विस-मेस-महिस-पर-सूअरेहि ॥६॥ ससहर सल्लका-चिसहहिं । सुसुखर-मया-मरोह ि७॥ अवरे वि के पि गिरि-रक्त-धरा। इवि-वारुण्य-वायव-यज-करा ।।
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एकुणस टिमो संधि [८] मधुमय, अर्ककीर्ति, शार्दूल, सिंहनाद, चंचल, चटुल, चपल, चल, चोल, भीमकाय, हस्त, विहस्त, प्रहस्त, महस्त, सुस्त, सुहस्त, सुमत्स, प्रशस्त, दारुण, रुद्र, रौद्र, णिधोर, हंस, प्रईस, किरीती, किशोर, मन्दिर, मंदर, मेरु, मयस्त्र, गन्ध, विमर्दन, रुच्छ, विहस्त, अन्य, महार्णव, गण्य, चिगण्य, धोरिय, धीर, घुरन्धर, धन्य, भीम, भयानक, भीमचिनाद, कर्दम, कोप, कदम्ब, कषाय, कंचन, कोंच, विकोंच, पवित्र, फोमल, कोन्त, चित्र, विचित्र, माधव, माह, महोदर, मेघ, पादप, वादप, चारुणदेह, सिंह विचंभित, कुंजरलीला, विभ्रम, हंस-विलास, सुशील आदि राजा भी निकल पड़े । मल्हण, लहहोल्लास, उल्हावण, पत्त, प्रमत्त, शत्रु-सन्तापन आदि तथा दूसरे राजा भी निकल पड़े। उनके महारथों में हाथी थे और पताकाओं में भी हाथी ही अंकित थे ॥१-१०॥
[९] शंख, प्रशंख, रक, भिनाजन, प्रभाग, पुष्कर, पुष्पचूख, घण्टायुध, प्रभाग, पुष्पश्रवण, पुष्पाक्षर, पुष्पोदर, पुष्पध्वज, भ्रमर, बम्माह, कुसुमायुध, कुसुमसर, मकरध्वज, मकरध्वजप्रसर, मदनाचल, मदनराशि, सुषमा, वरकामावस्था, कामकुसुम, मदनोदय, मदनोदर, अमय ये राजा अश्वरथों पर थे, और इनकी पताकाओंपर मी, अश्व अंकित थे। अन्य राजा मगों, सामरों, वृषभ, मेष, महिष, खर और सूअरों, शशधर, शल्यक, विषधरों, सुंसुमार, मकर और मत्स्यधरोपर, चल पड़े। और दूसरे राजा, अपने हाथों में पहाड़ों और वृक्ष, आग, पारुण,
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४८
पउमचरित
ताणन्तरें भढ-कदमहणाहुँ ।
गीसरियड दहमुह-जन्दणाहुँ ॥९॥
(पहिया णाम छन्दो)
घन्ता
रहसुच्छलियहुँ रण रसिपडूनहुँ, पखस-धय? विमाणारूहुँ । इन्दइ-घणवाहण-मुझ-सारहुँ । पञ्च-अद-कोडीउ कुमारहुँ ॥१०॥
[१०] गय रण-भूमि जा(म] पश्चियई वाहणाई ।
थिउ बस्लु विस्थरवि पचास-जोयपाई ॥१॥ ( हेलादुबई) विमाणं विमाणेण छत्तेण कसं। धयगं धपग्गेण चिन्धेण चिन्ध ॥२॥ गइन्दो गइन्देण सीहेण सीहो। तुरको तुरनेण घग्घेण षग्यो ॥३॥ जणाणन्दणो अम्दणी सन्दगेणं । परिन्दो गरिन्देण जोहण जोहो ॥४॥ तिसूलं तिसूलेण खगोण खग्गं । वले एकमण्णोपण-बहिजमाणे ॥५॥ कहिम्पि प्पएसे विसूरन्ति सूरा। रण के चिरके चिरा वीर-कच्छी ॥६॥ कहिम्पि पएसे विमाणेहि धन्तं । मडा सूरकन्तहि जाणन्ति अण्णं ॥७॥ कहिम्पि पएसे सुपाखेननला गहन्दाण कपणेहिं पावन्ति वार्य ॥८॥ सहस्साइँ ससारि मक्खोहणीहि । बले इस्थ पम्पिा करस सत्ती ॥२॥
( भुषङ्गप्पयामओ णाम छन्दी)
घत्ता हस्थ-पहस्य ठवेप्पिणु अगा, राषणु देइ दिष्टि णिय-खग्गएँ । गं खय-काल जगहों भारूस वि। थिइ सङ्गाम-ममि स ई भू वि ।।१०॥
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एकुणसहिमो संधि
वायव एवं वन लिये हुए थे । इसी बीच में योद्धाओंको चकनाचूर कर देनेवाले रावणके पुत्रोंके रथ निकले । वे युद्ध में हर्षसे उछल रहे थे। विमानों में बैठे थे, ध्वजों पर राक्षस अंकित थे। इन्द्रजीत मेघ-वाहन आदि ढाई करोड़ श्रेष्ठ पुत्र थे ॥१-१०॥
[१०] युद्धिभूमिमें पहुँचकर रथ खचाखच भर गये। सेना पचास योजनके विस्तारमें फैलकर ठहर गयी । विमानसे विमान, छत्रसे छत्र, ध्वजाप्रसे ध्वजाप, चिह्नसे चिह्न, गजेन्द्रसे गजेन्द्र, सिंहसे सिंह, अश्वसे अश्व, बाघसे बाघ, जनानन्ददायक रथसे रथ, नरेन्द्रसे नरेन्द्र, योद्धासे योद्धा, त्रिशूलसे त्रिहाल, खड्ग से खग, इस प्रकार सेनासे सेना भिड़ गयी। किसी प्रदेशमें शूरवीर विसूर रहे थे । बहुत समय तक चलनेवाले उस युद्ध में वीर लक्ष्मी ऐसी जान पड़ रही थी, मानो वह नित्य या शाश्वत हो । किन्हीं भागोंमें रथोंके जमावसे इतना अँधेरा हो गया था कि योद्धा सूर्यकान्त मणियोंकी सहायतासे दूसरेको देख पाते थे। जिस सेनामें चार हजार अम्झौहिणी सेनाएँ हो, भला किसकी शक्ति है कि उसका समूचा वर्णन कर सके ।। १-२ ।।
रावणने, हस्त और प्रहस्तको आगे कर, अपनी दृष्टि तलवार पर डाली । वह ऐसा लग रहा था, मानो क्षयकाल ही जगत से रुष्ट होकर युद्धभूमि में आकर स्थित हो गया हो ॥१०॥
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पडमचरित
[६०, सहिमो संधि ] पर-वले दिएँ राहयकोरु पयष्ट । अइ-रण-रहसण उरै सण्याहु विसहर ।।
सो राहवें पहरण-हाशए । दीहर-महल-गुप्यन्ताए। विच्छोड्य-मणहर-कानाए। रण-रह पुसिय-गनाए । आलिय-तांग-गुचला। करण-णिकडू-कर-कमलाए । कुण्डल-मण्डिय-गण्डयलाए। मासुल-फुलिभाहल-अयणाग। जं सण-सणदएँ दिहाट ।
दणुव-णिलण-समस्याए ॥१॥ सन्दण-कदम-खुप्परताए ॥२॥ किय-मायासुग्गीवन्ताए ॥३॥ अकालिय-क्जायसपए ॥४॥ कानि-लाल-च-मुहलाए ॥५॥ विधिपणुण्णय-वच्छयलाप ।। ६॥ चूडामणि-घुम्विय-मालाए ॥७॥ रत्तप्पल-सण्णिह-यणाए ॥८॥ संलक्षणे विभालटाए ॥९॥
( मागधप्रत्यधिक जाम छन्दो)
मसि पलिता णा समुदिउ
सो वमयण्ण-आगन्दयरु । कल्लाणमाल-दंसण-पसरु । प्रणमामालिशिय-चम्चालु । अरिदमण-राहिय-सत्ति धरू। पन्दणहिन्तणय-सिर-णिदलणु।
पत्ता अणुहरमाणु हुआसहाँ। मस्थासूलु इसासही ॥१०॥ [२]
सीहोयर-माण-मरह-हर ||1| विज्झाहिब-बिकम-मलण-करू ॥२॥ जियपउम-पान-पतय-मसलु ॥३॥ कुलभसण-मुणि-उवसग्ग-हरु ॥४॥ सूरन्तय-सूरहास-हरण ॥५॥
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सट्टिभो संधि
साठवीं सन्धि
शत्रु सेनाको देखकर, राघवने भी युद्ध के लिए कूच कर दिया। अतिरण के चावसे, उन्होंने विशेष प्रकारका कवच पहन लिया ।
[9] निशाचर राजाओं को कुचलनेमें समर्थ रामने, हथियार अपने हाथमें ले लिये। लम्बी मेखला लगा ली। उनका शरीर चन्दनसे चर्चित था। अपनी सुन्दर कान्तासे वह वियुक्त थे। उन्होंने मायासुग्रीवका अन्त किया था । वीरता से उनका शरीर त हो रहा था
को टंकार रहे थे। उनके दोनों तूणीर कसमसा रहे थे। चंचल किंकिणियाँ रुनझुन कर रही थीं। उनके हाथोंमें सुन्दर कंकण बँधा हुआ था । उनका वक्षस्थल उन्नत और विशाल था । गण्डमण्डल कुण्डलोंसे शोभित था, उनके भालको चूड़ामणि चूम रहा था। उनका मुख और ओठ कान्तिसे खिले हुए थे। उनके नेत्र रक्त कमलकी भाँति थे । लक्ष्मणने जब देखा कि सेना तैयार हो चुकी है तो वह भी सहसा आवेश से भर उठा । आगके समान, वह शीघ्र ही भड़क उठा। उस समय ऐसा लगा मानो रावणके माथे में ददं हो उठा हो ॥१-१०॥
[ २ ] लक्ष्मण, जो चमकणके लिए आनन्ददायक था, और जिसने सिंहोरका मान गलित किया था, जिसने कल्याणमालाकी दर्शन दिये थे, विन्ध्यराजके पराक्रमको क्षण किया था, जिसके वने वनमालाका आलिंगन किया था, जो जितपद्मा के नामरूपी कमलके लिए भ्रमर था, जिसने राजा अरिदमनकी शक्तिको बात बावमें झेल लिया था, जिसने कुलभूपणके उपसर्ग-संकटको टाला था, जिसने चन्द्रनखा के पुत्र
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पउमचरित
खर-दूसण-तिसिर-सिस्न्तया । मो लक्खणु पुरलय-विस-तणु । पुणु राषण-बलु णिजमाइयउ।
कोडिसिखा-कोडि-णिहठ्ठ-उर ॥६॥ सम्णमइ अमरिस-कुइय-मणु ॥७॥ सयलु जै दिहि माइयउ ||८||
( पवाडिया णाम छन्दी)
पत्ता जासु किसोरें जगु जिगिरीमउ जसिर । तासु घिसालहुँ णयाणहुँ त चलु केत्तिउ ।।९||
[३] सहि तेहए अबसरें किउ खेड। सपणसई सहसु अङ्गणेउ ।।५।। जो रण माहिन्दि-महिन्द-धरणु। सो स-रिसि-कषण-उवसग हरणु ॥२॥ जो आसालियाँ विशास-कालु। जो धजाउह-वर्णं जला-जालु ॥३॥ जी सकासुन्दरि-थण-णिहट्ट जो णन्दणवण-मइण-पवठु ।।३।। जो णिसियर-साहण-सण्णिवाउ जो अक्खकुमास्कयन्तराउ ।।५।। जो तोयदवाहण-बल-विणासु। जो खण्ड-खण्ड-किय-णागवासु ||६|| जो बिमुहिय-णिसिंगर-सामिसाल । जो दहमुह-मन्दिर-पलयकाल 1|| जो जस-लेहडु एक्कल-धीरु। सो मारुइ रोमशिन-सरोंरु ।।८।।
(स्यडा णाम छन्दो)
पुशु पुणु बगगह 'श्रज सइच्छएँ
घत्ता परखें षि रावण-साहणु । करमि कयन्तही भोअणु' ||१||
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सट्टमो मंधि गाम्नुकुमार नः कस पार विसने वीरोंका संहार करनेवाले सूर्यहास खङ्गको अपने वश में कर लिया था, जिसने खरदृषण और विझरके सिर काट डाले थे, और जिसने कोटिशिलाको अपने निरपर उठा लिया था। लक्ष्माणका दारीर रोमानित हो उठा। वह मन-ही-मन क्रुद्ध हो कर, तैयारी करने लगा। जब वह रावणकी सेनाके बारे में सोच रहा था तो ऐसा लगा मानो वह अपनी दृष्टि में उसकी समूची सेनाको माप रहा हो । भला जिस लक्ष्मणके कृशोदरमें समूची दुनिया, एक छोटेसे जकी भाँति हो, उसके विशाल नेत्रोंमें रावणकी सेनाको क्या बिसात थी ।।१-२॥
[३] इस अवसरपर उसने भी जरा देर नहीं की, वह तैयार होने लगा।वह हनुमान जिसने युद्ध में, इन्द्र और वैजयन्त को पकड़ लिया था, वह हनुमान, जिसने पिसाहित कन्याओंके उपसर्गको दूर किया था । जो आशालीविद्याके लिए विनाश काल था, जो घनायुध रूपी वनके लिए अग्निज्वाल था। जिसने लंकासुन्दरीके स्तनों का मर्दन किया था और जिसने नन्दनवनको उजाड़ डाला था, जो राक्षसोंकी सेनाके लिए सन्निपात था, जो अनयकुमार के लिए यमराज था, जिसने तोयद वाहनकी सेनाका काम तमाम किया था, जिसने नागपाझके टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे, जिसने निशाचरोंके स्वामी श्रेष्ठको विमुख कर दिया था, जो रावण के प्रासादके लिए प्रलयकाल था, यशका लालचो जो अकेला वीर था, वह हनुमान भी सहसा सिहर उठा | रावणकी सेनाको देखकर, वह बारबार उछल रहा था, और कह रहा था, आज मैं स्वेच्छासे यमराजको भोजन दूंगा ॥१-६।।
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५४
पवनचरि
एम भणेवि वीर - चूडामणि ।
तहि अवस सुग्गी विरुझ । सजिया च हंस- त्रिमा हूँ | गय-श्याई णं सिद्ध था । मन्दर-सेल-सिहर-सच्चाय
पुरउ परिडिय
णं धुर-घोरिय
[ 0 ]
४
पसह किमाथि पाणि | 15 भामण्डलु सरोसु सगाइ ॥२॥ जिणवर-भवग्रहों अणुहरमाणहूँ ||३२|| मङ्ग-जग कुसुमहों वाणहूँ ॥ २ ॥ किङ्किणि घरघर- घण्टा गाय ॥५॥
अलि- मुहलिय-मुत्ताहरु- दामहूँ । हर पवियहँ ।
जिणु जयकारें वि चडि सिणु । जो सय सय-जीच मम्मी
विज्जु-मेह-रवि-रूसिपह- गाइँ ॥६॥
अमाण कारण विषहूँ ||७||
||
( मतमायां णाम छन्दो )
छत्ता
सेष्ण मय परिहरणहाँ ।
छवि समास वायरणहीं ॥९॥
[ ५ ]
के त्रिष्णद समरङ्गणे तुजया ।
के वि भामाश्च चन्द्रद्रया ॥१३
के वि सिरिस - आवरिय कलस द्वया । के वि कारण्ड-कलहंस-को-या ॥२
के यि मसीहया । के वि सस सरह सारक्र-रिष्द्धन्तथा । के त्रि सिव-साण-गोमाज- पमय दया
के विखर-य-विलमेस - महिस- दया के वि अहि-उल-मय मोर गरुडया के बि घण-विज्जु-तरु-कमल-कुलिसद्वया
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मदिम संधि
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[४] वीरश्रेष्ठ हनुमान, यह कहकर, पद्मप्रभ विमान में जाकर बैठ गया । इस अवसर पर सुमीव भी विरुद्ध हो उठा । रोपसे भरकर भामण्डल भी तैयारी करने लगा । चारों हंसविमान सजा दिये गये, जो जिनवर भवनों के समान थे । वे विमान, सिद्ध-स्थानोंकी तरह गतरज ( पाप और धूलसे रहित ) थे कामदेवके बाणों की भाँति, भंगजन ( मनुष्योंको विचलित कर देनेवाले ) थे। उनके शिखर, पहाड़ों की चोटियोंके समान सुन्दर कान्तिमय थे । वे किंकिणी घरघर और घण्टोंके स्वरोंसे निनादित थे । उसमें जड़ित मुक्तामालाओंकी भौरे चूम रहे थे। उन विमानोंके कमशः नाम थे - विद्युत्प्रभ मेघप्रभ, रविप्रभ और शशिप्रभ। पहले दो, विभीषणने राम और लक्ष्मण के लिए भेजे थे, और बाकी दो अपने लिए रख छोड़े थे। जिन भगवान् की जय बोलकर विभीषण विमानपर चढ़ गया, वह विभीषण जो भयभीत लोगोंको अभय प्रदान करनेवाला था । विभीषण, भयहीन सेनाके सम्मुख, ऐसे खड़ा हो गया, मानो व्याकरणके सम्मुख छद्दों समास आ खड़े हुए हों ||१२||
[4] युद्धमें अजेय कितने ही योद्धा तैयार हो गये । कितने ही योद्धाओंके ध्वजपर भामण्डल आदित्य और चन्द्रमा के चिह्न अंकित थे। कितनोंके ध्वजोंपर, श्री और शंखोंसे ढके हुए कलश अंकित थे। कितने ही ध्वजोंपर हंस, कलहंस और क्रौंच पक्षी अंकित थे । किन्हीं पताकाओंपर व्याघ्र, मातंग और सिंह अंकित थे। कितनी ही पताकाओंफर खर, तुरंग, विषमेष और महिष अंकित थे। किन्हीं ध्वजोंपर शश, सम्भ, सारंग और रीछ अंकित थे। किन्हीं ध्वजोंपर साँप, नकुल, मृग, मोर और गरुड़ अंकित थे। किन्हीं ध्वजोंपर शिव, शाण, श्रृगाल
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पउमचरित के वि सुसुधर-करि-मयर-मच्छ-द्धया । के विणकोहर-ग्गाह-फुम्म-चया ।।६॥ णील-पल-हुस-रइमन्द हत्थुम्मवा | जम्बु-जम्बुक-अम्मोहि-अव-जम्बवा . पत्थडपिपत्थ-पत्धार-दप्पुवरा। पिहुल-पिहुकाय-भूगा-उमरा ॥८
(मयणावयारो णाम मन्दो)
घत्ता णा नायडू गय-सदाहिं परिष्टिय । समुह दसासहाँ ण उपसग समुष्ट्रिय || ||
[६] कुमुभातत्त-महिन्द-मण्डला। मूरसमापह-माणुमपहला || रवण सझामचला। । दिदरह सच्चम्पिय-करामला ॥२॥ मित्तागुद्वर-वग्चसूअणा। । एए पबह बग्घ-सन्दणा ।।३।। कुद-दुद्र दुस-रडरवा ।। अप्पडिहाय-मगाहि-महरका ||४|| पियविन्गह-पञ्चमुह-ऋषियला। विउल-चहल-मयरहर करयला ।। पुषगचन्द-दन्दा नु-चन्दाणा 1 गए परवई संह-सन्दगा ।।। लिलय-तरङ्ग सुसण-मणहरा। बिग-सम्मैय-महिहरा 19 अङ्गङ्गाय-काल-विकास-मेहरा । तरल-साल-लि-वल-पोहरा |
( उपहामिगी प्रणाम कन्दो)
पत्ता एप पारवह मयर वितुरय-महारह। णाई मिसिन्दहीं गा कर महागल ॥१||
[७] चन्दमरात्रि-चन्द-मन्दोअर-चन्दण-अहिअ-अहि मुद्दा गवय-वस्य दुक्ख-दसणावलि-दामुदाम-दहिमुहा ।। । । हैंड-हिनिम्ब-चूर-चूडामणि-चूहावत्त-वत्ती कन्त-बसन्त-कोन्त-कोलाहल कामुहवरण-वासी ॥२॥
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सहिमो संधि
५७ और चन्दर अंकित थे। किन्हीं ध्वजोपर घन, बिजली, वृक्ष, कमल और वन्न अंकित थे। किन्हीं ध्वजोंपर सुंसुकर, हाथी, मगर और मछली अंकित थीं। किन्हीं पताकाओंमें नक्र, माह
और कच्छप अंकित थे। नील नल नहुष रतिमंद हस्ति-उद्भव जम्बु जम्बूक्क अम्मोधि जब जम्भव पत्थक पित्थ प्रस्तार दोदर पृथुल पृथुकाय भ्रूभंग और उद्भगुर । ये राजा गजरथोंमें बैठकर ऐसे आये मानो रावणके सामने संकट ही आ गया हो ॥१॥
[६] कुमुदावर्त, महेन्द्रमण्डल, सूरसमप्रभ, भानुमण्डल, रतिषर्धन, संग्रामचंचल, दृढ़रथ, सर्वप्रिय, करामल, मित्रानुद्धर, और व्याघ्रसूदन ये राजे व्याघ्ररथ पर आसीन थे। क्रुद्ध, दुष्ट, दुष्प्रेक्ष्य, रौरव, अप्रतिघात, समाधि भैरव, प्रियविग्रह, पंचमुख, कटितल, विपुल, बहल, मकरधर, करतल, पुष्य चन्द्र, चन्द्राश्रु
और चन्दन ये गजे सिंहरों पर थे। तिलक, तरंग, सुसेन, मनहर, विद्यत्कर्ण, सम्मेद, महीधर, अंगंगद, काल, विकाल, शेखर, तरल, शील, बलि, चल और पयोधर, ये राजे अश्वरथों वाले थे, ये ऐसे लगते थे मानो कि दुष्ट महामह ही निशाचरों पर क्रुद्ध हो उठे हों ॥ १-२ ।।
[७] चन्द्रमरीची, चन्द्र, चन्द्रोदर, चन्दन, अहित, अभिमुख, गयय, गवाझ, दुक्ख, दशनावली, दामुदाम, दचिमुख, हेड, हिडिम्ब, चूड, चूडामणि, चूडावर्त, वर्तनी, कन्त, वसन्त,
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पठमचरित
काय-कुमुभ-कुन्द-इन्दाउह-इन्द-पबिन्द-सुन्दरा मड-विसाल-मन हल्लिर-कल्लोलु लोल कुम्वा ।।३॥ धामिर-धूमलपिप-धूमालि-धूमावत्त-धूसरा दूसण-चन्दरण दूसालण-दूसल दुरिग्र-दुकर। ॥४॥ दुप्पिय-मुम्मरिफरव-दुजोहण तार-सुतार-तासणा शुभर लिय-लुचउरण-ताराबलि-गथासगा !III ताराणिकन-सिलय-तिक यालि-तिलगायत-नक्षणा जरविहि-वजवाहु-मरुत्राहु-सुवा-सुरिट्ट-अअणा ॥६॥
(दुबई-कड़वयं जाम छन्दों)
पत्ता पुए णरषद समर-सऐं हि णिम्बुढा । चलिय असेस वि पचर-बिमाणारूढा ।। |
[ ] रहवरगयवरहि एक हि। तिहिं तुरण हि पञ्चहि पाहि ॥ ॥ बुच्चन पत्ति सेण तिहि पसिरहें। संथामुह तिहि सेणुप्पत्तिहि ॥ गुम्मु ति-सेणामुह-महिणाग हि। बाहिणि तिहि गुम्म-परिमीण हिं॥३॥ तिहिं पाहिणिहि अण्ण तिहि पिवणे हि। तं चमु प्यासु पगासिक पिउण हि ॥१ सिहि चम् हि पभणन्ति श्रणिणि । दसहि अणिकिणीहि अक्खोहणिप| एवमोहानीहि वि सहास। जाइँ भुवण णिय-णाम-पगासह ।। ६ ॥ घउ कोडीउ सन्ततीस लक्रन चालीस सहस रह-गबहुँ सङ्ग ॥७॥ सत्तासी लमत्र स-मच्छररा? चले. एकवीस कोडिड णराहुँ ॥4॥
घत्ता तेरह कीरिउ वारह लपत्र अहहुँ। वीस सहास इट परिमाणु तुरहुँ ॥ ९॥
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सटिमो संधि कोन्त, कोलाहल, कौमुदीवदन, वासनी, कंजक, मुद्र, इन्द्रायुध, इन्द्र, प्रतीन्द्र, सुन्दर, शल्य, विद्वाल्य, मल्ल, हल्लिर, कल्लोलुल्लोल, कुर्चर, धामिर, धूम्रलक्षी, धूमावली, धूमावर्त, धूमर, दूषण, चन्द्रसेन, दृसासन, दूसल, दुरित, दुष्कर, दुनिय, मरिन, दुर्योधन, तार, सुतार, तासगा, हुल्लुर, ललित, टुंच, उल्लूरण, ताराबली, गदासन, तारा, निलय, तिलक तिलकावलि, तिलकावर्त भजन, जरविधि, वनबाहु, मरबाहु, सुबाहु, मुरिष्ट, अंजने । सैकड़ों युद्धोका निर्वाह करनेवाले ये राजा और जो बाकी बचे थे वे बड़े-बड़े विमानोंमें बैठकर चल पड़े ॥ १-७ ।।
[८] एक रथचर, एक गजवर, तीन अश्वों और पाँच पैदल सिपाहियोंसे पंक्ति बनती है और तीन पंक्तियोंसे सेना । तीन सेना-पंक्तियोंसे सेनामुख बनता है। तीन सेनामुखोंसे एक गुल्म बनता है, और तीन गुल्मोंसे वाहिनी बनती है। तीन वाहिनियोंसे एक पृतना बनती है, और तीन पृतनाओंसे चमू बनती है। ऐसा पण्डितों ने कहा है। तीन चमुओंसे अनीकिनी बनती है और दस अनीकिनियोंसे एक अलौहिणी सेना बनती है। जिसकी एक हजार भी अक्षौहिणी सेनाएँ होती हैं उनका संसारमें नाम चमक जाता है। जिसके पास चार करोड़ मैंतीस लाख चालीस हजार अक्षौहिणी सेनाएँ हों, एक संख्य रथ और गज हों। सेनामें मत्सरसे भरे हुए इक्कीस करोड़ सत्तासी लाख आदमी थे। जिसमें तेरह करोड़ बारह लाख बीस हजार अभंग अश्वों की संख्या थी ॥१-९॥
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पडमचरित
[९] संचल राहव-साहणण। रोमकुछजिय-पताहणण ॥१॥ आलाब ही हरिसिय-मणही। गयणणे सुर कामिणि-क्षणहों ॥२॥ एक पथुतु 'बलु कवाणु थिरु । जामि कम्जे ण मणे सिरु ।।३।। कवणहि चलें पचर-विमाणाई । कञ्चगिरि-अणुहरमाणाई ॥३॥ कवहिँ पकरवरिय तुरंभ थइ । करहिं मुबस हन्थि-हर ।। - कवहिं सर-धोरणि दुन्विसह। काहिं महिहर-मनास-रह ॥६॥ कचहँ सारहि सन्दण-कुसल । काहिं सेणावह अतुल-बल ॥७॥ कवईि पहरणई मन्यताई। कवहिं धिन्धा गिरन्तरई ॥८॥
पत्ता वाणु रणक्षणे वागहुँ साइड इलइ । राम्रण रामहुँ जयगिरि कमणु लामाई' ॥९||
[1] अगणेकर दोहरायणियाएँ। पणिउ पप्फुलिय-वणियाए । ॥ 'हले वेणि मि अतुल-महाबलाई । वैषिण मि परियषिश्य-कलयलाई ॥२॥ वेषिण मि कुरुडाई स-मच्छराई। वेपिंग मि दामण-पहरण-कराई ॥१॥ वेणि मि सवडम्मुह किंव-गमा। वेणि मि पकरवरिय तुरङ्गमाई ॥४॥ वेविण मि गलगजिय-गयघडा। वेषिण मि पवणुचुअ-धयवहा ।।५।। वेग्यिा मि सोत्तिय-सन्दणाई। वेगिण मि सुर-णयगाणन्दणाई ॥६॥ वेषिण मि सारहि-दुर रिसणाई। बैंगिग मि सेप्यावइ-मीसणा ॥७॥ श्रेणि मि इसोह-निरन्तराई। पिण मि मउ भिडि-भयङ्करा।।
पत्ता विरिण मि से गण अणुसरिसाइँ महाहवें । विजउ ण जाणहुँ कि राव, कि राहः' ॥ ९ ॥
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सहिमा संधि [२] रामकी से नाके कूच करते ही, योद्धा रोमांचसे उछल पड़े । आकाश में प्रसन्नमन देवबालाओंकी आपसमें बातचीन होने लगी। एक ने कहा, 'कौन-सी सेना ठहर सकती है ?' उसका ही उत्तर था, 'वही सेना टिक सकती है, जो स्वामी के लिए अपने सिरको भी कुछ न समझे ।' किसीकी सेनामें विशाल विमान थे जो स्वर्णगिरिकी समानता रखते थे ! किसीमें कवच पहने हुए अश्वघटा थी। किसीमें अंकुश छोड़ देने बाली इस्तिघटा थी। किसीमें असह्य तोरोंकी माला थी। किमीमें पहाड़की भाँति विशाल रथ थे। किसी के पास रथ. कुशल सारथि थे। किसी में अतुल बल सेनापति थे। किन्हींके पास भयंकर हथियार थे, और किसौके पास निरन्तक पताकाएँ थीं। कोई युद्धके आँगनमें तोरोंका आलिंगन कर रहा था । देखें, राम और रावणमें, जयश्री पर कौन अधिकार करता है, ।। १-६॥
१०] एक दूसरी विशाल नेत्रवाली देवचालाने कहा, "हे. सखी, दोनों ही सेनाएँ अतुल बल रखती है, दोनों में कोलाहल बढ़ रहा है। दोनों ही ईर्ष्या से भरी हुई पर हो रही हैं, दोनों के हाथोंमें दारुण अस्त्र हैं। दोनों ही आमने-सामने जा रही हैं। दोनों सेनाओं के अश्व कवच पहने हुए हैं। दोनों में गजसेनाएँ गरज रही हैं, दोनोंके ध्वजपट पवनमें उड़े जा रहे है। दोनों में रथ जुते हुए हैं, दोनों ही देवताओंके नेत्रोंको आनन्द देनेवालि हैं, दोनों ही सारथियोंके कारण दुर्दर्शनीय हैं। दोनों ही सेनापतियोंके कारण भीषण हैं, दोनों ही छत्रोंके समूहसे हकी हुई हैं, दोनों ही योद्धाओंकी भौंहों से भयंकर हैं। दोनों ही सेनाएँ उस महायुद्ध में एक दूसरेके समान थीं। इसलिए कहना कठिन है कि जीत किसकी होगी रामकी, या रावणकी ।।१-२||
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पडमचरित
[1] तं वयणु सुर्णेवि वहु-मच्छराएँ। अण्णाप णिमच्छिय अरछराए।।।। 'जहि रण-धुर-धोरिज कुम्भयण्णु । सहुँ भीमें भीमणिणाउ अण्णु ५२॥ जहि मउ मारीचि सुमालि मालि । जहि सोयवाहणु जम्बुमालि ॥३॥ अहि अकिसि महुँ मेहपाउ। महिं मयरु महायरु मामकाउ || जहिं हत्थु पहरथु महत्थु चीरु। ति मुग्धुरु धुरशुराम धीर !! जहिं सम्भु सयम्भु पिसुम्भु सुम्भु । मुन्दु णिमुन्दु गिकुम्भु कुम्भु॥३॥ अहि सीहणियम्बु पलम्बवाहु । जहि विडिभु डम्बरु नकगाहु ॥७॥ जहि जमु जमघण्टु जमघु सीहु। जहिं मलवन्तु जाँ विजीहु ॥८॥
पत्ता
हि सुड सारण वजोअरु हालाहलु । तहिं रावण-वलें कषणु गहणु राहव-चलु' ।। ९॥
[१२] दणिसुर्णेवि विप्फुरियाणणाएँ। अपोकर वुसु वरङ्गणाएं ॥१॥ 'अहि राहत विग्सुग्गीव-महणु। सहि गवउ गवखु विवक्त-बहणु ॥२॥ जहि लक्षणु खर-दूसण-विणासु । जहिं मामण्डलु जयसिरि णिवासु ।।३।। अहि अगाड मा सुसेणु तारु ।। जहिं णीलु णहुसु पलु दुपिणकार धा जहि अहिमुहु दहिमुहु मइसमुः। मईकन्तु विराहिउ कुमुड कुन्दु ।।५।। जहि जम्बज जम्वव-यणकेसि । जहि कोमुइ-चन्दणु-धन्दरासि ॥६॥ अहिं मारह णम्दणबण-श्यन्तु। जहि रम्भु महिन्दु विहोस-वन्तु ॥५॥ जहि सुहहु विहीसणु सूक-हत्थु । संणावह सह सुग्गीउ अत्थु ।।८।।
पत्ता
तं वलु हले सहि रावणु पा.वि
एत्तिउ एउ करेला । स स ई मुझसइ' ॥९॥
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सहिमो संधि
[११] यह सुनकर अत्यधिक ईसे भरी हुई एक दूसरी अप्सराने उसे डाँट दिया, "जहाँ युद्धभार उठाने में अग्रणी, कुम्भकर्ण है, जहाँ भीमनिनाद के साथ भीम हैं, जहाँ मय, मारीची, मुमालि, मालि है, जहाँ तोयदवाइन जम्बुमालि है, जहाँ अर्ककीर्ति, मधु और मेघनाद हैं, जहाँ मकर और भीमकाय महोदर हैं, जहाँ हस्त-प्रहस्त और महस्त जैसे वीर है, जहाँ धीर धुन्धु और बुग्घुधाम हैं, जहाँ शम्भू,स्वयम्भू निशुम्भ
और शुम्भ है, जहाँ सुन्द-निमुन्द, निकुम्भ और कुम्भ हैं। जहाँ सिंहनितम्ब, प्रलम्बबाहु, डिण्डिम, डम्बर और नक्रयाह है, जहाँ समा, यम और सिंह : जहाँ मायन और विद्युत् जिस हैं। जहाँ श्रृतसारण, पञोदर और हालाहल हैं, रावणकी उस सेनामें रामकी सेनाको क्या पकड़ हो सकती है।। १-२ ।।
[१२] यह सुनकर एक और देवांगनाका चेहरा तमतमा उठा। उसने आवेशमें आकर कहा,"जिस सेनामें विट सुप्रीषको मारने वाले राघव हों, जिस सेनामें गवय, गवान, विवक्ष और वहन हों, जिस सेनामें खरदूषणका नाश करनेवाला लक्ष्मण और जयश्रीका निवास स्वरूप भामण्डल हो, जिस सेनामें अंगद, अंग, सुसेन और तार हों, जिस सेनामें नील, नहुष और दुनिवार नल हों, जिस सेना में अहिमुख, दृधिमुख, मतिसमुद्र, मतिकान्त, विराधित, कुमुद और कुन्द हों, जिससेनामें जम्बुक, जम्बब, रत्नकेशी हों, जिस सेनामें कौमुदीचन्दन, चन्दराशि हो, जिस सेनामें नन्दनवनके लिए कृतान्त हनुमान हों, जिस सेनामें रम्भ, महेन्द्र और विहीसवन्त हों, जिस सेनामें शूल हाथमें लेकर सुभट विभीषण हों,और जिस सेनामें सुग्रीव स्वयं सेनापति हो, हे सखी, निश्चय ही वह सेना, सिर्फ इतना ही करेगी कि रावणको धराशायी बनाकर लंकाका स्वयं भोग करेगी।।१-२॥.
घणका भो , जिम
और दुनिः
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पवमचरि
[६१. एकसडिमो संधि ]
जस-लुवहूँ श्रमरिस-कुछइँ हय-तुरई किय-स्लकल हूँ । ताम्य शस्व-रामण-बल हूँ ॥
अम्मिएँ रहस- बिसह
अमिद्दइँ रामण-राम-चलहूँ ॥ १॥
देहि कारण अतुल वलहूँ । शुभ-खएँ महियल-गयणयकहूँ। सविभागहुँ विजुल त्रेय - लहूँ || ॥ पडु-पव-भेरि गम्भीर-सरहूँ । अवशेष्यरु अहिणव-रोम भाई ॥३॥ सिल पाहण-तरु-गिरि गहिय रहूँ । सम्बल-दुलि - हल करवाल धरइँ ॥ ४. उग्गामिश्र मामिय-भीम-गयहूँ । ओरालि गरु गजान्त-गयहूँ ॥५॥ पपिलिय-रह-हिंसन्त- हुयहँ । धुअ-वल-त्त धूम्रन्स-धॐ ॥ ६ ॥ साहीण पाण-परिचत्त भय हूँ । पम्मुक्क-चाय-सङ्घाय-यई ॥ ७ ॥ समुक मेक-सज्छुद्र पयहुँ । सयवार-वार- उग्घुटु-जयइँ ॥ ८ ॥
-
[1]
तर्हि यूँ समरणें दारुणें । को वि वीरु णासङ्कड़ रागहुँ । को वि वीरु पपिहरड़ पर चलें। को वि वीरु असन्तु रण ।
घत्ता
सस्यावई कजियाब णं घडिया विणि वि मिडियाहूँ
सर-लन्धन्त-मुअन्ता हूँ । पयइँ सुषन्त - तिङन्ताहुँ ॥ ९ ॥
[3]
कुङ्कुम-केसुअ- अरविन्दारुणें ॥ १ ॥ पुणु पुणु भनु सम्मोह वाणहुँ ॥ २ ॥ पुरउ धार पर मुंह न पच्छलें ॥ ३ ॥ सम्पदे पर शरवर-सन्दर्णे ॥४॥
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एकसटिमो संधि
इकाली सन्धि तूर्य बज चठे। कलकल होने लगा। यशकी लोभी और अमर्षसे भरी हुई, राम और रावणकी सेनाएँ वेगके साथ एक दूसरेसे जा भिड़ी।
[१] केवल एक चैदेही के लिए, राम और रावणकी अतुल बलशाली सेना एक दूसरेसे भिड़ गयी। ऐसा जान पड़ रहा था मानो युगान्तमें धरती और आकाश, दोनों ही आपसमें भिड़ गये हों । सेनाओंके पास बिजलीके वेगवाले विमान थे । पट-पटह और भेरीकी गम्भीर ध्यान गूंज उठी। आवेशमें सेना एक दूसरेपर टूट पड़ रही थीं। चट्टाने,पत्थर,पेड़ और पहाड़ उनके हाथ में थे। कुछ सबल, हुलिहल और तलवार लिये थे। कुछ सैनिक विशाल गदा निकालकर उसे घुमा रहे थे। सिंहनाद सुनकर गजमाला गरज रही थी। मुड़ते हुए रथोंक अश्व हिनहिना रहे थे । सफ़ेद छत्र और ध्वज हिल-डुल रहे थे। सैनिक अपने प्राणोंका भय छोड़ चुके थे। घावों ओर संघर्षकी उन्हें रत्तीभर भी परवाह नहीं थी। वे एक दूसरे के सम्मुख पग बढ़ा रहे थे। इस प्रकार वे सैकड़ों बार अपनी जीत की घोषणा कर चुके थे। दोनों सेना प्रतापी थी। दोनों धनुपपर तीर रखकर चला रही थीं। मानो वे आपस में भिड़नेके लिए ही बनी थीं, ठीक उसी प्रकार, जिसप्रकार शब्दरूप और क्रियारूप, आपस में मिलने के लिए निष्पन्न होते हैं ।।१-५॥
[२] सचमुच वह भयंकर युद्ध केशर, टेसू और रक्तकमलकी तरह लाल हो चठा। फिर भी, उसमें कोई भी योद्धा अपने प्राणों की परवाह नहीं कर रहा था। वे बार-बार, तीरों के सम्मुख अपना शरीर कर रहे थे । कोई एक योद्धा उठता
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पडमचारे को कि वहरि करें धरै वि पदाइ । पहरे पहरें परिभोसु पवइ ॥५॥ को वि सराहउ पडइ विमागहों। पावइ घिजु-पुङ णिय-थापाही ॥३॥ को वि घरिसइ वा हि पन्त। णं गुरूहि गह पर पडन्तर ||७|| को वि दम्मि-धम्तै हिँ आलग्गइ । करण देषि की वि उपरि क्लगह ।।८||
घत्ता
गउ मा वि कुम्भु वियारेवि जा ताई कुन्दुजल । गुणवन्तहँ पाहुडु कन्तहें को चि लेइ मुताहल॥९॥
[३]
हेमजल-दण्ड-वलगाई। कण वि तोडियई धयग्गाई ॥१॥ ण समिच्छिउ जेण पियाँ तणउ । से रहिरे कइट पसाहणउ ॥२॥ मुहपत्ति ण इरिछय जेण घरै किय सेण सुहह मोंषि समरें ॥३॥ सिरु बेण पा इरिछाउ दप्पणउ। रहे सेण णिहालिङ अप्पणउ || मुह परणाई जेण ण लावियई। तेहगड-सयाइँ गश्चाधियई ॥५॥ चिक जेण ण सुरड समाणियद। तें रण-बहुआएँ सहुँ माणियउ ॥६॥ गिय-णारि ण इच्छिय भासि जैण। आलिङ्गिय गय-धन बहुम तेग ॥७॥ सो गहई न देन्तउ णिय-फ्यिाएँ। सो फाथिउ लमरण-लियाएँ ।1८1}
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एकस हिमो संधि
६ ७
और शत्रुपर इमला बोल देता । कोई एक योद्धा जब अपना कदम आगे बढ़ा देता तो पीछे कदम नहीं रखता । एक और योद्धा रण प्रांगण में सहसा आपेसे बाहर हो उठता और शत्रुसैन्य- रथों पर कूद पड़ता। कोई एक योद्धा, शत्रुको पकड़कर खींच रहा था । पल-पलमें उसका परितोष बढ़ रहा था। कोई एक योद्धा तीरोंसे आहत होकर जब रथोंपर जाकर गिरता, तो ऐसा लगता कि किसी मकानपर बिजली टूट पड़ी हो । कोई योद्धा तीरों की बौछारमें अवरुद्ध हो उठता, मानो आचार्यजीने नरक में जाते हुए किसी जीव को रोक लिया हो ।" किसी एक योद्धाने गजको मारकर उसके मस्तकको वीर डाला, और उसमें कुन्दके समान स्वच्छ, जितने भी मोती थे, वे सब अपनी पत्नीको उपहार में देनेके लिए निकाल लिये || १-२ ।।
"
[ ३ ] किसी एक योद्धाने स्वर्णदण्डमें लगी हुई ध्वजाओंके अगले हिस्सेको फाड़ डाला। जिस योद्धाको अपनी पत्नीका आदर नहीं मिला था, उसने युद्ध में रक्तसे अपना शृंगार कर लिया। जो अपने घर में मुखपर पत्र रचना नहीं कर सका उसने युद्ध में शत्रुओंको बिछाकर अपना शौक पूरा किया। जिस योद्धाने बहुत समय तक दर्पण नहीं देखा था, उसने रथमें अपना मुख देख लिया। जिसने अभी तक अपने मुख में एक भी पान नहीं खाया था. उसने सैकड़ों धड़ोंको, युद्धमें नचा दिया। जिस योद्धाको अभीतक प्रेमकीड़ाका अवसर नहीं मिला था, उसने रणबधूके साथ अपनी इच्छा पूरी की। जिस योगाने आजतक अपनी स्त्रीकी कामना नहीं की थी, उसने जी भर गजघटका आलिंगन किया। जो अपनी स्त्रीके लिए नख तक नहीं देता था उसे युद्धभूमि में आज युद्धवधूने फाड़ डाला ।
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पठमाचार
घत्ता
सम्मा-दाण-रिण-मरियड अच्छि जो झरन्तु निरु । सो रणउ मुहद्ध पणधिउ सामिह अग्गएँ देवि सिह ॥९॥
[४] कहिचि धोर-मण्डणं सिरोह-दह-सम्वर्ण || १॥ पारिन्द-बिन्द-धारण तुरा मम्ग-वारणे ॥२॥ दिसग्ग-मगा सन्दणं । भमम्स-सुपण-वारणं ॥३॥ भिइन्त-वीर-णिकमरं । चवन्त णिट् टुरं खरं ॥॥ विमुक-चक्र-सम्घलं ।। तिसूल-सत्ति-सकलं ॥५ अणेय घाय-जज्जरं । परन्त-वाहु-पक्षरं ॥३॥ मुअन्स-हक्क-डकायं। हणन्त-एकमेक्यं ॥७॥ लुपन्त-अड-हयं । कुणन्त-रखण्डखण्डर्य 1411 पड़न्त जोह-विम्भलं। ललन्त अन्त सुम्मलं ॥२॥ मलन्त-छोहिनीहयं । मिलन्स-पक्खि जूहयं ॥१०॥ कहिं चि आया हया। महीयलं गया गया ॥११॥ कहि जि मासुग सुरा। पहार-दारुणारुणा ॥१२॥ कदि चिबिमा धया। जसोह-भूरिणा धया ॥१३॥
पत्ता सहि आहपदम-भिडन्सउ राहव-साहणु मग्गु किह । दि दिधैं दुधियहाँ माणेण पोढ-विलासिणि सुरत सिंह ||१||
शाहब-बलु रावण-वलेण मग्गु । गं कलि-परिणामें परम-धम्मु ।
दुग्गह-गमाणे सुगह-मम् ॥३ णं घोराचरणे मणुअ-जम्मु ॥२||
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एकसष्टिमी संधि सम्मान दान और ऋणके भारसे सन्तुष्ट कोई एक योद्धा अभीतक मन ही मन पराउ, रसा था वा मुलक गगों प र कि वह अब अपने स्वामीके लिए अपना सिर दे सकेगा ॥१-६।।
[४] कहीं पर भयंकर संघर्ष मचा हुआ था। सिर, वक्ष और शरीरोंके टुकड़े-टुकड़े हो रहे थे। नरेन्द्र समूहका विदारण हो रहा था। अश्वोंका मार्ग रद्ध हो गया था दिशाओं के मार्ग रथोंसे पटे पड़े थे । रिक्त हो कर हाथी घूम रहे थे । वीर पूरे वेगसे लड़ रहे थे। अत्यन्त जनतासे वे जोर-जोरसे चिल्ला रहे थे। एक दूसरे पर चक्र और सब्बल फेंक रहे थे। त्रिशूल और शरिशयोंसे युद्धस्थल व्याप्त था। योद्धा घावोंसे जर्जर थे। उनके बाहुओं और शवोसे धरती पट चुकी थी। हका और इछ अन छोड़े जा रहे थे। वे एक दूसरेपर आक्रमण कर रहे थे। आसपास हड़ियाँ ही हड्डियाँ बिखरी हुई थी। वे उनके खण्ड-खण्ड कर रहे थे। योद्धा धराशायी हो गये । उनकी शिखाएँ सुन्दर दिखाई दे रही थीं। अश्वोंका रफत रिस रहा थापक्षियोंके झुण्ड उसमें सराबोर हो रहे थे। कहीं आहत अश्व और हाथी धरती पर पड़े हुए थे। कहीं कान्तिमान देवता आघातोंसे अत्यन्त दारुण और आरक्त अत्यन्त भयंकर जान पड़ रहे थे । कहीं पर यश समूहसे मण्डित ध्वजार विद्ध हो रही थीं। युद्धकी उस पहली भिड़न्तमें ही राबवकी सेना उसी प्रकार नष्ट हो गयी, जिस प्रकार दुर्विदग्धके मानसे किसी प्रौढ़ विलासिनीकी रति समान हो जाय । १-१४ ।।
[५] राघवकी सेना, रावणकी सेनासे, इस प्रकार भग्न हो गयी मानो दुर्गतिसे सुगतिका मार्ग नष्ट हो गया हो। मानो कलिके परिणामसे परमधर्म नष्ट हो गया हो, या मानो कठोर तपःसाधनासे मनुष्य जन्म नष्ट हो गया हो। यह देखकर कि
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५०
पउमचरिट
विलिय-पहरणु णिय-मणे विसग्णु। भजन्तउ पेपरखेंवि राम-सेण्णु ॥३॥ किल कलयलु कमल-दलक्लिएहि । सुर-बहुमहिं रावण-पक्षि एवं ॥४|| 'हले पेक्यु पंक्तु णासम् सिमिरु । रवि-यर-णियरहोत्यणि-शिमिरु ||५|| सुद वि सोयालु महन्त-काल। कि विसहइ कसरि-गहर-घाउ ॥६॥ सुद्ध ति जाइजणु तेयवन्तु । कि तेण तवगु जिल्लइ तंवन्तु ।।७॥ वि सुन्दर रासदहों कील। कि पावाद वर-मायझा-लोल ।।८।।
धन्ता मुस र भूगोयस दुजर किं. पूजइ बियागहों। मुष्ट वि वालाहिउ बउ किं सरिसर स्यणायरहो' ||५||
ताव तुरङ्गम-रह-गय-वाहणु । अलिड पीस राहव-साहा ।।। णं उच्छल्लिड वय सायर-जल । आहय-सूर-णिबहु किय-कलयलु ।।२।। उम्भिय-कणय-दण्ड धूय-धयवंबु । उद्ध-सोपड उकस-गय-घड ॥३॥ जुत्त-नुरङ्गम-चाहिय-सन्दा । नाउ पढीवर मड-कामरण || थाइअ णरयर णरनर-विन्द हैं। मीहहुँ मीह गहन्द गइन्दहुँ ।।५।। रहिवाहुँ रहिय धयाग धयग्गहुँ । रह रहबर हुँ नुरङ्ग नुरगहुँ ।।६।। धाणुक्किमहुँ मिडिय धाणुक्किन्न । फारकिय? पवर फाकिय ।। असिवर-हस्था असिबर-हस्थहुँ । एम्ब हूअ किलिविणित समत्थहूँ ।।८।।
पत्ता दुग्घाट-बट-
सण पाडिय-मुह-वड पडियगुरु । अलाउह अवसर फिट्टा वालालुच्चि करन्ति म ॥९॥
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एकरसटिमो संधि राकी सेनाके हथियार छिन्न हो रहे हैं, सेना मन ही मन दुःखी है, वह बुरी तरह पिट रही है, रावणपक्षकी कमलनयना सुरवधुओंने ग्बूच खुशी मनायी। के कहने लगीं "हे सस्त्री, देखो सेना नष्ट हो रही है मानो सूर्य की किरणोंसे रात्रिका अन्धकार नष्ट हो रहा है। ठीक ही तो है, सियारका शरीर किनमा ही बड़ा क्यों न हो ? क्या वह सिंह के नखाघातको सह सकता है । जुगनूमें कितना ही तेज प्रकाश हो, क्या वह सूर्यको अपने रेजसे जीत सकता है । गदहेकी क्रीडा कितनी ही सुन्दर हा, क्या वह उत्तम गजको कोडाको पा सकता है ? मनुष्य कितना ही अजेय हो, क्या वह विद्याधरोंको पा सकता है ? झील कितनी ही बड़ी हो, क्या वह बड़े समुद्री समता कर सकती है ।। १-२॥
[६] इसी यीच-अपच, रथ, गज और वाहनसे युक्त राघवसेना, फिरसे मुड़ी। ऐसा लगा मानो अगसमुद्रका जल उल पड़ा हो । तूों के समूह बज उढे । कल-कल ध्वनि होने लगी। सुवर्णदण्ड मठा लिये गये, ध्वजपट फहरा उठे । गजघटा निरंकुश होकर अपनी सूंड उठाये हुई थी। अश्व जोत दिये गये । रथ चल पड़े। फिरसे उलटा सैनिकोंका विनाश होने लगा। योद्धा योद्धाकि ऊपर दौड़ पड़े, सिंह सिंह पर, और गजेन्द्र गजेन्द्र पर, रथी रथियों पर, और ध्वजान ध्वजामों पर, रथ श्रेष्ठरथों पर, अश्व अश्वों पर, धानुक धानुष्कों पर, फरशात्राज फरशायाजों पर, तलवार हाथ में लेकर लड़ने वाले, तलवार वालों पर । इस प्रकार, उन दोनों संघर्ष सेनाओंमें घोर संघर्ष हुआ। गजघटा चूर-चूर हो गयी। उनके मुखकी झूलें गिर गयीं । कवच टूट पड़े। अखोंका अवसर निकल जाने पर योद्धा आपसमें एक दूसरेके वाल खींचने लगे ॥ १-२ ।।
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पउमचरित
किन-कुरुत-मिडि-भड-मासुराई। पहरन्ति परोपा गिट्टराई ॥१॥ उमय-बलइँ रहिर-जलोलियाई। तमिच्छ-नाई गं फुलिया ॥२॥ एम्श्रन्तर जग-मण-भाचिणीउ । कान्ति गयणे सुर-कामिनीउ ॥३।। 'हले वासवयत्तं वसन्त हैं हलं कामसेण हलें कामलेहैं ।।४।। हले कुमुम-मणोहरि हले अगड़ें। चित्त बरणे हल बा ॥५॥ जो दीमइ रगउहँ सुहडु एड्छु । कपिणय-खुरप-कप्परिय-दहु ।।६।। सन्वउ मिलेवि ऍडु मझु दछु । रण अगणु गसवि नुम्हें लेहु' ।।७।। अग्गा हरिमिन-गतिमाएँ। पणिड पप्फुल्लिय-वत्तियाएँ ॥८॥
घत्ता 'जो दन्ति-दन्तें आलग्गैत्रि ठरु भिन्दाविध अप्पगा। हले धाबहि काइँ गहिल्लिा ऍडु भतार महु तपाउ' ॥९||
[] जाम्ब बोल सुर-कामिणि-मन्थहौँ । तात्र वलेश समरे कान्धहीं ॥५॥ भग्गु असु वि रावग-साह। विलिय-पररगु गलिय-पसाहा ॥२॥ बिहुणियकर मुहकायर-णरवरु। दुष्ण-नुरन मु मोहिय रहयर ॥ ३ ॥ घसछस-आमल्लिय धयचडु । गरुय घाय-कछुवाविय-गय घड ।।४।। जं पासन्न पदीसिउ पर बलु। राहव-पक्विएहिं फिउ कलयालु ॥५॥ 'हले हले बारबार जं वणहि । जेण समाणु अगाणु ण माणहि ॥६॥ सं बल्ल पेश्वु पक्नु भजन्त। गं सवत्रणु दुव्वाएं छित्तउ ॥७॥ पं सजण-कुटुम्बु लाल-स। णाई कुमुणिवर-विस अणनं ॥६॥
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एकसट्टिमो संधि [७] अपनी टेढ़ी भौंहोंसे अत्यन्त भयंकर एवं कठोर दोनों सेनाएँ एक दूसरे पर प्रहार करने लगीं। रक्त रूपी जलसे अनुरंजित दोनों सेनाएँ सा लग रही थी मानो रक्तकमलका वन खिल उठा हो। इसी बीच जनमनको अच्छी लगनेवाली देवबालाओंमें झगड़ा होने लगा। एक सुरवाला बोली, "हला बासन्तदत्ता, वसन्तलेखा, कामसेना, कामलखा, कुसुम, मनीहारी अनंगा, चित्रांगा, घरांगना और वरांगा, तुम मुनो, युद्ध में जो यह सुभट दिखाई देता है, जिसकी देह सोनेकी खुरपीसे कट चुकी है। तुम यह मुझे दे दो, और अपने लिए मिल-जुल कर दूसरा योद्धा देख लो। एक और दूसरीने, जिसका शरीर हर्षसे खिल रहा था, कहा “हाथीके दाँतमै लगकर जिसने अपने आपको घायल कर लिया है, ओ पगली दौड़, वह मेरा स्वामी है"॥१-॥
[८] सुरबालाओं में इस प्रकार बातचीत हो ही रही थी कि रामकी सेनाने युद्ध में समूची रावण सेनाको परास्त कर दिया उसके हथियार खिसक गये, और सभी साधन नष्ट हो गये । श्रेष्ठ मनुष्य अपना कातर मुख लिये हाथ मल रहे थे । अश्व दुखी थे। रथ मोड़ दिये गये थे। छत्र गिर चुका था। ध्वजाएँ अस्त-व्यस्त थीं। भयंकर आघातोसे गजघटा बौखला गयी । शत्रसेनाको नष्ट होते देखकर रामकी सेनामें कोलाहल होने लगा। देवबालाओंमें दुबारा बातचीत होने लगी । एक ने कहा "जिस सेनाके बारेमें तुम कह रही थी कि उसके समान दूसरी नहीं हो सकती, वही सेना नष्ट होने जा रही है। वह ऐसी दिखाई दे रही है जैसे प्रचण्ड पवनने उपवनको उजाड़ दिया हो।" या मानो किसी दुष्टकी संगतिसे कोई अच्छा कुटुम्ब बर्बाद हो गया हो, या खोटे मुनिका मन
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७ঘ
रिंउ हरिण जू हु हिष्टन्त णापि कहिँ आइएमइ
पउमचरिउ
पुरन्त
मम्मीस देखि |
णं पल समुट्टिय चन्द्र-सूर | णं पलय हुआषण पचण-चण्ड | णं सीह समु सिय सरीर । दुव्वार- वइरि सञ्चारहि । अग्गे वारण-वायवेहिं ।
पवर गइन्दु गद्दन्दहीँ सुहस्थों णीलु पहत्य
घन्ता
पु
राह-सों मैं पडिउ ॥१॥
[ 3 ]
विश्वकका हत्थ पहत्य वे वि ||१||
णं राहु-कंड अच्चन्त क्रूर ॥ - ॥ णं मत्त महग्गय गिलगण्ड ॥१३॥ णं खय- जलणिहि गम्भीर धीर ॥ ४ ॥ उत्थरियाएँ हिँ पहर हिँ सिल पाहण पञ्चाय-पायदेहि ॥ ६ ॥ महारुण बन्ध राम- सेग्यु ||७| तहि अवसर थिय णल-णील वे वि ॥ ५ ॥ चत्ता
हिँडिन्ति तर्हि मर्णे विण्णु। विफद णासह पाण देवि ।
सी स्त्री समावति । सरह सपहरणु अभिडिउ ||९||
[10]
- हत्थ के वि र ओडिया । वेष्णि व अभन्न मायङ्गधया ।
पण त्रि मढी-मञ्जुर-वयणा । वेण्णव पण्ड-कोट-धरा ।
चैणि त्रि गय सन्दगेहिं चडिया ॥१॥ वेण्णि वि सुपसिद्ध - विजया ॥२॥ वेण्गि कि गुञ्जाहल-सम-णया ।।६।। वेण वि अणवस्य विमुक्कन्परा ||४|| श्रेणि चि सवाशेच्छिष्ण धया ॥ ५॥ वेण वि सयवार-य-बिरहा ||६|| for विधि अणिच-हवरेहिं । वेण्णि वि पोमाइय सुखरेहिं ॥ ७ ॥ वेण विपीन्द्रण पृणु वि किया। देष्णि त्रिविमाण वा
विभ्रणु विष्णाणन्त गया । बेणि विसमरण दुब्बिसहा ।
हिंथिया ॥ ८ ॥
-
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एकसहिमो संधि
७५ कामदेवने आहत कर दिया हो । शत्रुरूपी मृगोंका झुण्ड भटकता हुआ भाग्यसे कहीं भी जा पड़े, वह बच नहीं सकता। रामरूपी सिंहकी झपेटमें पड़कर आखिर वह कहाँ जायेगा ।। १- ||
[ ] इसी अन्तरमें सेनाको अभय वचन देकर हस्त और प्रहस्त दोनों आकर इस प्रकार खड़े हो गये. मानो प्रलयमें चन्द्र और सूर्य जादत हुए हों, था अत्यन्त ऋर राहु और केतु हों, या पवनाहत प्रलयकी आग हो, या मदसे गीले महागज हों या पुलकित शरीर सिंह हो, या गम्भीर और विशाल प्रलय कालीन समुद्र हो । दुार शत्रुओंका संहार करनेवाले आक्रमण शील हथियारों, आग्नेय वायव्य अत्रों, शिलाओं, पत्थरों, पर्वतों और वृक्षोंसे वे योद्धा जहाँ भी जा भिड़ते वहाँ लोगोंके मन खिन्न हो बठते । रामकी सेना ठहर नहीं पा रही थी। वह व्याकुल होकर अपने प्राणों के साथ नष्ट होने जा रही थी, नल और नील दोनों आ पहुँचे । मानो विशाल गजसे विशाल गज या सिंहसे सिंह भिड़ गया हो। नल हस्तसे, और प्रहस्तसे नील भिड़ गये, एकदम पुलकित और अस्त्र सहित ।। १-६॥
[१०] नल और हस्त युद्धस्थलमें एक दूसरेसे भिड़ गये, दोनों गजरथों पर चढ़ गये। दोनोंके गज और ध्वज अभंग थे। दोनों ही प्रसिद्ध थे और उन्होंने विजय प्राप्त की थी। दोनोंकी भौंहोंसे मुख कुटिल हो रहा था। दोनोंकी आँखें मूंगे की तरह लाल हो रही थीं। दोनों ही प्रचण्ड धनुष धारण किये हुए थे। दोनों ही तीरोंको अनवरत बौछार कर रहे थे। दोनोंने ही धनुर्विज्ञानकी विद्यामें अन्त पा लिया था। दोनों सौ-सौ बार ध्वजोंके टुकड़े कर चुके थे। दोनों ही युद्धके प्रांगणमें असहनीय थे। दोनों ही को सौ बार विरह हो चुका था, दोनों ही नये रथों में बैठे हुए थे, दोनोंकी देवता प्रशंसा
आ पहुंचे। माना होने जा
या सिंहसे
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७६
पउमचरित
पत्ता वेण्णि वि करन्ति रणे णिक पहु-लम्माण-दाग-रिणहाँ। नियहर पहरे विमानता कि ये गानु नाणहाँ ।।९।।
[1]
एश्यन्तरे आयामिय-णलेण। पय-मारकन्त-रसायलेण ॥९॥ हय-सूर-पउर-किय कलयलेण। ओरसिय-सङ्ख-दष्टिकाहलेण ॥२॥ हरिणिन्द-रुन्द-कडि-कटियलेण । सुन्दर रखोलिर-मेहलेण ।।३।। दिव-कडिण-चियर-बच्छरथलेण । पारोह-सोह-सम-भुभवलेण ।।।। छण-नम्द-रुन्द मुह-मण्डलेण। घोलम्स-कण्ण मणिकुपडलेण ।।५|| तोगारही रावण-किङ्करेण । कविउ मड-मिउडि-मयतरेण ॥६॥ विउसवण-लरु रणें दुषिणवारु। गुण-पन्धिय-भेत्तर सय-पयारु ।।७।। आमेलिजन्तु सहास-भेउ । थोवन्तरें णघर अलङ्क छेउ ॥६॥
धत्ता जलें पलें पाग्राले हाणें वाण-णिवहु सन्दरिसियर । स्वि-जलहरु सर-धाराहरु पल-कुलपम्वएँ वरिसिया ॥५॥
[१२] तं हत्थहाँ केरउ वाण-जालु । पुरम्मु असेसु दियन्तरालु ॥१॥ आयामै वि गलेण दुरिसणेण । आकरिसिड सरणाकरिमण ॥२॥ धारा-तिमिर व किरणायरेण । मीणार्थं जगु व सनिच्छत्रेण ॥३॥ दहिमुद्द-पुरै रिसिकागोवलग्गें। हणुवेण व सायर-जलु ख-मर्गे ॥४॥
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एकसहिमो संधि कर रहे थे। दोनोंने, फिर एक दूसरेको विरथ कर दिया, दोनों विमान वाहनो में बैठ गये। दोनों ही अपने स्वामीसे प्राप्त दान
और सम्मानके ऋणको चुका रहे थे। आक्रमण और प्रत्याक्रमण में दोनों ही, जिन भगवान का नाम ले रहे थे" ।। १-६॥
[११] इसी बीच, नल को भी झुका देने वाला हस्त आया । प्ररूपो गदभार हो सरह हार जाती थी। लाड़ोंकी ध्वनिके साथ उसने कोलाहल मचा दिया। शंख दष्टि और काल वाद्य फूंक दिये गये। वह सिहोंके झुण्डको मसमसा चुका था, उसका वक्षस्थल कठोर मजबूत, और भयंकर था। उसकी सुन्दर करधनी हिल-डुल रही थी । उसका मुख पूर्णिमाकै चाँदकी तरह सुन्दर था। उसके कानों में सुन्दर मणि कुण्डल हिलडुल रहे थे । भौंहोंसे भयंकर रावणके उस अनुचरने तरकससे, दुर्निवार विद्धपण तीर निकाल लिया । डोरी चढ़ाने मात्रसे वह सौ प्रकारका हो जाता था। छोड़ते ही वह हजाररूपका हो जाता था, और थोड़ी ही देर में उसका रहस्य समझना कठिन हो जाता था । जल, थल, पाताल और आकाशमें बाणोंका समूह दिखाई दे रहा था। इस प्रकार शत्रुरूपी जलका पानी तोररूपी बूंदोंसे नल रूपी पर्वत पर खूब बरसा ।। १-९॥
[१२ । जब हस्तके बाणजालने समूचे दिशाओंके अन्तरको घेर लिया तो दुर्दर्शनीय नलने अपना धनुष तान लिया। उसने खींचकर तीर मारा तो उससे आहत होकर, हस्त घायल होकर धरती पर गिर पड़ा, मानो रावणका दायाँ हाथ ही टूट गया हो, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार किरणोंसे अन्धकारका जाल या मीन राशिमें स्थित शनीचरसे दुनिया, या जिस प्रकार दधिमुख नगर में ऋषि और कन्याओंके उपसर्गके अवसर पर हनुमानने आकाशमें समुद्रजलको तितर-बितर कर दिया था।
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७८
अपक्कं वा छिग्णु चिन्धु । विहलहल महिले पनि हत्थु ।
के रिउ वयले विन्दुषु ॥१॥ दवयहाँ जेवगड ह ॥ ६ ॥
एस त्रिवे त्रिरण-भर-समत्य | ओवडिय मिडिय गील-प्पर || ७ || किस-रोस गिचित्र वेणि वि गङ्गाखिया
||८||
पच्चारित पीलु पह जय-लदेउ आलिङ्गशु
एत्थन्तरे णी ण किउ खेड | यामेति प
सो एन्तु पत्यें कुद्रण । यूँ छ सरवरे
मरि
छत्ता
'पहरु पहरू एकहों जगहों । जिम रामही जिम राम ॥२॥
7
जं विणिय हस्थ-पहरथ वे वि । र्ण मत्त महाराज गय-विाणु ।
[१३]
।
पाठ विसजिउ चण्ड- वेउ ॥११॥ महाविगुणु मेम्व ॥ २ ॥ करियर- सन्दर्भेण करि पुन ||३|| णं महिलु आगमें मुनिवरेहिं ॥४॥ एक्केकहाँ वे वे वाण दुक ||५|| विहिंसारहि विहिं षय थरहरन्त || ६ || धड एक्के एक डिग्रड भिष्णु ॥७॥
चवीस वर गोळेग मुख । विधि करि कप्परिंग समोत्थरन्व । रह एक एक कवउ छिष्णु ।
विहिं वाहु दण्ड विहिं विलुभ पाम । एवं तहाँ मस्यावस्थ जाय ||
धत्ता
सिर-कम-करोरु छक्खण्डइँ जाउ सिलीमुह कप्परिट | जिद्द हड पबन्त णं भूअहँ वलि विकिखरि ||१||
[१४]
थि राय मुर्दे कर-कमल देव ||१|| णं वासरे तेय - विहीणु भाणु ॥२॥
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एकसद्विमो संधि
भिड़ गये। दोना समर्थ वे दोनों की आयल कर दिया, और
एक और बाणसे उसने ध्वजको छिन्न-भिन्न कर दिया, और एक दूसरेसे शत्रको वक्ष स्थल में घायल कर दिया । इधर, युद्धभार उठाने में समर्थ वे दोनों नील और प्रहस्त भी आपस में भिड़ गये। दोनों ही ऋद्ध थे, दोनों ही प्रचढ थे, दोनोंकी बाहार पुलकित हो रही थीं। प्रहस्तने नीलको ललकारा, "एक ही आदमी पर प्रहार कर जयलक्ष्मी आलिंगन दे, चाहे रामको या रावणको ॥ १-६॥
[१३] यह सुनकर नील घबड़ाया नहीं। उसने अपना चण्ड वेग तीर उसपर छोड़ा। वह डोरीके धर्मसे छूटकर उसी प्रकार सरसराता चला- जिम प्रकार विंधनशील जगलोर इमोंने पास जाता है । परन्तु रथमें बैठे हुए गजध्वजी क्रुद्ध प्रहस्तने उस तीरके, छह तीरोंसे छह टुकड़े उसी प्रकार कर दिये, जिस प्रकार महामुनियोंने शास्त्रोंमें धरतीको छह खण्डोंमें विभक्त किया है । तब नीलने चौवीस और तीर छोड़े जो एकके अनुकममें दो दो बाण उसके पास पहुँचे। दो बाणोंने उछलते हुए हाथीको घायल कर दिया, दोने सारथीको, और दोने फहराती हुई ध्वजाको छिन्न-भिन्न कर दिया। एक तीरने रथ और दूसरेने कवचको नष्ट कर दिया । एकने धड़को और दूसरेने हृदयको छिन्न-भिन्न कर दिया। उसके दोनों हाथ और पाँव भी फट गये । उसकी मौत निकट आ पहुँची । तीरोंसे कट कर उसके सिर पैर हाथ और वक्षस्थल के छह टुकड़े हो गये । धरती पर बिखरा हुआ वह सुभट ऐसा लग रहा था मानो भूतोंके लिए बलि बिखर दी गयी हो ॥ १-२ ।।।
[१४] जब हस्त और प्रहस्त दोनों मारे गये तो रावण अपना कर-कमल माथे पर रखकर बैठ गया। वह ऐसा लग रहा था मानो दन्तविहीन महागज हो, या मानो दिनमें तेज
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परमचरिट मणी-ससि-सूरउ गयण-मग्गु । णं इन्द-पष्ठिन्द-विमुकुस ॥३॥ ण मुणिषरु इह-पर-लोय-चुकु। कुकइ-कब्बु लपवण-विमुक्छु ।।५॥ थिउ बलु विणिरुमम गलिय-गाउ । राहप-बलु परिवदिय-यात्रु ॥५॥ पसह स-पडा णीसह सङ्ग। एतद अफालिय तूर-लक्ख ॥५॥ एत्तहें पलें हाहाकारु ह। एसह पुणु जयजय-सा घुष्ट ॥७॥ एस बि गयणें अस्थमिड मित्त । णं हत्य-पहायाँ तण मितु ॥८॥
घता
सुमन्सई वेणि बि सेग्णइँ स्यणिएं णाई णिवारियई। भूऍहि स हैं भू अ-सहासई रण भोयणे हकारियई ।।१॥
[६२. बासटिमो संधि] पाडिएँ हाथै पहथें बलई वे वि परियत्तई । गाइँ समत्तएँ कजें मिहुणई णिसुरिय-गसइँ ॥
[.] गएँ रायणे णिय-मन्दिर पइठे। हरि-हलहरै रण-वाहिर णिषि? ॥३॥ तहि अवसर जप-पिरियण्ण-णामु । जोहारिउ णल-णीले हिं राम ॥२॥ सेण धि पहु-रयण-समुज्जलाई । दिण्ण ई जीलहों मणि-कुण्डलाई ॥३॥ इयरहों थि मउडु मणि-तम-मिण्णु। जो रामपरिहि उम्खेण विषणु ॥४॥ जंघे वि पपुजिय राहवेण । पङ्ग चूहु किड जम्बवेण ।। || पर दाहिणेण हय उत्तरण । गय पुस्खें रह अपरतणेण ।।६।। विरइयई विमाणइँ गयण मगा। थिम हरि-हलहर सीहासणगें ।।।। देव मि अच्छेड अभेउ पूछ । णं घिउ मिलेवि पञ्चमुहु जूहु ।।६।।
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सालटिना संधि रहित सूर्य हो, माना सूर्य चन्द्रसे विहीन आकाश हो, मानो इन्द्र और प्रतीन्द्रसे रहित स्वर्ग हो, एक ओर नगाड़े और शंख निःशब्द थे, और दूसरी ओर लानों तूर्य बज रहे थे। एक ओर सेनामें हाहाकार मचा हुआ था, दूसरी ओर जय-जय ध्वनि गूंज रही थी। इस ओर आकाशमें सूरज डूब गया, मानो वह हस्त और प्रहस्तका मित्र था। लड़ती हुई वे सेनाएँ रातमें भी नहीं हट रही थी। सैकड़ों भूखे भून युद्ध में भोजनके लिए एक दूसरेको पुकार रहे थे ।। १-९॥
__ वासठवीं सन्धि हस्त और प्रहस्तके मारे जाने पर, दोनों सेनाएँ अलगअलग हो गयीं। ठीक उसी तरह, जिस तरह कार्य पूरा हो जाने पर शिथिलशरीर, दम्पति अलग हो जाते हैं।
[१] रायणने अपने आवासमें प्रवेश किया। राम और लक्ष्मण भी, युद्धभूमिसे बाहर आ गये । ठीक इसी समय विश्वमें विख्यातनाम नल-नीलने आकर, रामका अभिवादन किया। रामने भी नीलको बहुरत्न मणियोंसे समुज्वल मणि कुण्डल प्रदान किये। दूसरे नलको 'भी मणियोंके प्रकाशसे चमकता हुआ मुकुट दिया। यह मुकुट रामपुरीमें उन्हें यक्षने भेंट किया था। राम जब उन दोनोंका सत्कार कर चुके तो जाम्बवने पंचन्यूहकी रचना की। मनुष्य दाँय तरफ थे, और अश्व बायें तरफ। गज पूर्व दिशामें और पश्चिम भागमें रथ खड़े थे। उन्होंने आकाशमें विमानोंकी रचना कर डाली। राम और लक्ष्मण सिंहासनके अग्रभाग पर विराजमान थे। वह न्यूड देवताओंके लिए भी अभेद्य था। ऐसा जान पड़ता था
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पउमधरिट
नाव रणङ्गण-मझ 'शरण दुज्ज राम
धत्ता पुणु पुणु सिब फेबारइ । गाइँ समासा वारइ ।।५।।
कत्थ वि सिम का वि कलुगु लवइ । 'रणु धोबउ जाइ अण्णुवि बह' ।। ।। करथ वि सिव का त्रि समल्लियइ । जोभइ 'को मुड को जियई' ॥२॥ कत्थ वि सिव सुबडहाँ डीण सिर । विवरोक्षएँ अग्णाएँ भुत्ति करें ॥३॥ कन्ध बि सिव चुम्बद मुह-कमल । पं पोट-विलासिणि अहर-दलु ॥ ३ ॥ कस्थ नि सिक महहाँ लेइ हियउ । पुणु मलाई 'मरु अग्ण हिस' ॥५॥ कत्थ वि रण भूअहुँ कलहणउ । 'सिरु सुज्नु कवन्धु म त गर' ॥६॥ अफिमदइ अण्णु अण्ण सहुँ । 'उ मड्ड आवग्गउ हि म ॥७॥ मपणे चुचाइ 'खण्ट्स वि पण तउ । छुड एकु गामु महु होउ गर' ॥६॥
घत्ता
भूभहुँ मोअण-लील सीयहँ मणे परिओसु
रामह) वयणु समुज्जलु । णिसिपर-वलहाँ अमङ्गल ॥९॥
जणिसुणित हत्थु पहाथु हर। तं पलय-काल ओवस्थिय । गं पमिखउलंण विमुक रडि। सं णड धह जेस्थु पा स्वइ धण।
पल-गील-सरें हिं तम्बार गट ।।। पुरै हाहाकारु समुस्थियड ॥२॥
णिवरिय महिहर-सिहर तडि.. उम्मिय-कर धाहाविय-बयण ॥४॥
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वासहिमोनि मानो सिंहों का झुण्ड हो । इसी बीच, युद्धप्रांगण में सियार बोलने लगा, मानो वह संकेतमें कह रहा था “हे रावण, तुम्हारे लिए राम अजेय हैं" ॥ १-२॥
[२] कहीं पर सियारिन करुण क्रन्दन कर रही थी "यदि युद्ध आज श्रोड़ी देर और हो, तो अच्छा है।" कहीं पर एक
और सियारिन छिपी हुई थी, मानो वह देख रही थी कि कौन मरा हुआ है, और कौन जीवित है। एक और जगह, शृगाली एक सुभट पर कूद पड़ी, मानो वह दूसरेके पीठ पीछे भोजन करना चाहती थी । कोई सियार किसी सुभटका मुखकमल इस प्रकार चूम रहा था, मानो प्रौद विलासिनीका अधरदल हो।" कहीं पर सियार योद्धाका हृदय निकालता और फिर उसे छोड़ देता, यह जानकर कि वह दूसरेका है। कहीं युद्ध में भूतोंका संघर्ष छिड़ा हुआ था। एक कहता, "सिर तुम्हारा और धड़ मेरा है।" एक दूसरा किसी और से भिड़ जाता और कहता, "यह पूरा योद्धा मुझे दो।" तब दूसरा कहता, "नहीं इसका एक दुकड़ा भी नहीं दूंगा, यह हाथी तो मेरे लिए एक कौर (ग्रास) होगा" भूत-प्रेतोंमें इस प्रकार भोजनलीला मची हुई थी। राम का मुख तेजसे उद्दीन था । सीता मन ही मन संतुष्ट थी। कंबल निशाचरोकी सेना में, अमंगल दिखाई दे रहा था ॥१-६।
[३] निशाचरोने जब सुना कि हस्त और प्रहस्त अब इस दुनिया में नहीं हैं, नल और नीलके अस्त्रोंसे उनका विनाश हो गया, तो जैसे उनमें प्रलयकाल मच गया, लंका नगरी में हाहाकार होने लगा। उस समय एसा लगता था मानो पाझ-समूह
आक्रंदन कर रहा हो, या पहाड़ पर गाज (वन) आ गिरी हो।" एक भी ऐसा घर नहीं था जिसमें धन्या नहीं रो रही हो, वह
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पउमचरित
सो पाउ मडु जासु ण अझं वणु। सो पड पहु जो णउ विमण-मणु ॥५॥ सो ण रहु जो ण विकस्पियर। सो गड हउ जो ण वि सर मरिड ।।८।। सो प वि गउ जासु ण असि-पहरु । सो ण यि हरि जी भभग्ग-णहरु || 15 जण एम कणन्त परिट्रियाएँ। दुक्खाउरें णिहा-वसिकियएँ॥॥
घत्ता
अन्दर पतिरपणे पुर पच्छपण-सरीरू
विभाहरपरमेसरु। ममइ गाई जोगेसरु ॥२॥
पप्फुल्लिय-कुक्लप-दस-यणु। करवाल-भयङ्करु दश्वयणु ॥१॥ आहिण्डद रगिहि घरेण घर। पैकरतहुँ को केहउ चचह णरु ॥२॥ पइमद अयम्त-मणोहर । पवर वर-कामिणि-रङ्कहरई ।।।। जहिं सुरयारम्भु गट्ट-सरिसु । जिह तं तिहति)वविय-हरिसु॥३॥ सिंह तं सिह भू-मञ्जर-बयणु । जिहतं तिह चल-चालिय-यणु ॥५॥ निहतं तिह आयडिय-णहरु। जिह २ तिह उग्गाभिष-पहरु जिह तं तिह गल-काम्मीर-सरु । जिह तं तिह दरिसिय-अङ्गहरूमा सिह सं तिह करण-बन्ध-पउरु। जिस तं विद्ध छन्द-सह-गहिरु ।
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घत्ता
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पाधि सुरपारम्भु सांब सरेवि दसासु
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जहाँ भणुहरमाण । परिणिन्दई अप्पाणउ ॥१॥
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बासदिमो संधि
दोनों हाथ ऊपर कर दहाड़ मार कर रो रही थी। ऐसा योद्धा एक भी नहीं था जिसके शरीर पर बाब न हो, एक भी ऐसा राजा नहीं था जिसका मन उदास न दो, एक भी ऐसा रथ नहीं था जो टूटा-फूटा न हो, जो क्षतिग्रस्त न हुआ हो और तीरोंसे न भरा हो ।" एक भी हाथी ऐसा नहीं था, जिसपर तलवारका आघात न हो। ऐसा एक भी अश्व नहीं था जिसके नख न टूटे हों । इस प्रकार बहुत रात तक, चे करुण विलाप करते रहे, और बादमें वे गहरी नींदमें डूब गये | जय आधी रात हुई तो विद्याधरोंका राजा, गुप्तभेष में नगरमें घूमने के लिए निकला, मानो योगेश्वर ही हो।" ॥१-२॥
[४] उसके दोनों नेत्र खिले हुए थे । तरूवारसे रावण भयंकर दिखाई दे रहा था । रात्रि में वह घरों घर घूम रहा था यह जानने के लिए कि कौन मेरे विषयमें क्या विचार रखता है । कहीं पर वह सुन्दर कामिनियोंके अत्यन्त सुन्दर कीड़ागृहों में घुस जाता । वहाँ चटोंकी तरह सुरत क्रीड़ा प्रारम्भ हो रहो थी । नटलीलाकी ही भाँति इनमें उत्तरोत्तर आनन्द बढ़ रहा था। नटलीलाकी तरह इसमें मुख और भौहे टेन्ही हो रही थीं । नटलीलाकी भाँति इसमें पैर और आँख चल रही थीं। नटलीलाकी भाँत्ति, इसमें भी नख बढ़े हुए थे। नटलीला की भाँति इसमें भी प्रहर का उदय हो गया था। एकका स्वर गम्भीर हो रहा था. दुमरेका तीर, एक हाथ बँध हुए थे और दूसरे में बातचन्द्र थे। नटलीलाकी भाँति वह सुरत लीलाके भी स्वर और बोल गम्भीर थे। नटलीलाके ही अनुरूप सुरत क्रीडाके प्रारम्भको देख कर रावणको अचानक सीतादेवी की याद हो आयी और वह अपने आपको कोसने लगा ॥१-५॥
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ક્
श्रोषन्तक जात्र परिक्रममद्द | 'सुन्दर मिग-णय मराल गई । तं पणु तं लगियड ।
तं उच्चारणमणि-त्रेयडिउ |
महल से कष्टाहरण | तं फुल सह सम्बो वीरु मार चामीयहाँ ।
हुँज एकुण आवड
पउमचरिउ
[*]
तहाँ जबगार करते लावधि वण- विवित्त
संणिसुर्णेवि गड राखणु तेल । जालगवाएँ थिउ एक्कन्तएँ । "घ विहाण कहूँ एड करें | दारुणु रण-कसिण्डेउ | चाउरजु मलु ाउ धुर देवी । पडिक
रहचर सादेवा । करें कफि करंबी | सुरुङ-कवन्धु लेष विडेव ।
अग्ग
सहूँ कन्त को विवी च ॥ १ ॥ नं पहु-साठ किं बीसर तं जीवि दाणु अमयि
|| २ ||
नं मत्त गइन् खन्धे चडिउ
तं चेलि में जं समाद्दणु ॥ ५ ॥
मं असणु सुपरिमलुक अवर वि पसाय सो में
[ ६ ]
॥३॥
॥ ४ ॥
॥ ६ ॥
सरहों ॥ ७ ॥
वें
घता
भिक कमि महाहवें ।
थरहरन्त सर राहवें ॥९॥
||२||
मन्दोर-जमेर मंड जेस है ॥ ॥ णिन्तु सो
कन्त ऍ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥
तं वड् प्फर- जूड र जाविध विसरिंसु खलु षेव || २६॥ जापडिया जुति एव ||५| हयगय जोह छोड़ पाडेका ॥ ६ ॥ जयमिरिह जीवनाहि रिउ ग्रहणु लएवउ |२८||
||७||
I
I
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पासहिमो संधि [५] राषण थोड़ी ही दूर पर गया था कि उसने देखा कि कोई योद्धा अपनी पत्नीसे कह रहा है, "हिरणके समान नेत्रोंवाली हंसगति सुन्दरी, क्या तुम स्वामीके प्रसादको भूल गयीं । यह सेवा, वह चाकरी, वह अयाचित जीवनदान, मणियों से जड़िन वह ऊँचा आसन, वह मत्तगजोंके कन्धों पर चढ़ना, यह मेखला, वह कण्ठका आभूषण, वे वस्त्र और वह सत्कार । अपने हाथ से फूल और पान देना । वह भोजन और सुवासिन कचौड़ी, बह वस्त्र व भारी सोना । इसके अतिरिक्त और कई प्रसाद लंकवरके मेरे ऊपर हैं। जो इनमें से एकको भी नहीं मानता, निश्चय ही वह सात नरक में जायगा। हे रमणीय. मैं उसके उपकारका प्रतिदान युद्धमें चुकाऊँगा । रामक ऊपर मैं रंगविरंगे थर्राते तीर बरसाऊँगा ।।१-६||
[६] यह सुनकर, रावण वहाँ गया, जहाँ मन्दोदरीका पिता मय था। जालीदार गवाझके पास बैठकर, वह चुपचाप सुनने लगा कि मय अपनी पत्नीसे क्या कह रहा है । वह अपनी पत्नीसे कह रहा था, "हे प्रिये, कल मैं बहुत बड़ा जुआ (म्फर
त ) खेलूंगा। भयंकर रणदात (कडित्त) रखाऊँगा और उसमें अपने अमूल्य जीवनकी बाजी लगा दूँगा। चार दिशाओंमें चतुरंग सेनाको लगा दूँगा, खलिया मिट्टीसे लकीर खीचूंगा, ( खडिया जुत्ति ), मैं शत्रुके श्रेष्ठ रथोंको आहत कर दूंगा, गज, अश्व और योधाऑमें नोभकी लहर उत्पन्न कर दंगा, तलवार रूपी पाँसा ( कत्ति ) अपने हाथ में लेकर, जयश्री की एक लम्बी लकीर खींच दूँगा। सुभदोंके धड़ोंको इकट्ठा करूंगा, और शत्रुओंको इस प्रकार दबोचूंगा कि उनके प्राण ही न रह
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परमचरिड
पत्ता
दण्डासहिद कियन्तु लुहउ लोह पिसुण-यणहाँ । रनर, जि. साधु को कारवाहीं ॥९॥
[ ] संणि पुणे वि रावणु तुट-मशु । सञ्चलिउ भारिबहाँ भषण || १॥ पच्छण्णु परिहित पषर-भुउ। सहुँ कन्तएँ सो वि चवन्तु सुड ॥२॥ 'कल्ला सोणिय-सम्मजणएँ। पइम्मेवउ म, रण-मजण' ॥३॥ रह-पन वशिद्धय-गन्धामला। घर असिवर कढ़ा-थामलऐं ॥४॥ पगारवर-विहुरा-मङ्गकरणें । जस-उध्यण यहु-मळ-हरणे ॥५|| अपलरिछ-हरिद-विहूलियम्। समाज कुण्ड-पदासिया ॥६।। परवल जलो मेलाविया । पहरण-दग्गि -सन्ताचिय' ॥७॥ भूगोयर-रुहिर-सोम भरि। असिंधारा-शियरें पविस्थारिएँ ।।४।।
बइस वि करि-सिर-वी जण ण हुक फतें
पत्ता पहामि पर णीसउ । जन्में वि अयस कलउ' |२||
[८] संगमुणे वि वयणु अदयावतु | सुअ-सारणह घर पर रावणु ।।।।
के चुन गुरउ णिय-महें। 'कल्ला घम कन्त रग-सेज हैं ॥३॥ भुभाग-त्तग्रहीं मझे किसानहूँ । चाउरङ्ग साहण-नउपायहें ।।३।। गयवर-गन्न पईहर-गत्तहै। अन्त-न्द्र लन्त-मुम्ब-सञ्जन ।।४।। हा-हाह-विच्छत्थरियह। कार-कुम्भावहाण-वियरियाँ ।।५|| जस-पाय-हस्थिणिया-रुड़ह । वारण-मसवारणालीदहें' ॥६॥
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बासहिमो संधि
जायें। मैं दण्ड सहित साक्षात् यमराज हूँ। मैं शत्रओंके राजा. का नाम तक मिटा दूंगा, और समस्त शत्रु सेनाको जीतकर, रायणको भेंट चढ़ा दूंगा।" ॥ १-६ ।।
E] यह सुनकर, रावण मन ही मन प्रसन्न हुआ। वह मारीयके घरकी ओर मुड़ा। विशालवाहु घह, पौछे जाकर खड़ा हो गया । उसने सुना कि मारीच अपनी पत्नीसे कह रहा था, "कल मैं रक्तरंजित युद्धसागरमें रणस्नान करूँगा । इस समुद्र में रथ और गजोंसे गन्ध बढ़ रही होगी । उत्तम तलवारों के लोहसे जो बहुत विस्तीणं है। जिसमें नर-श्रेष्ठोंके अंग कटपिट रहे हैं, जो यशको उखाड़ देता है, और बहुत सी बुराइयों का अन्त कर देता है । जयश्री की हल्दीसे जो विभूषित है। जिसमें बड़े-बड़े कुण्ड दिखाई दे रहे हैं, जिसमें शत्रसेना रूपी समुद्र आ मिला, जिसमें महाक दाबान हो जाता है। विद्याधरोंके रक्तसे, जो भरा हुआ है, और तलवारकी धाराओंसे भरपूर जो बहुत विशाल है। एसे उस विशाल रण समुद्र में, हाथीकी पीठपर बैठकर मैं कल स्नान करूंगा। हे प्रिये, जिससे मुझे इस जन्म में अग्रसका कलंक न लगे ॥ १-२ ।।
[3] इन ऋर बचनोंको सुनकर, रावण सुत-सारणों के घर गया। उनमें से एक अपनी पत्नी के सामने कह रहा था, "हु प्रिये कल मैं रणकी सेजपर चढू गा, उस सेज पर जो तीनों लोकोंमें विख्यात है, चारों सेना जिसके चार पाये हैं । उत्तनउत्तम गोंक शरीर, जिसकी लम्बी आकृति बनाते हैं। उसकी सेजकै बीचमें सुन्दर हिलती हुई डोरिया लदक रहीं होगी। हड्डियों और धड़ों के समूहसे आक्रान्त गजकुम्भोंके तकिये जिसमें भरे पड़े हैं। जिसमें यशकी पताका लिये हुए लोग इथनियों और मतवाल गजों पर आरूढ़ है।" एक और ने कहा,
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पदमचरित
भपणकण बुत्तु 'सुगु सुन्दरि। गुरु-णियमें वियट-डरें किसाार II रहवर गायबर-णावर-बलिया । धय-तारणहें समर-बाहलियाँ ||८||
पत्ता
असि-चावाण लपवि हणुगुकारु करवउ । कलारें सुहह-सिरहि मई मिन्यु प रमबद्ध' ।।९।।
[१] दुग्बार-बहरि-चिणिचारण ! में ययणु सुणे वि सुन-सारणहुँ ।।।। स-कलसहाँ गहिय-पसाइणों। गड मन्दिर तायदवारणहाँ १२॥ थिउ जाल-गवरसाएँ बहसरे वि । ण केसरि गिरि-गृह पइसरॅषि ।।३।। णिय-णन्दणु गलगअन्तु सुउ । वयणुमडु रहभिषण-भुउ ॥४॥ "णिय लील फन् तउ दक्षतमि । हउँ कल्ला रण-वमन्तु रमि ||५|| रिउ-सोणिय-घुसिण-चशियड । मजण-बच्चरि-परिभत्रियज ॥६॥ असु वेमि विहन वि सुरवरई। जम-अरुण कुवर-पुरन्दरहुँ ।।७।। राष-मण-गण-सुहावणिन। दामि दणु-दवणा-मणिय ||८||
घत्ता करिकुनम-स्थल-पी अग्रि वार-त्ती धाम । लकवण-राम-लहिणे हिंदोला बन्धमि' , २||
[१०] सं चयणु सुणेवि घणवाहणौं। दुमयहाँ आपद्रिय-साहगहों ।।१m गड रामणु पर-मण-उदहणु। अहिं जम्बुमालि. पहजारहणु ॥२।। तण वि गलगनिउ गहिणिहुँ । सोहण व अग्मा सीहिणि ॥३॥
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यासट्टिमो संधि
ዩና
" सुन्दरी सुन, सचमुच तुम्हारे नितम्ब भारी हैं, उर विशाल है और उदर क्षीण है। निश्चय ही, मैं कल युद्ध के मैदान में खेल रचाऊँगा । उस मैदान में जो श्रेष्ठ अश्यों, गजों और मनुष्यों से खचाखच भरा है, और ध्वज-तोरणोंसे सजा । “उस युद्धके मैदानमें, मैं सचमुच तलवाररूपी चौगान लेकर हुँकारोंके साथ, शत्रुसिरोंकी गेदोंसे खेल खेलूंगा" ||१-२॥
[६] दुर्बार शत्रुओंको हटाने में समर्थ सुत-सारणके वचन सुनकर रावण वहाँ गया जहाँ तोयवाहनका प्रसाद था | वहाँ वह अन्तःपुरके साथ सजधज कर बैठा हुआ था। वह गवाक्षके जाल में जाकर ऐसा बैठ गया, मानो सिंह गिरिगुहा में घुसकर बैठ गया हो। रावणने अपने ही बेटेकी कहते हुए हुआ। । उसके वचन अत्यन्त उद्भट थे, और हर्षसे उसकी भुजाएँ फड़क रही थीं। वह कह रहा था, “प्रिये, मैं तुम्हें अपनी लीला का प्रदर्शन बताऊँगा । कल मैं युद्धरूपी वसन्तमें कोड़ा करूँगा । शत्रुके रक्तकपूरसे अपनेको भूषित करूँगा. और सज्जनोंके साथ चांचर खेल खेलूंगा, यम वरुण कुबेर इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवताओंको नष्ट कर यश लूँगा । रावणके मन और नेत्रोंको अच्छी लगनेवाली सीतादेवी उसे दिलाऊँगा। हाथियोंके australia utavर असिरूपी वरांगनाका सन्धान करूँगा, और बादलोंमें राम-लक्ष्मणके तीरोंसे हिंदोल (झूला) बनाऊँगा ||१३||
[५० ] अजेय और अनिर्दिष्ट साधन मेघवाहन के ये वचन सुनकर रावण यहाँ गया, जहाँ दूसरेके मनका रमण करनेवाला जम्बुमाली कृतप्रतिज्ञ बैठा हुआ था। वह भी अपनी पत्नीसे गरज कर इस प्रकार कह रहा था, मानो सिंह सिंहनीसे कह रहा हो। उसने कहा, "हे सुन्दरी, सुनो कल मैं क्या करूँगा ?
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पउमचरिष्ठ सुणु फन्त कलें काई करमि । जिह खय-पाउसु तिह उस्थरमि ॥४॥ मजम्त-मत्त-मपगल-घणे हैि। दडिपार-भेरी-वरहिहि ।।५।। घन्दिणे हि लवन्तेहिं वरिपहि। पहरण-दुधाएँ हि वहु-विहहिं ।।६।। रहबर-पवरटभाडम्बरहि । अभिवर-विजुलं हि भयरहि ॥७॥
वत्ता छत्त-बालाया-पन्ति घाणु-सुरघणु दरिसन्ताउ । यस्मिमि सर-धारहि पर-वले पटउ करन्तर' || |
[ ५१] तं णिमुणे वि गड हसु नहि। सफलता इन्द्रह-राड जहिं ||१|| नेग चि गलगजिउ गिय-भवणे । णावह लाल-जालहरेण गयणें ॥२॥ 'हदै ऋल्ल पालन हुआलु घाणें। लग्गेम्वमि राहव-मेगा-वणे ॥३॥ पाहरण-सिमीर-पहर-पउरें। सुन्दर-गारवर-नरुबर-णियर ।।७।। भुपदण्ड-पर-घालोलि-धरै। करपल-पल्लव-यह-कुसुम-मरे ||५|| मणहर-कामिगि लय-बेलहले। छत्तन्य-सुक-रुक्रय-बहल ॥६॥ हयगाय-वणयर णापणाग्रिह।। रिउ-पापा-ममुष्टाविय-विहएँ ॥७॥ उत्तर-तुरङ्गम-हरिण-हरें। हरि-इलहर-वर-वध्वय सिह ।।
ताहि हउँ परब-दवगिग पर-वल कागणु सच्च
कलावणे लग्गेस मि । छारही पुञ्ज करंसमि' ।।५||
[२] तं वयणु मुर्गेवि सञ्चल्लु नहि। मछु कुम्भयण णिय-भवणे अहि ।।१।। संग वि पबुतु 'हे इंसपई। कल रण-णहयले माणुबह ॥२॥
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यासटिमो संधि
कल मैं क्षयकालकी वर्षाकी भाँति उठूगा । उसमें मतवाले मेघ डूबते-उत्तराते होंगे, उनकी आवाज दलि, दर्दुर, भेरी और मारु की ध्वनि के समान होगी। प्रशस्न यम कानेदान्ने मागकी जगह उसमें पपीहे होंगे। उसमें हथियारोंको विविध हवाएँ चल रही होंगी। रथवर घनघटाओंका काम देंगे । वह पावस, तलवारोंकी बिजलियोंसे सचमुच भयंकर होगा। छत्र उसमें बगुलोकी कतार की भाँति लगते हैं, और धनुष इन्द्र धनुपकी भाँति । तारोकी बौछार कर मैं शत्रुसेनामें प्रलय मचा दूंगा ॥१-८॥
[११] यह सुनकर लंकेश वहाँ गया, जहाँ पर इन्द्रजीत अपनी पत्नीके साथ था । वह भी अपने भवन में ऐसे गरज रहा था. मानो आकाशमें दुष्ट मेघ गरज रहे हों। वह कह रहा था, "कल मैं राघवके सैनिक बनमें प्रलयकी आग यन जाऊँगा । प्रहरण सिप्पीर और प्रहरोंसे महान उस वनमें दुर्धर मनुष्यों के पेड़ होंगे, जो भुजदण्डोंकी शाखाएँ धारण करता है। जो हथेलियों और अंगुलियोंके कुसुमोसे पूरित है, सुन्धर त्रियों की लताओं और चिल्वफलोंसे युक्त है। छन और ध्वजाएँ जिसमें रूखे पेड़ है। अश्व और गज तरह-तरह के पनचर हैं, और जिसमें शत्रओंके प्राणरूपी पंछी खल रहे हैं। त्रस्त अश्वरूपी हरिण जिस में हैं। और जो राम एवं लक्ष्मणरूपी शिखरोंसे युक्त है । ऐसे उस सघन वनमें मैं कल प्रलयकी आग लगा दूँगा । और समस्त शत्रुरूपी वनको खाक कर दूंगा॥१-२।।
[१२] यह वचन सुनकर, रावण वहाँ गया जहाँ योद्धा कुम्भकर्ण अपने भवनमें था। वह भी अपनी पत्नीसे कह रहा था, "हे हंसगति भानुमती, कल युद्धरूपी आकाशमें ज्योतिष चक्र बन जाऊँगा, एकदम दुर्दर्शनीय, भयंकर और अगम्य ।
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पडमधरित
दुप्पंरतु मयारू दुप्पगड़। सबै हासमि जोइस-याकुहरें ।।३।। करिकुम्भ-कुम्भु कोड-धणु। दुम्बार बार-बारबहगु ॥३॥ श्वर-गावसु गहन्द-गह। भड-रुण्ड-खण्ड-रानी-णिवहु ।।५।। अभिट्ट-जोह-सामन्त-दिणु । विशिविट-
मामि साक्षण-उत्तर-दाहिण-अयणु। अण्ण महारह-समागु ।।३।। दहमुह-शिवप्प-आरुट्ठ-माणु ।। हरि-हलहर-मन्द-सूर-गर ||2||
।।
रह गय घट्टस्तु सम्वहाँ पल करन्तु
घन्ता हा पुणु कहि मिसण्ठमि । धूमके उ हि उट्टाम' ॥९॥
[१३] मद-वोकाड णिसुर्णे वि दहवयणु । हरिसिय-भुउ पप्फुल्लिय-णयशु ||१॥ अप्पड सिङ्गार विणीसरिख । लहु णिय-अन्सेडर पइसरिज ।।२।। णेडर-प्रकार-मोर-साए। कमी-कफाय-लोलिरऐं ॥३॥ मणि-कस्य-सउर-घूमहरणें। सिय हार-फार-माहवाहणे ।। कुण्डल-केवर-विहूसिपएँ। पिम्मम-विलास-अहि विलसियएँ ।॥५॥ ससि-मुहें मिग-णयण हंस-गमएँ। मसलु पट्टउ मिसिणि-बणे ॥३।। चुम्वन्तु पराणण-सयदल हैं। कपूर-दूरगय-परिमलाई ।।७।। उलोचग-कैसर-णियर-बसु । गेगहन्तउ श्य-मयरन्द-स्सु ॥५॥ पहु एमन्सेउर परिममिस । सुषिहाशु माणु ता उग्ग:मउ ॥९॥
हस्थ-पहस्थहुँ जुन गाई पडीवड काले
पत्ता मड-मापहि ण घाइट। भीयण-एँ आइड ॥१०॥
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वासटिमो संधि राजकुम्भ उसमें कुम्भराशि होगी, धनुष, धनराशि, वह धनुच जो दुर्वार तीरोंको धारण करता है, मनुष्य श्रेष्ठ जिसमें नक्षत्र होंगे 1 गजेन्द्र, ग्रह और योद्धाओंके धड़ाके खण्ड राशिके समूह होंगे। लड़ते हुए योचा और सामन्त दिन होगे एवं सेनाएँ उत्तरायण और दक्षिणायनकी जगह समझिए। तथा महारथोंको संक्रमणकाल समझना चाहिए | रावण ऋद्धमन राहु है। राम और लक्ष्मण रूपी सूर्य-चन्द्रका ग्रहण होगा । अश्य और रथ टकरा जायेंगे, परन्तु मैं कहीं भी नहीं ठहरूँगा, मैं धूमकेतु की तरह उलूंगा और सबका नाश कर दूंगा |१-२॥
[१३] इस योद्धाके ये शब्द सुनकर रावणकी भुजाएँ खिल गयीं और आँखें प्रसन्न हो उठी। वह स्वयं अपना शृंगारकर बाहर निकला, और शीघ्र ही उसने अपने अन्तःपुरमें प्रवेश किया। वह अन्तःपुर जिसमें नूपुरॉकी झंकारके स्वर गूंज रहे थे, करधनियोंके समूहसे जिसमें कम्पन हो रहा था। मणि, कटक,मुकुट, चूड़ा और आभरणोंसे जो भरपूर था । जो श्रीहार की चमकके भारसे उद्वेलित हो रहा था। जो कुण्डल और केयूर से विभूषित था, और विभ्रम विलाससे अधिविलसित था। जिसमें मुख चन्द्र के समान, नेत्र मृगके और गति हंसके समान थी । ऐसे उस अन्तःपुरमें रावणने ऐसे प्रवेश किया मानो भ्रमरियोंके बनमें भौंरेने प्रवेश किया हो। उत्तम अंगनाआँके उन शतदलोंको उसने चूम लिया, जिनसे दूर-दूर तक कपूरकी गन्ध उड़ रही थी। उद्दीपन रूपी केशरके वश में होकर, वह कामक्रीड़ाके रसका पान करता रहा। इस प्रकार वह अन्तःपुरमें विहार करता रहा। इतने में सूर्योदय हो गया । हस्त-प्रहस्तके उस युद्ध में जो मरे हुए योद्धा उठकर नहीं दौड़ सके, उससे लगा मानो महाकाल भोजनकी इच्छासे आया हो ।।१-१०॥
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4
जहिं जहि रयनिहिं गलगजिउ जेहिं जहिं लङ्काहि इच्छिद । ताहँ तहँ पष्फुल्लित्रय ।
कासु वि कुण्डल-जुअलु णिउसउ । कहीं षि कदर कण्ठ कविसुत || ४ || कहाँ विम कासू विदाइ ॥५॥ कहाँ त्रि गइन्दु तुरङ्गभु कासु वि । श्रोडर कहीं वि दिणार-सहासु वि || कहाँ षि मारुतुल कहीं विषण्ण क्षणहरुख को डि पुणु अण्णाहीं ॥ ७ ॥ कहाँ घि फुलु तम्बोलु स ह । कहाँ विपसाणु सहुँ चर-वस्यें ॥८॥
जे पविय पसाय गावि सिर-कमलाहूँ
रवि उ
स
पउमचरिउ
[v]
जेहिं जेहिं पिय-कज्जु विषमि ॥1॥ जेहिं जेहिं रण- भारु पछि||२|| पेसियनिय साम दवणें ॥ १ ॥
धत्ता
तं
पडु पह-सङ्घ- भेरी-रवेण कोलाहल -काल-पील घुम्मु-करड-टिविळा-धरेण परिक हुडुका वजिरेण
वहिंपच हि । इस मुददे ॥९॥
[ ६३. तिसट्टिमो संधि ]
अद्द्शिच-गहिय-पसाहणहूँ । राम-दसाणण-साइणहुँ ॥
[]
सो मरि रामो समय साहणेणं । रह-गय-तुर-जोड़ - पञ्चमुह-वाहणं ॥३॥ कंसाख-ताल-द -डि- उरवेण ॥२॥ पञ्चविंग मउन्दा भीसणेण ॥३॥ रि-रु-दमरु करेण ॥ ४ ॥
वुग्मन्त-म-गय-जिरे ॥५॥
1
I
I
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៩
बास द्विमो संधि
[ ४ ] इस प्रकार जिन-जिन निशाचरोंने गर्जना की थी, जिस-जिसने अपना काम छोड़ दिया था, जिन्हें रावणने चाहा और जो युद्धभार उठाने की इच्छा प्रकट कर चुके थे, वहाँयहाँ, प्रसन्नमुख रावणने अपना प्रसाद भिजवा दिया। किसी को कुण्डलोंका जोड़ा दिया, और किसीको कटक, कण्ठा और कटिसूत्र | किसीको मुकुट, किसीको चूड़ामणि, किसीको माला और किसीको इन्द्रमणि, किसीको गजेन्द्र और किसीको अश्व और किसीको हजारों दीनारें दीं। किसीको सोनेके भार से तोल दिया, और किसी औरको लाखोंकी भेंट दे दी, किसीको अपने हाथसे पान दिया, ओर किसीको अपने हाथसे प्रसाधन एवं उत्तम वस्त्र दिये। जब रावणने प्रसाद भेजा तो प्रचण्ड मनुष्य श्रेष्ठोंने अपना सिर कमल झुकाकर अपने बाहु दण्डोंसे उसे स्वीकार कर लिया ||१-||
सठवीं सन्धि
सूर्योदय होनेपर राम और रावणकी सेनाएँ नये प्रसाधनों के साथ तैयार होने लगीं ।
I
[१] दशाननने अपनी सेनाके साथ कूच कर दिया । पट, पटह, शख और भेरी की ध्वनियाँ गूँज उठीं। कसाल, ताल और afs की आवाजें होने लगीं । कोलाहल और काहल का शब्द हो रहा था। इसी प्रकार माउन्द बाघ की ध्वनि हो रही थी । घुम्मुक करट और टिबिल वाद्य भी उसमें थे । झल्लरी रुखा और डमरुक वाद्य, सेना के हाथ में थे । प्रतिढक्क और हुदुक्क बज रहे थे। घूमते हुए मतवाले गज गरज रहे
७
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पदमचरित
तपविय कगण-विहुगिन-सिरेण | पक्वरिय-तुस्य-पवणुम्भशेण । मण-गमणामेलिन-सम्दणेण । वमिदग्य-जयकारुग्घोसिरे।।
मुगुमुगुमन्त इन्दिन्दिरंग ॥६॥ धूयंत-धवल-धुभ-धयवडे | जम-वरुणा-कुवेर-विमायणा ।।८।। सुरवहथ-पत्य परिभोसिरेण ||२||
पत्ता
सहुँ सेणे छग चन्दु व
पहन इसागणु णीस रिठ। सारा-णियरें परिवरित ।।१०॥
सण्णममित जाहे सपणदए दसासे ।
खुहिय महोवहि व्य सु-समुहिए पिणासे ।। सण्णमइ सरहसु जम्छुमालि । बिटिमु डामरु उड्डमरु मालि ॥ सण्णजाह मड मारीचि अण्णु। इन्दई वणवाहणु भाणुकपणु ॥३॥ सपणजाई जरु अहिमाण्य-सम्भु। पवमुहु णि यम्बु सइम्भु सम्भु ।। सण्णजह बन्दुराम अक्कु । धुमक्सु जयाणणु मयरु णा ॥५॥ परिवार वि सपणम्झन्ति वीर । अङ्गजन्य-गवय-वक्ख धार ॥६॥ जल पीक-विराहिय-कुमक्ष कुन्द । सम्भव-सुसेण-दहिमुह-महिन्द ॥७॥ ताराबइ-सार-तरङ्ग-रम्भ | सोमित्ति-हणुव अदिमाण-खम्म । अकोस-दुस्थि-सन्ताव-पहिय । णदण-मामण्डल राम-सदिय ॥९॥
घत्ता
साई आग
एम राम-रावण-बलरें।
खर काले पहि-जकई॥१०॥
- . ...--
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सिट्टिमो संधि
थे। अपने फैले हुए कानोंसे गज अपने स्थलको पोट रहे थे । भ्रमर उनपर गूँज रहे थे । कवच पहने हुए अश्व, पवनकी तरह उद्भट हो रहे थे। कम्पनशील शुभ्र ध्वजाएँ घूम रही थीं। मनकी भी गतिको छोड देनेवाले रथ उसमें थे । वह सेना यम, कुबेर और वरुणको चकनाचूर करने में समर्थ थी । बन्दीजनोंका जयघोष दूर-दूर तक फैल रहा था। आकाशमें देवांगनाएँ यह सब देखकर खूब सन्तुष्ट हो रही थीं। जब दशानन सेना के साथ कुछ कर रहा था तो मानो पूर्ण चन्द्र ताराओंके साथ घिरा हुआ हो ॥११०॥
[२] दशाननके तैयार होनेपर दूसरे योद्धा भी तैयारी करने लगे। उस समय ऐसा लगा मानो महाविनाश आनेपर महासमुद्र ही क्षुब्ध हो उठा हो । जम्बुमाली हर्ष के साथ तैयार होने लगा । डिंडिम, डामर, उमर और माली भी तैयार होने लगे । दूसरे और मद और मारीच तैयार होने लगे । इन्द्रजीत मेघबाहुन और भानुकर्ण भी तैयार होने लगे । अभिमानस्तम्भ 'जर ' भी तैयार होने लगा, पंचमुख, नितम्ब, स्वयम्भू और शम्भू भी तैयार होने लगे । उद्दाम चन्द्र और सूर्य भी तैयार होने लगे । धूम्राक्ष, जयानन, मकर और मक तैयार होने लगे। इसी प्रकार शत्रुसेना में वीर तैयारी करने लगे। अंग, अंगद, गवय और गवाक्ष जैसे धीर भी तैयार होने लगे । नल, नील, विराधित, कुमुद, कुन्द, जाम्बवान्, सुसेन, दधिमुख और महेन्द्र भी तैयार होने लगे। तारापति, तार, तरंग, रंभ, अभिमान के स्तम्भ, सौमित्र, हनुमान्, अक्रोश, दुरित, सन्तान, पथिक और राम सहित भा मण्डल भी तैयार होने लगे। इस प्रकार राम और रावण की सेनाएँ आपस में भिड़ गर्यो । उस समय ऐसा लगता था मानो प्रलयकाल में दोनों समुद्र आपसमें टकरा गये हों ॥ १-१०।
१९
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परमचरित
भिगियई वे षि सेणणई बाउ जुम्नु घोरों।
कुण्डाल-कडय-मस-णिवडन्त-कणय-दारो ॥१॥ हणहणहणकार महा-रउन्दु। छणठणकणन्तनगुण-सिन्य-सद्ध ॥२॥ फरफरयरन्न-कोदण्ड-पयरु । थरथरहरन्त-णाराय-णियह ॥३॥ खणखणखणन्त-तिक्खरग-खग्गु । हिलिहिलिहिलात-हय-पञ्चकम् ॥ गुलगुलुगुलन्त-गमवर-विसालु। हुणुहणु-भणग्स-णरवर-वभालु ॥५॥ पुप्फस-बस-णिग्गनतन्त-भालु। धावन्न-फलेना-सव-कपल ॥६॥ झलमलमलन्त-सोणेय-पवाहु । छिनन्त-चलण-सुन्त-बाहु ॥७॥ णिवरम्त-सीसु णान्त-रुण्ड । ओपल मुरय-धय-उत्त-दण्ड ॥८॥ सहि सेहएँ रणे रण-भर-समाधु। राहब-किकर घर-बाव-हत्थु ॥९॥
घता
सीहन्दउ सन्तावाणु
धवल-सीह-सन्दणे चरित । सहुँ मारि अभिजिउ ।। 1 ॥
[४] वेषिण वि सोह-सन्दणा वे वि सीव-चिन्धा ।
वेणि वि चाव-करयला चे वि जग पसिहा ॥१॥ वेण्णि वि जस लुब विरुद्ध कुछ । वेषिण वि वसुजल कुल-विसुद्ध ॥३॥ घेण्णि वि सुरचहु-आणन्द-जणण | घेषिण वि सत्ततम सन्तु हणण ॥३॥ वेपिण वि रण-धुर-धोरिय महम्त । वेषिण वि जिण-सासणे मत्तिवन्त ॥४॥ बेषिण वि दुजय जय-सिरि-णिवास । वेणि वि पणई-यण-पूरियास ||५|| ग्णि वि णिसियर-णरवर-वरिछ । वेण्णि वि राइवरावणइट्ठ ।।६।। वैणि वि जुज्झन्ति सिलीमुद्देहि। णं गिरि अधरोप्पर सरि-मुईहि ।।७।।
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तिमिि
I
[ ३ ] दोनों सेनाएँ आपस में टकरा गयीं। दोनोंमें भयंकर युद्ध हुआ । कुण्डल, कटक, मुकुट और सोनेके सूत्र टूट-टूटकर गिरने लगे। मारो मारो की भयंकर ध्वनि हो रही थी । धनुष और प्रत्यखा की छन छन ध्वनि ही रही थी । धनुष-समूह कड़मड़ा रहे थे। तीरोंका समूह 'घर घर' कर रहा था। तीखी तळकारें खनखना रही थीं! चंचल अश्व हिनहिना रहे थे । विशाल गज गरज रहे थे । श्रेष्ठ योद्धा "मारो मारो” चिल्ला रहे थे । भयंकर शव और शरीर दौड़ रहे थे। रक्तकी धारा उछल रही थी । पैर कट रहे थे और हाथ टूट रहे थे। सिर गिर रहे थे । धड़ नाच रहे थे । अश्व, ध्वज, छत्र और दण्ड झुक चुके थे। ऐसे उस युद्ध में, रणभार में समर्थ, रावणका अनुचर, हाथमें धनुष बाण लेकर तैयार हो गया । सिंहार्ध सफेद सिंहों के रथपर चढ़ गया । सन्तापकारी वह मारीचके साथ, युद्ध में जा भिड़ा ।। १-१०।।
१०५
[४] दोनों रथों में सिंह जुते हुए थे। दोनोंकी ध्वजाओंपर सिंह के चिह्न थे। दोनोंके हाथ में धनुष थे। दोनों ही विश्व विख्यात थे। दोनों ही यशके लोभी विरुद्ध और क्रुद्ध थे । दोनोंका ही वंश बल और विशुद्ध था। दोनों ही देवांगनाओंको आनन्द देनेवाले थे। दोनों हो सज्जनोंमें उत्तम और शत्रुओंके संहारक थे। दोनों ही महान थे और युद्धका भार उठाने में समर्थ थे। दोनों ही जिनशासनमें भक्तिरत थे। दोनों ही अजेय और विजयलक्ष्मीके आश्रय थे। दोनों ही बिनतजनोंकी आशा पूरी करने वाले थे। दोनों ही निशाचर राजाओं में श्रेष्ठ थे, दोनों ही क्रमशः राम और रावणके लिए इष्ट थे। दोनों ही तीरोंसे युद्ध कर रहे थे। वे ऐसे लगते थे मानो नदी मुखोंसे पहाड़ आपस में प्रहार कर रहे हैं । भय-भयंकर सन्तापकारी
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१०२
पउमपरित मारिश्चहीं भय-मांसावणेण । धणु छिण्णु णषर सन्तावणेण ॥८॥ तेण विहाँ चिर-पेसिय-सरेहि। संसाम व परम-जियोसरहिं ॥९॥
विहि मि रण सप्पुरिसे हि
पत्ता णिय-णिय-शव चत्ताइ । णं मिरगुणहूँ कलत्ताई ॥१०॥
[५] घप्तेंवि धणुषराई लही गयासणीओ।
पाई कयन्त-दाखओ जग-विशापीओ ॥ ५॥ णं पिसुण-मइउ दप्पुमदाउ। प असइउ पर-पर-सम्पबाउ ॥२॥ णं कुगइट मय-मीसावणाउ । णं दुम्महिलड कलहण-मणा ॥३॥ णं दिदित काल समिछराहूँ। कुहिणित दूर्मवरकरार ॥४॥ गं दित्तिन पलय-दिवायराहँ। णं वीचिउ खय-स्यणापराह ॥५॥ तिह लडडिउ भिडि-भयङ्कराहँ । दासरहि-दसाणण-किकराहँ ॥६॥ दिम्ति करें हिं स्यणुजलाउ । णं मेह-गियम् हि विजुलाउ ।।७।। मुन्तिर सट्टन्सि केम्व। गह-घडणे गह-पम्ती जेम्व ॥८॥ गहें अमर-विमाणई लकियाई। मय-घाय-इवग्गि-तिविछियाई ॥१॥
पत्ता मारिचण
सरहुँ स-सारहि स-घउ हउ । सरैवि
हड्डह पोट्टल गवर कउ ।।१०।।
पालि राम-किस राबण-किकरण । सीहणियम्बु कोकिओ पहिय-गस्वरेणं ॥१॥
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सिद्धिमो संधि
१०३
सिंहाने मारीचका धनुष छिन्न-भिन्न कर दिया। मारीचने भी, अपने चिरप्रेषित तोरोंसे सिंहार्धका धनुष दो टूक कर दिया, उसी प्रकार, जिस प्रकार परम जिनेश्वर संसारको नष्ट कर देते हैं । युद्धमें उन दोनों वीरोंने अपने-अपने धनुष, उसी प्रकार छोड़ दिये, जिस प्रकार सज्जन पुरुष अपनी निर्गुन पत्नियोंको छोड देते हैं ॥ १-१०||
[4] अपने उत्तम धनुषों को छोड़कर उसने गदा और वत्र ले लिये। दुनियाको विनाश करनेवाली कृतान्तकी दाइके समान था। वह सर्पसे उद्धत भटकी तरह दुष्ट बुद्धि था । असती स्त्री की तरह, पर पुरुष ( शत्रु दूसरा आदमी ) से लम्पट स्वभाव था, कुमतिकी तरह, भयसे डरावना था, दुष्ट स्त्रीको तरह कलह स्वभाव था । यह काल और शनिकी तरह दिखाई दिया, मानो वह खोदे वर्ष की गलीके समान था । मानो वह प्रलयके सूर्य की दीप्ति के समान था, मानो प्रलय समुद्रको तरंगकी भाँति था। भौहों से अत्यन्त भयंकर राम और रावणके उन अनुचरोंके हाथोंसे रोज्ज्वल वह गदा - बज्र ऐसा सोह रहा था मानो मेघों के बीच बिजली हो। वे दोनों टकराकर और अलग हो जाते, मानो महोंसे यह टकराकर अलग हो जाते हों। दोनोंकी गाओंके आघावसे अग्नि ज्वाळा फूट पद्धती, जो एक क्षणके लिए आकाशमें देवविमानकी शंका कर देती। अन्तमें भारीचने सिंहार्धका रथ, सारथि और ध्वजके साथ गिरा दिये । वह ऐसा चकनाचूर हो गया कि केवल हड्डियोंकी गठरी ही नहीं बनी ॥१- १०।।
[६] रावण के अनुचरने जब रामके अनुचरको इस प्रकार मार गिराया, तो नरश्रेष्ठ पथिकने सिंह नितम्बकी पुकार मचायी।
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पटमचरित
'मरु मरु जिह मणु सइयाँ वन्छहि । सिंह रह वाहि वाहि कि अच्चहि ॥२॥ जाणइ-जयणाणन्द-जगेर। कुद्ध पाय नउ सहय-केरा' |॥३॥ एम मणेवि सरासणि पैसिय। असह व सु-पुरिसण परिसिय ॥४॥ वेण वि स हि णिवारिष पन्ती। गं र-तिय आलिशा देन्ती ।।५।। पुणु आयामें वि मुक महा-सिल । णं पर-णरहों पामें गय कु-महिल ॥६॥ सीहणियग्यहाँ लग्ग उर-स्थलें । णिवदिउ मुच्छा-वियलु रसायलें ॥७॥ नेगा कहें वि नादिह : प धूमधड ।।।। कोब-हुवासण-धगधगमाणे। पाहणु जोगणेक-परिमाणे ॥९॥
घत्ता
आमल्लिड ते घाण
गउ णिय-आऊरियड। पहिउ म रहबर चूरियर ॥ ॥
[७]
पाडि पहिय-णरबरे वणु-विमरोणं ।
जरु दहचयण-किकरो वरिउ पन्दणेणं ॥१॥ अभिटु जुइ जर-णन्दणाह। अत्ररप्पा बाहिय-सन्दणाहै ॥२॥ सुरसुन्दरि-णयाणन्दाहँ । विडमड-बद्ध-किय-कदमहणाहँ ॥३॥ सामिय-पसाय-सय-रिण-मणा । बन्दिय जग-अणिवारिय-धगाह ||४|| कामिणि-घण-यण-परिचष्याहूँ। जयलच्छि-बहुभ-अवरुण्डणाहूँ ॥५॥ परिपक्व भडप्फर-मञ्जपणाहैं। जयवन्तहँ अयस-विसजणा ॥६॥ णिय-सयण-मगोरह-पूरणाहूँ। उग्गामिय-कोन्त-प्पहरणाहूँ ।।१।।
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तिसहिमो संधि
उसने कहा, "मर-मर तू यदि अपने मनकी चाहता है तो अपना रथ आगे बढ़ा, वहीं क्यों बैठा है तू।" यह कह कर, उसने अपना धनुष बाण उसी प्रकार प्रेषित कर दिया, जिस प्रकार सज्जन पुरुष, असती स्त्रोको वापस कर देता है । परन्तु आती हुई बाण-परम्पराको उसने भी तीरोंसे वापस कर दिया, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार आलिंगन देनेवाली परस्त्रीको सज्जन दूर कर देता है। तब उसने प्रयासपूर्वक एक बड़ी चट्टान उठाकर फेंकी, जो उसके पास उसी प्रकार गयी जैसे असती स्त्री परपुरुष के पास जाय । वह चट्टान सिंहनितम्बके वक्षस्थल में जाकर लगी । मूर्छासे विह्वल होकर गिर पड़ा। थोड़ी देर में वह उठकर फिर खड़ा हो गया, वह ऐसा लगता था मानो आकाशमें धूमकेतु ही हो। कोचक छाक करते हुए उसने एक योजनका विशाल पत्थर, पथिकको दे मारा। पथिक ने अपना गढ़ा छोड़ दिया । वह वेदनासे तड़फ उठा। उस आघात से पथिक और उसका रथ, दोनों चकनाचूर हो गये ॥१-१९।।
१०५
[७] दनुका संहार करनेवाला नरश्रेष्ठ पथिक जब मारा गया तो रामके अनुचर नन्दनने रावणके अनुचर जरपर आकमण किया। अब जर और नन्दनमें युद्ध होने लगा। उन्होंने एक दूसरे पर रथ चढ़ा दिये। दोनों सुर-सुन्दरियोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले थे। दोनोंने श्रद्धा-समूहको चकनाचूर कर दिया था। उनके मनमें था कि अभी हमें स्वामीके सैकड़ों प्रसादोंका ऋण चुकाना है । चारणजन उनके धनको मना नहीं कर सकते थे। दोनों स्त्रियोंके सघन स्तनोंका मर्दन करनेवाले थे। दोनोंने विजयलक्ष्मीका आलिंगन किया था। दोनोंने शत्रुदलके भण्डको चूर-चूर किया था। दोनों जयशील और अयश
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पउमचरित
विशाहर-करण हि बावरेवि । चल-चल-पवाहिय-सन्दणेण
रुहिरारुणु दारुणु रणु करवि ॥८॥ जर कह वि किलेसे गन्दणेण ॥९॥
पत्ता
पीसेसहुँ विणिवाइव
सुरहुँ णियम्स हुँ गयण न्य। कोन्ते हि भिन्दैषि बच्छ-पले || 10॥
.
.
[८] पडिए जर-णराहिके भीम-पहरणाहुं ।
रणु आलग्गु घोरु आकोस-सारणाहूं ॥१॥ ते समय-सम-भिष्टच-मिश्यि। णं मत महागर श्रोवडिय ॥२॥ णं सीह परोप्परु जणिय-कलि। शंभरह-णराहिव-वाहुबलि ॥३॥ णं आसगीव-तिविट्ट पर। _ विसुग्गीव-राम पवर ।।।। णं इन्द-पडिन्द विमुद्ध-मण । ते नि पहावा वे वि जण ॥५॥ भकोस सोसें मुा सरु । णं जिणवण मवगाहा ।।६।। मउद्धगें लागु नह) सारणहाँ। कुम्भे परसु वारणही ।।७।। तेण वि परिवरष-स्त्रयकरण ।। स्यणासब-णन्दण-किकरण ॥८॥ दुपार-पहरि-ओसारणे । धशु भायामप्पिणु सारनैण ॥९॥
पत्ता आकोसहाँ परिषद्धिय-कलयल-मुहल । सयबसुत्र
खुडिउ खुरुप्प सिर-कमलु ॥३०॥
8.
[२] जं आकोसु पारिलो जय-सिरी-णिवासो। रहु दुरिएण वाहिओ सुब-गरादिवासी ॥१॥
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सिसटिमो संधि
१०७ को धोनेवाले थे । वे अपने जनोंकी कामना पूरी करनेवाले थे । दोनोंने कोण्ट अन बाहर निकाल लिये । दोनोंने युद्ध में विद्याघरोंके अस्रोंका उपयोग किया। दोनों रक्तरंजित भयंकर युद्ध करते रहे। आखिर नंदनने अपना चंचल रथ, चपलतासे जरकी ओर हाँका। बड़ी कठिनाईसे, आकाशमें देवताओंके देखते-देखते नन्दनने भालोसे वक्षःस्थल पर चोटकर जरको मार डाला !?-१०||
. [८] जब जर, इस प्रकार युद्ध में काम आ चुका तो अक्रोश और सारण अपने भयंकर अरख लेकर' घोर युद्ध कर ली। राम और रावणके दोनों अनुचर युद्ध करने लगे। मानो दो मतवाले हावी ही आ लड़े हो । मानो सिंह ही आपसमें युद्धकोड़ा कर रहे हों । मानो राजा भरत और बाहुबलि हो । मानो सुधीर और त्रिविष्ट हों । मानो कपट सुग्रीव और महान राम हो। मानो विशुद्ध मन इन्द्र और प्रतीन्द्र हों। परन्तु वे दोनों योद्धा भी धराशायी हो गये। इतने में अक्रोशने रोष में आकर अपना तीर इस प्रकार छोड़ा मानो जिन भगवानने संसारका भयंकर डर छोड़ दिया हो।" वह तीर जाकर सारणके मुकुट के अपभागमें लगा, मानो महागजके सिरमें अंकुश जा लगा हो। तष, रत्नाश्रय और नन्दन के अनुचर, शत्रु पक्षके संहारक, दुबीर शत्रुओंका प्रतिरोध करनेवाले सारणने भी अपना धनुप चढ़ा लिया। उसने अक्रोशके बहुत बड़-बड़ करनेवाले सिर कमलको खुरपीसे कमलकी भाँति काट डाला ।।१-१०॥
[९] इस प्रकार जयश्रीका निवास अक्रोश युद्धमें भारा गया। उसके बाद दुरितने नराधिराज सुतकी ओर अपना रथ
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१०८
पउमरिड
ते भिदिय परोप्परु आहयणे । गर-हगड-हा-विरा -पहें। इय-हय-मय-तट-ण?-गमणे । पड-पटह-भेस्-िगम्मोर-सरें । अणुहर-टकार-फार-बहिर।। सहि तेह आह उस्थरिय ।. रहु रहहाँ देवि दुरिएण सुट। सेण वि खगर्ग बलणेहि हउ ।
दुग्धो-श्रद गिल्लोष्ट-घणें ॥२॥ सन्दाणिय-मग्ग-तासिरहें ॥३॥ दण-विन्द वन्दि-बहु-बिदवणे ॥३॥ तिलग्ग-स्वग्ग-उग्गिण्णा-करें ॥५॥ सुरवर-सुन्दरि-मङ्गल-गहिरें ॥५॥ दुप्पेष्ठ अच्छि-मच्छर-मरिय ॥७॥ सवजिट असि-परेहि लुट ||८|| ण सन्धि-सि पय-छेउ किट ||५||
घसा
বিশ্বাবিন্তু दुम्बाण
णिय-रहवरे ओणल्लियट । तह जिह मजेवि घल्लियर ।।ion
[.. दुरियाहि पलोधिए वे वि साणुराया।
रावण-राम-मित्र बदाम-पग्ध-नाया ॥३।। वे वि विस्त कुद्ध बद्धाउस । बेषिण वि उरथरन्ति जिह पाउस।।२।। आमेडन्ति परोप्पर भस्थई। दुर-दणु-
णिलण-समत्थई ।।३। कु-कलता इ चड्डुल-सहावई। कामिणि -गह अब चारण-भाव।। दुजण-मुह इव विन्धण सीलरें। विस-हक इव मुच्छाव ग-कील ।।५।। साइड णह-यस्लु पहरण-जालें। णं भवुहत मोह-समाले ॥ भायामबि मुख-फलिह-एडा। सरु बग्गेज विसबिउ बिस्छ
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तिलद्विमो संधि
१०९
आगे बढ़ाया और वे दोनों युद्धमें जा भिड़े, उस युद्धमें, जिसमें सघन गजघटा लोट-पोट हो रही थी। जिसमें पथ, धड़ों और हड्डियों से बिछे पड़े थे। रथ तड़-तड़ करके टूट रहे थे । अश्व आहत थे । इरसे उनकी गति अवरुद्ध थी । दानव समूह विदीर्ण हो रहा था। पट-पट और भेरीकी गम्भीर ध्वनि गूँज रही थी। तीखी पैनी तलवारें उनके हाथोंमें थीं । धनुर्धारियोंकी टंकार और आस्फालन से कान बहिरे हो रहे थे, सुरसुन्दरियाँ मंगल कामना कर रही थीं। उस युद्धमें दुरित जा कूदा, वह अत्यन्त दुर्दर्शनीय था । उसकी आँखें मत्सरसे भरी हुई थीं । दुरितने सुतके रथसे रथ भिड़ा दिया। और उसके समूचे शरीर पर दरले बाधा पहुँचाया। उसने भी दुरितके पैरों पर चोट कर इस प्रकार आहत कर दिया, मानो सन्धिके लिए दो पदको अलग-अलग कर दिया हो । राजा दुरित, अपने ही श्रेष्ठ रथमें झुक गया । ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार दुर्षातसे पेड़ नष्ट होकर गिर जाता है ॥१-१०॥
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[१०] राजा दुरितके धराशायी होने पर, राम और रावणके दूसरे दो और अनुचर व्याघ्रराज और उद्दाम प्रेमके साथ जा भिड़े। वे दोनों क्रुद्ध होकर एक-दूसरेके विरुद्ध हो उठे। दोनों ही पावसकी तरह उछल रहे थे। आपसमें एक दूसरे पर अ फेंक रहे थे। दोनों दुर्द्धर दानवोंका संहार करने में समर्थ थे । खोटो स्त्री समान, दोनोंके स्वभाव चंचल थे। स्त्रियोंके नखोंकी भाँति उनका स्वभाव चीरनेका हो रहा था । दुर्जन के मुख की भाँति, वे वेधनशील थे। विपफलकी भाँति वे लोगों को बेहोश बना देते थे । अबके जालसे आकाश तल छा गया । मानो मोहान्धकारसे अज्ञान भर गया हो। हाथसे अपने लम्बे धनुषको चढ़ाकर, व्यामने आग्नेय तीर छोड़ दिया। तब उद्दाम
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पउमचरित
वारुणु उद्दामें आमेलिउ । अणु उनामें मुछ महीहरु ।
वाप्रयु विग्यरेण पहिउ ||८|| जागर-बुकरन्तु सप अन्दरु ।।९।।
घत्ता
सं विधैंग मुमुमूर वि
विग्यु करेपिशु समर-मुहें। जीविड खुछु कयन्त-मुहें ।।१०।।
[11] जंदारिय महाहवे वावरत सिग्वे ।
हय-सन्ताव-पहिय-भाकोस-दुरिय-विग्चे ।।१।। तं एबरड़ दुक्खु पेक्वेष्पिणु । रघि अस्थमिउ णाई असहेप्पिगु।१२॥ अहवाइ णह-पायवहाँ घिसालहों। सयल-दियन्तर-दीहर-डालहो ॥३॥ जबदिस-रलोकिर-उपसाहहाँ। सम्झा-पल्लव गियर-सपाहहाँ ||१॥ बहुवच (१)-म-एस-सम्छाथहीं। गह-गायन-कुसुम-सङ्कायहाँ ॥५॥ पसरिय अन्धपार-ममा उलहों। तहाँ भायास-दुमहों वर-विडलहौं ।।।। णिसि-गारिएँ स्वावि जस-ला। रवि-फलु गिलिंड णा नियम।। वहल-तमाल अगु अन्धारित। विहि मि वल जुझ गियारित ॥८|| वे वि वसई वाणिसुनिय-गतहैं। णिय-णिय-आवासही पस्थितहै ।।५।।
पत्ता रावग घरे
जय-तूर, अपमालियाई । राइन-व मुहा पाई मसि-मइलियई ।।१०।।
पणिय को वि वीस कि दुम्मणो सि देव । जिसियर-हरिण-जूहें पहलरभि लोहु जेम' ॥1॥
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१११
तिसटिमो संधि ने वारुण तीर मारा। इसपर व्याघ्रने 'वायव्य तीर से प्रहार किया । तव उद्दामने महीधर नीर छोड़ा, उसमें सैकड़ों गुफाएँ थीं, और बन्दर आवाजें कर रहे थे। अन्तमें व्याघने, युद्धमें विघ्न उत्पन्न कर उद्दामको मसल दिया और जीते जी उसे कृतान्तकै मुखमें डाल दिया ॥१-१०॥
[१२] इस प्रकार महायुद्धमें लड़ते हुए सभी मारे गये । सन्ताप पथिक अक्रोश दुरित और व्याघ्र सभी आहत हो चुके थे। सूर्य इतना बड़ा दुःख नहीं देख सका, इसीलिए मानो वह डूब गया । अथवा लगता था कि आकाश रूपी वृक्षमें, सूर्य रूपी सुन्दर फल लग गया है । दिशाओंको शाखाओंसे यह वृक्ष शोभित हो रहा था। संध्याके लाल-लाल पत्तोंसे वह युक्त था। बहुविध मेव, उसके पत्तोंकी छायाफे समान लगते थे । प्रह और नमन उसके फूलोका समूह थे। भ्रमर कुलकी भाँति, उसपर धीरे-धीरे अन्धकार फैलता जा रहा था । वह आकाश रूपी वृश बहुत बड़ा था। परन्तु यशकी लोभिन निशा रूपी नारीने उसके मूर्य रूपी फलको निगल लिया । धने अन्धकारने संसारको लैक लिया, मानो उसने दोनों सेनाओंके युद्ध को रोक दिया। दोनों ही सेनाओंके शरीर ढीले पड़ गये, और वे अपने-अपने आवासको लौट आयीं । रावणके आवास पर विजय तूर्य बज रहे थे, जब कि राघवकी सेनाके मुख ऐसे लग रहे थे मानो उनपर किसीने स्याही पोत दी हो ॥१-१०||
[१२] किसी एक वीरने जाकर रामसे पूछा, "हे देव, आप जुन्मन क्यों हैं। मैं शत्रओंके मृग-समूहमें सिंहकी तरह जा घुमूंगा। एक और दूसरा महान योद्धा शत्रुसेनाकी निन्दा कर
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पउमचरित
को वि महावलु पर-बलु णिन्दह । को वि मणा 'महुकल इम्दा ॥२॥ को वि मग 'महु तोयवाहणु' को वि भणह 'स-मुउ मा सारण|३|| को नि मणइ 'गउ पइँ जयकारमि | जाम ण कुम्भयपणु रणे मारमि' ।। को वि मगइ 'हउँ मय-मारिहुँ । भिडाम राहु जिह पदाःबहुँ ।।१।। को वि भणइ 'महु मरइ महोअरु । छुहमि कयन्त-षयणे बजोधर' ।।६।। को वि भणेइ 'करमि त पेसणु। पेसमि मम्बुमालि जम-सासणु' ।।७।। को वि मणइ 'हय-य-रह-वाणु । मछु आवमाउ राषण-साहणु' ।।। साम्ब विहाणु माणु गहें उग्मउ । स्यमिह तपउ गम्भु गं णिग्गउ ||५||
पत्ता
जगु सपायह सिग्घ-गइ। पाइँ सइंभुक पाशिवा ॥१०॥
सम्पाइल
[६४, चउसहिमो संधि]
दणु-दारण-पहरण-हस्थई रण रस-रोमन-विसहइँ
जयसिरि-गहण-समस्थई। वलर वे वि अस्मिथई ।।
[
भन्मिई वे वि स-धाहणाई। गिह ता तेम्व इल-सहाई।
] वापरण-पया व साहगाई ॥१॥ जिह तारे वेम रिप-विग्गहाई ।।
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ि
|
रहा था। कोई बोखा, "मेरी कल इन्द्रजीत से भिड़न्त होगी ।" कोई कहता, "मेरी मेघवाहनसे होगी ।" कोई कहता- "मेरी सुत और सारणसे होगी ।" कोई कह रहा था, "जब तक मैं युद्धमें कुंभकर्णका काम तमाम नहीं कर लेता. तबतक आपकी जय नहीं बोलूँगा” । कोई कहता, "मैं मन और मारीचसे लड़गा। कोई कहता, “मैं राहुके समान सूर्य और चन्द्रसे युद्ध करूँगा” | कोई कहता, "महोदरकी मौत मेरे हाथों होगी, " कोई कहता, "मैं दरको यसके मुख में फेंक दूंगा ।" कोई कहता, “मैं तुम्हारी आज्ञा मानूँगा और जम्यू मालीको यमके शासन में भेजकर रहूँगा।" कोई कहता, “मैं अश्व, गज और रथ बाहनवाली रावप्णकी सेनासे जाकर भिड़गा ।" इसी बीच आकाश में सवेरे सूर्योदय हो गया, मानो निशानारीका गर्म ही प्रकट हो गया हो। शीघ्रगामी सूर्यने मानो संसारको परिक्रमा कर अपने हाथोंसे अपना आधिपत्य संपादित किया #112-2211
चौसठवीं संधि
विजय लक्ष्मीको प्रहण करने में समर्थ, वे दोनों सेनाएँ आपस में टकरा गयीं। दोनोंके पास निशाचरोंका विनाश करनेवाले अस्त्र थे। दोनों ही युद्धोचित उत्साह से रोमचित थीं ।
[१] अपने-अपने वाहनोंके साथ, वे सेनाएँ ऐसे भिड़ गयीं, मानो व्याकरणके साध्यमान पद ही आपस में भिड़ गये हों । जैसे व्याकरणके साध्यमान पोंमें क ख ग आदि व्यञ्जनका
८
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१४
पठमचरिंट जिह ताई म सन्धिय-सराई। बिह ताई तेम पञ्चय कराई ।।३।। सिंह ताई रोम उपसग्गिराएँ। जिह साहूँ तेम्ब जस मग्गिराई ॥४ जिह ताई सेम पर-लोप्पिरा। वहु-एक-दु-वयण-पजम्पिरा ॥१॥ मिह साई तेम्व भरपुग्न लाई। परियाणियन्सयल-बलाबला ॥६॥ जिह साई सेन्च णासायरा। जिह ताई सेम बह-मासिराई ॥ अण्णण्ण-सर-विगणासिराई ।।
घत्ता
जिह ताई तेम मायरियर वाइ-गिधाय? परियाँ । दोहर-समास-अहियरणाई बलगाई वापरण. ।।९।।
[
१]
महि तेहरणे स्वगीयराम्। से मिलिए मण्ड-कोवणइथ।
सबूलु वलिउ बमोमासु ॥१|| सुर-समर-पवर-वर घर-समस्य ।।१।।
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चट्ठियो संवि
संग्रह होता है, उसी प्रकार सेनाओंके पास लाकूल आदि अस्त्र थे। जैसे व्याकरण किया और पदच्छेद आदि होते हैं, उसी प्रकार सेनाओं में युद्ध हो रहा था, जैसे व्याकरणमें संधि और स्वर होते हैं, उसी प्रकार सेना में स्वरसंधान हो रहा था, जैसे व्याकरण में प्रत्यय विधान होता है, उसी प्रकार उन सेनाओं में युद्धानुष्ठान हो रहा था। जैसे व्याकरणमें, प्र, परा आदि उपसर्ग होते हैं, उसी प्रकार सेनाओंमें घोर बाधाएँ आ रही थीं। जैसे व्याकरण में जश् आदि प्रत्यय होते हैं, उसी प्रकार दोनों सेनाओं में 'या' ( ज ) की चाह थी। जिस प्रकार व्याकरण में, पद-पद पर लोप होता है, उसी प्रकार सेनाओं में शत्रुलोपकी होड़ मची हुई थी। जैसे व्याकरणमें एक, दो, बहुवचन होता है, वैसे ही उन सेनाओं में बहुत-सी ध्वनियाँ हो रही थीं। जिस प्रकार व्याकरण अर्थसे उज्ज्वल होता है, उसी प्रकार सेनाएँ शस्त्रोंसे उज्ज्वल थीं, और एक-दूसरेके वल-अबलको जानती थीं। जिसप्रकार व्याकरणमें 'न्यास' की व्यवस्था होती है उसी प्रकार सेनामें भी थी। जिस प्रकार व्याकरण में बहुत-सी भाषाओंका अस्तित्व है, उसी प्रकार सेनाओं में तरह-तरह की भाषाएँ बोली जा रही थीं। जैसे व्याकरणमें दीर्घ समास अधिकरण में शब्दोंका नाश होता है, वैसे ही सेनाओं में विनाश लीला मची हुई थी। उन सेनाओंका लगभग, व्याकरणके समान आचरण था, दोनोंके चरितमें निपात था, व्याकरणमें आदि निपात है, सेनामें योद्धा अन्तमें धराशायी हो रहे थे ॥ १-६ ॥
[२] निशाचरीकी उस भयंकर लड़ाई में रामरूपी सिंह बोदरके निकट पहुँचा । प्रचंड धनुष हाथमें लेकर वे आपस में लड़ने लगे। वे दोनों ही देवताओंके भारी युद्धका भार उठानेमें तत्पर थे। दोनों ही पैर आगे बढ़ाकर पीछे नहीं छूटते थे ।
११५
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पउमरिड
पउ बगाएँ देन्ति पक्षासति । पहरन्ति ग पहाणु पीसरन्ति ।।३।। दरिसम्ति मराफर णेष पुष्टि । जीविउ सिविलन्ति ण चाव मुट्टि।। मेछन्ति वाग ण मुन्ति धीरु। परिहउ रक्स्वस्ति गणिय सरोका। छग्गा गाराउ | लें कल । बरु वा वमणु म होइ बङ्गु ॥६॥ गुशु छिमाा सीमग दुग्गिवार। धवपड़ ग हिमाण पुरिसपारु॥ भोषुण्ण-सुरक्रम-पुस्बिस। रतु मजइ भजइ गउ मरष्टु ॥१॥
घन्ता
पविधकरण-पक्ष-पडिफूलहुँ विहि को गरुआरउ जिद्द
बजी भर-सखुलहुँ । पर विजिण ण जिमड़ ॥९॥
[३]
एस वि मिउष्टि-मगुर-वयण । ते बाहुबलिम्द-सोहन्दमण ॥ १॥ अभिष्ट वे वि वदामरिस । गिरिमलय-सुघल सह-सरिस ॥२॥ हरिदमणे 'पहरु पहर' मण चि ! सिरे मोग्गर-वाणं आहमें चि ॥३॥ महि-मण्डलं पाजिड वाहुवति। सोसण व परिषदन्त-कलि ॥॥ पुणु धेयण लहें वि भयारेण । भार? राहध-बिहारेण ॥५॥ परिवारज भाहउ मोग्गरण। वस्थ गं इन्दीवरेण RAH
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चरसहिमो संधि
110 प्रहार करते थे, अपना अस्त्र नहीं भूलते थे | वे अपने अहंकारका प्रदर्शन करते थे, पीठ नहीं दिखाते थे। उनके प्राण भले ही शिथिल हो उठते, परन्तु धनुषकी मुट्ठी ढोली कभी नहीं पड़ती थी। वे तीर छोड़ते थे, अपना धीरज उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। वे पराभयको बचा रहे थे. अपने भारी-भाली जन्में जरा भी चिन्ता नहीं थी। वे तीरसे आहत होनेके लिए प्रस्तुत थे, परन्तु अपने कुलको कलंक नहीं लगने देना चाहते थे। उनके तीर जरूर मुड़ जाते थे परन्तु उन्होंने अपना मुख कभी नहीं मोड़ा। उनके धनुषकी छोरी श्रीण हो जाती थी, परन्तु उनका दुनिवार सिर कभी नहीं झुका । उनकी पताकाएँ अवश्य गिर जाती थी, परन्तु उनका हृदय और पुरुषार्थ कभी नहीं गिरा। खिम्न अश्वोंसे जुता रथ भले ही नष्ट हो जाये, पर उसमें बैठे हुए योद्धाका मान कभी नष्ट नहीं हो सका । शत्रुपक्षके लिए अत्यन्त कठिन बमोदर और राममें सुमुल संग्राम हो रहा था। विधाता, दोनों में से किसे गौरव देता है, कहना कठिन था। जनमें से एक भी न तो स्वयं जीत रहा था, और न दूसरेको हरा पा रहा था ॥१२॥
[] इधर भी, भौंहोंसे भयंकर मुख महाबाहु और सिंहदमनकी आपसमें भिड़न्त हो गयी। दोनों ही, एक-दूसरेके प्रति काध से अभिभूत थे। दोनों मलय और सुवेल पर्वतके समान दिखाई दे रहे थे । सिंहदमनने 'मारा-मारो' कहकर महावाहुके सिरमें मुद्गर दे मारा। यह धरतीपर गिर पड़ा। फिर क्या था, शत्रुसेनामें खलबली मच गयी। उसी अन्तरमें राम का अनुचर महाबाहु होशमें आ गया। वह क्रोधसे तमसमा रहा था। उसने भी मुद्गरसे ही उसके वक्षपर इस तरह चोट की मानो नीलकमलसे चोट की हो। ठीक इसी समय,
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११८
हि तेह का समावडिय । र परिसइन्ति ममन्ति किए ।
पसर
मढ विजय सयम्भु वे वि मिट्टिय ॥10॥ चल चल मिन्जुल -पुल सिंह ॥ ८ ॥
घत्ता
आयामै वि रावण- मिण जट्टियाएँ विजउ विणिभिण्णउँ
वल कि जं सां हउ । 'कहिँ गच्छहि अच्छमि नाम ह सोहु जम घाइड कलेण । तं. वय सुर्णे वि किर ऑच ।
यि कुल-ह-आइरण । पनि गाएँ उसु छिण्णउ ॥९॥
[
। खवियारि-वीर-सोह सं जें ॥१॥
]
खम्॥२॥
वर्णे विजय सम्भु चि हिउ जं अमिट्ट परोप्यरु युल इअङ्ग । णं रावणिन्द्र विष्फुरिय-तुण्ड । एथन्तरं सुरवरहु मि असकु । रायण तं जन्तु जाइ । स्वविचारि णिचों वच्छय लग्गु तेण वि पविवसों चक्षु मुक्कु । लिए खुडिउ मराठें जेम कमस्तु ।
णं न्हन्थि ब्रद्दण्ड-सुण्ड ॥३॥ सोई मंत्रि ॥४॥ अस्थइनि दिनयर विषु णाइँ ||५|| जिह णलिणि-पत्तु सिह सहि जि मग्गु ॥ ६ ॥ सोहहीं णं जमकर बुक्कु ॥७॥ णं इन्दिन्दिक रुण्टन्त-मुहलु ||८||
।
सिरु गयउ कबन्धु जै भण्दर निय सामिह पेणु सरह ।
घत्ता
सुह मद-दोड़ छण्ड | विउण णं भडु पर ||९||
[ ५ ]
धाविज विवादितं रणें अजड ॥१॥ । रहु बाहे पाहें स्वयम्मुह || २ || सिद्द पहरू पहरू यि सुव-बळेण ॥३॥ विहि राजावत भम्मिद ॥४॥
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पडसाहेमा संधि
18 विजय और स्वयंभू, ये दोनों सुभट आपसमें युद्ध करने लगे। युद्ध-भूमिमें वे ऐसे घूम रहे थे, मानो चंचल बिजलियोंका समूह हो । आखिरकार, अपने कुलके सूर्य, रावणके अनुचर स्वयम्भूने लाठीसे विजयको आहत कर दिया, वाह ऐसे गिर पड़ा मानो उसकी पूंछ कट गयी हो ॥ १-९॥
[४] जब इस प्रकार विजय और स्वयम्भू भी मारे गये तो जो खपितारि और बीर संकाह थे, वे भी रोमांचित होकर जा भिड़े । मानो खरदूषण और नारायण युद्ध में भिड़ गये हों। मानो महोदर रावण और इन्द्र लड़ रहे हों, मानो सूंड उठाये हुए दो मतवाले हाथी हो । इसी बीचमें सुरवरोंके लिए अशक्य, संकोड्ने पहले अपना चक्र छोड़ा। वह गगनांगनमें जलता हुआ जा रहा शाजले अस्ताचल पर सूर्य-रस हो। बहनक खपितारि राजा के वक्षमें जाकर लगा। वह कमलिनी पत्रकी तरह वहींका वहीं नष्ट हो गया। तब उसने भी शत्रुपक्ष पर अपना जयकरण शस्त्र फेंका, वह संकोड्के पास पहुँचा। उससे उसका सिर उसी प्रकार कट गया जिस प्रकार हंस जिसमें भौरे गुनगुना रहे हैं, ऐसे नील कमलको काट देता है। उसका सिर कट गया और धड़ अब भी घूम रहा था, परन्तु उसके मुखसे वीरता भरे वाक्य निकल रहे थे। वह अपने स्वामीकी आज्ञाका पालन कर रहा था, गिरकर भी वह बेचारा योद्धा प्रहार कर रहा था ।।१-६॥
[५] रामका अनुचर संकोह जब इस प्रकार मारा गया, तब युद्ध में अजेय वितापी दौड़ा। उसने कहा, "जब तक मैं यहाँ हूँ, तबतक तुम कहाँ जा सकते हो, अपना रथ सामने बढ़ाओ, तुमने संकोहको जिस प्रकार छलसे मार डाला, उसी प्रकार लो अब मुझपर आक्रमण करो-अपने याहुबलसे ।" यह वचन
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परमपरित
ते विहि-विताघि माटु मगा। उत्थरिय स-मच्छा वे विजणा ॥५|| गं पछय-का पछयम्बुहरा । बिह ने तिह सर-धारा-चपरा ॥६॥ जिह से तिह परिचकलिप-अणु। बिह से सिद्ध विजुज्ज लिय-तणु ।। जिद्द ते विह मीम-णिणाम-करा। मिह ते तिह सूर-इशाय-हरा ॥८॥
पत्ता
विहि-रापं अमरिस-कुन्दरण अहिपब-जयसिरि-लुखुएँण | पारित वितावि णारेण गिरि जिह क्य-णिहाऍण ||९||
-
[६] जं हज वितावि तं किड खेड। कोवग्गि-पलितु विसाकर्तड ॥1॥ बिहि-रायहाँ मिड ण भिवइ जाम । हकारिउ सम्भु-णिवेण ताम्ब ॥२॥ ते थे वि परोप्परु अमिदन्ति । गिरि स-परकम श्रोषरन्ति ३॥ एल्धन्तरें सम्मु ण किउ खेत। उ सत्तिएँ मिष्णु विसासेठ ॥४॥ ओपक्षिा महियले विगय-पाशु। णिय-साहणु पेको विलोमाणु ॥५॥ सुरगीउ पधाइउ विप्फुरन्तु । लइवलहाँ पलहाँ' समु उस्थरस्तु।।६।। गं णिसियर संगहों मइयवटु । णं केसरि मिग-जूहहाँ विसष्टु । ।। णं तिहुयण-चाकहाँ काल-दण्ड । णं जलार-बिन्दहीं पश्य-चण्ड ।।।
पत्ता विजाहर-बस-पईयहाँ भिडमाणहाँ सुग्गीवहाँ। घिउ अन्सर वाहिय-सन्दणु ताम पहलण-जन्दश ॥५॥
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चउटिमा मंत्रि सुनकर विधिराज युद्धमें कूद पड़ा। दोनोंकी मुठभेड़ होने लगी। विधि और वितापी दोनों ही क्रुद्धमना थे। दोनों ही युद्धप्रांगण में ऐसे उछल पड़े मानो प्रलयकालके मेघ हों। जैसे मेघों में जलकी धारा होता है, वैसे ही इनके पास तारोंकी याणावलि थी । जैसे मेघों में इन्द्रधनुष होता है, वैसे ही इन्होंने भी अपना इन्द्रधनुष तान रखा था । मेघों के समान, वे दोनों भी बिजलीके समान चमक रहे थे। मेघोंके समान, उनकी ध्वनि सान्द्र थी। मेघोंकी ही भाँति, वे सूर्यक तेजको ठगने में समर्थ थे। दोनों नयी-नयी विजयोंके लोनी में विधिकलने साइबर भर कर वितापीको मार गिराया, उसी प्रकार जिस प्रकार वनके आयातसे पहाड़ टूट गिरता है ।।१-९॥
[] वितापीके इस प्रकार आइत होने पर विशालतेजने जरा भी देर नहीं की। वह क्रोधसे भड़क उठा। वह विधिराज से भिड़ने वाला ही था कि शम्भुराजने उसे ललकारा। फलतः वे दोनों आपसमें भिड़ गये। उस समय लगा कि पहाड़ ही पराक्रम पूर्वक आपसमें भिड़ गये हों। इसी अन्तरालमें शम्भुराजने जरा भी देर नहीं की। उसने शक्तिस विशालतेजको छातीमें घायल कर दिया । वह प्राणहीन होकर धरती पर गिर पड़ा । जब सुप्रीवने देखा कि उसकी सेना धराशायी होती चली जा रही है तो वह तमतमाकर मैदानमें निकल आया, "मुड़ो-मुडो" की ध्वनिके साथ वह ऐसा उछला, मानो निशाचरोंका विनाश आ गया हो, मानो मृगक झुण्डोंमें सिंह हो, मानो त्रिभुवन चक्र में कालदण्ड हो, मानो जलधर समूहमें प्रलयपवन हो । जब विद्याधरवंशका प्रदीप सुग्रीव संग्राममें भिड़ गया तो पवनसुत हनुमान भी अपना रथ हाँक कर, दोनोंके बीच में आ गया ॥१-२||
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१९२
पउमरिक
हणुबन्से बुश्वइ ‘माम माम । नुहूं अच्छहि जहिं सोमिसि-राम ॥१॥ हर एषु बहुचमि णिसिंगरहुँ। जिह गरुडु बसेसहुँ विसहराहुँ ॥२।। जिह धूमकड जगं वराहुँ। पयाल जिह जर-तरुवराहुँ ॥३॥ जिह पलय पहअणु जालहरा । सुर-कृलिस-पादु जिह गिरिवरा? ॥१॥ बलु पं वणु ममि रसमसन्तु । वंमुज्जल-मूल-तरुक्षणम्सु ॥५॥ रमणीयर-तरुवर णिहलन्तु । भुव-दण्ड-खण्ड-शालाहणन्तु ॥६॥ सुललिय-करयल पछय लुलन्तु । गायलि-कुसुम समुच्छलन्तु ॥७॥ धय-छत्त पसर मिक्खिरन्तु । गवर-सिर-फल-सहसई खुशम्तु ॥८॥
पत्ता
गळग जमिनमण-णन्दश सकपन स-गउ स-सन्दणु । पर-वलें पइसरह मान्चल विल्ों जेम दावाणलु ।।५।।
[८]
पढम-भिडन्ते सेण वाहणा ।
यवरेण णवराहनी हो। रहावरेण खय-सूरहो रहो। णवरेण वयणुठमडो भयो। कश्यलेण सु-भयङ्करी करो। दारुणं कर्य एव स । सुहङ-सुहर सन्दाणवन्तयं ।
वासुएष-वल-
पलवाइणा ॥ गयवरेण यो भागमओ गी ||२॥ अयण जस लुखो धभी ॥३॥ पर-सिरंग एर-संसिरं सिरं ॥४॥ मब-कमेण स-परकमो कमो ॥५॥ हड्-रुण्ड-विच्या-सायं ॥६।। घोर-मारि-सम्पाणवन्तयं ।।७।।
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हिमो संधि
१२३
[७] हनुमान ने कहा, "हे आदरणीय, आप वहीं रहिए जहाँ लक्ष्मण और राम है। मैं उसके ही निशानोंके लिए काफी हूँ। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समस्त सर्पकुळके लिए गरुड़ काफी होता है, नरश्रेष्ठ के लिए धूमकेतु, पुराने वृक्षोंके लिए प्रलयकी आग, बड़े-बड़े पहाड़ोंके लिए इन्द्रका व होता है । मैं सेनाको नन्दनवन की तरह रौंद डालूँगा । उज्वल वंशको पेड़ोंकी जड़ोंकी तरह उखाड़ दूँगा । निशाचर रूपी वृक्षों को नष्ट कर दूँगा । भुजदण्ड रूपी प्रचण्ड डालोंको आइत कर दूँगा । सुन्दर हथेलियों रूपी पत्तोंको नोंच डालूंगा । सुन्दर सुमनोंकी भाँति सुन्दर नाखूनों को उदाल दूँगा । ध्वजपत्ररूपी पत्तोंको बखेर दूँगा । श्रेष्ठ मनुष्योंके फलोंको तोड़-फोड़ दूँगा । गर्जना के अनन्तर अंजनापुत्र महाबली हनुमान् कवच अश्व और रथ के साथ शत्रुसेनामें घुस गया, वैसे ही जैसे महागज विन्ध्याचल में घुस जाय ॥११- ६||
[4] रामके पक्षपाती हनुमान्ने अपनी पहली भिड़न्तमें अश्वसे दूसरे अश्चको आहत कर दिया | गजवरसे आगत हाथीको चलता किया। रथबरसे प्रलयसूर्य के रथको नष्ट कर दिया। ध्वजपटसे यसके लोभी ध्वजको नष्ट कर दिया | नरवरसे वचनोद्धत योद्धाका काम तमाम कर दिया । शत्रुसिर से शत्रुकी प्रशंसा करनेवाले सिरको समाप्त कर दिया। करतलसे भयंकर महान हाथको काट बाला । यांजाके पैरसे किसी पराक्रमी पैरको परिसमाप्त कर दिया। इस प्रकार हनुमानने युद्धको एकदम भयंकर बना दिया | वह हड्डियों और धड़ोंके ढेरोंसे भरा हुआ था । सुभटों, गजघटाओं और रथों एवं अश्वोंका वह अन्त कर
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प्रथमचरिव
शिमि हूं व अमिष सूर्य || || काणणं व ओणल-वच्छ ॥५॥ सीर जलहि-सकलं मधियं ॥३०॥
जस्थ वस्थ अश्थमिय-सूरयं ।
छिण्ण बाहु-गिरिभष्ण वयं । णिरसि पाणि णीविक्रमं थियं ।
यत्ता
आलगाउ
जहणुनही सम्मुहु वज्जिय-सङ्कट
बुद्ध एक्क म मलउ जियय- वंसु
।
तं णिसुर्णेत्रि उषषण महणे 'तु कवणु गहणु महँ दुजए किं पण सुभव खड बजाउहासु । अक्लहों कयन्तु पट्टणहाँ केळ |
( * j
'किं कापरेहिं स मिनि जुन्सु 11911
थन्ते को फिड पत्रण-पुसु । बलु वलु सामरण देहि राज्
।
तुहं रामहीं हउँ रामणही दासु
महँ मुऍ मल्लु को अष्णु तुज्झु ॥ २ ॥ जिह तुहुँ हि हद मि महि-पगासु ॥ ३ ॥ । जसु रुच्च जय-सिरि होउ तासु ॥४॥ दोषित पणञ्जयम् ||५| हनुवन्त कयन्तें कुद्ध || ६ || उज्जाण मञ्जु किकरविणासु ॥७॥ हाँसी जो पीव असणं ॥ ८ ॥
लीकऍ जिम्ब तिम्य भग्गर ।
एकु मालि पर थक्क || १६॥
घत्ता
बहु बाहि वाहि समुह ॐ पाँ घाण जि मारमि
पहरु पहरु लाइ आउछु । पहिलय सेण ण परमि ६९ ॥
I
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घउसट्रिमो संधि
१२५ दे रहा था। उसकी चपेट अत्यन्त घातक और मारक थी । जहाँ होता वहाँ सूर्यास्त हो जाता, निशानभकी भांति वह सूर्यास्त कर देता था। योद्धाओंके व आहत थे और हाथ कटे हुए । वे ऐसे लग रहे थे, मानो आहनवृक्षोंका कोई उपवन हो। सलवार, हाथ और पराक्रम से शुन्य समूची सेना ऐसी जान पढ़ती थी, मानो क्षीरसमुद्रका पानी मथ दिया गया हो। जो सेना हनुमानसे आकर लड़ी, उसने उसे खेल-खेल में समाप्त कर दिया। फिर उसके सम्मुख मालि निशंक होकर खड़ा हो गया ।।२-११॥
__ [1] सामने डटकर उसने हनुमानको ललकारा, "क्या कायरोंके साथ युद्ध करना उचित है । मुडो मुड़ो हनुमान् , मुझे युद्ध दो | मुझे छोड़कर, और कौन तुम्हारा प्रतिद्वन्द्वी हो सकता है। तुम रामके अनुचर हो, और मैं गषणका । जैसे तुम इस धरतीके प्रकाश हो, उसी प्रकार मैं भी। एक तुम हो और पक मैं, जिन्होंने अपना कुल्ट कलंकित नहीं होने दिया । रहा प्रश्न विजयलक्ष्मीका। वह जिसे पसन्द करे उसकी हो जाय ।" गह सुनकर नन्दनवनको उजाड़नेयाले हनुमानने मालिको फटकारते हुए कहा, "हनुमान-जैसे अजेयकृतान्त के कुद्ध होने पर, तुम्हें पकड़ने में क्या रखा है। क्या बनायुधका बेटा नहीं मारा गया, क्या उद्यान नहीं उजड़ा, और क्या अनुचरोंका विनाश नहीं हुआ। मैं वही हनुमाम् फिरसे आया हूँ, जो कुमार अक्षयके लिए कृतान्त है और नगरके लिए केतु । जरा अपना रथ सामने बढ़ाइए, और अस्त्र लेकर प्रहार कीजिए, मैं तुम्हें पहले आघातमें समाप्त कर दूंगा, इसलिए खुद प्रहार नहीं करना चाहता" ॥१-या
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पडमचरित
[10] सं णिसुपि मालि misits | सर-जास आ RS 10 णं सुअणु भणे हि बुआणेहि। पाउसे दिणयह शव-घणेहिं ॥२॥ हणुवेण पि सर भट्ट-रग मुक। पसरम्त हणन्त दियन्त लुक ।।३।। आयासे मन्ति ण धरणि-धी। ग धयर्गे ण रहबर हय-पगी | अग्गले पछा भ-परिप्पमाण। जब जज विहिता सजिवाण औसरिउ मालि णिधिसन्तरंण। बहु दिण्णु ताम्प बोअरेण ॥६॥ हकारिउ अहिमहु पवण-जाउ। 'कहि जाहि पाव ख्य-कालभाउ ॥७॥ पडंग जि नुज मर जाउ। जे भन्न भिन्नै मालि-राउ ॥१॥
यत्ता हउँ वजोयरु भव-माणु नहुँ पवणजप-णन्दणु । अम्मित के वि भय-मासुर रणु पंक्वन्तु सुरासुर' ॥९॥
[1} ते विगिगा वि गलगमन्त एम्ब। मुखममत-गइन्द अम्ब ।।३।। अभिष्ट महाहवें अतुल-मल्छ । परिवारप-पक्रय-णिकान्त-सन्छ ।।२।। अहिमाण-अणु-भई सुन्द-वंस। साम-सरहिं लड्-प्पसंस ॥३॥ तो जर समारण-गान्दणेण। पर-सूर-समप्पाह-सन्दणेग । विहि सर हि सरासणु छिपणु सासु । गं हियन छुधिउ वबोयरासु ॥५॥ किर अवरु चार करें घडा बाम । सब-सपर-खण्ड रह कियाड ताम्ब ।।६।।
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पलादिमो संधि [१०] यह सुनते ही मालिने अविलम्ब, तीरोंके जालसे इनुमानको ढक दिया। मानी अनेक दुर्जनोंने सजनको घेर लिया हो, मानो पावसमें मेघोंने सूर्यको ढक लिया हो । तष हनुमानने भी आठ तीर छोड़े, जो फैलते-मारते हुए दिशाओंके भी छोरों तक पहुँच गये। म त नापास समः पा २ थे, और न धरतीपर । न वे ध्वजाओंपर ठहर रहे थे, और न अश्योंसे जुते हुए रथोंपर । आगे-पीछे सब ओर, वे अप्रमेय थे। जहाँ भी दृष्टि जाती, वहाँ बाण-ही-बाण दिखाई दे रहे थे। एक ही क्षणमें मालि वहाँसे हट गया, और तष वमोदरने अपना रथ आगे बढ़ाया । उसने हनुमानको सामने ललकारा, "हे पाप, तू कहाँ जाता है, मैं तुम्हारा भयकाल आ गया हूँ, तुम्हें इतने में ही घमण्ड हो गया कि युद्ध में तुमसे मालि हार गया। मैं योद्धाओंका मर्दक बजोदर हूँ, तुम पवनसुत हनुमान हो, भयभास्वर हम दोनों लड़ें, थोड़ा मुरासुर भी हमारा मंग्राम देख लें" ॥१-६॥
[११] वे दोनों ही, इस प्रकार गरज रहे थे मानो निरंकुश मतवाले दो महागज हौं। दोनों बेजोड़ मल्ल एक-दूसरेसे भिढ़ गये। दोनों शत्रुओंके मनमें शंका उत्पन्न कर देते थे। दोनोंका अभिमान अखण्ड था। दोनोंका वंश शुद्ध था। दोनों सैकड़ों युद्धोंमें प्रशंसा प्राप्त कर चुके थे। फिर भी पवनसुत हनुमानने, जिसके पास प्रचण्ड सूर्यके समान कान्ति सम्पन्न रथ था, दो ही तीरोंसे उसके धनुषको इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, मानो वस्रोदरका हृदय ही कट गया हो। वह दूसरा धनुष अपने हाथमें ले ही रहा था कि इसी बीचमें, हनुमानने उसके रथके सौ टुकड़े कर दिये । जब तक वह दूसरे रथ पर चढ़नेका प्रयास करता, तब तक उसने धनुषके टुकड़े टुकड़
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परापति
जामण्ण-महारह चाइ वीर। धणुहरु वि ताय किंउ हय-सहरी ॥ साइपर कोरपडु प्प लेड जाम । बीश्री वि महारा लिण्णु ताम 161I
घत्ता तो मिसिया जुझा-पियारउ विरह किया बे-चार । पुणु पच्छले प्राणेहि मल्लिट। महिहरु जिह प्राणलिः ६९।।
[१२] जं हउ बानोबा मग्गु मालि। संस-रहसु धाइड जम्बुमालि ॥१॥ मन्दोअरि-णन्दणु दणु-विणासु । म सीइहुँ रहे पत्तु तासु ॥२॥ ते वियर-दाद ओरालि-वयण। उद्धसिय-केस णिरिथ-यण ॥३॥ कन्धर-वलम्गल गृह-दण्ड पा-णियर-भयकर चलण-नगर ॥१॥ मा हि करि-कुम्भ-वियारणेहिं । जसु बजाइ रहु पजाणणेहिं ॥५॥ पो जम्बुमालि मरु-णन्दणासु। गिम्बारवण-पण माणासु ॥३॥ आकरगु सु-करयले कर वि घाउ । स-कलन जेम्प छ सु-प्पणा ॥७॥ सं या वि पहु-मच्छरेण । णारा विसनि मिसियरेण ॥८॥
पत्ता अण-यणाणन्द-जणेरड धड हणुवन्तहों केरक । विन्धेप्पिगु महिया पादित गह-सिस्-िझारु व तोडिड ॥१॥
[३] जं किण्णु महबउ दुनदरेण। संपवण-मुषण धणुद्वरेण ॥३॥ दो दोहर घर-णाराय मुक। रिख-राहवर-वीठासा हुक ।।शा एकग कबड पण चाड । विलिड णाई जिणेण पाउ ||३|| मण्णाहु अण्णु परिह वि मरण । अणुहरु वि केषि विहरफोग ॥३॥
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चट्ठियो संधि
रथ भी छिन्न-भिन्न कर दिया।
कर दिये। जब तक वह तीसरा धनुष ले, तब तक उसने दूसरा फिर भी निशाचरको युद्धका
चाब हो रहा था, सो बार तिहीन बना दिया गया, परन्तु वह नहीं माना। आखिरकार उसे तीरोंसे इतना छेद दिया गया कि वह पहाड़की भाँति झुक गया ||१-२॥
[१२] वोदरके इस प्रकार मारे जाने पर, मालि भी नष्ट श्राय हो गया। उसके बाद जम्बूमाल हर्षसे उछलता हुआ युद्ध स्थल पर दौड़कर आया । यह मन्दोदरी देवीका पुत्र था । उसने दानवोंका नाश किया था। उसके रथमें सौ सिंह जुते हुए थे। उनकी दाढ़े विकराल थीं और मुख टेढ़े थे। केश पुलकित हो रहे थे, और नेत्र भयंकर थे। उनकी पूँछ कन्धों को छू रही थी, उनका नख समूह और चरण दण्ड भयंकर थे । इस प्रकार गजघटाको विदीर्ण करनेवाले सिंहोंसे उसका रथ युक्त था। जम्बुमाली, अपने हाथमें धनुष लेकर, हनुमान् के पीछे हाथ धोकर पड़ गये, उस हनुमान पर जिसने नन्दनवनका विनाश किया था। उन्होंने धनुष अपने हाथमें ले लिया । वह धनुष अच्छी स्त्रीकी भांति था। ईर्ष्या से भर कर उस निशाचरने तीर मारा। जनके नेत्रोंको आनन्ददायक हनुमान् का ध्वज, उस तीर से विषे होकर धरती पर गिरा दिया। मानो आकाश रूपी स्त्रीका हार टूट कर गिर पड़ा हो || १ - २ ||
[१३] जब महाध्वज छिन्न-भिन्न हो गया तो उद्धत धनुर्धारी पवनसुत हनुमानने दो बड़े-बड़े लम्बे तीर फेंके जो शत्रुके रथवर की पोठासनके निकट पहुँचे। एक सीरने कवच, दूसरेने धनुष नष्ट कर दिया, मानो जिन भगवान्ने पाप नष्ट कर दिया हो। दूसरा सण्णाह (१) छोड़कर विकट योद्धाने धनुष ले लिया । लम्बे तीरोंसे उसने हनुमान्को घायल कर दिया, जैसे कोमल
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पहमचरित
ससुबन्तु वि दोहर-सराई ! कोमल दस-इन्दीवरेहि ॥५॥ हणुवेण वि मेल्लिा अयम्दु । भइ-दीहरू गाई समास-दण्ड ।।६।। उमोतिय तेण समय सीह। मोम-कुम्म-मुसाइकोह ॥७॥ अगहन्त पहिण्डिय वलु कासे । ओहाय-हय-य-परवरेसु ॥८॥
पत्ता उन्धुप-हरुल-पईहहिं व खजन्तड सोहें हिं। णासह मय-वेविर-गत अवरोप्पर लोहन्सार ।।९।।
[1] बल्ल सपलु वि किन भय-विहलु जाम्म हणुवस्तु दसाणे मिडिउ ताम ॥१॥ पश्चापाण-सन्दा पमय-चिन्धु । बिउ उ घि रण-मर-धु सन्धु ।।२।। सो जुमममाणु जं दिहु तेग। मण्णाहु सइउ लाकाहिवेण ।।३।। रण-रहसुच्छलियहाँ उरें ॥ माइ। सुहि-सममें गहम-सणेहु णाई ॥१॥ पुणु दुक्खु दुक्षु आइधु अङ्ग। सीसा करपिगु उत्तमझें ।।५।।
आयामिउ घणुहरु लइड वाणु। पारा समरु हणुवं समाणु ॥६॥ तहि तेहएँ काले धणुवरेण । रहु अम्सरे दिण्णु महोभरेण ।।७।। हकारित मारु 'माहि पाकि। सवसम्मुहु रहवर वाहि पाहि' ||८||
पत्ता मं सुणे वि महोअरु जेसहँ रहवा वाहिर तत्तौ । उत्थरिय थे वि समरकणे णं पय-मंह णनणे ॥॥
[१५] हणुवन्त महोअर मिरिउ जाम । सो जम्बुमालि सम्पस ताम्ब ॥१॥ सओपि रहवरे सयफ सीड। अण्ड पार सगुकदोह ।।२।।
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उसष्टिमो संधि
11 नीलकमलोंने वेध दिया हो। सब हनुमान्ने भी अर्धचन्द्र छोड़ा, यह इतना लम्बा था, मानो समास दण्ड हो। उससे समर्थ सिंह सहसा उत्तेजित हो उठे । वे सिंह जो मतवाले हाथियोंके नगमायलोंके मोसियोंली दुता रखते हैं। समस्त सेना आपस में भिड़ गयी । गज अश्व और नरवर सब झुक गये । हठी हुई पूंछों वाले सिंहोंकी सेना एक दूसरेके लिए एक दूसरेको कवलित कर रही थी। भयभीत शरीर वह नष्ट हो रही थी और एक दूसरे पर लोट-पोट हो रही थी ॥१-६॥
[१४] जब समूची सेना भयभीत हो उठी तो हनुमानको जाकर दशाननसे भिड़ना पड़ा । उसके रथपर सिंह एवं पताकाओंपर बन्दर थे। वे ऐसे जान पड़ते जैसे धूलिकण जाकर चिपक गये हों, हनुमानको लड़ते देखकर रावणने भी अपना कषच उठा लिया । युद्ध जनित उत्साइसे पूरित हृदयमें वह कवष नहीं समाया। मानो पण्डितोंके मध्य भारी स्नेहधारा न समा पा रही हो। बड़ी कठिनाईसे उसने शरीरमें कवच पहन लिया, और सिर पर टोपी पहन ली। धनुष झुका कर उसने उसपर तीर रख दिया, और हनुमान के साथ युद्ध प्रारम्भ कर दिया। ठीक इसी समय महोदरने दोनोंके बीच में अपना रथ आगे बढ़ा दिया। उसने मारतिसे पुकार कर कहा, "ठहरो ठछरो, अपना श्रेष्ठ रथ सम्मुख बढ़ाओ" | यह सुनकर महोदरकी ओर मारुतिने अपना रथ आगे बदा दिया। वे दोनों युद्ध के मैदान में अपने रथोंसे इस प्रकार उत्तर पड़े मानो आकाशमें प्रलयके मेघ हो ॥५-९||
[१५] हनुमान इस प्रकार महोदरसे भिड़ ही रहा था कि इतनेमें जम्बूमालि वहाँ आ धमका। उसने सभी सिंह अपने रथमें जोत लिये । वे सब उद्दण्ड प्रचण्ड और लम्बी पूंछ वाले
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१२
पदमचरित
सहु तेग पराइल मल्लवन्तु । धुन्धुरु धूमक्स्नु कपन्तदन्छ ॥१॥ हालाहलु विजुलु विजुलीहु। भिण्णाणु पहु मुस-फलिह-दोहु ॥१॥ जमहण्टु जमाणणु कालदण्ड । विहि सिण्डिसम्बरु उमरु चपलु।५॥ कुसुमाउड अकु मयङ्क सकु। सवियारि सम्भु करि मयरमा ।।६।। सुउ मारशु मज मारिषिपाउ। वीमाखु महोद मीमकाउ ।।७।। माहिं कहाहिब-किरहि। अमित शपुरन्तु प्रथा हि !
में सर्च हि लइड अखोग हणुचें हरिसियाण । भायामिन समरे पचप चदरि सरंभुष-दहिं ॥५॥
[६५. पंचसहिमो संधि] हणुवन्नु रणे परिवेटिज णिसियरहि । गं गयपावले बाल-दिवायर जलहर हिं।।
[.] पर-बलु अणन्तु एशवन्तु पकु। गय-जूदहीं गाइँ महन्दु था ||| भारोकाइ को समुहु थाह । जहि जहि जे घड तहि तहि जै घाइ॥२॥ गय-घर मड-या मजन्तु जाह। बंसस्थलें लगा दवग्गि गाई ॥३॥ एग्रह महाहवें रस-विसद्ध । परिममा णाई व मध्यवर्दु ॥॥ मोण वि महु जासुण मलिउ-माणु । 'सोण वि घड जासुग लगुवाणु ॥५ सो ण पि पहु बासु ण कवर छिपशु । सो ण वि गउ जासुण कुम्भु मिणु।। सो ण वि तुरनु उसु गुढ ण तुटु । सो ग पि रहु असु पग रहा फुट्छ ।१०। साथ वि भइ जासु ण विग्णु गत्तु । तं ण वि विमाशु जं सरु ण पत्तु ॥६॥
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पंचसट्ठिमो संधि थे। उसके साथ माल्यवंत भी आ गया। धुन्धुरु, घूम्राक्ष, कृतान्तदन्य, हालाहल, विद्युत, वियुतजिला, मिनाजन और पथ भी गये । उनकी भुजाएँ अलकके समान थीं। यमघट, यमानन, कालदण्ड, विधि, डिण्डिम, डम्बर, उमर, चण्ड, कुसुमायुध, अर्क, मृगाक, शक, खपिता, अरि, शम्भु, करि, मकर और नक आदि रावणके भयंकर अनुचरोंने हनुमानको घेर लिया, इस प्रकार सबने मिलकर, इनुमान्को घेर लिया और क्षात्रधर्मकी चिन्ता नहीं की । हनुमानका शरीर हर्षसे उछल पड़ा, और यद्धमें अपनी प्रचण्ड भुजाओंसे सबको नत कर दिया ॥१-६॥
पैसठवीं सन्धि हनुमानको निशाचरोंने युद्धमें इस प्रकार घेर लिया, मानो आकाशतलमें बालसूर्यको मेघोंने घेर लिया हो।
[१] शत्रुसेना असंख्य थी, और हनुमान् अकेला या, मानो गअघटाके बीच, सिंह स्थित हो। वीर हनुमान , उन्हें रोकता, ललकारता और सम्मुख जाकर खड़ा हो जाता। जहाँ झुण्ड दिखाई देता, वहीं दौड़ पड़ता। वह गजघटा और सैन्यसमूहको इस तरह नष्ट कर रहा था, मानो बाँसोंके झुरमुटोंमें आग लगी हो । एक रथ होकर भी, वह उस महायुद्धमें उत्साइसे भरा हुआ था । वह कालकी भांति सेनामें धूम रहा था । ऐसा एक भी योद्धा नहीं था जिसका मान गलित न हुआ हो, ऐसा एक भी ध्वज नहीं था जिसमें तीर न लगा हो, ऐसा एक भी राजा नहीं था, जिसका कवच न टूटा-फूटा हो, ऐसा एक भी गज नहीं था, जिसका गपसस्थल आहत न हुआ हो। एक भी ऐसा अश्व नहीं था कि जिसकी लगाम सावित बची हो।
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५३४
जंगवन्तु घलु - मह
पउमचरिउ
घन्ता
मारुइ डिम्ब जहिं जे जहि । मणिरन्तर तहि जे तहिं ॥१॥
[]
जं जिर्णेत्रिण सचि वर भहिं । वेढा गिरि - सिहर-गहिर - कुम्मत्थकेहिं । छप्पयार-मोहहिं । तण्डविय कण्ण- उधुअ-कोहिं । बं वेदिक रण-सुवण- जाउ । जहिँ जम्ब गांलु सुसेणु हंसु । सन्तामु विराहिउ सूरजोति । चन्दप्पहु चन्दमरोधि रम्भु ।
आहिं नहिं
यि गुण हिं
मार गय घडेहिं ॥१॥ अणवस्य - गलिय गण्डरले हिं ॥२॥ घण्टाकार भयङ्करेहिं ॥३॥ सुकुसेहिं मय-मिरेहिं ॥४॥ तं धाउ काय-भड - हाउ ॥५॥ गउ गवट गवक्खु बिसुद्ध - चंसु ||६|| पीहरु किरु कच्छिभुति ॥ ० ॥ सद्दूल विउलु कुलपवणथम् ||८||
वत्ता
मारुद्द उब्वेद्दाचियत ।
जीट व भव मेला बियर ||९||
[ ३ ]
पेलि
रण- रसिऍ हिं बेह। विद्वएहि । पडिवक्तु काहिं ॥१॥ गासइ बिहडफडु गलिय-खग्गु । धूरन्तु परोप्पर चलण-मन् ||१|| मज्जन्तउ पेक्खि विनियय सेण्णु । रावणु जयकारेंवि कुम्मयष्णु ॥३॥ भाइ मय मीणु भीम-काउ । णं राम-वहीं खय-कालु आज १३४ ॥ परिसर भूमि ण माइ । गिरि मन्दरु थाहाँ चकिउ गाई ग
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पंचसटिमो संधि एसा एक भी रथ नहीं था जिसका पहिया टूटा-फूटा न हो। एक भी ऐसा गोदा नहीं था जिसक' शीरमान ज हुआ हो। ऐसा एक भी विमान नहीं था जिसमें तीर न लगे हों। सेनासे लड़ता भिड़ता, हनुमान जहाँ भी निकल जाता, युद्धभूमि, वहाँ धड़ोंसे पट जाती ॥१-९||
[2] जब बड़े-बड़े योद्धा नहीं जीत सके तो हनुमानको गजघटाओंने घेर लिया। उनके कुम्भ स्थल, पर्वतशिखर के समान गम्भीर थे । ऐसे सिर जिनसे अनबरत मदजल बह रहा था । भौंरोंकी सुन्दर झंकार हो रही थी। घण्टोंके टंकारसे वे भयंकर लग रहे थे। वे अपने कान फड़फड़ा रहे थे। उनकी सूड़ें उठी हुई थीं । अंकुशसे रहित, वे अत्यन्त मतवाले हो रहे थे । जब युद्धभुखमें पवनपुत्र इस प्रकार घिर गया तो वानर योद्धाओंका समूह दौड़ा। वहाँ जाम्बवान नील सुसेन हंस गय गवय विशुद्धवंश गवान सन्तास विराधित सूर ज्योति पीतकर किंकर लक्ष्मीमुक्ति चन्द्रप्रभ चन्द्रमरीच रम्भ शार्दूल विपुल
और कुलपवन स्तम्म थे। इन योद्धाओंने हनुमानको बन्धन हीन बना दिया,ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार संसारमें जीव अपने गुण उसे छोड़ देते हैं ॥१-२॥
[३] क्रुद्ध युद्धजन्य उत्साहसे भरे हुए कपिध्वजियोंने शत्रुओंको खदेड़ दिया । ज्याकुलतासे वे नष्ट होने लगे। उनकी तलवारें छूट गयीं। वे एक दूसरेके चरणधिह रौंधने लगे। अपनी सेनाको इस प्रकार नष्ट होते देखकर कुम्भकर्ण ने राषणकी जय बोली । भयभीषण, विशालकाय वह इस प्रकार दौड़ा मानो रामकी सेनापर विशाल काल ही टूट पड़ा हो । वह युद्ध भूमिमें नहीं समा रहा था, मानो मन्दराचल ही अपने
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पडमचरित
जउ जाउ स-मकह दे दिहि। तब तब ज पा गं पछम-विहि ॥६॥ कौविवाएकवि मिडिऍपणछ।की विठिठ भवठम्में विभाणि-बदछु।।७।। को विकह पि कलमणिरुणिला को विदूहों में पार्ज विमुच ।।८॥
घसा सुग्गीव-यले
गरउ हुअउ हलफल उ । णं अग्गहरें
हरिथ पटक राउला ॥५॥
[५] उम्बेडाथिउ हशुवन्तु हिं। पर सकिड वयणु विणिऍवि तेहिं ।।। परिचिन्तित 'रुद्ध आहउ विणासु । किय()षलु जै रेसा एकु गासु' ॥२ सहि अवसर धाउ अमियविन्दु । पहिमुह माहिन्दु महिन्दु इन्तु ॥३॥ रहसणु णन्दशु कुमउ कुन्दु। महकन्तु महोहि महसमुदु ॥३॥ कोकरहलु सरल सर भारु। सुग्गीय मछु भयकुमार ॥५॥ सम्मेउ सेट ससिमण्डलो वि। भन्दाहु कन्तु मामाली वि ॥३५ पिटुमइ वसन्तु वेळधरो वि। वेल पा सुवेलु शयम्धरो वि ॥७॥ भापा वि वरिहि तणड सेण्णु । समकडिङ सहि कुम्भयन्शु ८॥
घता
एकलऍण वलु वासियड
तो विचलते सम्मुण । गम- व पाणणेण ॥९॥
_ [५] जं खत्तु मुवि कहलहि। समणि पेहाविदहि ॥३॥ त हकलि-गयणाणन्दशैण। संवि रपणालप-पदणेण ॥२॥ दारुणु धम्भण-मोहण समस्थु । पम्मुख दंसणावरण-स्थु ३३।। सोवाविड साहणु सपालु रोण। गंगा भत्थरों विणपरेण ॥४॥
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पंचसविमो संधि स्थानसे च्युत हो गया था। वह ईर्ष्यासे जिसके ऊपर दृष्टि डालता उसपर मानो प्रलयकी वर्षा ही हो जाती। कोई उसकी वावीसे, और कोई उसकी भौंहोंसे नष्ट हो रहा था । कोई परवीकी पीठको पकड़ कर रह जाता। कोई उसके कटाक्षको देख कर ही जा छिपता और कोई दूरसे ही उसे देखकर अपने प्राण छोड़ देता। सुप्रीवकी सेनामें इससे ऐसी भयंकर हडकम्प मच गयी, मानो राजकुलके अप्रगृहमें हाथी घुस आया हो॥१-९॥
[४] जिन लोगोंने हनुमानको बन्धनमुक्त किया था, वं कुम्भकर्णका मुख तक देखनेका साहस नहीं कर पा रहे थे । के मन ही मन सूख रहे थे कि लो अब तो विनाश आ पहुँचा। वह समूची सेनाको एक कौरमें समाप्त कर देगा। ठीक इसी अवसर पर अमृतबिन्दु, दधिमुख, माहेन्द्र, माहेन्द, इन्द्र, रनिवर्धन, नन्दन, कुमुद, कुन्द, मतिकान्त, महोदधि, मतिसमुद्र, कोलाहल, तरल, तरंग, तार, सुग्रीव, अंग, अंगदकुमार, सम्मेत, श्वेत, शशिमण्डल, चन्द्राङ, कन्द, भामण्डल, पृथुमति, वसन्त, वेलन्धर, बेलाम, सुबेल और जयन्धर आदि शत्रुसेनाने मिलकर कुम्भकर्णको घेर लिया। परन्तु उस अकेले वीरने ही सम्मुख आकर समस्त सेनाको इतना प्रस्त कर दिया, मानो सिंहने किसी गजसमूहको भयभीत कर रखा हो। ॥१-२॥
[५] जब क्रोधाभिभूत कपिध्वजियोंने क्षात्रधर्मको ताकपर रखकर कुम्भकर्णको चारों ओरसे घेर लिया, तो कैकशीके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले रत्नाश्रवके पुत्र कुम्भकर्ण ने, अपना दृष्टि-आवरण नामका अस्त्र छोड़ा, वह अस्त्र स्थम्मन और सम्मोहन, दोनोंमें समर्थ था। उसके प्रभाव से समृषी सेना सो गयी मानो सूर्यके अस्त होनेसे संसार ही सो गया हो।
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पउमचरिष्ठ
को नि धुम्म को वि सरीरु वल । कासु वि किवाणु कस्यहो गकई ५॥ धुरुहुरह को घिमिाण भुस। की वि गमन्तरे पर णाई सुत्सु ॥३॥ एस्थम्तरै किक्किन्धाहियेण । परियोहणत्थु पम्मुकु तेण ॥७४ उम्मोहिउ अहिउ बलु तुरन्तु । 'कहिं कम्मथपणु बलु वलु' मणन्तु॥८
पत्ता मवडम्मुहर पुणु वि पहीषड धाविया । णं उयहि-अलु महि रेलम्सु पराइयर ॥९॥
[६] पर-बलु मिरवि रण नस्थरस्तु। लाहियेण थरथरहरन्तु ॥१॥ करें कढिउ णिम्मलु चन्दहासु । ढग्गमिउ णाई दियर-सहासु ॥२॥ रिउ-साहणे
निविदा जाम मोर जीणि II इन्दह-वाहण-बाणक सिर-णमिय-क्रियालित्य था॥४|| 'अम्हहि जीवन्स हि किरहि नुहुँ अप्पणु पहारहि किं करेहि' ||५|| सामिउ सम्माणे वि बद्ध-कोह सिणिण मिसमरा मिदिय जोह।। ६॥ चण्डीमा-तणयहाँ बनणा __ घणवाहणु मामण्डलहों था ॥७॥ इन्दइ सुग्गीवहाँ समुहु वलिउ णं मह महोअहि महर्डे बलिज ॥६॥
पत्ता
रु पारवरहों रहु रहवरही
सुरयहीं तुरउ समावति । गयहाँ महग्गड अभिस्ट ॥५॥
[७] सम्लुएं जय-लपिछ-पसाहणेण। तिहुअणकण्टय-गव-वाहणेण ॥१॥ हकारित सुरवइ-माणेण। सुग्गीउ दसाणण-णन्दणेण ॥२॥ 'स्त्रक खुध पिसुण काइ-केउ राय । शादिष-केरा कुद् पाय ॥३॥
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पंचसद्विमा संधि कोई घूम रहा था, किसीका शरीर मुड़ रहा था, किसीके हाथसे किवाड़ छूटा जा रहा था। नींद आनेके कारण, कोई घुर्रा रहा था । कोई ऐसे सो रहा था, मानो गर्भके भीतर हो। तब इसी अन्तरालमें किष्किन्धाराजने प्रतिबोधन अस्त्र छोड़ा। तुरन्स सेना जागकर उठ खड़ी हुई। वह चिल्ला उठो, 'कुम्भकणं कहाँ हैं, कुम्भकर्ण कहाँ है ?' सेना सामने मुखकर उसकी ओर बौड़ी, मानो समुद्रका जल घरतीपर रेंगता हुआ, चला जा रहा हो ॥२-५॥
[६] जब लंकाराज रावणने देखा कि युद्ध में शत्रुसेना उछलकूद मचाती हुई चली आ रही है वो उसने अपनी थरथराती हुई निर्मल चन्द्रहास तलवार निकाल ली, उस समय ऐसा लगा मानो हजारों सूर्योंका उदय हो गया हो। वह शत्रुसेनासे भिड़ता न भिड़ता कि इतने में तीन प्रचण्ड वीर, उसके सम्मुख आये। ये थे इन्द्रजीत, मेघषाहन और वनकर्ण । वे प्रणामके अनन्तर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उन्होंने निवेदन किया, "हम लोगोंके जीते-जी, क्या आप अपने हाथोंसे आक्रमण करेंगे।" इस प्रकार अपने स्वामीका सम्मान कर, ऋद्ध होकर वे वोनों योद्धाओंसे मिट गये। चन्द्रोदरके पुत्रसे बजकर्ण, और भामण्डलसे मेघवाइन । सुमीवके सन्मुख इन्दजीत इस प्रकार आया, मानो मन्थनके लिए मेरुपर्वत समुद्रके सम्मुख भा गया हो। पुरुषोंको पुरुषों से, और अश्वोंकी अश्वोंसे मिहन्त होने लगी । रथोंसे रथवर, और गजोंसे महागजों की ॥१-६॥
[७] संग्राममें विजयलक्ष्मीका श्रृंगार करनेवाले, दशानन के पुत्र इन्द्रजीतने सुग्रीवको ललकार दी। वह त्रिमुवनकंटक हाथीपर सवार था, और उसने इन्द्रको दबोचा था। उसने कहा,
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जिह राष्णु मेलॅवि घरि राम्र | तं मिवि सिरे ! निम्मति इन्दड़ भरें कु मल्ल । दोच्छन्त परोप्यरु मिडिय के वि। दोहरणाराएँ हिँ उत्धरन्त ।
विहि मि जगहि गहिम हिं
कुड़म-दणुवइ-दारण - समस्थु । अथएँ सुर-धणु पायखन्तु । अणवर णीर-धार सुखन्तु । सं पेक्खवि तारावर पलि । वायस तक सुग्गीवेण मुक्कु । याओलि धूलि पाहण मुअन्तु । दुग्धा-पट्ट लोन्तु सब्ब । दुग्बाउ आउ नं बल-विणासु ।
सुम्पीड र
बत
seeta
सिंह पहरु पहरू तज्र लुहमि पासु ॥४ विजाहर पर-परमेसरेण ॥५॥ को सुर्डे को राष्णु कक्णु (?) बोल' | सु-पणा महँ चावहूँ करेंहिं लेवि ॥ * ॥ णं पल-जलब नव-जलु मुअन्त ॥ ८ ॥
धत्ता
हाइड गयणु महासरे हि । पाउस काले व खलहरे हिं ॥९॥
[]
इन्दइणामैहिउ वारुमत् ॥१॥ गजन्य जलड सखि तन्तु ॥२॥ अहिय -कलाव के क्कार-रेन्तु ॥३॥ धूमउ णं माहऍण वित्तु ॥ ४ ॥ णं पय-काल पर वहाँ ॥ ५ ॥ धय-छत्तदण्ड-दण्डुदुदन्तु ॥ ३ ॥ मोबन्तु महारण अतुल - गन्न ॥ ७ ॥ तेण वि आखिर जाग- वासु ॥ ८॥
घा
बेडिड पवर-सरेण हि । जाणावर जोर जिह ॥ १ ॥
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I
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पंचसष्टिमो संधि
१४. "खल, नीच, और दुष्ट कपिराज सुग्रीव, तुम सचमुच लंकानरेशके लिए पाप हो ! तुमने जो रावणको छोड़कर रामका पक्ष लिया है, तो लो करो प्रहार, मैं तुम्हारे नाम तककी रेखा नहीं रहने दूंगा।" यह सुनकर, विद्याधरोंके स्वामी सुप्रीवने इन्द्रजीतको फटकारा “अरे कुमल्ल, क्या तुम हो और क्या रावण ! इस तरह मोलकर आखिर क्या पाओगे।" इस प्रकार एक दूसरेको डाँट कर वे आपस में भिड़ गये। उन्होंने अपने प्रसिद्ध धनुष हाथ में ले लियो ने लाहो अले सास से, इस उछल रहे थे मानो प्रलयके मेघ अपने नवजलकी वर्षा कर रहे हो। उन दोनों योद्धाओंने वीरोंसे आकाशको ढक दिया, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार, नये मेघ वर्षाकालमें ढक देते हैं ॥१-२॥
[ दुर्दम निशाचरोंका दमन करने में समर्थ इन्द्रजीतने अपना मेघवाण छोड़ा। सहसा इन्द्रधनुष प्रगट हो गया, मेष गरजने लगे, बिजली कड़कने लगो, अनवरत वर्षा हो रही थी, नये मोरोंकी ध्वनि सुनाई दे रही थी।' यह देखकर तारापति सुप्रीष भड़क पठा, उसने अपना बायव बाण छोड़ा, मानो पवनने स्वयं धूमध्वज छोड़ा हो, या मानो प्रलयकाल ही निशाचर सेनाके निकट पहुँच गया हो। हवाफा गवण्डर, धूल, पत्थर, उससे बरस रहा था। ध्वज, छत्रदण्ड और दण्ड टूटफूट रहे थे । गजघटा लोटपोट होने लगी । अतुलनीय गवाले बड़े-बड़े रथ, लोटपोट होने लगे। इसी बीचमें दुर्षात आया,
और उसने सेनाका नाश करनेवाला नागपाश फेंका। उस बड़े तीरसे सुप्रोव इस प्रकार घिर गया, मानो प्रबल शानावरण कर्मसे जीव घिर गया हो ।।१-२॥
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१४३
परमपरिब
किहिम्ध-गराहिउ धरिड जाम । घणवाहण-भामण्डकहँ हाम ॥१॥ अमिठु परोप्परु जुज्य धोरु।। सरि-सोच-सहत्तर-पहर-योर ॥२॥ शिमन्त-महग्गय-गरुन-गत्तु । णिवरम्त-समुयुध-अपल-सु ॥३॥ लोहन्त-महारण-हय-रहनु । घुम्मन्त-पडम्त-महासुरा ॥४॥ फुटम्स-कवर तुत-सग्गु । पाचन्त-कवन्धय-असि-करणु ॥५॥ आयामेंवि रण रोसिम-मणेण । अग्गेउ मुई घणवाहणेज ॥६॥ आमेलिउ आइउ धगधगन्तु। अझार-बरिसु पहें दक्लवन्तु ॥७॥ पारुणु विमुक भामण्डलेण। गिरि, वज्जु भाषण ॥॥ उल्हाधिउ जलणु जलेण अंज। सरु णाग पासु पम्मुकुसं जें ॥५॥
पत्ता
पुष्फवह-सुब परिवेलियड
दीहर-पवर-महासहि। मलयधरेन्दु व विसहरैहि ॥१०॥
[१. 1 जं जिउ ताराव पवर-भुट। अण्णु वि भामण्डलु जणय-सुड ॥1॥ तं भग्गु असेसु घि राम-बलु। णं पवण-गलस्थिर उबहि-जल ।।२।। एसह वि ताम समावरिय। मरुणदण-कुम्भयण मिरिय ।।३।। पहिरन्सहुँ वइरि-वियारणई। णितिय अणेयर पहरणई ॥३॥ पुणु बाहाब लग किह । उमड-सोश वेयपढ़ जिह ।।५।। हणुवस्तु लड्ड स्यणीयरेण । मेरुमहागिरि विणकरेंग ॥३।। घरगहि धरै वि अवापर। णं गिरि-सिहरेण चहावियउ ॥७॥ पुणु छका-णयरिहि उबलिउ। तारा-तणएण ताम सहित ॥८॥
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पंचसहिमो संधि
१५ ६] इस प्रकार किष्किन्धाराज पकड़ लिया गया, परन्तु मेघवाहन और भामण्डल में 'तुमुलयुद्ध होने लगा। से आपसमें भिलाई। जनमें युद्ध, उपर उभ होता चला गया, उसीप्रकार, जिस प्रकार नदीका प्रवाह धीरे-धीरे तेज होता आता है। महागजोंके भारी शरीर कीजने लगे। उद्धत धवल छन्न गिरने लगे। महारथोंके अश्व और पहिये लोट रहे थे। बड़े बड़े अश्व चकराकर गिर रहे थे। कवच फूट रहे थे, तलवारें टूट रही थीं। धड़ नाच रहे थे। उनके हाथों में तलवारें थीं। मेघवाहन ने, युद्ध में क्रुद्ध होकर आग्नेय बाण छोड़ा। मुक्त होते ही वह एकदम धकधकाता आया, आकाशमें ऐसा लग रहा था मानो अंगारे बरस रहे हों। तब भामण्डलने वारुण अस्त्र छोड़ा, मानो इन्दुने पर्वतपर अपना धन छोड़ दिया हो, जब पानीसे आग्नेय बाणकी जलन शान्त हो गयी, तो मेघवाहनने अपना नागबाण छोड़ा। उसके लम्बे विशाल तीरोंसे भामण्डल इस प्रकार घिर गया, मानो साँपोंने मलयपर्वतको घेर लिया हो ॥१-१०॥ __ [१०] एक तो तारापति विशालबाहु सुग्रीव जीता जा चुका था, अब दूसरे जब जनकसुत भामण्डल भी जीत लिया गया, तो रामकी सेनामें खलबली मच गयी, मानो समुद्र का जल पवन से आन्दोलित हो उठा हो। इसी बीच में हनुमान और कुम्भकर्ण में भिड़न्त हो गयी। प्रहार करते हुए उनके, शत्रुओंका विदारण करनेवाले अनेक अस्त्र जब नष्ट हो चुके थे तो दोनों में बाहुयुद्ध होने लगा। उस समय ऐसा लगा मानो दो प्रचण्ड महागज ही आपसमें लड़ रहे हो। निशाचरने हनुमानको इस प्रकार पकड़ लिया, मानो जिनवरने सुमेरुपर्वतको उठा लिया हो। उसे पैरोंसे दबोचकर ऐसे उछाल दिया, मानो पहाड़के शिखरपर उसे घढ़ा दिया हो। कुम्भकर्ण से लंका नगरीकी
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१४४
पटमचरिट
धुत्तत्तणेण जोसङ्घ जिह
पत्ता समर-सएहि भाबमाण । रिउ विवत्यु किउ अऍण ॥५॥
जं किट विवरधु रणे रवणिया। संलग्गु हसेव" सुर-णियह ॥१॥ रावण-भन्तेउरु लखियड। विड वझवषणु दिहि-वजियउ ॥२॥ सन्धबइ जाम्ब गिय-परिहणउ। माला विमाशु गउ पणउ ||३|| तहिं अवसर मा मण-मण । जयकारिउ रामु विहीसणे ॥४॥ 'माई देष भिषम्सउ पेक्खु रणे । जिह जमणु जलन्त सुकवणे ।।५।। जई मइलमि वयणु ण पर-बलहाँ। तो पइसमि.मदएँ सलहौं' ।।६।। गलगजें वि एम णिसायरेण । किड करें कोवण्डु अ-कायरेण ||७|| सपणाहु लनड गहपरे चरिठ। रावण-गन्दशहाँ गम्पि मिडिउ ॥८॥ हकार पहरह णिन्दइ वि। पण घणवाहणु इन्ट वि ||९|| 'मुहुँ अम्हहँ चन्दण-जोग्गु किट। तिहिंसन्महि परम-मिणिन्दु जिह।।१०
पत्ता जो जणण-समु तहाँ कि पायें चिन्तिऍण । किर कवणु जसु जुमन्तहुँ सहुँ पिसिएंण' ॥१५॥
[ २ ] रणु पित्तिपण सहुँ परिवरेंवि। चिण्णि वि कुमार गय ओसरवि ।।। एक मामण्डल धधि णिउ। अण्णे तारा-पाणपिउ ।।२।। कु कर्णेवि को वि क सकियर। अम्बरें अमरहिं रूपल किया ॥३॥
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पंचष्ट्रिमी संधि
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ओर ले चला। यह देखकर, ताराका पुत्र अंगद भड़क उठा। सैकड़ों युद्धोंमें अजेय अंगदने अपने कौशल से, अनासक्तकी भाँति, शत्रुको वस्त्रहीन कर दिया ।।१-९॥ __ [११] जय युद्ध में कुम्भकर्ण नंगा हो गया, तो देवताओंका समूह, उसे देखकर मजाक करने लगा। रावण भी अन्तःपुर में लाजमें गड़ गया । आँख बचाकर उसने मुख टेढ़ा कर लिया | कुम्भकर्ण अपने वन्न ठीक कर ही रहा था कि हनुमान टूटकर अपने विमानमें पहुँच गया। इस अवसर पर योद्धाको मारनेको साध रखनेवाले विभीषणने राम की जय बोली और कहा,"हे देव, मुझे युद्ध में लड़ते हुए अप दमा । में उसी प्रकार लगा जिस प्रकार सूखे घनमें आग जलती है ! यदि मैंने शत्रुसेनाके मुखपर कालिख नहीं पोती, तो मैं आगमें प्रवेश करूंगा!" इस प्रकार घोषणा कर, निशाचरराज वीर विभीषणने धनुप अपने हाथमें ले लिया। सन्नद्ध होकर बह रथमें बैठ गया और जाकर रावणके पुत्रसे भिड़ गया। वह ललकारत', आक्रमण करता, उनकी निन्दा करता। मेघवाहन और इन्द्रजीत उसे प्रणाम कर रहे थे। उन्होंने कहा, "आप हमारे लिए उसी प्रकार प्रणाम करने योग्य हैं, जिस प्रकार तीनों संध्याओंमें परमजिन बन्दना करने योग्य हैं। जो पिताके समान हो, उसके विषयमें अशुभ सोचना पाप है। आप ही बताइए कि चाचाके साथ लड़ने में कौन-सा यश मिलेगा ।।१-१२॥
[१२] इस प्रकार अपने चाचाके साथ उन्होंने युद्ध नहीं किया । दोनों कुमार वहाँ से हटकर चले गये। एक तो भामण्डलको पकड़कर ले गया, और दूसरा ताराके प्राणप्रिय सुप्रीयको ! कोई भी उन दोनोंका पीछा नहीं कर सका! आकाशमें देवताओंमें
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पडमचरित
सहि अवसरे भासझिय-मणे । चुच्चइ अलएउ विहीसणेण ॥४॥ 'जड़ विग्णि वि णिय पारवह पवर । तो दिहावि इसार ण वि हय गावि गय रहवर हि सहुँ । जं जाणहि सं चिन्तयहि सदु' ॥६॥ सं णिसुणे वि बूढ-महाहण। महतोयणु चिन्तित राहणे ||३|| उक्सग्ग-हरणे विपिण मि जणाहुँ । कुलभूसण दसथिहसणाहुँ ।।८।।
घत्ता परिसुटण विजउ जिह वर-गहिणिय। जे(?)दिषिणयउ गरुड-मिगाहिव-वाहिणिड |॥९॥
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[३] सो गरुदु देव साइड मणेण। धरहरित गयर सहुँ आसणेण ।।१।। किर अपहि पर वि सकियउ। 'बह बुजिमाउ रामें चिन्त्रियाउ' ॥२॥ पुणु चिन्स वि देठ समुहियर। लहु विजउ लेपिणु पट्टविउ ॥३॥ हरिवाहणि सत-सहि सहिय। गारुहु ता विति-सहि अहिय॥४॥ वे छप्सई ससि-सूर-प्पहई । स्यमा तिष्णि रणे दूसह है ॥५॥ गय विन्य पत्त णारायणहाँ।
हल-मुसलाई सीर-प्पहरणहों ।।। चिन्तिय-मत्तई सम्पाइयई।
मुखई पर-बलही पाहय ।।। तहें गारुख-चिजह दसण । गय पाग-पास णासै वि खाण ॥८॥
पत्ता मामण्डलॉग
सुग्गीवेण वि गम्मि वल्लु । जोकारियड लाएँ वि सिर समुन-जुवस्तु ।।५।।
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पंचसविमो संधि कोलाहल होने लगा ! उस अवसरपर, शंकासे भरकर, विभीषणने रामसे कहा, "यदि ये दोनों वीर इस प्रकार चले गये, तो न मैं वचूँगा, न आप, और न दूसरे लोग । रथोंके साथ, न अश्व होंगे और न गज । आप जो ठीक समझें पहले उसका विचार करें । यह सुनकर, बड़े-बड़े योद्धाओंका निर्वाह करनेवाले राम ने मदलोचन व्यन्तरदेवको याद किया। यह व्यन्तरदेव, कुलभूषण, देशभूषण महाराजका उपसर्ग दूर करते समय रामसे मिला था । सन्तुष्ट होकर, उस व्यन्तरदेव ने इन्हें सुन्दर गृहिणीकी भाँति दो विद्याएँ दी, एक गरुड़वाहिनी और दूसरी सिंहवाहिनी ॥१-५॥
[१३] रामने उस गरुड़का ध्यान किया। एकदम उसका आसन कौंप गया। उसने अवधिज्ञानसे जान लिया कि रामने उसकी याद की है। यह सोचकर यह उठा और शीघ्र ही विद्याओंको लेकर भेज दिया। सिंहवाहिनी विद्याके साथ सातसौ सिंह थे और गारुड विद्याके साथ वीनसौ साँप थे । सूर्य और चन्द्रमाकी कान्तिके समान उनके दो छत्र थे। तथा युद्ध में असह्य तीन रत्न भी उसके पास थे। वे दोनों शीघ्र ही रामके पास पहुँच गयीं । इल और मुसलकी भाँति : ये विद्याएँ उन्हें चिन्तन करते ही प्राप्त हुई थी और छोड़ते हो शत्रुओं के ऊपर दौड़ पड़ी। गारुड विद्याको देखते ही, नागपाशके एक क्षणमें टुकड़े टुकड़े हो गये । तब भामण्डल और सुग्रीव अपनी सेनामें वापस आ गये ! लोगोंने हाथ माथेसे लगाकर जय-जय शब्द के साथ, उनका अभिवादन किया ॥१-२||
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[६६. छासहिमो संधि ] सुजप-मण ___अरुणुग्गर्भ किय-काल मलहै । अमिहा पुणु वि राम-रावण-अलाइ ।
[] गयधर-तुस्य-जोह-रह-सीह-विमाण-पाहणाई ।
रण-तूर. हयाई किउ कलयलु भिडियई साहणाई ।। ।। जाउ महाहवु वेहाविद्धहुँ। बलहुँ मिसायर-वाणर-चिन्धहुँ ।।२।। रश-विणियारपा-पाहरण:-हत्थई। अमर-वरण-गण-समस्थ ।।२।। परिमोलाविय- सुरवर
बभि ज्यसिरि मन्थहुँ । || गलगजन्त-मस-मायाहुँ । पषण-गमण-पक्रयरिम-तुरमहुँ ||५|| दप्पुमडहुँ समुण्णय-माणहुँ । घण्टा-घण-रकार-विमागहुँ ॥६॥ सगुइ-सपाह? सन्दण-वीढहुँ । पुरवबहर-मच्छर-परिगीढहुँ ।।७।। उद्धव-धवल-छत्त-धय-दण्डहुँ । पचर-करप्कालिय-कावाहुँ ।।८।। मेलिय-एकमेक-सर-जालहुँ। तिम्चुग्गाम्यि-कर-करवासहुँ ।९।।
घन्ता
मि पठमय णं उस्थियउ
रउ चलणाहउ लय छलु । सुअण-मुहइँ मइलस्तु खल्ल ।।१०।।
खुर-स्सर-छम्जमाणु णं जासह मध्यएँ इयवराहुं । णं आहउ पियारी गं हकारउ सुरवराहुं ॥११॥
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छियासठयों सन्धि सूर्योदय होते ही युद्धके निशा आतुर दोन दोगानों में कोता हल होने लगा । राम और राजग को सेनाएँ फिरसे भिड़ गयीं।
[१] उत्तम हाथी, अश्व, योद्धा, रथ, सिंह, विमान और दूसरे वाहन चल पड़े । युद्धके नगाड़े बज उठे। कोलाहल होने लगा। सेनाएँ आपस में भिड़ गयीं। क्रोधसे अभिभूत निशाचर और वानर-सेनाओंमें महायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके हाथमें निशाचर संहारक अस्न थे। दोनों ही सेनाएँ अमरांगनाओंको ग्रहण करने में समर्थ थी। दोनों ही सेनाएँ देवसमूहको सन्तुष्ट कर चुकी थी। दोनोंने वीरता और जयश्री को पानेका मार्ग प्रशस्त किया था। दोनों ओर मतवाले हाथी गरज रहे थे। और पवनकी चालवाले अश्य कषच पहने हुए थे। दोनों सेनाएँ गवसे उद्धत थीं। उनके हौसले ऊँचे थे। विमान घण्टों की ध्वनियोंसे गूंज रहे थे। दोनों सेनाएं रासयुक्त रथोंकी पीठों पर आसीन थीं। दोनों पूर्व पैर और ईर्ष्यासे भरी हुई थी। दोनोंके पास ऊँचे सफेद छत्र और अजवण्ड थे । सैनिक अपने विशाल बाहुदण्डोंसे धनुष की दंकार कर एक दूसरे पर तीरोंकी बौछार कर रहे थे। उनके हाथों में तीखी और पैनी तलवार थीं। पहली ही भिडन्तमें चरणोंसे आहत धूल इस प्रकार उठी, मानो सबनका मुख मैला करनेके लिए, कोई खल जन ही उठा हो ।।१-१०॥ __ [२] खुरोंसे खोदी हुई धूल, मानो महावोंके इरसे नष्ट हो रही थी ! वहाँसे हटाया जाने पर, मानो वह देवताओंसे पुकार
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पडमचरित
गं पाय-पहारहों ओसरपि। धाइउ णिय-परिहउ सम्म यि || II णं बुजणु सीस-वलगु किन गं उत्तमु सम्बहुँ उभरि थिउ ॥३॥ सो ण वि रहु जेल्धु ण पइसरिज । सो गा वि गड जो ण वि धूसरिउ ॥१॥ सोण वि हड जो ण वि महलियउ । सो ण विधउ जो ण वि कवलियउ।५ जउ रमइ दिद्धि तउ स्य-णियरु। उ णावइ मणुसुण स्यपियरु ॥६॥ तसा वि के वि धावन्ति भड़। जेसह गलगनई हस्थि-हाच ॥७॥ जेत्तहँ सन्दण दणु-मीमिय। सुन्वरित नुरङ्गम-हिसियई ॥४॥ जेत घहर गुण-गहिय-सर। जेन्तो हुकार मुअन्ति जर ॥९॥
धत्ता तेहा समरे सराह मि भजन्ति मइ । गर-गरिव हि साम समुट्टिय रुहिर गइ ।। ६ ०||
[३]
गयबर गण्ड-सेल-सिहरग-विणिगय णइ नुरन्ति ।
उद्धव-धवल छत्त हिण्डीरुप्पील-समुन्वहन्ति ॥ १॥ पवरोज्झर-सोणिय-जल-पवाह । करि-मयर-तुरङ्गम-ण-गाह ॥२॥ चकोहर-सन्दग मुसुमार । करवाल-मछ-परिहन्छ-धार ॥३॥ मतभ-कुम्भ-मीसण-सिलोह। सिय-चमा-चलाया-पन्ति-सोह ॥४॥ संग तरेवि के वि वावरन्ति । वुद्धम्ति के वि के वि उम्वरन्ति ॥५॥ के वि रय-धूसर के विहिर-लित्त । के वि हस्थि-सदएँ विहुणेवि वित्त ।।६।। के वि लग्ग पडीवा दन्त-मुसलें। गंधुप्त विलासिणि-सिहिण-जुअलें।
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कासहिमो संधि
१५॥ करने जा रही हो ! मानो पैरोंसे आहत होकर अपने अपमानकी याद कर दौड़ी जा रही हो, मानो दुर्जनके सिरसे लगने जा रही हो, मानो इतनी उत्तम थी कि सबके ऊपर जाकर स्थित हो गयी । ऐसी एक भी चीज नहीं थी कि जहाँ धूल न फैलो हो, ऐसा एक भी हाथी नहीं था जो धूलधूसरित न हुआ हो, ऐसा कोई अश्व नहीं था जो मैला न हुआ हो। ऐसा एक भी ध्वज नहीं था जो धूलभरा न हुआ हो, जहाँ भी दृष्टि जाती वहाँ धूल का ढेर दिखाई देता। कोई भी दिखाई नहीं देता, न मनुष्य और न निशाचर । जहाँ भी हाथी का समूह मजता नहीं मोहा दोत जाते ! जहाँ भी निशाचरोंसे भरे रथ थे, वहीं अश्कोंकी हिनहिनाहट सुनाई दे रही थी। जहाँ डोरी पर तीर चढ़ाये हुए धनुर्धारी थे और जहाँ मनुष्य हुँकार भर रहे थे उस महायुद्धमें अच्छेअच्छे शूरवीरोंकी भी मति कुण्ठित हो उठती थी। इतनेमें महागज रूपी पहाड़ोंसे रक्तकी नदी बह निकली ॥१-१०॥
[३] तुरन्त ही महागजोंके गण्ड रूपी शैल-शिखरसे रक्तकी नदी बह निकली जिसमें उड़ते हुए धवलछत्र फेनके समूहके समान जान पड़ते थे। बड़े-बड़े निझरोंसे रक्त रूपी जल यह रहा था। इसमें हाथी और मगर रूपी माह थे। चक्रधर रथ शिंशुमार थे । उसका जल तलवारकी मछलियोंसे शोभित था। उसमें मतवाले महागजोंकी चट्टानोंका समूह था। सफेद चाँवरों रूपी बगुलोंकी कतार शोभा पा रही थी। कितने ही योद्धा उस नदीको पार कर कुछ हलचल मचाते और कितने ही उसमें डूब कर उबर नहीं पाते । कितने ही धूलधूसरित हो गये और कितने ही खूनसे रंग गये, कितने ही गजघदामें पिस कर गिर पड़े। कोई सलटकर हाथीके दाँतोंसे जा लगा मानो
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पउमचरित
के घिणिया-विमागहाँ सम्म देन्ति । गहें णियवि वहरिहि सिरई लेन्ति । सहि नेहएं रणे सोणिय-जलेण। रड णासिउ मजणु जिह खोण ॥५॥
पत्ता रावण वलेण
किउ विवरामुहु राम-बलु । पपिलियउ ण दुपाएं उवहि-जलु ॥१॥
[४] णिम्पियर-पवर-पहर-परिपेल्लिएँ चलें मम्मीस दवि । हैरव-पहस्थ-सत्तु सेणावइ थिय णल-गील वे वि २१॥
समालग्ग सेण्णे । धय-छत्त-वपणे ॥२॥ जयासावरले । बिमाहिं चूते ॥३॥ चलवामरोहे। पदमन्त-जोहे ॥४॥ कमुगिपण-सी। बहुपील-दीहे ॥५॥ महाहन्थि-सपडे । समुदण्ड-सुण्डे | मुरमोह-सोहे। घणे सम्दमोहे ।। तहिं तुफमाणे । चले अप्पमाणे ॥॥ कइन्दवरहि। मिडन्तेहिं तेहिं ॥९॥ दसासल्स सेग्न मयं वाण छषणे ||१०|| ण सी छत्त-दण्डो। अछिपणो अरवण्डो ।।१।। पण तं सत्-चिन्धं । ण जग्ण विद्धं ॥१२॥ ण सो मस-इत्थी। वो जस्म पस्थी ॥१३॥ ण तं हथि-गत्तं । खयं जपण पत्तं ॥
घत्ता
सो पस्थि मड सो रहण वि
जो हुकाइ सवसम्मुन्न । जो र ण किउ परम्मुहउ ॥१५॥
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छासहिमो संधि
१५३ कोई धूर्त विलासिनीके स्तनोंसे जा लगा हो। कोई आकाशमें ही अपने विमानोंसे कूद कर शत्रुओंके सिर काट लेता। नुस प्रकार उस भीषण युद्ध में रक्तकी नदीसे धूल शान्त हो गयी । वैसे ही जैसे दुष्ट सज्जन पुरुपसे शान्त हो जायँ | रावणकी सेनाने रामकी सेनाका मुख फेर दिया मानो तूफानी हवाओंने समुद्र जलकी दिशा बदल दी हो॥१-१०||
[४] निशाचरों के प्रश्नल आघातोंसे पीछे हटायी गयी अपनी सेनाको अभय वचन देकर रामपक्षके नल और नील आकर खड़े हो गये । हस्त और प्रहस्त सेनापति, क्रमशः उनके दो प्रतिद्वन्द्वी थे ? इतने में यहाँ अगनित सेना आ पहुँची उसके पास तरह-तरह के ध्वज और छम्र थे। जयश्री और अश्वोंसे आलिंगित वे दोनों रथमें बैठे हुए थे। चंवर चल रहे थे और योद्धा पहुँच रहे थे। शेर पंजोंके बल खड़े थे और नखोंसे अपना पृष्ठभाग हिला रहे थे । महागजोंका समूह था, जिसकी सुह उठी हुई थी, जो अश्यों के समूहसे शोभित था और जिसमें बहुत-से रथ थे । वे दोनों अपनी सेनामें पहुँचे । वानर ध्वजधारी वे दोनों लड़ने लगे। उन्होंने रावणको सेनाको अपने वाणोंसे तितर-बिसर कर दिया । उसमें एक भी छत्र ऐसा नहीं था जो कटा न हो या जिसके टुकड़े-टुकड़े न हुए हो । शत्रुका एक भी ऐसा चिह नहीं था जो युद्ध में साबित बचा हो, ऐसा एक भी मतवाला हाथी नहीं था कि जिसको घाव न लगा हो। ऐसा एक भी हाथी नहीं था कि जिसके शरीर पर भयंकर आघात न हो। एक भी योद्धा ऐसा नहीं था जो सन्मुख पहुँचनेका साहस करसा । एक भी रथ ऐसा नहीं था जो कि युद्धमें पराङ्मुख न किया गया हो।।१-१५||
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१५४
पडमचरित
[५] वले मम्मीस अघि रहु वाहिउ ताव दसाणणेणं । महिणव-लच्छि-बङ्गुष-पिण्डस्थण-परिचयण मणेणं १०॥
वरूपराह सोह) व पुस । मिन्ह ण मिझ जाम्ब पल-पील-परवाहं ॥२॥ साम्ब विहीसणेण रहु दिण्णु अम्तराले । गलगजन्त हुक मेह व परिसयाले ॥३॥ मीसण विसहर बसन्तुल-वग्ध-खण्दा । भोरालन्त मत्त इथि च्च गिल गपडा |१|| वर-पगूल-दीह सोह व णिवद्ध-रोसा । अयछ महोहर व जलहि व गरुअ-/सा ॥५॥ वेरिण वि पवर-सन्दणा वे वि चाव-हत्या । वेषिण वि रक्षस-शुमा समर-भर-समध्धा ॥६॥ धेषिण वि महिहर व प कयावि चल-सहावा । वेमिण वि सुबु-वंस वेणि वि महाणु माया ॥७॥ वेषिण वि धीर वीर विज्ज व देय-चवला । येषिण वि पाक-कमाल-सोमाल-चल-अचला ll बेणि विवियह-वच्छ घिर-थोर-वाहु-दण्डा । वेषिण दि बस्त-जीवियासाहवे पचण्या ॥२॥
पत्ता
सहि एक्कु पर एत्तिउ दोसु दसाणणहों।
खणु विण फिदाइ णिय-मणहाँ ॥१०॥
[६] अमरिस-कृद्धएण समर-वरजण-जूरावणेणं । णिमपिछड पिहोसणो पठम-मिडन्त राषणेणं ॥१॥
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१५५
छासहिमो संधि [4] तब, अपनी सेनाको अभय बधन देकर रावणने अपना रथ आगे बढ़ाया। मामी उसका मन कर रहा था कि मैं अभिनव विजयलक्ष्मीके स्तनोंका मर्दन करूँ। वह इस प्रकार आगे बढ़ा जैसे आग पेड़ों पर, या सिंह हाथियों पर झपटता है। वह नरश्रेष्ठ नल और नीलसे भिड़ने ही वाला था कि विभीषणने दोनोंके बीच में अपना रथ अड़ा दिया। वह इस प्रकार रावणके सम्मुख पहुँचा, जिस प्रकार वर्षाकालमें मेघ । दोनों ही सर्पकी भाँति भयंकर, सिंह और बाघकी भाँति प्रचण्ड थे । गरमते हुए मतवाले हाथीके समान उनके मस्तक आर्द्र थे । लम्बी पूंछके सिंहकी भाँति वे रोषसे भरे हुए थे। महीधर की तरह अडिंग, और समुद्रकी भाँति उनकी आवाज गम्भीर थी। दोनोंके पास बड़े-बड़े रथ थे। दोनों हाथों में धनुष थे। दोनोंकी पताकाओं में राक्षस अंकित थे, दोनों ही युद्धका भार उठाने में समर्थ थे। दोनों ही महीधरकी भाँति किसी भी तरह चलायमान नहीं थे। दोनों ही कुलीन और महानुभाव थे। दोनों धीर वोर थे और बिजलीकी भौति देगशील थे । दोनों ही के चरण कमल नव जलजातकी भाँति कोमल थे। दोनों ही के वक्ष विशाल थे। दोनोंके बाहुदण्ड विशाल और प्रचण्ड थे। दोनों ही जीवनको आशा छुड़ा देने वाले और युद्धमें प्रचण्ड थे। उन दोनों में-से रावणमें केवल यही एक दोष था कि उसके मनसे सीतादेवी एक क्षणके लिए भी दूर नहीं होती थीं ॥१-१०॥
[६] देवगनाओंको सतानेवाले रावणने क्रोधसे भरकर पहली ही भिड़न्समें विभीषणको ललकारा, अरे शुत्र मूर्ख और
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१५६
पउमचरित
'अरे साल दुवियन कुल-फसग । म लवाहिउ मुधि विहीसण ॥ २॥ बाल सामिसाल ओलग्गिउ। महि-गोमरु घराउ एकलिउ ।।३।। उधुव-पुच्छ-दण्डु गह-दीहरु। केसरि मुवि पसविड मिगवरु Dan सन्चगिल वामियर-पसाहणु। मेरु मुएवि पसंसिउ पाहणु ॥५॥ तेय-रासि णहसिरि-भालिकणु। भाणु मुवि धरित मोहाणु ॥५ जलयर-अलकल्लोल-मयका । जलहि मुपवि पसंसिड सरवर ॥७॥ गरट धरै वि सिव-सासन पनि । जिणु परिहरें विस-देवउ अघिउu मासु ण केण विणावई पाउँ। सौ पई गहिउ विहीसण राई ॥३॥
पत्ता
वरहि मिलें वि सिंह माहपर्ण
जिह उगमामिज लम्भु महु । परिसर साइज देहि सहु॥१०॥
[-] तं शिसुणे वि सोपीर-वीर(१) सन्तावणेणं ।
णिन्भच्छिउ दसाणणो कुइप-मणेण विहीसणेणं ॥१॥ 'सच में भासि तुहुँ देव-देव। एहि बहुभारर कु-मुणि जे ॥१॥ सबउ जि भासि तुहुँ पर-महन्दु । पहिं पुण्णाणणु हरिण-विन्दु ॥१॥ सब में आसि तुहुँ मेरु घण्टु । एहि जिग्नुशु पाहाय-खण्ड ॥४॥ सब जि आसि रवि तेयवासु । एवहिं जोहणु जिगिजिगन्तु ॥५॥ सवउ जि आसि जलगिदि पहाणु । एवर्हि वहि गोप्पय-रमाणु ॥६॥ समर जि आसि सरु सावितु । एहि पुणु सोय-तुसार-विन्दु ।।.।
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कादिमो संधि
१५७ कुलकी फौंस, विभीषण तूने मुझ छोड़कर बहुत अच्छे स्वामीका पसन्द किया है, वह बेचारा भूमि निवासी और अकेला है। तुम एक पने और लम्बे नखाँके सिंहको, कि जिसकी पूँछ पीछे उठी हुई है, छोड़कर, एक मामूली हिरनकी प्रशंसा कर रहे हो । सचमुच तुम सोनेके सुमेरु पर्वतको छोड़कर पत्थरको मान्यता दे रहे हो । तेजकी राशि और आकाश लक्ष्मीका आलिंगन करनेवाले सूर्यको छोड़ दिया है तुमने और ग्रहण किया है-जुगनूको। जलचरों और तरंगोंसे शोभित भीषण समुद्रकी जगह तुमने सरोवरको पसन्द किया है। तुम नरक स्वीकार कर, स्वयं ही शाश्वत शिवसे वंचित हो गये। तुमने जिन भगवानको छोड़ दिया और खोटे देवकी पूजा की, जिसका कोई नाम तक नहीं जानता, विभीषण, तुम उसकी शरणमें गये । शत्रुसे मिलकर तूने जिस प्रकार, मेरा खम्भा उखाड़ लिया है, उसी प्रकार तू युद्ध में आगे बढ़ । मैं भी उसी प्रकार अभी आघात देता हूँ ॥१-१०॥
[७] प्रचण्डतम वीरोंको सतानेवाले विभीषणने गुस्से में आकर रावणको जी भर फटकारा। उसने कहा-'सच है कि तुम देवताओंमें भी श्रेष्ठ थे, परन्तु इस समय, खोटे मुनिकी तरह तुच्छ हो । सच है कि तुम कभी एक श्रेष्ठ सिंह थे, परन्तु अब तुम एक दोन,हीन आनतमुख हिरन समूह हो। सच है, कि किसी समय तुम एफ प्रचण्ड मेरु पर्वत थे, परन्तु इस समय एक गुण हीन पहाड़ खण्ड हो । सप है कि किसी समय तेजस्वी सूर्य थे, परन्तु इस समय तुम एक टिमटिमाते जुगनू से अधिक महत्व नहीं रखते। एक समय था जब तुम एक प्रमुख समुद्र थे, परन्तु इस समय तो तुम गोखुरके बराबर हो। सच है किसी समय तुम एक श्रेष्ठ सरोवर थे, परन्तु इस समय
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१५८
पउमचरिउ
जॅमइँ
लड् एष मि
सवड जि सि तुहुँ गन्धन्तस्थि । गिरि-समु पण्डित चारिंतु जेण ।
एवर्हि त सरिस्टड खरु वि णस्थि ॥१८॥ किं कोरड् जीवन्तेण संण ॥ २ ॥
पञ्जा
इउ खम्भु उप्पाडियउ । केस जाहि पाडियउ ॥ १० ॥
[ . ]
८
संणिसुणेवि वयणु दहवयणं अमरिस-कुद एणं । मेल्लि अद्वयन्तु समरङ्गणै जय-जल- -पणं ॥ १ ॥ सुणिचरिन्दोष सरु मोल-पय-ओ | तरु विसो व अ-तिक्ख-पय-सओ २ ॥ कब्द- चन्धो व वहु-बण्णवण्णभुओ । कुलबहू-चित्त-मग्गो व सुजुभो ॥३॥ सुप्रमाणेण कह कह बि उ भिण्णओ । तेण तस्स विधभो णवर उच्छिष्णओ ॥ ४ ॥ रावणेण वि धणु समरें दोहाइयं । ताम्ब सं दन्द-ज्नं समोहाय ॥५॥ मिडिय मन्दोदरी-राणय-णारायणा । कुम्मण्णाणिकी राम-घवाणा ३१ गोल-सोहयदि-दुसरिस-विडोश | केद-भामण्डला काम दिवरह वरा ॥७॥ काखिन्दणहरा कन्द- भिलक्षणा । सम्भु-ल विग्ध-चन्द्रमराणन्दणा ||४|| जम्बुभाखिन्छ धूमवण-कुन्दाहिना । भासुरङ्गा मयय-महोपर णिवा ॥९॥
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1५९
कासटिमो संधि तो तुम्हारा अस्तित्व, जलकण या तुषारकणसे अधिक नहीं । सच है एक समय तुम गन्धगज थे, परन्तु इस समय तुम्हारे समान गधा भी नहीं है, जिसने पहाड़ के समान अपना चरित खण्डित कर लिया, वह जीकर क्या करेगा यह सच है कि मैंने तुम्हारा खम्भा उखाड़ा है, लो अब देखता हूँ कि तुम बिना पड़े कहाँ जाते हो ॥१-१०॥
यह सुनका पारणको साना पाया। दार यश के लोभी उसने अपना अर्धेन्दु तीर छोड़ा। वह तीर मुनियरकी तरह मोक्षके लिये लालायित था, वृक्ष विशेषकी तरह अत्यन्त तीखे पत्रसे युक्त था, काव्य-बन्धकी तरह, तरह-तरह के वणोंसे सहित था, कुलवधूके चित्तकी तरह अजेय था, मुक्त उस तीरने किसी तरह विभीषण को आहत भर नहीं किया। विभीषणने भी रावणके वजको खण्डित कर दिया। तब उसने भी विभीषणके धनुषके दो टुकड़े कर दिये । तब उन्होंने एक दूसरेको द्वन्दू युद्धके लिए सम्बोधित किया। फिर क्या था ? लक्ष्मण मन्दोदरीके पुत्रसे भिड़ गये । कुम्भकर्ण और हनुमान, राम और मेषवाहन, नील और सिंह तट, दुद्धरिस और विकटोदर, केतु और मामण्डल, काम और हदरय, कालि और वन्दनगृह, कन्द और मिसाजन, शम्भू और नल, विश्न और चन्द्रोदर पुत्र, अम्बू और मालिन्द, धूम्राक्ष और कुन्दाधिप,
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१६०
कुमुअ-महकाय सत्-अमघण्टा |
पउमचरिउ
रम्म
सार मारिच सारण- सुमेणाहिवा ।
सुन पचण्डालि सम्झन्छ- दहिमुह शिवा ॥१३॥
घत्ता
भुअणेफेक पहाणार्हे । गणगणेपणु राणा हैं ॥ १२ ॥
विहि माहि सुग्गी अमिया ॥१०॥
अनेक मि के सक्किय
केण वि समरे जोवित जमह
[ 8 ]
केण वि को विदओ 'मरु सम्मुहु याहि थाह' । क्रेण वि को विसु समरण 'रहरु चाहि वाहि ॥॥१॥
केण त्रि को वि महा-सर-जाएँ । छाइड जिह सु-कालु पुकाळें ||२|| केण वि को त्रिभिष्णु सच्छ-स्थलें । पडिउ धुलेवि को विमति मण्डलें ॥३॥ केण वि कहाँ विसरासणु ताडिद । णं हेहा मुदु हिपबर पाहिङ ॥
केण त्रिकों विकउ णीवति । केण वि कहाँ वि महदुर पाडित । केण वि दन्तिदन्त उप्पाहि । केण वि झम्प दिष्ण रिज- रहबरें | क्रेण चि कहाँ षिसी अच्छोडिड
चलि जिह दस दिसेहिं आवट्टिङ ॥ ५ ॥ णं भउ माणु महत्फर साहि ॥ ६ ॥ नाव जसु अप्पण समावि || || गरुडें जिह भुङ्ग भुषणन्तरें || ४ || णं अवराह रुख फलु सोहि ॥
I
घन्ता
ferg fear हिट थिरु । पन्हों उरु सामियहाँ सिरु ॥१०॥
[10]
केण वि कहाँ वि सुक पण्णी पारवर पुनणिजा
केण वि गुलगुल म्ति मायकी केण वि सीह विजा ॥१॥
I
i
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छासहिमो संधि
१६. भासुर और अंग, मय, अंगद और महोदर, कुमुद, महाकाय, शार्दूल और यमघंट, रम्भ और विधि, मालि और सुग्रीव आपसमें एक दूसरेसे जाकर भिड़ गये। तार, मारीच, सारन और सुसेन सुत और प्रषण्डाली, संध्याम और दधि-मुख भी आपसमें इन्द्वयुद्ध करने लगे। और भी दूसरे राजा जो विश्व में एकसे एक प्रमुख थे, आपसमें भिस गये। इन सब राजाओंकी गिनती भला कौन कर सकता है ।।१-१२||
२] एकने दूसरेको ललकारा, "मर मर सम्मुख खड़ा हो ।" किसीने किसीसे कहा, "युद्धमें अपना रथ हॉक ।" किसीने फिसीको अपने महान् तीरोंसे इस प्रकार ढक दिया, मानो दुष्कालने सुकालको ढक दिया हो।" किसीने किसीको वक्ष को आहत का. दिगा। कोई आइत होकर घरतीमण्डल पर गिर पड़ा। किसीने फिसीका धनुष तोड़ दिया, मानो वह स्वयं अधोमुख होकर गिर पड़ा हो ।" किसीने किसीका कषच नष्ट कर दिया, और उसे पलिकी तरह दसों विशाओंमें बखेर दिया। किसीने फिसीका महाध्वज का हाला मानो उसका मव, मान और अहंकार ही नष्ट कर दिया हो किसीने हाथीके दाँत उखाड़ लिये मानो अपना यश ही धुमा दिया हो। किसीने शत्रुके रमवरमें इलचल मचा दी, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गरुण नागलोकमें इसबड़ी मचा देवा है। किसीने किसीका सिर इस प्रकार काट दिया, मानो अपराधरूपी पृक्षका फल तोर लिया हो किसीने युद्ध में शत्रके हृदयको ढाढस बँधाते हुए कहा, “जीवन यमको, आघात वक्ष को और सिर स्वामीको अर्पित करूँगा ॥१-१०॥
[१०] किसीने नरकरोंसे पूजनीय प्राप्तिविद्या छोड़ी। किसी ने गर्जन करती हुई मातंगी विधा और किसीने सिंहविद्या।
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१६२
केण वि मेल्लि अग्गेट वाणु ।
केण वि चाय
ददन्तु ।
कुलिम-दण्ड
केण च मय भी
कंग वि सोविसु णाग-वासु । सहि तेहऍ र कमलेश्खणासु । दुइरिसणु भणु स्यणि-अन्धु ।
कमाल करालु तमाल- बहलु । लक्षणेण मेलिज दिणयरत्धु ।
पउमचरिय
दहमुह-सुऍण सविण
दाहिणऍ करें
सम्पाइप ( ? )
केण वि वारुणु गलगजमाणु ॥२॥
केण वि कुल-प धुबुवन्तु ॥३॥
।
किल महिहरस्थ लय-खण्ड-खण्डु ॥ ४ ॥
केण विंग पण्णय-विणासु ॥ ५२ ॥ इन्द्रणालि कक्खणासु ॥ ६॥ सोण्डीर-वीर-मोहण - समरथु ||७|| णश्चन्त पेय वेयाल- मुहल || णिसि - तिमिर-पडल-णालण समस्धु ॥९॥ घता
नाग बासु पुणु पेलियउ ।
गारुड - विज
तासियत ||१०||
[1]
विरहु करेवि धरिव दहमुह णन्दणु पारायणेष्ण | तोयदवाहणी व बलए वें विष्कुरियाणमेण ॥१॥ एताएँ विहल वसु-मच्छरेण । साणन्तरे रामे सरहि छिन् । पेक्खन्सहों वहाँ रावप्य-वतासु । अवरो कि को दि ओ भिडिउ जासु एस विसाव भय भीमेण । परियलिए चायें सिय- माणणेण 1 सखरै हिंसं पि अक्ल केंम । रोसिड दहगीत विलक्ष्य ससि ।
किर आयामिज जिसियरेण ॥ २ ॥ जिन कवि किखेलें कुम्भयष्णु ॥ ३ ॥ वन्धेवि अप्पिड मामण्डला ॥४॥ । परमप्पड व सो सिद्धु बासु ||५|| रावण अणु विष्णु विडोसणेण ॥ ६ ॥ आमेलि सूल दसाणणेण ॥७३॥ वति भुक्तिर्हि भूएहिं प्रेम ||८|| जावह दरिसाव णिमय सचि ॥९॥ चता
रेहइ ककसिा
।
या मवित्ति अमदहों ॥ १० ॥
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छासहिमो संधि किसीने आग्नेय बाण छोड़ा और किसीने गरजता हुआ कारण बाण | किसीने झरझर करता हुआ वायव्य वाण, किसीने धूधू करता कुलपर्वत, किसीने भयभीषण वदण्ड फेंका उसने महीधरके सौ टुकड़े कर दिये। किसीने आशीविष नागपाश फेंका। किसीने साँपोंका नाशक गरुड अस्त्र फेंका । उस भयंकर युद्ध में कमल नयन लक्ष्मण पर, इन्द्रजीतने दुर्दर्शनीय भीषण रजनी-शख छोड़ा, जो प्रचण्ड वीरोंका सम्मोहन करने में समर्थ, कंकालकी तरह भयंकर, अन्धकारसे परिपूर्ण और नापते हुए प्रेतोंसे मुखर था। तब लक्ष्मणने रातके अन्धकार पटलको नाश करनेमें समर्थ दिनकर अब छोड़ दिया। रावणके पुत्रने नागपार फिरसे फेंका, परन्तु लक्ष्मणने गारुड़ विद्यासे बसे कर दिया ।१-
[११] लक्ष्मणने रावण पुत्रको रथहीन बनाकर पकड़ लिया। उधर आरक्त मुख रामने मेघवाइनको पकड़ लिया। एक ओर निशाचर ईष्यांसे भर कर हनुमानको व्यस्त किये हुए थे । इसी अन्तरालमें कुम्भकर्ण रामके तीरोंसे बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो गया, गनीमत यही समझिए कि किसी प्रकार बच गया। उसके देखते-देखते रावणको सेना बन्दी बनाकर भामण्डलको सौंप दी गयी । और भी दूसरे जो भी लोग जिससे लड़े, वह उससे उसी प्रकार जीत गया,जिस प्रकार सिद्ध परमपदको जीत लेते हैं। इतने में भयभोषण विभीषणने रावणके धनुषके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । धनुषके गिर जानेपर, श्रीके अभिमानी रावणने अपना शूल असा चला दिया। परन्तु विभीषणने अपने उत्तम तीरोंसे उसे भी उसी प्रकार बिखेर दिया, जिस प्रकार भूखे भूत बलिके अन्नको। तब क्रुद्ध होकर दशाननने अपने हाथमें शक्ति ले ली, मानो वह अपनी शक्तिका
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६४
पदमचरित
[ २] जा गजम्स-मस्त मायन-कम्म-
णिसण-सोला। बुद्धर-गरवरिन्द-दावन्द-बिन्द-विषण-कोला || जा परिणारिरोवावणिय । रह-तस्य-थट्ट-लोहापणिय ॥२॥ जा विजु जेध भीसावणिय। जम-लोय-पन्थन्दरिसावणिय ॥३॥ जा दिपणी वालि-तर-घरणें । धरणेन्दै कविलासुबरा ।। सा सत्ति ससु-सन्तासणहाँ। त्रिमुबह ण मुबइ विहीसण ॥५॥ वावहि खर-दूसण-गणेग। र अन्तरे दिग्णु जणाणेण वा 'अरे खल जीवस्तु का जाहि महु । अह सत्ति सति तो मेलि लहु' ।। सं णिसुर्णेबि स्यणासघ-सुऍण। भामेलिय गोलिय-भुण ॥६॥ विम्पन्तहुँ माल-गीकम्यहुँ। अव मि भोगना ५
पचा तो क्षणही परिथ उर-त्थले साल किह । दिहि रावणहाँ रामही दुषचप्पत्ति मिह ||१०||
[३] जं पारिज कुमारु महिमण्डलें तं शोसरियाणाम् ।
जिह करें महन्दु तिह समरे सरहसु मिडिउ रामु ॥१॥ रामणराम-जुना माविमद्दउ । सरहम णिम्भर पुनय-विसहल ।।२।। मच्छर-गण-मण-णपणाणन्द्रहुँ । अफाकिय-सुर-मुन्दुहि-साईं ॥३॥ सन्धिय-सर-वविय-सिकारहुँ । वारवार-जिण-णामुचारहुँ ।
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छासहिमो संधि परिचय देना चाह रहा हो। वह शक्ति कैकशीके पुत्र रावणके दाहिने हाथमें ऐसी शोभा पा रही थी मानो लक्ष्मणका भविष्य ही हो ।।१-६::
[१२] वह शक्ति, जो गरजते हुए मत्त गजोंके मस्तक फाड़ सकती थी, और जो बुर्द्धर राजाओं, निशाचर राजाओंका दमन कर सकती थी, जो शत्रुओंकी पत्नियोको रुला सकती थी, जो रथों और गोंके समूहको लोट-पोट कर सकती थी, जो बिजलीकी तरह भयंकर थी और लोगोंको यमपथ दिखा सकती थी। जो वालिके तपश्चरणके समय कैलासके उठाने पर रावणको मिली थी। वह शक्ति रावण शत्रुसन्तापक विभीषण पर छोड़ने जा ही रहा था कि लक्ष्मणने अपना रथ, उन दोनोंके पीच, लाकर खड़ा कर दिया | उसने कहा, "अरे दुष्ट, तू मुझसे जीते जी नहीं जा सकता, यदि तुझमें ताकत हो, तो अपनी शक्ति मुझ पर मार" यह सुनकर रत्नाश्रयका बेटा रावण गद्गद हो गया, और अपने पुलकित बाहुसे शक्ति छोड़ दी। उस शक्तिने नील, नल और दूसरे सभी वानर वंशियोंको आहत कर दिया। वही शक्ति लक्ष्मणके वक्षस्थल पर जा लगी, मानो वह रावणका भाग्य थी, और रामके लिए दुःखकी खान ॥१-१०॥ _[१३] जब कुमार इस प्रकार गिर पड़ा, तो उसकी खबर कानों कान पहुँची । जैसे सिंह जंगल में, गजसे भिड़ता है, उसी प्रकार राम युद्धमें संलग्न हो गये। इस प्रकार राम और रावणका युद्ध होने लगा। अत्यन्त हर्ष और रोमांचसे भरा हुआ। अप्सराओंके नेत्रोंको आनन्द देने वाले देवताओंकी दुन्दुभिकी ध्वनिको भी मात देने वाले उन दोनों में द्वन्द्व युद्ध होने लगा। बार-बार दोनों सन्धान और स्वरों ( सर ) के अन्धानसे अपने-आपको सजा रहे थे। बार-बार जिन भगवान्
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१६
पडमचरित वाणासणि-सम्न्छाइय-गयण? पहरे पहरे पफुल्लिय-षयण ॥५॥ तो एत्यन्तरे गय-सय-याम । किन निरि -बार | पहिलड रहवर रासाह-वाहणु। बीयउ सरहसु सरह-पवाहणु II || तल्या तुम-तुराम-चबल। चउथळ धोरोरालिप-मयगलु ॥८॥ पञ्चमु वर-सब्दूल-णिउता। छहउ केसरि-सय-सक्षुप्तड ।।९||
पत्ता किङ्किणि-मुहल पल-बाहण धुव-धवल-श्रय । दुपपुस जिह छ वि रहवर णिफल गय (1)
[५] रह छह छह धणूणि छ छत्तइँ वि छिण्णई हलहरेण ।
तो विण दिया पुद्धि विजाहर-पुर-परमसरेण ॥३॥ वेषिण वि अवरोप्पर सामरिस। वेणि वि पउरुसें साहसे सरिस ।। पिण वि सुर-समर-सएहि थिर । वेणि विक्षिण-णामें णमिय-सिर ।।।। वेणि वि पहु कह-णिसियर-धयहुँ । जिह दिसाय सेस-महग्गय हुँ ।।३।। जिणइ ण जिमह एको घि जणु । गउ ताम दिवायरु अत्यवः ॥५॥ विणिवारिंउ रावणु राहण। 'अन्धार का महाहवेंग ॥६॥ ग वि नुहुँ महुँ ण चि हवे तुझ भरि। लइ गिणय-णिय-णिकय जाहुँ वरि ॥ तें चयगे रणु उघसझरेंथि। गठ लाहिज कलपल कवि 1८|| सीराउहो वि परियाच प्तहिं । सत्तिएँ णिमिण्णु कुमार जहि ॥५॥
पत्ता तं णिदि वस्तु सुरकरि-कर पवरुधुएँहि ॥ पिडित महिहिं सिरु पहणन्तु सई भु ऍहि ॥१०॥
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छाष्टिमो संधि का नाम ले रहे थे। तीरोंकी बौछारसे आसमान भर गया । पहर-पहरमें मुखकमल खिले हुए दिखते थे। इसी अन्सरमें अनेक स्थानोंका भ्रमण करने वाले रामने शत्रुको छह बार रथहीन बना दिया। पहला रथ था, जिसमें गधा जता हुआ था, दूसरे रथमें हर्षोन्मद अष्टापद था। तीसरा रथे ऊँचे अश्वसे चंचल दिखाई दे रहा था, चौथा भयंकर गर्जना करने वाले हाथियोंसे युक्त था । पाँचवे रथमें उत्तम सिंच जुते हुए थे, और छठेमें सैकड़ों सिंह थे। नूपुरोंसे मुखर, वाहनोंसे चंचल उस निशाचर सेनामें अडिग सफेद पताकाएँ थीं । परन्तु रामने खोदे पुत्रकी भाँति छहों रथवरोको व्यर्थ सिद्ध कर दिया।र-१०॥
[१४] इस प्रकार रामने छः रथ, छः धनुष और छः छत्र मिटीमें मिला दिये । परन्तु विद्याधरोंके राजा रावणने तब भी पीठ नहीं दिखायी। दोनों एक-दूसरेके प्रति ईर्ष्यासे भरे थे, दोनों ही पौरुष और साहसमें समान थे। दोनों सैकड़ों युद्धों में अडिग रह चुके थे। दोनों ही जिननामको नमस्कार करते थे। दोनों ही वानरों और निशाचरोंकी सेनाके स्वामी थे, और दिग्गजोंकी भाँति दूसरे महागजोंके स्वामी थे । वे न एक दूसरे को जीत पा रहे थे और न स्वयं ही जीते जा रहे थे। इसी बीच सूर्यास्त हो गया। तब रामने रावणको मना किया कि अन्धकारमें महायुद्ध कैसे सम्भव होगा न तो तुम, न मैं, कोई भी दिखाई नहीं देगा। इसलिए योद्धा अपने अपने घरको जाँय | यह सुनकर लंका नरेशने युद्ध बन्द कर दिया और कोलाहलके साथ अपने ठिकाने चला गया। श्रीराम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ शक्तिसे आहत लक्ष्मण घराशायी थे 1 लक्ष्मणको देखकर, गजशुण्डके समान बड़ी-बड़ी थाहुओंवाले, अपने हाथोंसे वे अपना सिर पीट रहे थे ।।१-१ना
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[६७. सत्सट्टिमो संघि] लक्रवण सस्तिए विणिमिण्णएँ हक्क पट्ट दहश्यणे । निय-खेपणही मुहर णियन्त उ सभइ स-दुक्खर रामु रणे ।।
[.] मिष्णु कुमार दसाणण-ससिएँ। पर-गन्धु व गमयसण-सत्तिएँ ।।१।। कुमाघ सुका कच-सम्पत्तिएँ। कुपुरिस-कण्णो इव पर-तसिएँ ।।२।। सुश्रणो इव खल-धरण-पउसिएँ। पर-समड ब्व जिणागम जुत्तिा ।।३।। जिग-मग्गो इव फेवल-भुत्तिएँ। विसयासत्तु मुणि म्ब ति-गुनि ॥॥ सो इव सम्चाएँ वित्तिएँ। शुन्दो इष मणहर-गायत्तिएँ ।।५।। सेल व वजासणिर पन्ति। विझो इष रेवाएँ पहन्ति ।।३।। मेहो इस विजल' कषन्तिएँ। जलणिहि व गाएँ मिलन्ति ॥७॥ ताम समस्-दसणु मलहन्तिएँ। गाइँ दिवस भोसारित रस्सिएँ ॥८॥
पत्ता दहमुह-सिस्छेउ ण दिन रहुवा-णन्दणे विजड पा वि । सोमित्ति-सोय-समतत्तर णं अस्थपणही तुफ रधि ||९||
[२] दिणधर गह-कुसुमें न्च गलीणएँ । दिणे णिसि-बहरिएँ व बोलीणएँ ॥३॥ सम्मा रामसि(?)व अलोण। तमें मसि-सनए इन विक्षिण्णएँ ॥२॥ कव(?)सयणे व सोाउण्णएँ। म अचलें मिदुणे ब परुण्ण ।।३।। गएँ रावणे रण-नहसुकिमपणएँ। किग-कालय जय-तर-पदिग्णएँ ।।५।।
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सड़सठवीं सन्धि लक्ष्मणके. शक्तिसे आहत होनेपर, राधणने लंकामें प्रवेश किया। इधर राम अपने भाईका मुख देखकर, फूट-फूट कर रोने लगे। रावणकी शक्तिसे लक्ष्मण उसी प्रकार आहत हो गया, जिस प्रकार अध्ययनकी क्षमता द्वारा, दूसरेके द्वारा रचित अन्य समझमें आ जाता है, जैसे दुष्टको वचनोक्तियोंसे सजन आहत हो उठता है, जैसे जिनशासकी उक्तियोंसे दूसरेके सिद्धान्त अन्य खण्डित हो जाते हैं, जिस प्रकार तीन गुप्तियोंसे विषयासक्त मुनि वशमें कर लिये जाते हैं, जैसे सभी विभक्तियाँ शब्दको अपने प्रभावमें ले लेती हैं, जैसे सुन्दर गायत्री छन्द छन्दोंको अपने प्रभावमें रखता है, जैसे पत्रके गिरनेसे पहाड़ टूट जाता है, जैसे बहती हुई रेवा विन्ध्याचलको लाँघ जाती है, जैसे बिजली मेघोंमें चमक उठती है और जैसे गंगा नदी समुद्र में जा मिलती है उसी प्रकार मानो युद्धदर्शनसे वंचित दिनको रातने हटा दिया । न उसने रावणका कटा हुआ सिर देखा, और न रघुनन्दनकी विजय ही। लक्ष्मणके वियोगसे दुःखी सूर्य धीरे-धीरे अस्त होने लगा ॥१-II
[२] जब आकाशके कुसुमके समान सूर्यका अस्त हो गया और जब रातरूपी दुष्टाने बेचारे विनका अतिक्रमण कर दिया, तो सन्ध्यारूपी निशाचरी, सब ओर फैल गयी। अन्धकार म्याहीके समूह के साथ बिखर गया । कंचुकी और स्वजन शोकाकुल हो उठे। चक्रवाक पक्षियोंका . जोड़ा रो रहा था । युद्धोत्साहसे रोमांचित रावणके चले जाने पर कोलाहल होने
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पउमपरिठ
णिसियर-जणवर दिहि-सम्पण्णएँ । घरे धरें पुणु सोहलप स्वष्णएँ ॥५॥ लकपणे सत्तिएँ हएँ परिवपणएँ। थिएँ णिच्चेपणे धरणि-पवण्णएँ ||६|| अहिउल-कञ्चल कुवलय-वण्यएँ । सुइ-लरक्षण गुण-गप्प-सम्पगणएँ ॥७॥ कइधय-साहणे चिन्तावण्णएँ। हरिण-उले व सुव भादगएँ ।।८।।
घत्ता सोमिन्ति-सोय-परिणामण रहुबइ-णादणु मुच्चियउ । -चन्द वनरखे हि दुप-दुक्खु अम्मुशिय ॥९॥
[३]
'हा लकावण कुमार एकोपर। हा मयि उविन्द दामोअर ||१|| हा माहृव महुमह मासूअण। हा हरि कण्ह विण्हु णारायण ॥२॥ हा केसब अणन्त लरकीहर। हा गोविन्द जगण महिहर ॥३॥ हा गम्भीर महाणहरुम्मण । हा सीहोयर-दप्प-णिसुम्मण ॥४॥ हा हा यजयण-मम्मीसण। हा कलापमाल-आसासण ||4|| हा हा रुभुत्ति-विणिवारण। हा हा वालिखिल्ल साहारण ।।६।। हा हा कविल-मर-विमरण । हा वणमाला-णप्रणाणन्दप ||७|| हा परिदमण-मइष्फर-माण। हा जियपोम-सोम-मणरक्षण ॥६॥ हा महरिसि-उवसग्ग-विणासण । हा आरण्ण-हत्थि-सम्तावण ।।९।। हा करयाल-पयग-उहाळण। सम्युकुमार विणास-गिहालण॥०॥
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सहिमो संधि
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लगा । विजयके नगाड़े बज उठे। निशाचरोंकी बस्तियाँ भाग्यसे परिपूर्ण थी । वर-घर में सोहर गीत गाये जाने लगे । परन्तु लक्ष्मण शक्तिसे आहत होने से वह धरतीपर अचेत होकर गिर पड़ा। वानर सेना एकदम व्याकुल हो उठी। शुभ लक्षणोंसे युक्त वह अपने गुणगणोंसे परिपूर्ण थी। भ्रमर कज्जल और कुवलयके अनुरूप थी। वह हिरन कुलकी तरह अत्यन्त दुःखी थी । लक्ष्मणके शोककी मात्रासे राम मूर्छित हो गये । जल, चन्दन और चमरकी हवासे किसी प्रकार, कठिनाईसे उनकी मूर्छा दूर हुई ||१२||
[३] बलभद्र राम विलाप कर रहे थे, "हे लक्ष्मण कुमार और भाई, उपेन्द्र दामोदर हे कृष्ण असून, हरि कृष्ण विष्णु नारायण, केशव अनन्त लक्ष्मीघर, हे गोविन्द जनार्दन महीधर, हे गम्भीर नदीको रोकनेवाले, हे सिंहोदरके घमण्डको चूर-चूर करनेवाले, हे लक्ष्मण, तुम कहाँ हो ? तुमने वर्णको अभय बचन दिया था। तुम कल्याणमाला के आश्वासन हो, तुमने रुद्रभुक्तिका निवारण किया था। तुमने बालिखिल्यको सहारा दिया था। तुमने कपिलका मानमर्दन किया था। तुम वनमालाके नेत्रोंके लिये आनन्ददायक हो । तुमने अरि मनके मानको भग्न किया था। तुम जितपद्मा और शोभाके लिए आनन्ददायक थे । अरे तुमने महाऋषिके उपसर्गका विनाश किया था, और जंगली हाथी को सतानेवाले हो, अपने तलवार रूपी रत्न का तुम्होंने उद्धार किया था। शम्बुकुमारके विनाशको तुमने अपनी आँखोंसे देखा है । अरे तुमने खरदूषणके चमड़ेको खूब गया है। तुमने सुग्रीव के मनोरथको पूरा किया है। अरे तुमने फोटिशिला उठायी थी। और तुमने समुद्रावर्त धनुष अपने हाथसे बढ़ा दिया था। विज्ञाप करते
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पउमचरित
हा स्पर-दूसग-चमु-मुसुमूरण। हा हा कोडिसिला-सञ्चालण।
हा सुग्गीव-मणोहर-पूरण ।।१।। हा मयरहरावत्तफालण ॥१२॥
घता
काह तुहुँ कहि हउँ कहिं पिययम का जोरि न जा गर। हय-चिहि विछोड करेप्पिणु कवण मोरह पुषण तड' ।
हरि-गुण सम्मरन्तु विदाणत। स्वइ स-दुस्वउ राहवराम || 'परि पहरित पर-परवर चक्कएँ। वरि खय-काल दुक्क भत्थकएँ ॥१॥ वरि सं कालकूड विसु मक्खिा । परि जम-सासणु णयणकडविखट ॥३॥ परि असि-पञ्जरें थिउ थोवन्तरू । बरि सेविड कयन्त-दम्वन्तरु | अम्प दिण्ण परि जलणे जलन्सएँ । बरि वगलामुंह ममिज ममम्सएँ॥५॥ चरि वामणि सिरण पविच्छिय । परि दुकन्ति भविति समिच्छिय ।। चार विहिउ जम-महिस-रहिट । मीसण-कालदिटि-श्राहि-हिउ ।।७।। परि विसहिउ केसरि-गह-पारु । वरि जोहड कलि-काल सपिच्छर ।।८॥
वरि दन्सि-दन्त-मुसकणे हि विणिमिन्दाधिउ अप्पगउ । वरि पस्य-दुक्नु भाथामिस गड विभोउ माहें तणज' ॥१॥
[५] पकन्दर्ने राइवपन्दें। मुक धाइ सुगीव-गरिन्दे ।। मुक धाह मामण्डल-राएं। मुक धाह एवणअथ-जापं ॥शा मुक चाह वन्दोवर-पुर्ने । अण्णु विहीसणेण मुक्तते ॥ मुक धाह अजय-बोरे हिं। तार-सुसेप्यहि रणउ] धीर हिंसा मुक धाह गय-गवय-गवाल हिं। पम्दण-दुरियषिग्व-वेकवलं हि ॥4॥
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सट्टियो संधि
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हुए राम कहने लगे, “प्रिय यमने, तुम्हारा और हमारा क्या कुछ नहीं किया। कहाँ तो माता गयो और नहीं मालूम पिता जी कहाँ गये। हे हतभाग्य विधाता, तुम्हीं बताओ इस प्रकार हम भाइयोंका विछोह कराकर, तुम्हें क्या मिला ? तुम्हारी कौन सो कामना पूरी हो गयी ॥१-१३॥
[४] खिन्न राजा राम लक्ष्मणके गुणोंको याद कर रोने लगे । वह कह रहे थे, "शत्रराजा के चक्र से आहत हो जाना अच्छा ? अच्छा हो शीघ्र हो अयकाल आ जाय ! अच्छा हो मैं कालकूट विषका पान कर लूँ, अच्छा है कि मैं यमके शासनको अपनी आँखोंसे देख लूँ। अच्छा है थोड़ी देरके लिए मैं अस्थिपञ्जरमें सो लूँ। अच्छा है यसकी दाइके भीतर सो जाऊँ, अच्छा है, कोई जलती हुई आगमें धक्का दे दे। अच्छा है घूमते हुए बडवानल में पड़ जाऊँ! अच्छा है मेरे सिर पर वश गिर पड़े, अच्छा है मन चाही होनहार मेरा काम तमाम कर दे, अच्छा है यममहिषके असह्य चपेट में आ जाऊँ, अच्छा है भीपण दृष्टिवाळा महाकाल रूपी सौंप मुझे इस के। अच्छा है सिंह अपने नखोंसे मुझे आहत कर दे, अच्छा है कलिकालरूपी शनीचरकी नजर मुझ पर पड़ जाय ! अच्छा हो मैं खुदको हाथी दाँतोंकी नोंकोंसे टुकड़े-टुकड़े कर डालूँ। अच्छा हो मुझे नरकके दुःख देखने पड़ें, परन्तु भाईका बियोग न हो" ॥१-९॥
[५] राघवचन्द्रके इस प्रकार विलाप करने पर राजा सुप्रीष भी फूट-फूट कर रो उठा। राजा भामण्डल भी मुक्तकण्ठसे रोया और हनुमान् भी । चन्दोदरपुत्र भी मुक्त स्वरले रोया और व्याकुल विभीषण भी रोया । अंग और अंगद भी मुक्त कण्ठसे रोये, और युद्धमें धीर तार सुसेन भी रोये । गय, गवय और गवाक्ष भी मुक्त कण्ठसे रोये 'और नन्वन, दुश्वि
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पउमचरिड
मुक धाह णक-णील-णरिन्दै हि। मुख धाइ माहिन्द-महिन्दै हि। पिलुमा-महसायर-मइकन्त हिं।
जम्बव-रम्म-कुमुय-कुग्दन् हि ।।६।। दहिमुह-दहरह-सेब-समु हि ॥७॥ मुक्क धाह स हि सामन्ते हि ।।८।। घत्ता सन्दीबिउ सम्हाव-इति । जेण ण मुछी धाह मचि ॥९॥
रण रामें कलुणु रुअन्तऍण सो पथि कश्य-साहणे
[ ६ ] सायनाम्ब होश । सुरविर प्रेह 111 दाणे महाइयणे हि परिछेइ। केण वि कहिउ ताम्ब बइडेहि ।।२।। उर-णियम्ब-गरूअहें किस-देहि । रामयन्द-मुह-दसण-पेहि ॥३॥ 'सो सीएँ लइ अरछइ काई। सी सी लइ भाहरणाई ।।४।। सीए सीएँ अञ्जहिं णयणाई। सीएँ सीएँ चड़ पिय-वयणाई ॥५॥ सी सीएँ करें वाघाणउ । बलु लोहाविड सुग्गीवाणउ ।।६॥ कह दप्पणु जोवहि अप्पाणउ। मुट्ठ परिचुम्वहि दहचयपराण100
थत्ता
रावण-सत्ति विणिमिण्याउ दुका जिभइ कुमार रण । परिहव-अहिमाण चिहणउ ला राम वि मुअर में गणे' ॥८॥
[.] सं णिसुणे वि वहदेहि पमुच्छिय। हरियन्दणण सिस उम्मुन्दिछय ॥१॥ घेषण कहें वि सबम्ति समुट्टिय। 'हा खल खुद मिसुण विहि दुस्थिय।।२।। लक्षाणु मरद वसाणणु छुट्टा। हियउ केम सड उसु प फुइ ॥३॥ चिम-सीस हा दहन दुहावह। रूषण तुज्म किर पुण्ण मणोरह ।।३।। हा कयन्त सह कषण सुइच्छी। जं रडत्तणु पाषिय कच्छी ।।५।।
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सत्तसहिमो संधि विघ्न एवं वेलाक्ष भी रोये । नल और नील राजा मुक्त कण्ठ रोये, एवं जम्बु, रम्भ, कुमुद, कुन्द और इन्दु भी रोये । माहेन्द्र और महेन्द्र भी रोये और दधिमुख, इदरथ, सेतु और समुद्र भी रोये । पृथुमति, मतिसागर और मविकान्त आदि सामन्त भी मुक्त कण्ठसे रोये । युद्धमें रामके रोदनसे सन्तापकी ज्वाला भड़क उठी । वानरकी सेनामें एक भी ऐसा सैनिक नहीं था कि जो मुक्त कण्ठसे न रोया हो ॥१-६॥
[.] दुर्दम दानवों की सेनाका संहार करनेवाले रामकी इस अवस्थाका समाचार, किसीने मानसम्मानसे शून्य अभागिनी सीता देवीको बता दिया। उनके नितम्ब और उर भारी थे, परन्तु शरीर दुबला-पतला था। रामको देखनको तीन उत्कण्ठा उनके मनमें थी। एकने कहा, "सीतादेवी लो बैठी क्या हो, सीता, लो ये गहने । सीता सीता आँज लो अपनी आँखें । सीता सीता बोलो मोडे वचन । सीवा सीता हर्षवधावा करो। सुग्रीवकी सेना हार कर वापस हो गयी। लो यह दर्पण और देखो उसमें अपना चेहरा । और फिर दशवदनका मुख चूम लो । रावणकी शक्तिसे आहत होकर कुमार लक्ष्मण, शायद ही अब जीवित रह सकें। और सम्भवतः पराभवके अपमानसे दुःखी होकर राम भी प्राणोंको तिलाञ्जलि दे दं॥१-८॥
[७] यह सुनकर, सीता देवी मूद्धित होकर गिर पड़ी। हरिचन्वनके छिड़कनेपर उनकी मूर्छा दूर हुई। चेतना आते ही, वह रोती हुई उठी-हे दुष्ट खल और अभागे भाग्य, लक्ष्मणका अन्त हो गया और रावण जीवित है, तुम्हारा हृदय क्यों नहीं टूट-फूट जाता ? अभाग्यशील छिन्नमस्तक देव, इसमें तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूरा होगा ? हे कृतान्त तुम्हारी इसमें कौन-सी शोभा है कि एक लक्ष्मी वैधव्यको प्राप्त करेगी।
अन्त हो हुई उठी हैदनको मुर्छा दूर
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पउमचारिज हा लक्षण पेसणही मिउसी। कहाँ हिय जय-सिरि कुरु-सि ॥६॥ हा लक्षण पई विण महि सुण्णी । धाइ मुधि सरासइ रुपणी ॥७॥ हा लक्षण कल पवराहक्षु । कहाँ एकल्लड मेलिउ राहड ॥४॥
पत्ता णिय-बन्धष-सयण-विहणिय दुह-मायण परिचत्त-सिथ । मई नही दुरुषहँ भायण तिहुअणे मा वि म होज तिय' ॥५॥
[ ] सहि अवस्ने सुर-मिग-समतावणु। णिय-सामन्त गयेसह रावणुः ।।५।। को मुड को जीवाद को पडियउ। को सङ्गामें कासु अनिमडिया | को माया दन्त-विणिमिपण। को करवाल-पहर-परिचिण्णउ ॥३॥ को नाराय-घाय-जजरियउ। को कपिणाय-खुरुप्प-कपपरियड ।। कैग बि तु 'महारा रावण। पवण-कुवर-वरुण-जूराषण ।।५।। भत्र वि कुम्मयप पाउ भाषह। तीयवाहणु सो वि चिरावई ।।६।। वत सुब्बाइ इन्दइ-रायहाँ। सीहणियवहाँ उ महकायहाँ ।।७।। जम्बुमालि जमघण्टु ण दोसह। एकुवि जाहिं सेणे किं सीसह ।।६
घत्ता का जेहि-जेहिं वग्गन्तटते ते विण्विाइप समरें। थिङ एव हि सूठिय-वक्रषठ जं जागहि देव करें' ॥१॥
तं णिसुणेवि दसाणणु हलिउ। गंवच्छ-स्य सूलें सलिल ॥१॥ थिब हेटामा राषण-राण । हिम-हउ सयप विहागड ।।२।। वह स-मुक्खट गग्गर-षयण । पाह-मरन्त-निरन्तर-गवणE RIL
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सप्तसटिमो संधि
हे लक्ष्मण, तुम कृतान्तके यहाँ नियुक्त हो गये । कुलपुत्री जयश्री को तुमने कैसे छोड़ दिया। जमण, सुन्धान पद धरती सूनी है। सीता दहाड़ मार कर रोने लगी। हे लक्ष्मण, कल जो एक महान् राजा थे, उन राषवको आज कैसे अकेला छोड़ दिया ? अपने भाई और स्वजनोंसे दूर, दुःखोंकी पात्र सब प्रकारकी शोभा-श्रीसे अन्य मुझ-जैसी दुःखोंकी भाजन इस संसार में कोई भी स्त्री न हो। ॥१-२||
[८] ठीक इसी अवसर पर देवताओंको सतानेवाला रावण अपने सामन्तोंकी खोज कर रहा था कि देखू कौन मरा है और कौन जीवित है ? संग्राम में किसकी भिड़न्त किससे हुई । मतवाले हाथियोंके दाँतोंसे कौन विदीर्ण हुआ और कौन तलवारके प्रहारसे आहत हुआ ? कौन तीरोंके आघातसे जर्जर हुआ और कौन कर्णिका और खुरपेसे काटा गया? इतने में किसी एकने कहा, "आदरणीय रावण, सचमुच आप पवन, कुबेर और वरुणको सतानेवाले हैं ? कुम्भकर्ण आज तक वापस नहीं आया है, और मेघवाइन भी आनेमें देर कर रहा है। इन्द्रजीतके बारेमें भी कोई बात सुनाई नहीं दे रही है? और न ही महाकाय सिंह नितम्बके बारेमें ? जम्बूमाली और यमघण्ट भी नहीं दिखाई देते। क्या बतायें सेनामें एक भी बादमी दिखाई नहीं देता। जो-जो युद्धमें भिड़ने गये थे वे सब काम आ चुके हैं, अब इमारा पक्ष नष्टप्राय है। आप जैसा ठीक समझें कृपया वैसा करें॥१-२॥
[२] यह सुनकर रावण इस प्रकार काँप उठा मानो उसके वक्षमें शूल लग गया हो। राजा रावण अपना मुख नीचा करके रह गया। मानो हिमाइत शतदल हो ? गद्गद स्वरमें ज्याकुल होकर वह रोने लगा, उसकी आँखोंसे आँसुओंकी
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पाट
'हा हा कुम्मयषण एक्कोअर। हा हा मय मारिख महोयर || हा इम्बइ हा सोयदपाहण। हा जमहण्ट भणिट्टिय-सारण || हा केसरिणियम्ब दणु-दारण। जम्युमालि हा तुम हा सारण' 11६।। दुक्नु दुक्षु पुशु मण्ड णिवारिउ । सोय-समुदही अप्पड तारित ॥७॥ 'तिक्ष-गहहाँ साल-पहिहीं। किर केत्तिय सहाय वणे सीहहाँ ॥४॥
पत्ता अच्छउ अबछड जो अच्छा तो वि ण अप्पमि जणय-सुअ । किह घुलमि हउँ एकाही जासु सहेजा वीस भुभ ॥९॥
[१०] जो सहि सारु कहद्धय साहणे। सो मई सत्तिएँ मिण्णु रणझणें ।।३।। एवर्हि एक्छु पहेवउ राहउ । कल्लएँ तहाँ चि महु चि पवराहद ॥२॥ काल्लएँ सहाँ वि मा वि जाणिजह । एमड-पारायहि मिज्जा ।।३।। कलाएँ तहाँ वि महु वि एकन्तरु । जिम्ब तहों जिम्ब महु मम्मु महाफरु।।।। कालाएँ धद्धावणउ तहबाहैं। जिम्ब उज्या-णपरिहें जिम्ब लाहे ॥५॥ कल्लएँ जिम्ब मन्दोभरि रोषह। बिम्व जाणइ अप्पाणउ सोवा ।।६।। कल्लएँ गवत गहिय-पसाहशु। जिम्ब महु जिम्ब नहों केरल साहशु॥७॥ काल हुमबह-धगधगमाणहों। जिम्ब सो जिम्व हउँ हुकु मसाणहाँ ॥८॥
घसा जिम मई जिग्य तेपा णिहालिड खर-दूसण-सम्युल-पहु । जिम मई जिम्व तेमाकिजिन्य काएँ रण जथालचिन बहु ।।५।।
तो एस्धन्तर राहव-वीरें। धीरिउ फिकिन्धाहिक-पाणउ।
[1]
धोरिउ अप्पर चरम-सरीरें || धोरिट जम्बवन्तु वहु-जाणउ ।२
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सम संधि
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अनवरत धारा बह रही थी, वह कह रहा था, "हे सहोदर कुम्भकर्ण, हे मय मारीच महोदर, हे इन्द्रजीत मेघवाहन, हे अनिर्दिष्ट साधन यमघंट और हे दानवोंके संहारक सिंहनितम्ब जम्बुमाली, हे सुत और सारण ! आखिरकार बड़े कष्टसे रावणने अपना दुःख दूर किया। बड़ी कठिनाई से वह शोक-समुद्रसे अपनेआपको तार सका। उसने अपने मनमें सोचा, "तीखे नत्रों और लम्बी पूँछ वाले सिंहका जंगलमें कौन सहायक होता है। रहे रहे, जो बाकी बचा है। तब भी मैं उन्हें सीता नहीं सका | क्यों कहते हो कि मैं अकेला हूँ। नहीं, मैं अकेला नहीं हूँ, मेरी सहायता करनेवाली मेरी बीस भुजाएँ हैं ।। १-६॥
[१०] और फिर, वानरसेना में जो इने-गिने योद्धा थे, उन्हें मैंने युद्ध भूमिमें शक्तिसे आहत कर दिया है। अब अकेला राघव होगा, कल मैं उसे मजा चखा दूँगा । कल मैं उसे और वह मुझे जान लेगा । तोरोंकी बौछारसे एक-दूसरेके शरीर भेद दिये जायेंगे। कल उसके और मेरे बीच एक ही अन्तर होगा, कल या तो उसका अहंकार चूर-चूर होगा, या मेरा । कल या तो उसकी अयोध्यानगरी में हर्षवधाया होगा या फिर मेरी लंका नगरीमें। कल या तो मन्दोदरी रोयेगी, या फिर सीवा शोक-सागरमें डूब जायेगी। कल या तो उसकी साजसज्जित सेना हर्षसे नाचेगी, या मेरी कल मरघटकी धकधकाती आगमें या तो वह जलेगा या मैं। या तो वह, या फिर मैं, खरदूषण और शम्बुकका पथ देखूँगा । अथवा मैं या वह, कल युद्धके आँगन में विजय लक्ष्मीरूपी वधूका आलिंगन करूँगा ॥ १-२ ॥
[११] इसी अवधि में चरमशरीर रामने अपने-आपको धीरज बँधाया । उन्होंने किष्किन्धाराजको समझाया । बहुझानी
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पढमचरित
धीरिख रावण-उपवण-महणु। सुहटु पहक्षण-अक्षण-पादणु ।।३।। धोरिउ गल गीलु वि मामण्डलु । दिदरहु कुमु कन्दु ससिमण्डल ।।४।। घोरिउ स्यणकति रहबद्धष्णु । अगाउ अङ्गु तर विहीसणु ||५|| धीरिज चन्दसि मामण्डलु। हंसु वसन्तु सेउ वेलन्धरु ।।६।। धीरिज दहिमहु कलुण-रसाहिउ । गवउ गवस्तु सुसेणु त्रिराहिउ' ।।७।। धीरिउ तरलु तारु तारामुहु । कुन्दु महिन्दु इन्दु इन्दाउछु ।
धत्ता अपणु वि जो कोइ रुवन्तउ सो साहार वि सक्कियर । पर एक्कु दसासही उम्परि रोसुण धीरै वि सक्किपट ॥२॥
[३२] विरहाणल-जालोलि-पलिस। अण्णु वि कोच पहाण-चित्त ।। किय पइज रणे राहवचन्दें। 'रिट रवि जाइ अइ वि सुरिन् ।।२। जद्द वि जणशेण महि-माणे । जइ वि तिलायणेण वम्हाणे ॥३॥ जह वि अमाग कियन्त धणणं खन्ने जहवि तियक्षहाँ तणएं ॥४॥ अइ वि पहाणेण जइ वरुणे। जइ वि मियङ्के अक्कै अरुणें ||५|| पइसाइजइ वि सरणु कलि-कालही। हिक्का पहें जलें थलें पायाल हाँ।।६।। पइसइ जइ चि विनरें गिरि-कन्दरें । सप्ष-कियन्तमित्त-दन्तन्तरें ॥७॥ पेसमि सतु तो इ सई हत्थें । तहाँ मायासुग्गीवहीं पन्थें ॥४॥
घत्ता कल' कुमार अस्थन्त गिरिसु वि रावणु निअह जह । तो अच्पड बहमि वलम्तएँ हुवध किष्किन्धादिवइ' ॥९॥
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सत्तसहिमो संधिः जाम्बवन्तको समझाया। रावणके उपलनको उजाड़नेवाले पबन और अंजनाके पुत्र सुभट हनुमानको धीरज बँधाया, नल-नील और भामण्डलको धीरज बँधाया। दृढ़रथ, कुमुद, कन्द और शशिमण्डलको धीरज धंधाया। रलकेशी और रतिवर्धनको समझाया, अंगद, अंग, तरंग और विभीषणको धीरज बंधाया। चन्द्रराशी और, भामण्डलको धीर बँधाया, हंस, वसन्त, सेतु ओर वेलन्धरको धीरज अँधाया। करुण, रसाधिप, दधिमुख, गषय, गवाक्ष, सुसेन और विराधितको धीरज बँधाया, तरल, तार, वारामुख, कुन्द, महेन्द्र, इन्द्र और इन्द्रायुधको धीरज बँधाया, और भी जो उस समय रो रहा था, राम उन सबको धीरज दे सके । परन्तु एक रावण था कि जिस पर वह अपना क्रोध कम नहीं कर सके ॥१-९।।
[१२] एक तो विरहको ज्वालासे उत्तेजित होकर और दूसरे कोपानिलसे क्षुब्ध होकर रामने प्रतिज्ञा की कि मैं अपने हाथसे शत्रुको मायासुप्रीवके पथ पर भेज कर रहूँगा। चाहे इन्द्र उसकी रक्षा करे, विश्वपूज्य विष्णु, शिव और ब्रह्मा उसे बचायें 1 चाहे यम, धनद और कृतान्त उसकी रक्षा करें। चाहे शिवका पुत्र स्कन्ध उसे बचाना चाहे। चाहे पवन या वरुण उसे बचायें, चाहे चन्द्र, सूर्य और अरुण, चाहे वह कलिकालकी शरणमें चला जाय, अथवा नम, थल या पातालमें छिप जाय । चाहे वह पहाड़की गुफामें प्रवेश कर ले अथवा सर्पराज कृतान्तके मुखमें प्रवेश करे । कल कुमारके अन्त होते तक एक पलके लिए भी यदि दशानन जीवित रह गया तो मैं हे किष्किन्धा नरेश ! अपने-आपको जलती ज्वालामें होम दूंगा ॥१-||
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१८३
पजमचरित
[१३] पइजास्तें रामें कुछ-दी। विरल वळप सुग्गीवें माया-बलु वि विविड सक्षय | थिउ परिसक्ष करेविणु लक्षणे ॥३॥ इपनाय-रह-राहक्क-भयङ्कर। जमकरण सुठु भाइ-पुखरु ॥३॥ उपपरि पवर-विमाणेहि उपणउ । अम्भन्तर मणि-स्यण-वष्णउ ॥७॥ सत्त पवर-पापाराहि टिउ। णं अहिणव-समसरणु परिटिङ ॥५॥ सट्रि सहास मत-मायङ्गहुँ । गषधर गयवर पवर-रहमहुँ ॥६॥ रहपरै रहवरें तुङ्ग-तुरनहुँ। तुर उरएँ णरवर? अमाहुँ ॥४॥ विरइड एम यूहु णिच्छिार। णं सुकइन्द-कप्यु घण-सहन ॥८॥
धत्ता भयगारउ दुप्पइसारव दुणिरिक्खु सम्वहाँ जणही। णं हिरवड सीयहँ केरउ अचल अभेड दसाणणहाँ ॥५॥
[१४] पुग्व-दिसाएँ विजउ जस-सुबउ । पहिलऍ बार स-बहु सरदवड ॥१॥ वीयएँ मारह सइयएँ दुग्मुहु। कुन्दु बउस्थ पक्ष में दहिमुहु ॥२॥ छट्टएँ मन्दहरथु सत्समें गठ। उत्तर-वारे पहिल्लएँ भङ्गर ॥३॥ धीबाएँ सादु तहमएँ गन्दणु। पर) (१) कुमुल पा रहवतणु॥३॥ अट्ठएँ बन्दसेणु कुरियाणणु । सतमें चन्दरासि दणु-दारणु ॥५॥ पच्छिम-बार पहिल्लएँ ससिमुह। वीयएँ सुहद्ध परिट्विट दिढरहु ॥६॥ वाइमएँ गवउ गवक्षु घउरथएँ। पलमें तारु विराहिउ' छट्टएँ ।।७।
घन्ता जो सम्ब? बुखिए पार जासु मयका रिछु धएँ । सो जम्बत्र सरुवर-पहरणु वारें परिट्रिड सत्समएँ ॥८॥
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सतसट्टियो संधि
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[१३] कुलदीपक रामने जब यह प्रतिज्ञा की तो सुग्रीवने भी व्यूह-रचना प्रारम्भ कर दी। उसने फौरन मायावी सेना रच दी। वह लक्ष्मणकी रक्षा करनेके लिए स्थित हो गयी । अश्व, गज, रथ और पैदल सैनिकोंसे वह अत्यन्त भयंकर लग रही थी, मानो अति दुर्धर भयंकर जमकरण हो । ऊपर विशाल विमान थे। जो भीतर मणियों और रत्नोंसे सुन्दर थे । उसमें सात विशाल प्राकार ( परकोटे ) थे, जो ऐसे लगते थे मानो नया समवसरण ही हो । साठ हजार मतवाले हाथी थे । प्रत्येक गज पर एक चक्र था । प्रत्येक रथ पर अश्त्र थे और अश्व पर श्रेष्ठ योद्धा । सुग्रीवने अपना व्यूह ऐसा बताया कि उसमें सुराख न मिल सके, मानो वह सघन शब्दोंका किसी सुकवि का काव्य हो । वह व्यूह सबके लिए अत्यन्त भयानक, दुष्प्रवेश्य और ऐसा दर्शनीय था मानो सीता देवीका हृदय हो जो रावणके लिए अडिग अभेद्य था || १ ||
[१४] पूर्व दिशामें यशका लोभी विजय था जो पहले द्वार पर रथ और चक्र सहित स्थित था। दूसरे पर हनुमान्, तीसरे पर दुर्मुख, चौथे पर कुन्द और पाँचवें पर दधिमुख, छठे पर मन्दहस्त, सातवें पर गज । पहले उत्तर द्वार पर अंग था। दूसरे पर अंगद, तीसरे पर नन्दन, चौथे पर कुमुद, पाँचवें पर रतिवर्धन, छठे पर चन्द्रसेन ( जिसका चेहरा तमतमा रहा था ), सातवें पर दानव संहारक चन्द्रराशि । पहले पश्चिम द्वार पर शशिमुख, दूसरे पर सुभट दृढ़रथ था । तीसरे पर गवय, चौथे पर गवाक्ष, पाँचवें पर तार, और छठे पर विराधित था । परन्तु जो बुद्धिमें सबसे बड़ा था और जिसकी पताकामें भयंकर रीछ अंकित था, पेड़ोंके अब लिये जम्बु सातवें दरवाजे पर स्थित हो गया || १८||
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परमपस्टि
[१५] दाहिण-दिस परिट्रिड दुन्छ । वारे पहिल्ला णील धणु बरु ॥ वीयः णलु वर-लउद्धि-मयकरु । कुलिय-विहन्था पपाइ पुरन्दरू ॥२॥ स बार पिहीसं याड ! सूख-पाणि परिमय-सकर ॥३॥ चजथएँ वारें कुमुड़ जमु जेहड। सोणा-झुमालावालिय-हउ' | पञ्च में बारें सुसेणु समन्थर। विष्फुरियाहरु कोन्त-विहाथउ ॥५|| मह गिरि-किष्किन्ध-पुरेसा । भीमण-भिषिदमाफ-पहरण-कर ॥६॥ ससमें भामण्डलु असि लिम्स। गावइ पलय-दवग्गि पलिसउ ॥७॥ एम कियाँ रणे दुप्पइसार। पूरहों अट्ठावीस इ पारई ।। ८॥
पत्ता सहि लेह काले पडीवा रुवइ स-दुक्खउ दासहि । पवरहिं सई भुव-दण्डै हिं पुणु पुणु अप्फालन्तु महि ॥९॥
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सत्तस टिमो संधि [१५] दक्षिण दिशामें पहले द्वारपर दुर्धर धनुर्धारी नील स्थित था। दूसरे द्वारपर था- अपनी उत्तम लाठीसे भयंकर नल और हाथ में वन लिये हुए इन्द्र | तीसरे द्वारपर निशंक विभीषण, उसके हाथमें शूल था। चौथे द्वारपर यमके समान कुमुद, उसका शरीर कसे हुए दोनों तूणीरोंसे पीडित हो रहा था। मैंगने द्वारगर सार्थ जुटोज, जसके अधर काँप रहे थे और उसके हाथमें भाला था । छठे द्वारपर किष्किंधा नरेश था। उसके हाथमें भीषण भिण्डिमाल अस्त्र था। सातवें द्वारपर हाथमें तलवार लिये हुए भामण्डल था, मानो प्रलयकी आग ही भड़क उठी हो। इस प्रकार सुप्रीवने युद्ध में दुष्प्रवेश्य अट्ठाईस द्वार बना लिये। उस भयंकर विकट समयमें राम बार-बार रो रहे थे। बार-बार वह अपनी विशाल भुजाओंसे धरतीको पीट रहे थे ।।१-२॥
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[६८. अट्टसहिमो संधि] माइ-विभोएं कालुण-सरु रण राहवु रोवइ जाउँ हिं। गं प्रसासु जणाणहों परिचन्दु पराइस ता हिं॥
[ ] आवीलिय-दिछ-तोणा-जुअलु। वह रणझणन्त-कितिणि-मुहलु ॥१॥ मण्डलिय वण्ड-कोवण्द-धरु । पाणहर-पईहर-गहिय-सरु ॥२॥ परियढिय-रण-मर-पवर-धुरु। वर-वइरि-पहर-कप्परिय-उरु |॥२॥ वेषण्ड-सोण्ड-भुपदण्ड-थिरु। मोरङ्ग-प्रत्त-अणुसरिस सिरु॥॥ गउ तेत्तहें जेत्तहें अणय सुउ। थिउ चूह-बारें कावाल-भुउ ॥५॥ 'अहो अहाँ भामण्डक मर-तिलय । सम्माण-दाण-गुण-गण-णिलय ॥३॥ विजा-परमेसर भणमि पहुँ। तिहुँ मासहुँ अवसरु लधु म१७॥ जह परिसावाहि रहु-गन्दणहाँ। सो जीविउ देमि जणाणहाँ' ॥८॥ सं वयण सुर्णेवि असहन्तऍण। जिउ रामही पासु तुरन्तऍण ||९||
घचा
जोइहिं बुडचई ससिमुगिहें वरहिण-कलाव-धम्मेलहें। जीव सक्षणु दासरह पर म्हवण-जलेण पिसलहें ॥१०॥
[२] सुणु देव देवसीय-पुर। बहु-रिद्धि-विवि-जण-धण-पउरें ॥1॥ ससिमाल अधि पराहिवइ । सुष्पह-महवि मराल-गइ ॥२॥
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अड़सठवीं सन्धि राम अपने भाईके वियोगमें करण स्वरमें रो रहे थे ।इतनेमें राजा प्रतिचन्द्र उनके पास आया मानो वह कुमार लक्ष्मणके लिए उच्छ्वास हो।
[१] कसे हुए दोनों तूणीरोंसे उसका शरीर पीड़ित हो रहा था ।बहुत-सी बजती हुई वण्टियोंसे वह मुखर हो रहा था। खिंचा हुआ धनुष उसके कन्धोंपर था। प्राण लेनेवाले लम्बेलम्बे तीर उसके पास थे। वह बड़ेसे बड़े युद्धका भार उठा सकता था। उसने बड़े-बड़े शत्रुओंके वक्ष विदीर्ण कर दिये थे । उसकी मुजाएँ गजशुण्डकी तरह भारी थीं। उसका सिर मोरछत्रके समान था। वह वहाँ गया जहाँ जनकसुत भामण्डल था। हाथमें करवाल लिये हुए वह न्यूह द्वारपर जाकर खड़ा हो गया। उसने निवेदन किया, “योद्धाओंमें श्रेष्ठ हे भामण्डल, तुम सम्मान, दान और गुण-समूह के घर हो । हे विद्याओंके परमेश्वर, मैं तीन माहमें यह अवसर पा सका हूँ। यदि तुम रामके दर्शन करा दो, तो मैं लक्ष्मणको जीवित कर दूंगा।" यह वचन सुनते हो, भामण्डल अपने-आपको एक क्षणके लिए मी नहीं रोक सका। वह तुरन्त उसे रामके पास ले गया। उसने भी वहाँ जाकर निवेदन किया, "ज्योतिषियोंने कहा है, कि चन्द्रमुखी मोरपंखोंके समूहके समान चोटी रखनेवाली विशल्या के स्नान-जलसे ही लक्ष्मण दुबारा जीवित हो सकेंगे"॥१-१०॥
[२] सुनिए, मैं बताता हूँ । ऋद्धियों, वृद्धियों और जन-धनसे परिपूर्ण देवसंगीत नामका नगर है। उसमें शशिमण्डल
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पउमचरित
पद्धिचन्दु नासु उप्पण्णु सुर। सोहउँ रामञ्जरिभण्ण-भुउ ॥३.५ स-कलम केण पि कारणोंग । किा लीलएँ जामि महङ्गणेण ॥ ४॥ मेहुणियहि तणउ बर सचि। तो सहसविजउ थिउ उत्थरॅवि ॥५॥ स-कसाय के वि तह अभिडिय। जे दिस-दुग्घोह समावस्य ॥६॥ ते आयामपिणु अभय-भव । महु सत्ति विसस्जिय चमड-रव ॥७॥ विणिमिन्दंवि पादिउ ताद रणे। उस वाहिरें उजाण-धणे ॥४॥ णिषद्वन्तर मरहे लक्षियज । धीवएण सम्मोक्खिया॥९॥
पत्ता
ते अभोक्षण-घाणिऍण वलमणुअप्पाइउ मेउ । जाउ विसल्लु पुणपणबद्ध णं णेड विलासिणि-फेरउ ॥१०॥
[३] पुणु पुच्छिउ भरह-णरिन्दु म। "उ गन्ध सलिलु कहि लक्षु पइँ ॥५॥ तेण वि महु गुन्झु ण रक्खियड । सतुहण-वरि? अक्सियह ॥२॥ "स-क्सियहाँ अजमा-पवणही। उपप्पण चाहि सम्वहाँ जगहों ॥३॥ उर-वाउ अरोचन दाहु जरु। कल-सणिवाउ गg छदि-करु ५५४॥ सिरे सूल कवाल-रोउ पवरू। सपजिसड (?) सासु सास्तु श्रयकापा तेहएं काल सहि एक्कु अणु। स-कलत्तु म पुन स-बन्धुजणू ||३ स-धउ स-बलु स-णयह स-परियणु । परिजियइ सइता दोणघणु गा जिह सुरवाह सन्च-बाहि-रहिन। सिरि-सम्पय-रिद्धि-विद्धि साहिउ ॥४॥
तेण विसलहें तणड जलु आणेपिणु उपरि विसउ | पट्टणु परजीवियउ ल-पतरु णं अमिए सित्ता" ।।।
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असमां संधि
नामक राजा है। उसकी पत्नी महादेवी सुप्रभा है । उसकी चाल हंसके समान है। उसके पुत्रका नाम प्रतिचन्द्र है। मैं वही हूँ। मेरी भुजाएँ पुलकित हो रही है। एक बार मैं सपत्नीक विहार करता हुआ आकाशमार्ग से जा रहा था। परन्तु अपने सालेके बैरकी याद कर, सहस्रपत्र एकदम उछल पड़ा। क्रोध में आकर हम दोनों आकाश में ऐसे लड़ने लगे, मानो दो दिग्गज हो लड़ पड़े हों। हे राम, उसने प्रयास कर, मेरे ऊपर aurce शक्ति छोड़ी। उस शक्तिसे आहत होकर मैं अयोध्याके बाहर एक उद्यान में जा पड़ा। वहाँ गिरते हुए मुझे भरतने देख लिया | उन्होंने गन्धोदकसे मुझे सींच दिया। उस जलसे मुझे सहसा चेतना आ गयी। मैं दुबारा वेदनाशून्य नये- जैसा हो गया, बिलासिनीके प्रेम की भाँति ॥ १-१०॥
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[३] मैंने राजा भरतसे पूछा, “आपने यह गन्धजल कहाँसे प्राप्त किया ? उन्होंने यह रहस्य मुझसे छिपाया नहीं। उन्होंने बताया एक बार पूरे प्रदेश के साथ अयोध्या नगरीमें सब लोगोंको व्याधि हो गयी, सबके हृदयमें चोट-सी अनुभव होती, अरोचकता बढ़ गयी। भयंकर जलन हो रही थी। जैसे सन्निपात हो या सर्वनाशी ग्रह हो । सिरमें दई था और कपाल में भारी रोग था, साँस और खाँसी उखड़ी जा रही थी । उस अवसरपर एक आदमी अपनी पत्नी, पुत्र और सगेसम्बन्धियोंके साथ आया । ध्वजा, सेना, परिजन और नगरके साथ अकेला वह राजा द्रोणवन स्वस्थ था। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार इन्द्र व्याधिले रहित, और ऋद्धि, वृद्धि एवं श्री सम्पदासे सहित होता है। उसने विशल्या का जल सबपर छिड़क दिया, सारा नगर इस प्रकार फिर से जीवित हो गया, मानो उसे किसीने अमृतसे सींच दिया हो" ।।१९।।
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पउमचरिउ
[ ४ ]
सं भरहें पुच्छिउ दोणघणु ॥ १३॥ । जाणविह नगन्ध- - रिथि- बहुलु ॥२॥ जिप-सुक झाणु जिह निम्मर || ३ || सुहि-दंसणु जिह भाणद-बरु" ॥४॥ पष्फुलिय- जयण-कमलु सह ||५|| उ हव विसल्ला - सुन्दरिहं ॥ ६ ॥ जसु लग्गइ तासु वाहि हरद्द" ॥७॥ पिय-यर दो बिसज्ज ||
जं पच्चुीधि सक्लु जशु । "अहो माम एवं कहिँ लघु जलु पर कज्जु जेम जं सीयलट जिण वयण जेस जं वाहिहरु । निसुर्णेवि दोणु णराहिवइ । "मम दुहियहँ अमर-मणोहरिहें । विष्णु मन्तिएँ अमियाँ अणुहरइ । वं मिसुर्णेवि मरहें पुज्जियउ ।
चत्ता
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अप्पुणु गर तं जिग-भवणु जं मामय सोक्ख विहाणु । णाबद्द सग्गों उच्छले वि मोह-मण्डले पडिउ विमाणु ॥ ९ ॥
तहिं सिद्ध कूडे सुर-साराह । तोषक-चक- परमेसरहों । सुपरिभिर सीहासहाँ । घुषम्त धव-छत्त-जयहो । भामण्डल मण्डिय पच्छहीँ । सइलोक - कच्छि - लच्छि उरहीं। मोहन्धासुर-त्रिणिमिद । संसार-महद्दुम-पाटणहौं । इन्दिय-हण णिबन्धणीं ।
[4]
किय शुद्ध अरहन्त मडाराह ॥ १॥ अ- कसा यह शिट्टाहरहों ॥२॥ भवन्धुर-सामर- वासणड़ों ॥३॥ किय-विह- कम्म कुल कयहाँ ॥ ४ ॥ पहरण-रहियों जयच्छहीं ॥ ५ ॥ परिवालिय- अजरामर - पुरर्हो ॥ ६ ॥ उपपत्ति-वेति परिखिन्दण्हीं ॥७॥ कन्दप्प-मडम्फर सारणहों ॥ ६ ॥ गिद्दड्ड-दु किय-कम्मेन्
॥ ९ ॥
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१९१
भट्टसहिमो संधि [४] सब लोगोंके इस प्रकार जी जानेपर, भरतने द्रोणघनसे पूछा, “हे आदरणीय, यह जल आपको कहाँसे मिला ?यह तरह-तरहकी गन्धों और ऋद्धियोंसे परिपूर्ण है। यह जल वैसे ही ठण्डा है, जैसे हम दूसरोंके कामों में ठण्डे होते हैं। यह जिनभगवान्के शुक्ल ध्यानकी भांति निर्मल है। जिनके शब्दोंकी तरह व्याधिको दूर कर देता है। पण्डितोंके दर्शनकी भाँति आनन्दकारी है।" यह सुनकर राजा द्रोणघनने कहा ( उसका मुख कमल खिला हुआ था, “यह देवांगनाकी भाँति सुन्दर, मेरी लड़की, विशल्याके स्नानका जल है | निःसन्देह, यह अमृत तुल्य है, जिसको लग जाता है उसकी व्याधि दूर कर देता है।" यह सुनकर भरतने राजाका सम्मान किया, और उन्हें अपने घरसे बिदा किया। वह स्वयं जिन-मन्दिरमें गया, जो शाश्वत मोझका स्थान है और जो ऐसा लगता था, मानो स्वर्गसे कोई विमान ही आ पड़ा हो ।।१-९॥
[५] उस सिद्धकूट जिन-मन्दिरमें उसने देवताओं में श्रेष्ठ अरहन्त भगवानकी स्तुति प्रारम्भ की। उन अरहन्त भगवान् की जो त्रिलोक चक्रके स्वामी हैं, जो कषायोंसे रहित हैं, जो तृष्णा और निदासे दूर हैं, जो सिंहासनपर प्रतिष्ठित हैं, जिनपर सुन्दर चामर दुलते रहते हैं। जिनपर सफेद छत्र हैं। जो घार घातिया कोका विनाश कर चुके हैं। जिनके पीछे भामण्डल स्थित है। प्रहारसे जो हीन हैं, विश्वके प्रति जो करुणाशील हैं। जिनके हृदयमें तीनों लोकोंकी लक्ष्मी स्थित है। जिन्होंने देवताओंके लोकका पालन किया है । मोहरूपी अन्धे असुरको जिन्होंने नष्ट कर दिया है । जन्मरूपी लताको जो जड़से उखाड़ चुके हैं, संसाररूपी महानको जो नष्ट कर चुके हैं, जिन्होंने कामदेवके घमण्डको चूर-चूर कर दिया है। इन्द्रियोंकी
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पउमचरिय
घत्ता
तहाँ सुरवर परमेसरों
किय चन्दण मरह गरिन् ।
गिरि-कइलाएँ समोसरणं णं पदम जिजिन्दहों इन्हें ॥ १० ॥
॥
[ ६ ]
जिणु वन्दै चि वन्दिउ परम- रिसि । जे दरिलिय-दसत्रह- धम्म - दिलि ॥१॥ जो पच महत्व णिब्वहृणु ॥ २ ॥ तिर्हि गुन्तिहिं गुत्तर
न्शि- बरु ॥ ३ ॥
तो
जो बूसह परिसह-भर-सहनु । जो तब गुण-सक्षम-नियम- धरु | जोतिहिंसलिय जो संसारोवहि- णिम्महणु । जो क्रिडिकिडि जन्त-पुदिप णयणु। जो उण्हालएँ अत्तापिङ | जो वम्मद मसाहिं मीसणेहिं । जो मेरु-गिरिं व धोरत्तणण |
सो मुणिवरु चड णाण-धरु "काइँ विसल्लऍ तर किपर
।
सं वयणु सुणेस्थिणु मणइ रिसि "सुणु पुग्न विदेहें रिद्धि-परु । तिहुश्रण भणन्दु तिग्धु निवड वह सुय णामेणासर ।
ऐि
जो रुक्ख मूले पाउस सह ॥५॥ जो सिसिर-काले बाहिरें सयणु ॥ ६ ॥ जो चन्द्रायणि अतीरणि ॥७॥ बीरासण- उकडुस्वहिं ॥ ८ ॥ जो जलधि व गम्भीर
॥९॥
घत्ता
पणवेष्पिणु मरहँ बुचइ ।
सें माणुसु बाहिएँ सुच" ॥१०॥
[ ७ ]
यि खयहाँ जेण अण्णाण-नी फामेण पुण्डविण ण णय ३२ ॥ लीला - परमेसर चकवड़ ||३|| उम्मिल-ओहर कृष्ण घर ॥ ४ ॥
r-förter 11511
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. असष्टिमी संधि प्रवृत्तियोंपर जिन्होंने प्रतिबन्ध लगा दिया है। दुष्कर्मों के इंधनको जिन्होंने जलाकर खाक कर दिया है। राजा भरतने देव. ताओंके स्वामीकी इस प्रकार वन्दना की, मानो इन्द्रने कैलास पर्वतपर प्रथम जिनकी वन्दना को हो ॥१-१०॥
[६] जिनभगवानकी वन्दनाके बाद, उसने महामुनिकी वन्दना की। जन महामुनिकी, जो इस प्रकारके धर्मकी दिशाएँ बताते हैं। जो दुस्सह परिषहोंका भार सहते हैं। जो पाँच महाव्रतोंका भार सहन करते हैं। तप गुण संयम और नियमों का जो पालन करते हैं। जो तीन गुप्तियोंको धारण करते हैं और शान्तिशील हैं। जिन्हें तीन शल्ये नहीं सतातीं। जो समस्त कषायोंसे दूर हैं । जो संसारके समुद्र में नहीं डूबते। जो वृक्ष के नीचे पावस काट लेते हैं। जो कड़कड़ाती, आँखें बन्द करनेषाली ठण्डमें बाहर सोते हैं, जो गर्मी में आतापनी शिलापर सप करते हैं, और खुले में चान्द्रायण तप साध लेते हैं । जो भयंकर भरघटोंमें भी बीरासन और साह आसनोंमें ध्यानमग्न रहने हैं। जो धीरतामें सुमेरु पर्वत और गम्भीरतामे समुद्र हैं। चार झानोंके धारी मुनिवरको प्रणाम करके भरसने पूछा, "विझल्याने ऐसा कौन-सा तप किया जिससे वह मनुष्यकी व्याधि दूर कर देती है" ॥१-१०॥
[७] यह सुनकर महामुनिने बताना शुरू कर दिया, उन मुनिने, जो अज्ञानकी रातका अन्त कर चुके हैं, कहा, "सुनो, पूर्व विदेह में ऋद्धिसे भरपूर पुंडरी किणी नगर है। उसमें त्रिभुवनआनन्द नामक राजा था । वह लीला पुरुषोत्तम पक्रवर्ती था। उसकी अनंगसरा नामकी उन्नसपयोधरा सुन्दर कन्या थी।
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१९४
पडमचरित
सोहाग-रासि लायण्ण-णिहि। जसरहस छप जणमषण-दिहि ॥५॥ में जुआशिक जम किन्न
निमम वासीग काम-कह ॥६॥ गं मणहर चन्दण-रुख-रुय । गम्भेसरि स्यहाँ पारु गय |७|| णिरुवम-सण अइसएण सदछ । वम्मह-घाणुशिय-लील बहह ॥८॥
पचा माह-चाव-लोयण-गुणे हिं जसु दिविसरासणि लावइ । तं माणुसु घुम्माषिया दुषह जिय-जीविड पावा ॥१॥
[८]
तहि अवसर महियल पसरिय-बसु । विजाहरु गामें पुषणम्यम् ।।१।। मणि-विमाणे धूवन्त-धयगएँ। तहिँ आगि आउ मोलग्गएँ ॥२॥ णिवदिय दिट्टि ताम तहाँ ते तहैं। बसइ अणवाण सा जेसह ॥३॥ मुख्यन्द-मुह मुद्ध धाली। अहिणव-रम्भ-गरम-सोमाली ॥४॥ सहइ परिट्रिय मन्दिर मणहरें। लच्छि व कमल-वहाँ अम्मन्तरें ॥५॥ मालइ-माला-मस्य-कराएँ। णयहि विद्ध अणसरालऍ ॥ पिणु चार्वे विणु विरइय-याणे । विणु गुफेहि विणु सर-सन्धाणे १७॥ विशु पहरणहि तो वि जजरिपट । ॥ गण्ड कि पि पुणवसु परियड ८॥
घत्ता
खोयण-सर-पहराइऍण करवालु भयकर दावि । पेक्वान्तहाँ सम्वहाँ अणहाँ णिय कण्ण विमाणे चढ़ावें वि ॥२॥
अं अहिणष कोमल-कमल-करा । थरिमण्डएँ लेवि भणासरा ॥१॥ स-बिमाणु पषण-मण-गमण-गव । वेवहुँ दागबहु मि र अजज ॥२॥
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उसका अनुपमेयर
भार वहनामत था। वह
असटिमो संधि वह सौभाग्यको राशि और सौन्दर्यको निधि थी। मानो वह उत्सबके अनमबनको आनन्दभरी दृष्टि हो। मानो शरद्पन्द्रकी सुन्दर प्रभा हो, मानो विभ्रम उत्पन्न करनेवाली कामकथा हो, मानो सुन्दर चन्दनवृक्षकी लता हो। वह गर्वेश्वरी रूपकी सीमाओंको पार कर चुकी थी। उसका अनुपमेय शरीर अतिशय रूपसे शोभित था। षह कामदेवके धनुषकी लीलाका भार वहन कर रही थी। भौंहे बाप और लोधन-गुणको जब वह अपने दृष्टि-धनुषपर लाती तो उससे मनुष्य घूमने लगता और बड़ी कठिनाईसे अपने प्राण बचा पाता ।।१-९||
[८] एक दिन पूर्णवसु नामका विद्याधर जिसका कि यश धरतीमें दूर-दूर तक फैला हुआ था, अपने मणिमय विमानमें बैठकर विहार कर रहा था । उस विमानकी पताका इवामें फहरा रही थी । घूमते-घूमते वह वहाँ आया जहाँ अनंगवाणके समान वह सुन्दरी थी। वह बाला पूनोंके चन्द्रके समान सुन्दर थी और अभिनव केलेके गाभकी भाँति कामल । सुन्दर महल में बैठी हुई ऐसी सोह रही थी मानो लक्ष्मी कमलबनके भीतर बैठी हो । मालती-मालाके समान सुन्दर हाथोंषाली अनंगसराकी आँखोंसे वह विद्याधर आहत हो गया। धनुषके बिना, स्थानके बिना, डोरी और शरसन्धानके बिना, अस्त्रके बिना ही वह इतना आहत हो गया कि जर्जर हो उठा। दग्ध होकर पुनर्वसु कुछ भी नहीं गिन रहा था। आँखोंके तीरसे आहत वह अपनी भयंकर तलवारसे डराकर, सब लोगोंके देखते-देखते उस कन्याको अपने विमानमें चढ़ाकर ले गया ॥१-२॥
[२] अभिनव सुन्दर कोमल हाथों वाली अनंगसराको यह विद्याधर जबर्दस्ती ले गया। पवन और मनके समान गतिवाले
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१९६
पन
तं साहिबइ-ल- पसरा । कोबग्गि-पलिप्स फुरियवयणा | गत पधाइय तक्खणेण । "खल खुद्द पाव दक्खबहि मुटु । सं पिसुर्णेष कोषणक - अछि से पम- मिड मग्गु वछु ।
।
कह वि परोप्पर सम्यर्वे वि गिरिषरें जहर विन्दु जिह
-
कवि धणुहर-मेलिय सरेहिं । सम्वैदि णिप्पसरु णिरस्धु किउ । णास ि अरिवर-विहु घतिय धरणिय क्षणङ्गसरा । सु पण पुणब्बसु गीत-मउ | अलहन्त दत्त कृष्णहॅ तणिय । अन्तेवरु लिट विमण- मणु । अस्थाणु वि सोह ण देइ किह ।
कहिउ परिन्दद्दों किक्करेहि
सिद्धि जेम गाणेण चिणु
विजाहर पहरण गहियन्करा ॥ ॥ दट्ठाहर भू-मङ्गुन
-जयणा ॥ ४ ॥
स- जल जलय गणणेण ॥ ५ ॥
कहिँ कण्ण ऐबिणु जाइ तुहुँ" ॥ ६ ॥
सी गन्द यह बलिउ ॥७॥ पाच भवसमें कम्य दलु ॥ ८ ॥
घत्ता
स धयग्गु स हेइ स वाहणु । उत्थरि पडीधर लाइणु ॥१॥
[1]
तिणमाणन्दही किरेहिं ॥१॥ पाडिउ विमाणु परिछिण्णु धड ॥ २ ॥ तं विसरेष्पिणु पण्णलडु ||३३| पणं सरय-मियतें मोण्ह वरा ॥४॥ पणं हरिणु सरासणि सासु गउ ||५|| किर विपत्त पुरि अप्पणिय || ६ || यं तुहिण- छिन्तु सयवन्त धणु ||७|| जोवणु विणु काम कहाऍ जिह ||८||
घत्ता
"जलें भलें गयणयले गविगी । तिह अम्मूद्दि क्रष्ण ण दिट्ठी " ||९||
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अहिमो संधि
३९५ विमान में बैठा हुआ वह देवताओं और दानवोंके लिए. अजेय था | चक्रवर्तीके आदेशसे विद्याधर हाथमें अस्त्र लेकर दौड़े। उनके मुख क्रोधकी ज्यालासे चमक रहे थे, उनके अधर चल रहे थे उनकी भौह और नेत्र टेढ़े थे। उसी क्षण वे गरजते हुए दौड़े, मानो आकाशमें जलसे भरे मेध हो । उन्होंने चिल्लाकर कहा "हे दुष्ट पाप क्षुद्र, अपना मुख दिखा। कन्याको लेकर कहाँ जाता है !" यह सुनकर वह विद्याधर क्रोधसे भड़क उठा, मानो सिंह गजपदापर टूट पड़ा हो । उसने पहली ही भिडन्तमें रोमा लिनर-विनर नानी, जैसे ही जैसे मामाजी काव्यदल नष्ट हो जाता है। किसी प्रकार, एक दुसरेको सान्त्वना देकर, वजाम, अस्त्र और वाहनोंके साथ सेना इस प्रकार फिरसे उठी, मानो पहाइपर पानीकी बूंद हो ॥१-९॥
१०] त्रिभुवनआनन्दके अनुचरोंने धनुष निकालकर उनपर तीर चढ़ा लिये | सबने मिलकर उसे रोककर निरस्त्र कर दिया । उसका विमान गिरा दिया, और पताका फाड़ डाली । जब शत्रुसमूहका बह नाश न कर सका, तो उसने पर्णलघु विद्याका सहारा लेकर, अनंगसराको घरतीपर फेंक दिया, मानो शरच्चन्दने अपनो ज्योत्स्नाको फेंक दिया हो। पुनर्वसु भी, भारी भयसे भागा, मानो धनुषसे भीत हरिन हो । अनङ्गसराको न पाकर, अनुचर भी अपने नगरके लिए लौट गये । सारा अन्तःपुर इस तरह उन्मन था, मानो हिमसे आहत कमलोंका वन हो। अनंगसराके बिना दरबार वैसे ही शोभा नहीं दे रहा था, जैसे यौवन कामकथाके बिना। अनुचरोंने जाकर राजासे कहा, 'जल और थल दोनों में हमने उसे देख लिया है, परन्तु हमें कन्या उसी प्रकार दिखाई नहीं दी, जिसप्रकार ज्ञानके बिना सिद्धि नहीं दीख पड़ती ।।१-६।।
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पउमचरित
[1] एस्थन्तर छण-मियक-मुदिय । तिहुअणआणन्द-राष-दुहिय ।।५।। पण्णबहुम-विजएँ वित्त सहि। सुण्णासणु मीसणु पाणु जहि ।।२।। अहिं दारिय-करि-कुम्म-स्थकहै । उच्छलिय-धवल-मुसाहरू ॥३॥ . दुप्पैक्स-तिक्ख-णक्वकिय हैं। दोसन्ति सीह-परिसब्जिय ॥४॥ जहिं दन्ति-दन्त-मुसलाहयई। दीसन्ति भग्ग पायव-सय ॥५॥ जाहि विसम-तबर महियलें गयइँ । वणमहिस-सिंह-शुधलुक्खय ||३|| सुन्वन्ति जेन्थु कइ-बुद्धिगई। एकाठ-कोल-आरकिाय ॥७॥ वणवसह-जूह-मुह-दक्कियई। वायस-रद्धियाँ सिव-फेशिया
धत्ता तहि तेहएँ वर्षे कामसर जल-वाहिणि विउल विहावइ । धक्क-घलय-विक्रमम-गुणहि सरि पोर-विलासिणी णावह ।।९।।
[१२] तहिं जलवाहिणी-स वइसरवि । धाहाविउ कुलहरु सम्भवि ॥१।। "हा ताय ताय मइँ सन्यबाहि। हा माएँ माएँ सिर करु यहि ॥२॥ हा माइ माइ मम्मीस करें। गप वाघ सिक दुकान्त भरें ॥३॥ हा विहि हा का किंयन्त किंठ। पर वसणु काई महु दक्वविड ॥३॥ हा का कियाँ मा जिपई। अंणिहि वापि अयण हिपई ॥५॥ एहि माइड एप्साह मरणु। तो परि मुइय जिणवर सरण ।।६|| में मव-संसारहों उत्तरमि । अजरामर-पुरवर पाइसरमि" 1100 सा एम मणेवि सग्णामें थिय। हस्थ-सयहाँ उपरि णिवित्ति किय ।।८।।
घसा
परिसहुँ सहि सहास थिय पत्र-सयलम्छण-छेह जिह
तव-चरणे परिष्ट्रिय जाये हि । सउदासें दीलाइ सायहि ॥१॥
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१९९
भट्टसहिमो संधि
[११] इसी बीच पूनोंके चाँद जैसे मुखवाली, राजा त्रिभुवन आनन्दकी पुत्रीको पर्णलघुविधासे ऐसे स्थानपर फेंका जहाँ सूना भयंकर बन था। जिसमें हाथियोंके फटे हुए कुम्भस्थल पड़े हुए थे, उनमें सफेद मोती बिखरे हुए पड़े थे । दुर्दर्शनीय तीखे नखोंसे अंकित सिंह जिसमें आते-जाते दिखाई दे रहे थे। जिसमें मूसलके समान हाथी दांतोंसे भग्न सैकड़ों वृक्ष थे। जिसमें विषमतदवाली सैकड़ों नदियाँ थीं। जंगली भैंसे, जिनमें सींगोंसे वप्रक्रीड़ा कर रहे थे । जहाँ केवल बन्दरोंकी आवाज सुनाई पड़ती थी। केवल कोलोंका पुकारना सुन पड़ता था। बनके बैल जोर-जोर से रंभा रहे थे। कौए रो रहे थे और सियार अपनी आवाज कर रहे थे। उस भीषण वनमें कामसरा नामकी एक विशाल नदी थी, जो अपने टेढ़ेपन, गुलाई और विभ्रमके कारण बिलासिनी स्त्रीके समान दिखाई देती थी ॥१८२॥
[१२] उस नदी के किनारे बैठकर, अनंगसरा अपने कुलधर की यादकर रोने लगी, "हे तात, तुम आकर मुझे सान्त्वना हो । हे माँ हे माँ, तू मेरे सिरपर हाथ रख । हे भाई, हे भाई, तुम मुझे अभय वचन दो । बाघ और सिंह आ रहे हैं, मुझे बचाओ । हे विधाता, हे कृतान्त, मैंने क्या किया था, यह दुःख तुमने मुझे क्यों दिखाया ? अब जब मुझे यहाँ मरना ही है तो अच्छा है कि मैं मुखसे जिनवरका नाम लूँ, जिससे संसार समुद्रसे तर सकूँ और अजर-अमर लोकमें पहुँच सकूँ ।" यह कहकर वह समाधि लेकर बैठ गयी। साठ हजार वर्ष तक वह इसी प्रकार तप करती रही। एक दिन सौदास विद्याधरने उसे देखा, उसे लगा जैसे वह नव चन्द्रलेखा हो ।। १-२॥
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२००
पउमचरि
[12]
||१||
बुद्ध वहिँ पवर-अङ्गमे । बोलिन तो विजाहरेण । परमेसरि पमणइ सच्च सह । हाथों यह विहि -घर णिरोस उजविउ । सउदो जं सहि लक्लियज । तिहुअणभाजन्दु पधाइयउ ।
देह गिलिड र जङ्गमै " किं हम्मद अजगरु असिवरेण" ॥२॥ "कि तवसिहि जुती पाण-वह ॥३॥ सुह दुहियएँ रखिय सीळ - णिहि ॥ ४ ॥ अजयरहों सरोरु समलविद" ||५|| तं खलु गरिन् अस्य ॥ ६॥ कलम (१) कन्दन्तु परायड ॥ ७॥ यहुँ उप्पा जिणु जय मणन्ति सुखगङ्गसर ॥ ८ ॥ यि जेण सो वि तड करेंषि मुड | दसरहद्दीं पुतु सोभिति हु ||९||
दाहु पर ।
तब
घन्ता
एह वि मषि अङ्गसर उप्पण्ण बिसला सुन्दरि ।
वह तह सर्वेण जलेंग पर सहँ भुषणन्तु उद्रुद्द इरि ॥१०॥
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असमी संधि
२०१
[१३] इतने में एक विशाल अजगरने उसका आधा शरीर निगल लिया । सौदास विद्याधरने उससे कहा, "क्या तलवार से अजगरके दो टुकड़े कर दूँ ।" सब कुछ सहन करनेवाली उस परमेश्वरीने कहा, "क्या तपस्वियोंको प्राणिबंध उचित है ।" पिताजी से यह कह देना कि तुम्हारी पुत्रीने शीलनिधिकी रक्षा कर ली है । निराहार तपश्चरण कर अजगरको उसने अपना शरीर अर्पित कर दिया है।" सौदास विद्याधरने जो कुछ देखा था, वह सब राजा त्रिभुवन आनन्दको बता दिया। राजा करुण विलाप करता हुआ वहाँ पहुँचा । स्वजनोंको वह सब देखकर बहुत दुःख हुआ। जिन भगवानकी जय बोलकर, rireराने अपने प्राण त्याग दिये। जो विद्याधर उसे उड़ाकर ले गया था, वह भी तपकर, दशरथका पुत्र लक्ष्मण हुआ। यह अनंगसरा भी भरकर विशल्या सुन्दरीके नामसे उत्पन्न हुई । हे राम, उसके शरीर के स्नानजलसे, लक्ष्मण अपनी भुजाएँ ठोकते हुए उठ पढ़ेंगे ||१-१०॥
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[ ६६. एकूणसत्तरीम संधि ]
[]
विज्जाहर-वयण- रसायण
हँ पडिवा-यन्दे दिऍण
सरसैंण परचिय आहवेण | 'किं कहाँ वि अस्थि मणु सह वो जगह मणोरह मधु साधु तं वयणु सुर्णेवि मरुान्दणेण | 'महु अस्थि देव मणु सहय- अ हजाम मनोहर सुह मणा तारा-सएण वि तु एव । मामण्डलु पण 'णु सुसामि
।
से जय-पवण- सुग्गीव-सुम कहाण का विरही
।
आसासित बलह कहि मिणमा
किह । उहि हि ।।
सामन्त पज्जोइय राहवे । जो एइ अन्तएँ पय तोजी
||१||
॥ २ ॥
२५
|| ४ ||
दुखद रावण-वण-मणे
इउँ एमि अन्तएँ
हउ जीवित देमि जगदणासु' ||५||
||५||
'हउँ शृणुवह होमि सहाज देव' ||७|| । इउँ विहिँ उत्तर सक्खिण जामि ॥४॥
घता
रामहीं चलणें हिं पदिय कि । तिष्णि वि सिहुण-इन्द जिह ||९||
[ २ ]
मारूद विमाहिं सुन्दरेहिं । सुवर्णेहिं व गाणाविह सारेहिं
अमरेहि व सव-सुरेहिं ||१|| सिव-पयर्हि व मुतावद्धि-धरेहिं ॥ २॥
कामिणि-मुर्ह व वज्जलेहिं । छिन्छ- चितेहिं व चञ्चलेहिं ॥३॥ सुपुरिस-चरिएहिं व पथदिपुर्ति ॥४॥
महकह-कहिं व सुरदिहिं
1
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उनहत्तरवी सन्धि
[१] विद्याधरके वचनरूपी रसायनसे राम इतने अधिक आश्वस्त हुए कि मानो आकाशमें प्रतिपदाका चाँद देखकर समुद्र ही उद्वेलित हो उठा हो। युद्धविजेता रामने हर्षपूर्वक सामन्तोंको काममें नियुक्त कर दिया। उन्होंने कहा, "बताओ किसका मन है, जो अपने शरीरके बलपर सूर्योदयके पहले-पहले
आ जाय, जो मेरा मनोरथ पूरा कर सके, और लक्ष्मणको जीवनदान दे सके।" यह वचन सुनते ही रावणके वनको उजाड़नेवाले हनुमान्ने कहा, "हे देव, मेरे शरीरमें मेरा मन है ! मैं कहता हूँ कि मैं सूर्योदयके पहले आ जाऊँगा, मैं तुम्हारे मनकी अभिलाषा पूरी करूँगा, और मैं लक्ष्मणको जीवन दान भी दूंगा।" तारापुत्र अंगद ने भी यही बात कही कि मैं हनुमानका सहायक बनूंगा। भामण्डल बोला, “हे स्वामी, सुनिए मैं दैवयोग से उत्तरसाक्षी होकर जाऊँगा।" जनक, पवन और सुप्रीवके बेटे रामके पैरोंपर इस प्रकार गिरे मानो कल्याणके समय तीनों इन्द्र जिन-भगवान्के चरणोंमें नत हो रहे हो॥१-२॥
२] सुन्दर विमानोंमें बैठकर उन्होंने कूच किया। देवताओंकी भाँति वे विमान सबके लिए कल्याणकारी थे। चुम्बनोंकी भाँति उनमें तरह-तरह की ध्वनियाँ सुनाई दे रही थीं, शिवपद्की भाँति, सनमें मोतियोंकी कई पंक्तियों थी। सुन्दरियोंके मुखकी भाँति उनका रंग एकदम उज्ज्वल था, धेश्याओंके पित्तको सरह वे चंचल ये, महाकवियोंके काज्यके समान सुगठित थे, सजन पुरुषों की भाँति स्पष्ट और साफ थे,
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एउपरिक
धेरामहि व अलि-मुहलिएहि। मइ-चारित्तेहि व अखलिएहि ।।५।। गव-जोधणे हि व गहमागोयरेहिं । जिंग-सिरहिं व भामण्डल-धरहि ॥६॥ वयणेहि व हणुर-पसहि । पाहुणेहि व मण-मणकएहि ॥७५३ थिय सेहिं विमाणहि मशिमएहि । णं घर-फुल्लन्धुय पङ्कएहि ॥८॥
घत्ता
मण-गमणे हिँ गयणे पयट्टएहि लक्खिउ लवण-समुनु किह । महि मध्यहाँ पहयल-रक्वसेण काटि जठर-पएसु जिह ।।१।।
[३] दीसइ रयणायरु रयण-वाहु । विस घ स-बारि कन्दु व स-गाहु॥१॥ श्ररथाहु सुर्हि व हरिथ क करालु । मण्डारिउ म घहु-रयग-पालु |२| सूहव-पुरिलो व सलोण-सील। सुग्गीवु व पयस्थि-इम्दणीलु ।।३।। जिंण सुत्र-घयह व किय-वसेलु। मन्झण्णु व उप्परै पहिय-बेलु ।। ससि घ परिपालिय-समय-सारु । बुजण-पुरिसो व्य सहाव-सारु ॥५॥ णिवण-आलाचु व अपमाणु । जोइसु व मीण-कफाय-धाशु ॥३॥ मह-कहब-णिवन्धु व सा-गहिरू । चामीयर-चसय व पीय-महरु ॥७॥ तं जलणिति उल्लङ्घन्तरहि । वोहिरधइँ दिहई जन्तएहि ॥८॥ पीसीहवाई एम्विष-लाई। महरिसि-विसाई व अविचलाई ।।९।।
घत्ता अग्णु वि श्रीचन्तक जन्सऍहि तिहि मि णिहालिज गिरि महा। जो लवलि-वहाँ चन्दण-सरहाँ दाहिग-पवणहाँ थामल ॥१०॥
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एक्कासत्तरीमो संधि ब्रह्माके आसनकी भाँति भ्रमरोंसे मुखरित थे, सत्तियोंके चरितकी भाँति अडिग थे, विद्याधरोंकी भाँति नये यौवनसे युक्त थे, जिन भगवान्की श्रीकी भाँति जो भामण्डलसे सहित थे, मुखोंकी तरह भारी-भारी ठुड्डीसे युक्त थे, अतिथियोंकी भाँति जाने की इच्छा रखते थे। वे ऐसे मणिमय विमानोंमें बैठ गये, मानो भ्रमर कमलों में जा बैठे हों। मनके समान गतिवाले उन विमानांके चलनेपर लवण समुद्र इस प्रकार दिखाई दिया मानो आकाशरूपी राक्षसने धरतीके शवको बीच में से फाड़ दिया हो ।।१-२॥
[३] उन्हें रत्नाकर दिखाई दिया, रत्न उसकी बाँहें थीं। वह समुद्र विन्ध्याचलकी भाँति सवारि (हाथी पकड़नेके गड्ढों सहित, और सजल ), छन्दके समान सगाह ( गाथा छन्दसे युक्त, जलचरोंसे युक्त), सज्जनके समान अथाह, जहाजके समान भयंकर, भण्डारीके समान बहुत-से रत्नोंका संरक्षक, सुभग पुरुषकी भाँसि सलोण और सुशील (श्रासे युक्त), सुप्रीवकी भाँति इन्द्रनीलको प्रकट कर देता है, जिनपुत्र भरत चक्रवर्तीकी माँति जो बसेलु ( संयम धारण करनेवाला और धन धारण करनेवाला) है। मध्याह्नकी भाँति वेला ( तट और समय) जिसके ऊपर है। तपस्वीकी भाँति, जो समय (सिद्धान्त और मर्यादा) का पालन करता है। दुर्जन पुरुषकी भाँति जो स्वभावसे खारा है, जो गरीवकी पुकारकी भाँति अप्रमेय है, ज्योतिषकी भाँति, जो मीन और कर्क राशियोंका स्थान है, महाकाव्यकी रचनाकी भाँति जो शब्दोंसे गम्भीर है, सोनेके प्यालेकी भाँति जो पीतमदिर है ( समुद्र मन्थनके समय निकली हुई सुरा, जिससे पी ली गयी है )। उस समुद्रको पार कर जावे हुप जहाज, उन्होंने देखे, जिनमें बिना पालके लम्बे मस्तूल थे।
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पउमचरिउ
[ ५ ]
E
रसुपक- कय लि-षणइँ थियाहूँ ॥ १ ॥ जहिं हंस-उलइँ भावासियाइँ || २ || अहिं माह कलेशी वणाइँ ॥ ३ ॥ कमलिन्दीवरहूँ समल्लियाहूँ ||४|| कोहल - कुछ हूँ कसराइँ थियाइँ ||५|| जहिं णिम्व-दहहूँ कहाँ कियाई ॥ ६ ॥ वरहिण-कुछाएँ रोबाविया हूँ ||७|| दाहिण - महुरऍ आसण्ण ताथ ॥८॥
घत्ता
वहिं जुबइ एऊरु-परक्रियाएँ
कामिनि गइ - छाया - मंसिमाएँ । कर-करमल-श्रहामिय-मणाएँ
I
जत्रियण-णयण-पद्द-धलियाइँ ।
यहिं महुर-वाणि अवहथियाएँ । भउद्दाषलि- छाया बक्कियाहूँ । जहिँ चिहुर मार- ओहा मियाइँ । तं मउ मुवि विहरन्ति जाब ।
तु-सिहरु कोडावणउ ।
किष्किन्ध-महागिरि विलय डरमियहें उहड़ - विलासिनि उर-पपसु सोहावगट ॥ ९ ॥
[ ५ ]
जहिँ इन्दणोल-कर-मिजभाणु ।
ससि या जुष्ण-दप्पण- समाणु || १||
अद्दि पचमराय-कर- तैय-पिण्डु |
रतुप्पल-सणिहु हो चण्ड ||२||
तं मेलें विरहच्छलिय-गत |
जहिं मरगय-खाणि वि बिष्फुरन्ति । ससि-विम्बु भिसिणिपत्सु व करन्ति णिविस सरि कावेरि पन्त ||४|| महकण्य कहा इव कवरेहि ||५|| तिव्यक्करवाणि व गणइरेहिं ॥ ६॥
जा इस विवि गरवरेहिँ । सामिय- आगा इव किङ्करेदि ।
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एक्कुणसतरीमो संधि
२०० जो महामुनिके चिचकी भाँचि एकदम अडिग थे। थोड़ा और जानेपर, उन्होंने मलय पर्वत देखा। वह मलय पर्वत जो लवली लताओं, चन्दन वृक्षों और दक्षिण पधनका घर है ॥१-१०॥
[४] जिस पर्वतपर, युवतीजनोंके पैरों और जाँघोंको जीतनेवाले रक्तकमल और करली वृक्ष हैं। सुन्दरियोंकी चालका आभास देनेवाले हंसकुल बसे हुए हैं। जिसमें कर और करतलोका मन नीचा कर देनेवाले मालती और कंफेलीके वृक्ष हैं, जिसमें मुख और नेत्रोंकी आभाको पराजित कर देनेवाले कमल और इन्दीवर एक साथ मिले हैं। जिसमें मीठी बोली को अवहेलना करनेवाले काले कोयलकुल हैं । जिसमें भौंहॉकी छायासे भी कुटिल और कड़वे नीमके दल हैं। जिसमें बालोंकी शोभाको क्षीण कर देनेवाले मयूरोंके कुल सुन्दर नृत्य कर रहे हैं । उस सुन्दर मलय पर्वतको छोड़कर विहार करते हुए वे लोग दायें मुड़े वहाँ उन्हें किष्किन्धा पर्वतराज दिखाई दिया। कुतूहल उत्पन्न करनेवाले उसके शिखर ऊंचे थे। वह ऐसा लग रहा था मानो रमणशील धरतीरूपी विलासिनीका सुहावना उर-प्रदेश हो ॥१॥
[५] जिसमें इन्द्रनील मणिकी किरणोंसे धूमिल चन्द्रमा एक पुराने दर्पणकी भाँति लगता था। और फिर बड़ी चन्द्र पद्मराग मणियों की किरणोंसे इतना दीप्त हो उठता था कि रक्तकमलोंके समान प्रचण्ड दिखाई देने लगता। जहाँ चमकती हुई पत्रोंकी खदान चन्द्र बिम्बको कमलनीका पत्ता बना देती । हर्षेसे पुलकित, वे लोग मलयपर्वतको छोड़कर, आधे ही पलमें कावेरी नदीपर पहुँच गये। उन्होंने उस नदीको विभक्तकर, असी प्रकार पार कर लिया, जिस प्रकार कविवर महाकाव्यको कथाके दो भाग कर लेते हैं, या जिस प्रकार अनुचर अपने
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२०८
पउमचरित्र
मित्रासयति । पुणु दिट्ठ महाग तुङ्गम ।
असहन्ते वणदण-पत्रण-क्ष
स सुद्द्ध विसा
सन्तबाहि ॥७॥ करि-मयर-मच्छ ओहर-रउड || ४ ||
पुणु दिन पवाहिणि किरण | पुणु इन्द्रणील-कण्ठिय-धरेण ।
पुणु सरि मीमरहि जलोह-फार पुणु गोला
घन्ता
सह-किरण - दिवायरहो ।
जोड़ पसारिय सायरहों ||१||
[६]
किवि पति व महि-सिण || दक्खनिय समुद्दों भायरेण ॥२॥ जा सेउण - देसी अमिय-धार ॥२॥ सज्झेण पसारिणाएँ वाह || ४ || णं कुडिल-सहाव कामिणी ||५|| सजण मेति अलद्ध-धाह ||६||
मन्थर-पवाह ।
प्रणु वेण्णि पडव्हिड वाहिणीउ । पुणु तावि महाणइ सुप्पवाह । थोवन्तराखें पुणु विष् याइ । पुणु रेवा-ह हणुमूि
सीमन्त मिहिमि तगढ गाइ ॥ * ॥
स्वामिन्द्रिय रोस वलङ्गपुईि ॥८॥
'किं विपासि उषहि चारु । जो स-विसु किविणु अञ्चन्त खारु ॥ ९ ॥ निमच्छिय हयल- भोयरेण ॥१०॥
निसुर्णेवि सी-सोयरेण ।
घत्ता
जं चि मुबि गय सागरहों मा रूस रेवा-इहें । गिल्लीणु मुझइ सलोगु सरड्
णिय-सहाउ ऍड तियम है || ११||
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एजुगलसरीमो संधि
२०९ स्वामीकी आज्ञाको, जिस प्रकार गणधर जिनपरकी वाणीको, जिस प्रकार तार्किक शिव शाश्वतरूपी मोतीको, जिस प्रकार वैयाकरण उत्तमशब्दोंकी उत्पत्तिको तोड़ लेते हैं। फिर उन्हें तुंगभद्रा नामक महानदी मिली, जो हाधियों, मगर-मच्छ और ओहरोंसे अत्यन्त भयानक थी। वह ऐसो लगती थी, मानो संध्या असह्य किरण सूर्य की सीमान्ती हवाओंको सहन नहीं कर सकी और प्यासके कारण उसने सागरकी ओर अपनी जीभ फैला दी हो ।।१-९॥
[६] धरतीपर बहती हुई काले रंगकी वह नदी ऐसी लगी भानो किसी कंजूसकी उक्ति हो । मानो इन्द्रनीलपर्वतने आदरपूर्धक उसे समुत्रका रास्ता दिखाया हो। अपने जलसमुहके विस्तारके साथ वह नदी घूम रही थी, वह नदी जो सेउण देशके लिए अमृतकी धारा थी। फिर उन्हें गोदावरी नदी दिखाई दी, जो ऐसी लगती थी मानो सन्ध्याने अपनी बाह फैला दी हो। सेनाओंने उन नदियोंको जब पार कर लिया तो ऐसा लगा मानो किसी आदमीने कुटिल स्वभावकी स्त्रीको अपने पशमें कर लिया हो। उसके बाद वे महानदीके पास पहुँच, सज्जनके समान जिसकी थाह नहीं ली जा सकती। उससे थोड़ी दूरपर विन्ध्याचल पहाड़ था, मानो धरतीका सीमान्त हो । सहसा क्रुद्ध होकर हनुमान्ने रेवा नदीको निन्दा की और कहा, "विन्ध्याचलकी तुलनामें समुद्र सुन्दर है, वह समुद्र जो विषसहित (जलसहित) है, जो कृपण है और अत्यन्त खारा है।" यह सुनकर आकाशवासी विद्याधर भामण्डल ने कहा, “विन्ध्याचलको छोड़कर, रेवा नदी जो समुद्रके पास जा रही है, इसके लिए उसपर क्रोध करना बेकार है, क्योंकि यह तो स्त्रियोंका स्वभाव होवा है कि वे असुन्दरको छोड़कर सुन्दर के पास जाती हैं।। १.११॥
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२१०
पउमचरिउ
[ ७ ]
पुणु उज्जयण गिविसेण पत ॥१॥ । रामोवरि वच्छल लक्षणों ॥२॥ अमुणिय-कर- सिर-तणु षम्मही ० ॥३॥ पुणु पारियन्तु मालवड दुइ ॥४॥
सागम्य दूरन्तरेण दत्त । जहि जणवड स-धणु महा-घणोच्च गुणवन्तउ घणुहर-सङ्गो ग्व सविस्मय उणि मुक्क । जो घण्णा किड णरवई व्व । सं मे विजया पर पवष्ण जा कसिण भुअवि बिसही भस्थि घोषन्तर जळजिम्मळ वस्त्र ।
उच्छुहणु कुसुमसरु रवद्द् व्य ||५|| जा अल-जल-गवला कि - यण्ण ।।६।। कलह व घदरे घरि ॥७॥ ससि सङ्ग समप्पह दिट्ट गङ्ग || ||
घत्ता
अब विहिं गरुड कवशु जपें हिमवन्तणं अवहरे विशिष
थोरै तिहि मि भजा दिन | जहिं मिहुई आरम्मिय- स्याहूँ । पाहुन इव अवरुह्मण-मणाएँ । अविचल रजा इव सु-करणाएँ ।
जुषि भाएं मरण । धम-वाय रणायण ||९||
[]
पुणु सिद्धिरिहिं सिद्धि व पट्ट ॥१॥ पन्धिम इव उच्चाइय-पयाइँ ॥२॥ गिरिवरयन्ता इव सब्बजाएँ ३३ ॥ रिसिवल इव साव-परायणाएँ ॥
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एकुणसत्तरीमो संघि
२ . [७] उस नर्मदा नदीको भी, उन्होंने दूरसे छोड़ दिया। वहाँसे वे पलभरमें उज्जैन पहुँच गये । वहाँ जनपद महामेघकी भांति सधन ( धन और धनुष ) था जो रामपर लक्ष्मणकी ही भाँति स्नेह रखता था, जो धनुर्धारीके संग्रह के समान गुणोंसे युक्त था, जो कामदेवही जरद कर { *ग और देना ) सिर ( अंग और श्री ), तनु (शरीर) को कुछ भी नहीं गिनता था। उन्होंने खोटी महिलाकी भाँति, उज्जैन नगरीको भी छोड़ दिया। फिर चे, पारियात्र और मालव जनपद पहुँचे। वह मालव जनपद, राजाकी भाँति,-धन्य (जन और पुण्य ) से युक्त था। ईख ही उसका धन था। कामदेवकी भाँति वह कुसुममाला धारण करता था। उसे पार कर, वे यमुनाके किनारे जा पहुँचे, जो आर्द्र मेघोंके समान श्यामरंगकी थी। जो नागिनकी भाति काली थी, और विष (जल-जहर) से भरी हुई थी, जो ऐसी जान पड़ती थी, मानो धरतीपर खींची गयो काजलकी लकीर हो। उसके थोड़ी ही देर बाद, गंगा नदी पन्हें दीख पड़ी, उसको तरंगें जलसे एकदम स्वच्छ यी, चन्द्रमा
और शंखके समान जो शुभ्र थी। मानो वह कह रही थी, दोनोंमें, जयसे कौन गौरवान्वित होती है, आओ इसी ईर्ष्यासे लड़ लें। या वह ऐसी लगती थी मानो समुद्र ठपूर्वक हिमालयको ध्वजा ले जा रहा हो ।।१-६॥
[4] थोड़ी ही देर बाद, उन्हें अयोध्या नगरी दिखाई दी, उन्होंने उस नगरी में इस प्रकार प्रवेश क्रिया, मानो सिद्धिनगरमें सिद्धिने प्रवेश किया हो। वहाँ जोड़े आपसमें रतिक्रीड़ा कर रहे थे, पथिकोंकी भाँति, उनके पैर ऊँचे थे, अविधिकी भाँति, जो आलिंगन चाह रहा था, गिरिवरके शरीरकी भाँति, जिसमें सब कुछ था, अविचल राज्यकी भाँति, जिसके पास सभी
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२१२
पवमचरिड
धणुहर इव गुण-मेल्लिय-सराई। पुणु णस्वर मंदिर गय तुरन्स । सग्गाषयार जम्मामिल। तित्ययर-परम-देवा, जाई।
महरत्ता इस पहराउराई १५|| मुणि-सुरुवय-जिण-मजला गन्त ॥६॥ मिक्खवणे गाणे पिंडदाणच्छएँ ।।५।। पञ्च वि कहाणइँ होन्ति ताई १८॥
पत्ता
'महि मन्दर सायर जाव बहु जाव दिसठ महणाइ-जल है । राज होन्तु ताय मिण केराई पुण्ण-पबित्तहँ मङ्गलहँ' ।।५।।
ते मङ्गल-स पहु विउद्ध। पंछण-मवलम्हणु मर-अक्षु ।।१।। णं उभय-महीहर तरुण-मितु। मानस-सरु रवि-किरणछित्तु ॥२॥ णं वाह-छोलु केसरि-किसोरु । णे सुरवा सुर-बहु-चित्त-चोरु ॥३॥ अश्ते बहु-मणि-गण-चिया । लविषय विमाणई खचिया ।।। पंणहयल-कमलई विहसिया। समण-वयणाई व पहसिया ॥५॥ णिकारणे जाएँ पप्फुल्लिया.। सुकलतइँ गाई समलिया ॥६॥ गिट्टि विमाणे हि संहिं वीर। सम्वाहरणालतिय-सरीर ॥७॥ परिपुरिछय 'तुम्हें पय केथु । किं मायापुरिस पहुक एन्धु ॥८॥
घत्ता
स-समय
कि अवयवे हि अच्छकरिय । कितिषण वि हरि-हर-चढवयण बाएं से श्रवरिय' ॥५॥
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सतमो धि
साधन थे, मुलकी भाँति जो की भूमिका पहुँच चुका था। धनुर्धरकी भाँति जो गुण मेल्लितसर, ( डोरी से तीर छोड़ रहा है; जिसके स्वर में गुण हैं ) जो अर्धरात्रिकी भाँति, प्रहरों ( पहरेदार, अस्त्र ) से पूरित हैं। फिर राजा शीघ्र ही मुनिसुव्रत भगवान् के मंगलोंका गान करते हुए, मन्दिर में गया। उसने कहा स्वर्गावतार में, जन्माभिषेक में, दीक्षा के समय, ज्ञान प्राप्ति और निर्वाणकी सिद्धिमें तीर्थंकरोंके जो पाँच कल्याण होते हैं वे होते रहें। जबतक यह धरती, मन्दराचल, सागर, आकाश, दिशाएँ और महामदियोंका जल है तबतक जिन भगवान के परमपवित्र पंचकल्याणक होते रहें ।। १-९॥
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[९] मंगल शब्द से राजा सहसा इस प्रकार प्रबुद्ध हो उठा, मानो पूनोका चाँद हो, मानो उद्याचलर तरुण सूर्य हो, मानो सूर्यकी किरणोंसे विकसित मानस सरोवर हो, मानो किशोरसिंह बाललीला कर रहा हो, मानो सुरबालाओं के चित्त को चुरानेवाला इन्द्र हो । उठते-उठते उसने देखा तरह-तरह के मणिसमूहसे जड़ित विमान आकाशतल में खचाखच भर गये । वे ऐसे लगते थे, मानो आकाशतल में कमल खिले हों, वे विमान सज्जनोंके मुखकी भाँति हँसते-से दिखाई देते थे । वे निष्कारण खिले हुए थे, अच्छी स्त्रीकी भाँति, एक-दूसरे से मिले हुए थे । उन विमानों में वीर दिखाई दिये, उनके शरीर सभी तरह के अलंकारोंसे अलंकृत थे। उसने पूछा, “तुम कहाँसे आये, क्या यहाँपर कोई मायापुरुष आ पहुँचा है। हेमन्त, ग्रीष्म और पावस ऋतुओंने अपना एक-एक अंग सजा लिया। लगता था, जैसे विष्णु, शिव और ब्रह्माने इसी रूपमें अबतार लिया हो ॥१-२||
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२५४
परमचरित
[१०] बयणेण तेण भरहही तणेण । बोलिजह जणयहाँ पन्दणेण ॥१॥ 'इन मामण्डल डावन्त हु । उह अजाउ रहसुलिय-रेहु ।। तिपिण पि आइय कोण जेण। सुणु भक्तमि किं वहु-विन्धरण ।।३॥ सीयह कारण रोसिय-मणा। रणु घटाइ राहच-रावणाहूँ ।।४।। लक्रमणु सस्तिएँ विणिमिण्णु तेरधु । दुबरु जीवइ ते आय एन्धु' ॥५॥ तं वयणु सुणे वि परिपीलिएलु । णं कुलिस-समाहउ परिड सेल ।।६।। गं 'पवण-काले सग्गही सुरिन्दु । उम्मुछिड़ कह वि कह विरिन्दु ।।७।' दुक्ला उरु पाहावणहि लग्गु । पुण्ण-कस्सएँ हरि व मुअन्तु सगु!1८11
पत्ता 'हा पइँ सौमित्ति मरन्तऍण मरइ निरुत्तर वासरहि । मत्तार-विवणिय गारि जिह अज्ज अण्णाहीह्रय महि ॥९||
[1] हा मायर एकसि देहि पाय। हापई विणु जय-सिरि विहव जाय ॥॥ हा मायर महु सिरे पविड गयणु । हा हियउ फुव दक्वहि चयणु ।।२।। हा भायर वरहिण-महुर-त्राणि । महु णिवटिओऽसि दाहियात पाणि ||३|| हा कि समु जल-णियहु खुट्छ। हा किह दिइ कुम्म-कमा फुटु ।।४।। हा किह सुरवा लच्छिएँ विमुक्छ । हा किह जमरारहों मरणु दुम् ।।५।। हा किह दिणयस कर-णियर-चतु । ठा किह अण दोहग्गु पतु ॥६॥ हा चलि हुभा केम मेरु । हा केम जाउ गिद्धणु कुवेरु ॥७॥
धत्ता हा णिविमु फिह घरणिन्दु थिउ प्पिप्प? सस्मि सिहि सायलउ । टलटलिहूई केम महि कम समीरणु णिचलउ ॥८॥
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पुणसत्तरी मो संधि
२.५ [१०] भरतके ये शब्द सुनकर जनकपुत्र भामण्डलने निवेदन किया, "मैं भामण्डल हुँ। यह हनुमान है. वह रहा अंगद, जिसका शरीर हर्षातिरकम उछल रहा है, हम तीनों जिसलिए आपके पास आये हैं उसे आप सुन लीजिए, उसे फैलाकर कहने में क्या लाभ ? सीताके कारण एक-दूसरेपर क्रुद्ध राम और रावण में भयंकर संघर्ष चल रहा है। वहाँ लक्ष्मण शक्ति से आहत होकर पड़े हैं, और अब उनकी जिन्दगीका बचना कठिन हो गया है।" यह सुनकर वह पीड़ित हो गये, मानो वन से चोट खाकर पर्वत ही टूट पड़ा हो । मानो च्युत होने के समय स्वर्गसे इन्द्र गिरा हो । यही कठिनाईसे राजा भरतकी मूर्छा दूर हुई। भरत विलाप करने लगे, "हे लक्ष्मण, तुम्हारी मृत्युसे निश्चय ही राम जीवित नहीं रह सकते, और यह धरती भी तुम्हारे बिना वैसे ही अनाथ हो जायगी जैसे बिना पनिके स्त्री ॥१-५॥1
[१] "हे भाई, तुम एक बार तो बात करो, तुम्हारे अभावमें विजयश्री विधवा हो गयी। हे भाई, मेरे ऊपर आसमान ही टूट पड़ा है। मेरा हृदय फूटा जा रहा है, तुम अपना मुखड़ा दिखाओ। हे मोर-सी मीठी याणीवाले मेरे भाई, मेरा तो दायाँ हाथ टूट गया है। अरे आज समुद्रका पानी समाप्त हो गया या कछुएकी मजबूत पीठ ही फूट गयी है। इन्द्र लक्ष्मीसे कैसे वंचित हो गया है, यमराजका अन्त कैसे आ पहुँचा है, सूर्यने अपना किरणजाल कैसे छोड़ दिया है, कामदेव कैसे दुर्भाग्यप्रस्त हो उठा है ! अरे, सुमेरु पर्वत कैसे हिल उठा, और कुबेर निधन कैसे हो गया ! अरे सपराज विधविहीन कैसे हो गये । चन्द्रमा कान्तिरहित है और आग ठाट्टी है। धरती कैसे डगमगा गयी. हवा कैसे अचल हो गयी ॥१-८||
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पउमचरित
[१२] सम्मइ स्यणायरें रयण-वाणि। लम्भह कोइलु-कुले मरम्बाणि ॥ लहमह चन्दणु गिरि मस्य-सिकें। लामा सुहवतणु जुबइ-अझै ॥२॥ सम्म धणु धणऐ. घरा-पवण्णु। लमइ कवाय-पावऍ सुवण्णु ॥१॥ कमाइ पेसण सामिय-पसाङ । लमह कि विणएँ जणाणुराड ॥७॥ लम्सह सजणे गुण-दाप्य-कित्ति। सिप भसिंचरें पुरु-कुले परम तिति ।।५।। सदमह बसियरणे कलस-रयणु। महकन्ध सुहासिब सुकइन्वयणु ॥६॥ लभा उपयार-महऐं सु-मित्तु। महि विलासिणि-बार-वितु || लटमइ पर-तोर महन्धु भण्हु । वर-वेलु-मूल वेडुज-खण्डु ।।८।।
घसा
गएँ मात्तिउ सिकल दी मणि बहरागरहों यज पडरू । आयइ सम्बई मन्ति जएँ णघर ण एक मइ माइ-वरु' ॥॥
[३]
रोवनी दसरह-गन्दणेण । धाहाचिउ सन्चे परियणेण ||॥ दुखाउरु रोबइ सयलु लोड। णं च चि चप्पे वि भरिट सोड ॥२॥ रोवह मिश्चय समुरइत्थु । कमल-सपढ़ हिम-पवण-उत्थु ॥६॥ रोबइ अन्तेउरु सोय-पुण्णु। णं छिन्नमाणु सङ्क-उलु बुपणु ।।३॥ रोवाइ अवराव राम-जणणि। केम दाइय-तरु-मूल-खाणि ।।५।। रोवा सुष्पह विच्छाथ जाय। रोवइ सुमित्त सोमिसि-माय ॥६॥ "हा पुस पुत केहि गओऽसि । किह सत्तिएँ पक-स्थल हओऽसि ॥॥ हा पुत्त मरन्तु ण जाइओऽसि । दहषेण केण विच्छोझोऽसि ||
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1
एक्कुमो संधि
·
[१२] रत्नाकर में रत्नोंकी खान पायी जाती है। कोयल कुल में मीठी बोली मिलती है। मलय पर्वत में चन्दन मिलता है, युवतियोंके अंगमें सुख मिलता है, कुबेरसे धरतीभर सोना मिलता है, सोनेकी आगसे सुवर्णकी प्राप्ति होती हैं, सेवासे ही स्वामीका प्रसाद मिलता है, विनय करनेपर ही जनताका प्रेम मिलता है, सज्जन होनेपर ही गुण, दान और यशकी उप लब्धि होती है, असिवर में श्री और गुरुकुलमें परम वृप्ति मिलती है। वशीकरणसे स्त्रीरत्न मिलता है, महाकाव्य में सुभा पित और सुकविवचन मिलते हैं। उपकार करनेकी भावना में अच्छा मित्र मिलता हैं, कोमलतासे ही विलासिनीके सुन्दर चित्तको पाया जा सकता है, शत्रुके निकट, महामूल्य संघर्ष मिल सकता है, उत्तम वैदूर्य पर्वतके मूलमें वैदूर्यमणिका खण्ड मिल सकता है। हाथी में मोती सिंहलद्वीपमें मणि, वञ्चपर्वतसे विशाल वत्र मिल सकता है, विजय मिलनेपर ये सब चीजें प्राप्त की जा सकती है, परन्तु अपना सबसे अच्छा भाई नहीं मिल सकता ॥१-९२॥
5
२१०
[१३] दशरथ पुत्र भरतके रोनेपर, उसके सच परिजन फूटफूटकर रोने लगे। दुःखसे भरकर सारे लोग रोने लगे । कणकण शोकसे भर उठा। समुद्रहस्त और भृत्य समूह रोने लगे, मानो हिमपवनसे आहत कमलसमूह हो । शोकसे भरकर समूचा अन्तःपुर रो पड़ा, मानो नष्ट होता हुआ दुःखी शंखसमूह हो । रामकी माता अपराजिता रोने लगी, पतिके वंश वृक्ष की जड़ खोदनेवाली कैकेयी भी रो उठी । कान्तिहीन होकर सुप्रभा रो पड़ी। सौमित्र ( लक्ष्मण ) की माँ सुमित्रा रो रही थी, "हे बेटे, तुम कहाँ चले गये । शक्तिसे तुम्हारा वक्षस्थल कैसे आहत हो गया है, हे बेटे, मरते समय तुम्हें न देख पायी, हा,
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२१८
पउमचरित
घत्ता रोवम्तिएँ लक्सम-मायरिएँ सपलु लोस रोमानिया। कालण्णएँ कम्य-कहाऐं जिह को ष ण सु मुभाषियड ।।१॥
[ १] परिहरवि सोउ मरहसरेण । करवाल लाइउ दाहिण-करेण ।।१।। रण-भेरि समाहप दिण्ण सल। साहणु सम्णधु अलर सङ्घ ॥२॥ रह जोतिय किय करि सारि-सज। पक्वरिय सुरणाम जय-जसज ॥1 साहसु सण्णासह मरहु जाय। भामण्डलेण विण्णसु ताचें ॥४॥ 'पाइँ गएँण घि सिम्स पाहि कल । तं करि हरि जीवह जेण अज ॥५॥ जइ दिण्णु विस सणड पहष्णु । तोअक्वहिपेसणु नकिउ कवणु'॥६॥ तं वपणु सुणेप्पिणु भण राउ । 'किं सलिलें सजे विसल्ल जाउ' || पषिय महल्ला गय तुरन्त । कउसिकमाल णिबिसेण पत्त ॥८॥
विष्णविड णबेप्पिणु दोणवणु 'जीविउ देव देहि हरिद। णीसरउ ससि वयस्थलहरे जलेग विसालासुन्दारहें' ॥९॥
[१५] एलक्षिय वोल परिचण्ण जाव। केकर सम्पाविय सहि जि ताघ ॥१॥ पवेप्पिणु मायरु बुसु नीएँ। 'करें गमणु विसल्ला-सुन्दरि ।।२।। जीवउ लक्षणु हम्मउ दसासु। परन्तु मणोरह राहवासु ।।३।। आणन्दु पचदउ जापाई हैं। सणु सारड दुपाय-महाण है ।।४।। अण्णु बि बिसाल तहाँ पुष-दिग । करगउ करयलें सम्भाव भि' ||4||
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एकुणसत्तरीमो संधि
२५९ किस विघाताने तुमसे बिछोह करा दिया। लक्ष्मणकी माँके रोनेपर समूचा लोक रो पड़ा। भला, करुण काव्यकथा सुन. कर किसकी आँखोंसे आँसू नहीं गिरते ॥५-२||
[१४] भरतने अपना सब दुःख दूर कर दिया। उन्होंने दायें हाथमें तलवार ले ली। रणभेरी बजषा दी, और शंख भी बज उठे । असंख्य सेना तैयार होने लगी। रथ जोत दिये गये, हाथियोंपर पालकी रखी जाने लगी, जय और यशसे युक्त अश्वोंके कवच पहनाये जा रहे थे। इस प्रकार हर्पसे भरकर भरत तैयार हो ही रहे थे कि भामण्डलने उनसे निवेदन किया, "आपके जानेसे भी कोई काम नहीं बनेगा, आप तो ऐसा कीजिए जिससे लक्ष्मण आज ही जीयित हो उठे । यदि आपने विशल्याका स्नानजल दे दिया, तो बताइए कौन-सी सेवा आपने नहीं की" | यह नाना सुनकर भरतन्ने का, "स्नान जल तो क्या, स्वयं विशल्या वहाँ जायेगी। उसने मन्त्रियोंको भेज दिया, वे भी तुरन्त वहाँसे चल दिये, और कौतुकमंगलसे पलभरमें पहुँच गये। मन्त्रियोंने प्रणामपूर्वक राजा द्रोणघनसे निवेदन किया, “लक्ष्मणको जीवनदान दें। विशल्याके स्नान-जलसे कुमार लक्ष्मणके वक्षसे शक्ति निकाल बीजिए" ।।१-९॥ - [१५] यह बातें हो ही रही थीं कि कैकेयी वहाँ आ पहुँची। प्रणाम करके उसने अपने भाईसे कहा, "विशल्या सुन्दरीको फौरन भेज दो। लक्ष्मणको जीवित कर दो, जिससे वह रावण का वध कर रामके मनोरथ पूरा करने में समर्थ हो । जानकीका आनन्द बढ़ सके और वह दुःखकी नदी पाद सके । और फिर विशल्या तो उसे पहले ही दी जा चुकी है, सद्भावोंसे भरपूर उसे उसके हाथ में दे दो।" यह वचन सुनकर राजा द्रोणघन
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२२०
पउमचरित
तं वयण सुर्णे वि परितुटु दोणु । 'उठ गारायणु अखय-सीमु' ॥६॥ पट्टत्रिय घिसा खणन्तरेण । सहुँ कपणा-सहासे उत्तरेण ||७|| गय जयकारेपिणु दोणमहु। कंबइम पराइच णियय-नोहु ।।
इशुवनय-मामण्डल-भाह गं मजा-पदेसें पइष्ट्रिय
दिट्ट विसल्ला-सुन्दरिएँ । घर मयरहर वसुन्धरिएँ ॥१॥
[१६] स वि णयणकडक्खिय चुनहिं । सिय णाव चद्ध मि दिस-गएहिं ।।। में पुलस्य णव-जीलुप्पहाच्छ । घबसाउ कान्तहाँ कहाँ पा सचिन ॥२॥ पुणु पोमाइड लक्रवणु कुमारु। संसारही स एस सारु ॥५॥ अ जोषिउप वि कह घि पतु । तो घाउ जसु पहाड कल' ||| मामण्डलेण कोकाविबाट । बहुणियय-त्रिमाणे चहाविया ॥५॥ तिणि वि संचल गहाणेण । गय कङ्क पराइब तक्षरेण ॥६॥ जिह जिह कष्णव इकन्ति पाउ । तिह सिह विमलीहून दिसाउ ॥७॥ रामेण वुत्त 'जम्बव विहाणु। लइ अप्पर दाम हरि समाणु' ॥४॥
घसा
पीरिज शहदु विष्छरुपण 'जणिय विसल्लएँ विमक दिसि । कि कहामि महारा दासरहि तिहि पहरे हि सम्मघाइ पिसि ॥९॥
[१ ] ण बिहाशु ण माणु मोहरीहै। उ तेज विसला सुन्दरीह' ॥१॥ वल सम्वष वे पि धनति जाप। जीसरिय सरीरहों सत्ति ताय ॥२॥ शुषणाकणाई पर-णरबराउ । णं णम्म विम्मा-महोहराठ ॥३॥
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एकुणसत्तरीमो संधि बहुत सन्तुष्ट हुए । उन्होंने कहा, "हे अक्षय तृणोर लभमण, तुम उठो"। एक ही क्षणमें उसने विशल्या सुन्दरीको भेज दिया, उसके साथ एक हजार कन्याएँ और थीं। राजा द्रोणजेयकी अच बोलकर, कैकेयी अपने घर चली आयी । हनुमान भरत और भामण्डलको विशल्या सुन्दरीने इस प्रकार देखा, मानो बीच में स्थित धरतीने चारों समुद्रको देखा हो ॥१-९||
[१६] अजेय उन लोगोंने विशल्याको देखा, मानो चारों दिग्गजोंने लक्ष्मीको देखा हो । नीलोत्पल के समान आँखोंवाली उसे रोमांच हो आया। उदाम करनेपर, लक्ष्मी किसे नहीं मिलती। उन्होंने लक्ष्मणकी प्रशंसा की और कहा, "संसारका सार बस यही है, यदि किसी प्रकार लक्ष्मण श्रीषित हो आप तो वह धन्य है, क्योंकि उसकी यह पत्नी है।" तत्र भामण्डलने उसे पुकारा और शीघ्र ही अपने विमानपर चढ़ा लिया। वे तीनों आकाशमागसे चल पड़े। शीघ्र ही वे लंका नगरी पहुँच गये। जैसे-जैसे यह कन्या निकट पहुँच रही थी, वैसे वैसे, दिशाएँ पवित्र होने लगी। तब रामने कहा, "लो जामवन्त अब सवेरा होना चाहता है, मैं भी लक्ष्मणके समान अपने आपको जला दूंगा!" तब सुप्रीवने रामको ढाढस बँधाते हुए कहा कि ये दिशाएँ तो विशल्याके प्रभावसे निर्मल हुई हैं, "हे आदरणीय राम, अभी यह क्या कह रहे है, अभी तो तीन पहर रात बाकी है" ॥१-६|
[१७] उसने कहा, "न सवेरा है और न सूरज, वह तो सुन्दरी विशल्याका तेज हैं । राम और जाम्बवान में जब ये बाते हो ही रही थी कि इतने में लक्ष्मणके शरीरसे शक्ति ऐसे निकली, मानो परमपुरुषके पाससे वेश्या निकली हो, मानो विन्ध्याचल
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२२२
पडमचरित
पं सह-माल पर कहवराउ । णं दिव्य पाणि तिथङ्कराउ ॥४॥ एरथन्तर अम्बरें धगधगन्ति । पवपापे-तणएं धरिय अन्ति ॥५॥
पेस वियब पारवरेण । णं पवर महाण सायरेण ॥शा पविय वेषमित भमोह-सत्ति। मं धरै मं धरें भुगू मुऐं दवति ॥७॥ जउ दुख-सवत्तिहँ समुहु थामि ! पद अच्छउ हउँ णिय-गिसउ जामि ॥८
पत्ता
असहन्तिहें हियय-विणिगायाँ कपणु पस्थ मासुवरण । सम्ब] मत्तारें घत्तियाँ कुल-बाहुबह कुलहरु सरणु ॥९॥
किंण मुणिय पइँ महु तणियथति । हउँ सा णामेणामोह-सत्ति । कहलासुदरले भयावपासु। धरणिन्द दिण्णी रावणासु ॥२॥ सनाम-का करखणहाँ मुक। हस्मिाण विव गिरि दुइ ॥३॥ असाइम्ति विसला तणज सेउ । पासमि फग्गी विकरहि खेउ ॥३॥ भाषऍ अवलम्ब वि परम-बीद। अण्णाई सम्मान्तरें चोर-वीरु ५ सव-परणु णिरोसा पिण्णु ताई। गम बरिसहुँ सहि सहास जा'१५॥ हषुएण दुस् 'जइ स देहि। तो मुयमि पडीवी माह ण एहि ॥७॥ विजएँ पमणि 'लइ विष्णु दिग्णु । णड मिणमि मिह एवहि विमिष्णु ॥८ तं णिसुधि पवन-सुपण मुक्क। विहरफर गर जिय-णिलउ तुरु॥ एप्तहें वि ताप सरहस पहट्ट । स-वलेण बलेण विसच दिट्ठ ॥ १॥
पत्ता सिउ सम्ति कति हरन्ति बुहु सीयहं रामही लक्षणहाँ। मत्याका मधिलि जिद छ जहाँ रावणहाँ ॥१॥
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एक्कुणसत्तरीमा संधि
२२३ से नर्मदा निकली हो, मानो श्रेष्ठ कविसे शब्दमाला निकली हो, मानो तीर्थकरसे दिव्य वाणी निकली हो। वह शक्ति, आकाशमें धकधकातोजाही रही थी कि हनुमानने उसे ऐसे पकड़ लिया मानो श्रेष्ठ नरने वझ्याको पकड़ लिया हो, मानो समुद्रने विशाल नदीको पकड़ लिया हो । काँपती हुई वह अमोघ शक्ति बोली, "मत पकड़ो, शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे। मैं दुष्ट सौतके सम्मुख नहीं रुक सकती, यह रहे, मैं अपने घर जाती हूँ । हृदयसे निकली हुई, मैं यह सब सहन नहीं कर सकती, मुझे पकड़नेसे क्या होगा, पति द्वारा मुक्त सभी कुलवधुओंको अपने कुल 'बरम शरण मिलता है ।।2-11
१८]क्या तुम मेरी शक्ति नहीं जानते, मेरा नाम अमोघशक्ति है। कैलास पर्वतके उद्धारके अवसरपर धरणेन्द्रने मुझे भयानक रावणको सौंप दिया था। संग्राम काल में, मैं लक्ष्मणपर छोड़ी गयी थी। मैं उसके मुखपर उसी प्रकार पहुँची, जिस प्रकार बिजली पहाइपर पहुँचती है। लेकिन विशल्याका तेजमैं सहन नहीं कर सकी, और नष्ट हो रही हूँ, तुम खेद क्यों करते हो। इसके सहारे, इस और दूसरे जन्मोंमें परमधार घोर वीरने निराहार साठ हजार वर्षों तक तपश्चरण किया।" तब हनुमान्ने कहा, "तुम यह बचन दो, कि वापस नहीं आऊँगी, तो मैं तुम्हें छोड़ता हूँ।" इसपर विद्याने कहा, "को विया दिया, अब तक जैसा आहत करती रही हूँ वैसा अब नहीं करूंगी।" यह सुनकर हनुमानने उसे मुक्त कर दिया। वह भी घबराकर, अपने घर पहुँच गयी। इधर रामने सेना सहित, सहर्ष विशल्याके दर्शन किये। कल्याण और शान्ति करती हुई विशल्यादेवीने राम, लक्ष्मण और सीतादेवीका दुःख दूर कर दिया। वह राषण लका और उसके राज्यके लिए होनहारके रूपमें वहाँ पहुँची॥१-१४॥
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२२४
पडमचरित
[१९] सच्चशित हरि परमेसरी'। परिमा विसल्ला-सुन्दरी ॥१॥ समतल मुझ पदणे वापसों वि समरिपड तक्खणेण ॥२॥ तेण वि पट्टविउ कइन्दया। जम्बव-सुग्गीयमया ॥३॥ मामण्डल-हणुध-विराहियाहँ। णल-गोलहँ हस्सि-पसाहिया ॥४॥ गय-गवय-गवस्थाणुराई। कुन्देन्बु-महन्द-वसुन्धरा ॥५॥ अवरह मि चिन्ध-उपलक्खियाहूँ। सामन्त रावण-पक्खियाह ॥ केसरिणियम्व-सुय-सारणाहूँ। रविकपणे-घणवाहणार ॥॥ जमघण्ट-अमाण[ 7 ] जममुहाहँ। धूमकरण-दुराणण-बुम्मुहाहूँ ॥६॥
घत्ता अवरह मि असेसहुँ परवाइहुँ दिण्णु विहों वि गम्घ-जछु । अस्यकएँ जाउ पुणण्णधा सपलु वि रामहो तगड बलु ॥९॥
राम-सेपणु णिम्मल-जलेग। संजीविउ संजीवणि-पलेण ॥१॥ त वीर हि घोर साहिएहि। षान्त हि पुष्ठय-पसाहिएहिं ॥२॥ बजन्त हि परहें दि मलेहि। गिमान्ते हि धधले हि मलेहि ॥३॥ शमन हि खुजय-बामणेहि। जग-रियउ पढन्तहि यम्मणेहि ४॥ गायन्त हि अहिणव-गायणेहि। बारम्ते हि वीणा-वायहि ॥५॥ सम्वे हि उष्णिहाविउ अपयन्तु। उहिउ 'केत्तहें रावणु' मणन्तु ॥६॥ विटसेपिपणु उच्चह हरूहरेण। 'किं खलेंण गवि? जिसियरेण ॥५॥ ता दुश्म-इणु -णिलण-दप्प। उव घयणु विसल्लहें तणउ वप्प ॥८॥ बममुहहाँ जाएँ पोसारियोऽसि । लकहें विणासु पसारिओऽसि ॥०॥
घत्ता तं णिसुणे वि जोइय लम्वणण तरखण-मयणाछिया । णं पकएँ सप्लिएँ परिवरिट । पुणु भण्क एँ सल्लियड १०॥
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समय नरीमो संधि
२२ [१९] परमेश्वरी विशल्या सुन्दरीके सुगन्धित चन्दनसे लक्ष्मणकी पूरी देहको मल दिया गया, और उसी समय वह चन्दन रामको भी दिया गया। रामने उसे कपिध्यजियोंके पास भेज दिया।जाम्बवान् ,सुपीक, अंग, अंगद,भामण्डल, हनुमान, विराधित, नल, नील, हरीश, प्रसाधित, गय, गवय, गवाक्ष, अनुद्धर, कुन्द, इन्दु, मृगेन्दु, वसुन्धरा और भी दूसरे-दूसरे निशानवाले रावण पक्षके सामन्तों, जैसे केशरी, नितम्य, सुत, सारण, रवि, कर्ण, इन्द्रजोत. मेघवाहन, यमघण्ट, यमानन, यममुख, धूम्राश्न, दुरानन और दुर्मुख आदिको भी वह चन्दन दिया गया । और भी दूसरे राजाओंको षड् गन्धजल बाँट कर दिया गया । इस प्रकार शीघ्र ही, रामकी समस्त सेना फिरसे नयी हो गयी ॥१॥
[२०] रामकी सेना, संजीवनीके बल और उस पवित्र जलसे जब जीवित हो उठी तो उसमें नयी हलचल मच गयी। वीररससे अधिष्ठित, वीर योद्धा पुलकित होकर उछल रहे थे, पटह, मृदंग बज रहे थे। धवल और मंगल-गीत गाये जा रहे थे 1 खुज्जक और बौने नाच रहे थे। ब्राह्मण यजुर्वेद पढ़ रहे थे । अभिनव गायन हो रहा था, वीणावादक वीणा बजा रहे थे, सबकी एक साथ आँख खुल गयी, वे एक स्वरसे चिल्ला अढे, "रावण कहाँ है” | तब रामने हँसकर कहा, "दुष्ट गीले निशाचर से क्या ?" इसी बीच, दुर्दम राक्षसोका विनाश करने में समर्थ, विशल्याका प्रिय लक्ष्मण यमके मुखसे निकाल लिया गया, और लंकाके विनाशका द्वार खुल गया । यह सुनते ही लक्ष्मणने उसकी ओर देखा । वह शीघ्र कामसे पाहत हो पठा। मानो वह एक शक्तिसे मुक्त हुभा था, और अब अनेक शक्तियोंने उसे घेर लिया हो ॥१-१०॥
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२२६
पडमचरित
[ २ ] भाइपण मिष्टि परिशिय-मास । उप्पण्या मन्ति णाशयणासु ॥१॥ 'किं चलण-सहगई कोमलाई। णं अहिणवरत्तप्पलाई ॥२॥ किं ऊह परोप्परु मिष्ण-तेय। णं गणव-रम्मा-खम्म एष ॥३॥ कि कणय-शेर घोलइ विसालु । णं गं अहि रयण-णिहाण-पातु ॥४॥ किं तिबलिउ जढरें पधावियाउ। गं गं कामउरिहूँ खाइयाउ ॥५॥ किं रोमावलि घण कसण पुर। गंणं मयणमास-धूम-लेह ॥१॥ किं णव-यण पंकणय-कलस। किं करणं पारोह-सरिस ||७|| कि मायम्बिर कर-पल चहन्ति । णं असोय-पल्लव ललम्ति ।।।। कि आणणु णं ण चन्द्र-विम्यु। बहरत गं पाक-बिम्बु ।।५।। किं दसणायलिज स-मुसियाउ। गंगं मछिय-कलियउ इमाउ ।।६।। किंगण्डवास णे दलित-दाण । किलोयण पणे काम-धाण ॥३॥ कि भडह इमाउ परिट्ठियाउ।
पम्मह-भगुलटियाउ ॥२॥ किं कपण कुपडल्लाहरण एय । णं रवि-ससि विरफुरिय-लेय।।१३।। कि माल गं णं ससहरवधु । किंसिरणं णे अलि-उल-णिवधु'
धत्ता जाणेपिणु सम्बे हि सगऍदि स्वाससड महुमहशु । विष्णत किय अधि-इत्यहिं 'करें कुमार पाणि-गहणु' ॥14॥
[ २२ ] सा अम्बवन्त पणिउ कुमारु। 'फग्गुष्प-पत्रमि तहिं सुख-वारु ।। उसा-भासावड सिरि-जोग्गु । मण्णु विवाह धिक कुश्म-लग्गु ।।२।। एयारसमड गह-याा अनु। स-मणोहर सयस विषाह-कनु ॥३॥
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२२७
एक्कुणस्तरीमो संधि [२१] उस कन्याको देखकर प्रसनलक्ष्मणको भ्रान्ति होने लगी। उन्हें लगा, क्या ये उसके कोमल चरणतल हैं, नहीं-नहीं, नये नये लाल कमल हैं, क्या एक-दूसरेको दीप्त करनेवाली उसकी जाँचे हैं, नहीं नहीं ये तो कदली वृक्षके नये खम्भे हैं, क्या यह सोनेकी डोर झूल रही है, नहीं-नहीं यह तो रत्नोंके खजानेको रखनेवाला साँप है. पेटपर तीन पाएँ नहीं कही ये जोडागदेवकी नगरीकी खाइयाँ हैं, क्या यह सघन और काली रोमावलो है, नहीं नहीं कामदेवकी आगकी धूम्ररेखा है। क्या ये नये स्तन हैं, नहीं नहीं ये सोनेके कलश हैं, क्या ये हाथ हैं, नहीं नहीं ये तो नये अंकुर हैं, क्या ये लाल-लाल हथेलियों चल रहीं हैं, नहीं-नहीं, ये तो अशोक दल चल रहे हैं, क्या यह मुख है, नहीं. नहीं यह चन्द्रविम्ब है, क्या ये अधर हैं, नहीं-नहीं ये तो पके हुए विम्बफल है, क्या ये मोतियों सहित दशनाचलि है, नहीं-नहीं ये तो मालतीको नयी कलियाँ हैं, क्या ये कपोलकी सुवास हैं,नहीं. नहीं,यह हाथीका मदजल है।क्या ये नेत्र हैं, नहीं-नहीं, ये काम बाण हैं, क्यों ये भौंह प्रतिष्ठित हैं, नहीं-नहीं, यह तो कामदेव का धनुष है, क्या ये कानमें कुण्डल गहने हैं, नहीं नहीं, चमफते हुए सूर्य-चन्द्र हैं, क्या यह भाल है, नहीं नहीं यह आधा चाँद है। क्या यह सिर है, नहीं नहीं, यह तो भौरोंका कुल बाँध दिया गया है । उपस्थित सब राजा आन गये कि लक्ष्मण इस समय रूपमें आसक्त हैं। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की, हे कुमार, पाणिग्रहण कर लीजिए ॥१-१५।। __ [२२] इस अवसरपर जाम्बवन्तने कुमारसे कहा, "फागुन पंचमी शुकवारका दिन है। उत्तराषाढ़ है, सिद्धिका योग है, और भी यह कुम्भ लग्न है । ग्यारहवाँ ग्रहचक है, आज
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पउमचरिउ
आरोग्गज सम्पय रिद्धि विद्धि । आप अपना परिपरि देव : सं सुवि सुमिसिह णन्दणेण । द- अक्सय-कफस हिं दप्पणेहिं रङ्गाहिरिन्छडेहि ।
अइरेण होइ सङ्गाम-सिद्धि ||४|| मित्रमिव तेव ॥५॥ किट पाणिग्गहणु जगणे || ६ || हवि-मण्डच वेश्य मक्खणेहिं ॥ ७ ॥ फरथइ स विवदिण डेहिं ||२||
घत्ता
उच्छाहें हिं धवलेहिं मलेहि सङ्केहिं हि अह हिं समूवि साहुकारियउ गरवह-सएहि ( १ ) किय- उच्छवें हिं ॥ ९ ॥
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एक्कुणसप्तरीमो संधि
२२१ विवाहका काम सुन्दर और अच्छा है। इससे स्वास्थ्य, ऋद्धि, वृद्धि और शीघ्र ही संग्राममें सफलता मिलेगी। इष्टा अवसर पर, हे देव, आप पाणिग्रहण कर लीजिए, और देव-मिथुनोंकी भाँति प्रेमक्रीड़ा कीजिए। यह सुनकर कुमार लक्ष्मणने विशल्याका पाणिग्रहण कर लिया । दही, अक्षतके कलश, दर्पण, हविमण्डप, यज्ञवेदी, राँगोली, लालचन्दनका छिड़काव और विप्र, बन्दीजनोंके जयवचनों और नटोंके मनोरंजनके साथ विवाह सम्पन्न हो गया । बत्साह, धवल मंगलगीतों, अत्याइत तूर्यों और शंखों, और उत्सवोंके साथ राजाओंने स्वयं इस अवसरपर अपना-अपना साधुवाद दिया ॥२-५||
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[ ७०. सतरिम संधि ]
जीवियऍ कुमारे
तूरह सद्दु सुवि
[9]
|| दुबई । चन्द्र-विहङ्गमे समुडावियर ( गय- ) अधार-महुयरे । तारा कुसुम- गियरें परियलिए मोडिए स्यणि-तरुवरे ॥१॥
परिभ्रमन्तं पञ्चस महगाएँ । ताय परजिय- सुर सङ्घायहीँ । 'अह अह देव देव जग केसरि । ताऍ जणु पज्जीनिय तं णिचि कल-कोइल-वाणी । 'अज्ज वि बुद्धि थाइ अयाणों
।
एमवि अमरोहाषणु ।
किए पाणिग्गण मयावणु ।
सूलेण य मिष्णु दसाण ||
तरुण - दिवायर-मेंटु-वलगाएँ ||२|| केणषि कहि दसाणण रायहीं ॥ ३ ॥ आइय का वि विसल्ला- तुन्दरि ॥४॥ णं विव- धारहिं सिहि संदीषि ॥५॥ चिन्ताविय सन्दोयरि राणी ॥ ६ ॥ केवलि-मासिउ दुक्कु पमाणों' || पुणु सभाचें पभणिद रावणु ॥ ८॥
"जे सुभा वि जीवन्ति खणं खर्गे । दुज्जय हरि बल होन्ति रणङ्गर्णे ॥९॥
देहि दसाण सीय सोमवाहण-सु
घत्ता
अज बि लङ्कावरि ि
मं रामदवग्गिएँ उज्झउ ॥ १० ॥
[२]
|| दुवई || इन्दइ माणुकष्णु घणवाहणु धन्वाविस अकजॉन । सण- विणण किं किन एवहिं राय रणं ॥ १ ॥
!
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सत्तरवीं सन्धि
कुमारके जीवित होने, पाणिग्रहण और सूर्योका भयंकर शब्द सुनकर रावण इतना जान हुआ मानो उसे शूल लग गया हो ।
[१] सवेरे चन्द्रमारूपी पक्षी उड़ गया, और अन्धकाररूपी मधुकर चला गया। रात्रिरूपी पेड़के नष्ट होनेपर तारारूपी फूल भी झड़ गये। प्रत्यूष ( प्रातः काल ) रूपी महान गज के भ्रमणशील होने पर तरुण सूर्यरूपी महावत ने आरोहण किया। तब देवसमूहको नष्ट करनेवाले रावणको किसीने जाकर बताया, "हे जगतसिंह देव-देव, विशल्या नाम की कोई सुन्दरी आयी हुई है, उसने लक्ष्मण को प्राणदान कर दिया है।" यह सुनकर वह ऐसा भड़का भानो घृतधाराओंसे आग ही भड़क उठी हो। यह सुनकर कोमलवाणी रानी मन्दोदरी भी चिन्तामें पड़ गयी। वह मन ही मन सोचने लगी कि इस अज्ञानीकी बुद्धि आज भी ठिकाने नहीं है, लगता है अब केवली भगवान्का कहा हुआ सच होना चाहता है। काफी सोच विचारके बाद उसने देवताओंको सतानेवाले रावणसे अत्यन्त सद्भावनाके स्वर में कहा, “यदि मरे हुए भी लोग, इस प्रकार एक क्षणके बाद, दूसरे क्षण में जिन्दा होते चले गये तो युद्धमें लक्ष्मणकी सेना अजेय हो जायेगी। कुछ अपनी लंकाका विचार करो । सीता देवीको आज ही वापस कर दो। तोयदवाहनके महान् वंशको इस प्रकार रामकें दावानलमें मत फूँको ।" ॥१-१०॥
[२] "तुमने इन्द्रजीत, भानुकर्ण और मेघवाहनको बन्धनमें डलवा दिया, और हे राजन् स्वजनोंसे विहीन राज्य लेकर
1
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पउमचरित
कि अति विपनु विडम। किं निविस संबम भुअमु ।।२।। किं वा तवड निंज दिवाबरु। कि गजल उच्चछर सय " गप-विसाणु किं गजड़ कुन्नर। किं करेड हरि हय-गह-अरु ॥४॥ किं विफुरह बन्दु गह-गहिया। कि पजलट जलणु जल-सहियउ ॥५॥ कि छजार तरु पाढियन्डालत। किं सिझर रिसि वय अ-पाल ॥६॥ कि कोहि तुहुँ सुट्छु वि मल। वन्धव सयण-हीणु एकल्ला ॥७॥ तो चरि बुद्धि महारी किजड़ । अज वि एह पारि अपिजउ ॥८॥ उन्हें चि जन्तु हरि-राहव । मेलिजमत नुहारा वन्धव ||९||
माम वि एउ रजा ते में सहायर सव्व
घत्ता
रह-हय-गव-धय-दरिमावशु । तुहै सी 0 पड़ीवउ रावणु' ॥१०॥
[३] ।। दुबई ।। मन्दीबरि-विपिग्गयालाच पसंसिय सपल-मन्तिहि ।
केयइ-कुसुम-गग्ध परिखुम्विय णावह ममर-पतिहि ॥३॥ बाल-जुवाण-बुद्ध-सामन्त हिं। सव्वं हि 'जय जय देवि' मणन्ते हि॥२॥ किय-कर मलि-पामिय-सिर-कमलेहि पुजिउ तं मि क्यणु मइ-विमलं हि॥३॥ 'चाउ मा माएँ पह वुत्तड। अरथसत्य एड वि सु-णिरुसउ ॥४॥ अकुलस्लु कुमलेहि ण जुज्मेषउ । राएं रज-कज जोवर ।।५।। पर-बलु पबरु णि वि पञ्चेवउ । अहवइ थोडउ तो जुजोवर ॥६॥ सम साहशु सरिसड जि समप्पउ । अवरु पवरु पर-चलित 'सप्पइ ।।७।। ते कसें जाणेक्ड अनसक। सुहणए वि सङ्गामु असुन्दर ।।।
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सत्तरिम संधि
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क्या करोगे क्या बिना पंखोंके पक्षी उड़ सकता है, क्या विषविहीन साँप काट सकता है, क्या तेजसे हीन होकर सूर्य तप सकता है, क्या बिना जल के समुद्र उछल सकता है, खीसोंसे सीन हाथी क्या गरज सकता है? राहुसे ग्रस्त होनेपर क्या चन्द्रमा प्रकाश दे सकता है, क्या जल सहित आग जल सकती है, डाल के कट जानेपर क्या पेड़ छाया कर सकता है, क्या व्रतोंका पालन न कर मुनि सिद्ध हो सकते हैं। अच्छी तरह रहकर भी तुम स्वजनों के बिना अकेले क्या करोगे? इसलिए मेरी बुद्धिके अनुसार आज भी सीताको वापस कर दो। राम-लक्ष्मण वापस चले जायेंगे, तुम्हारे 'भाई-बन्धु छूट जायेंगे। तुम्हारा यह राज्य आज भी बच सकता है, रथ, अश्व, गज और ध्वज भी बच जायेंगे और ये तुम्हारे भाई-बन्धु भी चुम्हारे रहें ॥
1
[३] मन्दोदरीके मुखसे जो भी शब्द निकले, सभी मन्त्रियों ने उसकी उसी प्रकार प्रशंसा की जिस प्रकार और केतकीको चूम लेते हैं। आबाल-वृद्ध जनसमूह और सभी सामन्तोंने 'जय देवी जय देवी' कहकर उसकी सराहना की। विमलमति वृद्ध मन्त्रियोंने भी हाथ जोड़कर और झुककर उसके वचनोंको सम्मान दिया। उन्होंने कहा, "हे आदरणीये, आपने बिलकुल ठीक कहा है। राजनीति शास्त्र भी इसी बातका निरूपण करता है। वास्तवमें अकुशल लोगोंको कुशल लोगोंसे नहीं लड़ना चाहिए। राजाको अपने शासनमें पूरी दिलचस्पी लेनी चाहिए। शत्रुसेनाको बलशाली देखकर उससे दूर रहना चाहिए। यदि सेना कम (थोड़ी ) हो तो युद्ध कर लेना चाहिए, अगर सेना बड़ी है तो समर्पण कर देना ठीक है, क्योंकि बड़ा राजा छोटे राजाको दवा देता है। इसलिए अब -
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करेंवि पयतु तन्तु क्व ।
ॐ उच्चरियड किं पि
सात्र समप्पटि सो
पउमचरिउ
मण्डलज्जु एउ लक्खेव्व ॥ ९ ॥
|| घसा ||
सं सेण्णु जाव णावहद्द |
ऍडु
[8]
॥ दुबई ॥ तं परमत्थ-ययणु णिसुणेपिणु दरवयणेण चिन्तियं ।
जद्द उच्चेट रामु पहूँ माँ सीयाएबि
टुड्' ||१०||
'परि मेहलि - इष्ण गड पुजिउ मन्तिहिं तण मन्तियं ॥१॥ अवरोप्पर आयणय - कलयले ॥२॥
कर सन्धि अवसर । उलिम-पुरिसहों मरणु जें सुन्दरु ||२|| चन्द्रमहिंहें वार-परावें ||४|| किङ्कर-अक्ष- स्वर -कम ||५|| अह्नएँ दुऍ उहय वट-सङ्गमे ॥६॥ इन्दद्द - भाणुकण्ण बन्दिग्गहूँ ||७|| तं किं एवहि थाइ गिरारि || || माणिणि एह सन्धि पडिवजमि ||९||
पचास परिट्टिएँ पर-वलें ।
har सम्बु- कुमार हि खर आहवें । भासाली - विणा वण-मद्द | मन्दिर-म विहीण-शिखामें । हाथ-पहत्य-पील- -ण- विमा | तहिँ जि का जंण किड निवारित तो तुहारी ण मञ्जमि । ६
घन्ता
निहि श्याइँ र पुष्पिणु 1
त्रिणि वि वाहिरहूँ करेष्पिणु' ॥ १०॥
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सत्तरिमो संधि सरको नाप-तौलकर ही कोई कदम उठाना उचित होगा । सज्जन लोगोंके साथ लड़ना भी ठीक नहीं । अब प्रयत्नपूर्वक अपने तन्त्रको बचाइए । अर्थशास्त्र में पृथ्वीमण्डल के ये ही कार्य निरूपित हैं। तुम्हारा उद्धार तभीतक किसी प्रकार हो सकता है, जबतक सेना नहीं आती। तबतक सीता सौंप दीजिए, सन्धिका सबसे सुन्दर अषसर यही है ॥१-१०॥
[४] मन्त्रियुद्धोंके कल्याणकारी वचन सुनकर रावण अपने मनमें सोचने लगा कि यह मैंने अच्छा ही किया जो सीता वापस नहीं की, और न ही मन्त्रियोंकी मन्त्रणा मानी । शत्रुसेना एकदम निकट आ चुकी है। एक-दूसरेका कोलाहल सुनाई दे रहा है, ऐसे अवसरपर सन्धिकी बात क्या अच्छी हो सकती है ? ऐसी सन्धिसे तो आदमीका मर जाना अच्छा है। शम्बुकुमार मौतके घाट उतार दिया गया, खर आइत पड़ा है, चन्द्रनखा और कूबारको बेइज्जती हुई। आशाली विधा नष्ट हो पायी । नन्दन वन उजड़ गया, अनुचर और वनरक्षक भी धराशायी हुए। आवास नष्ट हुआ। भाई विभीषण चला गया । अंगद दूत बनकर आया और चला गया, दोनों ओरकी सेनाएँ युद्ध के लिए तत्पर हैं। हस्त और ग्रहस्तका नर-नीलसे विग्रह हो चुका है। इन्द्रजीत और भानुकर्ण बन्दीघरमें हैं । तब तो मैंने इन सब बातोंका प्रतिकार किया नहीं, और अब मैं एकदम निराकुल बैठ जाना चाहता हूँ। फिर भी हे मानिनि, मैं तुम्हारी इच्छाका अपमान नहीं करना चाहता। मैं सन्धि कर सकता हूँ, उसकी शर्त यह है। राम राज्य, रत्न और कोष मुझसे ले लें। और बदलेमें, मुझे तुम्हें और सीता देवीको बाहर कर दें। (मैं सन्धि करनेको प्रस्तुत हूँ ) ॥१-१०॥
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पठमचरित
[५] । दुवई ।। तं णिसुणेवि वयणु दहवयनहीं णरबह के वि जम्पिया ।
'एका महिलाएँ किं को वि इच्छइ महि समष्भिया' ॥१॥ के वि घन्ति मन्ति परमे । 'सपरिहक, हित । छलु जें एक पाइहाँ मण्डणु। पुस्तु कलत्तु मिनु ओमण्डणु' ॥२॥ पमणहमन्दोवरि 'को जाण । जह महि लेह समप्पड़ जाणइ ||| सा सामम्तड दूउ विसज्जहि । सपलु चि देह सन्धि परिवजहि ।।५।। जइ रामणु ॐ मरइ सहुँ सयणे हि' तो किर काई तेहिं णिहिरवणे हिं ।६।। एम भनेंवि पेसिट सामन्तड। जो सो परिमियाथ-गुणवन्तर 10 चदिउ महारह हय कस-साडिय । महि खुपन्तेहिं चक्केहि फार्षिय | णिन-णिसियर-वलेण परियरियङ । बीयर राषणु णं जासरियउ ।।२।।
घत्ता
दुआगमणु गिरवि किपण पतीवट आउ
भिंड कइ-बलु उक्षय-पहरण । सरबसु सरणवि दमाणणु 1900
[६]
।। दुवई ।। जम्बइ जम्बवन्तु पर रावणु राबण-दूर दोसए' ।
एआलाच जाव ताणसरें सो जै तहिं पईसए ।।१।। तहि पइसन्तें दहमुहन्दूएं। दिल सेण्णु आसपाहणे ॥२॥ विकर-कर-अप्फालिय-रख । गोसायासु ष उस्थिय-सूरत ।।३।। महरिसि-विमु व धम्म-परायण । पक्रय-वशु व सिलीमुह-मायणु ॥४॥ कामिणि-वयणु व फालिय-णेतर । महकह-कम्बु व सक्लम-वन्त ॥५॥
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सत्तरिमो संधि [५] रावणका वचन सुनकर एक सामन्त राजाने कहा, "अरे कौन ऐसा होगा, जो पानीले पदो परती नकार नहीं करेगा"। तब एक और मन्त्रोने अधिक वास्तविकताके साथ कहा, "अपमानसे मिले धनसे क्या होगा, छल ही सेवकका एकमात्र अलंकार है। पुत्र, स्त्री और मित्र ये सब निरलंकार हैं।" तब मन्दोदरीने कहा, "कौन जान सकता है कि राम' धरती लेकर, जानकी दे देंगे" | तब तुम सामन्सक दूतको भेजकर, सय कुछ देकर सन्धि कर लो। यदि रावण स्वजनोंके साथ युद्ध में मारा गया, तो फिर रत्नों और निधियों का क्या होगा ?" यह कहकर, सामन्तक दूतको भेज दिया गया, वह दूत मितार्थ और गुणवान था। वह महारथमें बैठ गया, अश्व कोड़ोंसे आहत हो उठे और उनके गढ़ते हुए चक्के धरतीको फाड़ने लगे। ऐसा जान पड़ता था कि अपनी निशाचर सेनाके साथ, दूसरा रावण ही जा रहा हो । दूतके आगमनको देखकर बानर सेनाने अपने हथियार उठा लिये। उसने सोचा, "कहीं ऐसा तो नहीं है कि राषण हो सन्नद्ध होकर आ गया हो" ॥१-१०॥ _[६] तब जाम्बवन्तने कहा, “जान पड़ता है कि यह राषण नहीं वरन् उसका दूत है।" उनमें ये बाते हो ही रही थी कि दूत ने सहसा प्रवेश किया। प्रवेशके अनन्तर दूतने देखा कि सेना पूरी तरह सन्नद्ध है। अनुचरों द्वारा बजाया गया तूर्य ऐसा लगता था मानो सवेरे-सवेरे सूर्योदय हो रहा हो । वह सेना, महामुनिकी भाँति धर्मपरायण (धनुष' और धर्मसे युक्त) थी, कमल वनके समान शिलीमुखों (बाणों और भ्रमरों से युक्त थी, कामिनीके मुखकी तरह, आँखोंको फाड़-फाड़कर देख रही यी, महायिके काव्यको तरङ् लक्षण (काव्य, नियम और
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धरमचरिउ
मी- जल व दहत्रयणासङ्कि | पाव-कन्दुहु
|
क्रियण राम
लग्नहीँ इन्द-पश्चिन्द्र
पन्दण-वशु व कुन्द द्वार
पुणु अध्थाणु दिड्ड
सायर - महणु व पर्याय रयण ||८||
खय-रवि-त्रिस्तु व वहिदय-ते । सचिव पर जर- मुडभेड ||९||
व पोल-जल डिड ||६||
गिसि-हयलु व स.इन्दु सार ||७||
घन्ता
अह अह बजावत्त- धणुद्धर ।
सन्धि दाणणेण सहुँ कि
।
लक्क चु-माय ति खण्ड सुम्धर ।
गिहि-स्वणहूँ अब
इज्जत ।
सव्वाहरणालङ्करिया ।
वे विणा तर्हि अवयरिया ||४०||
[७]
|| दुबई ॥ तेहिं वि वासु एव बलवहिँ पहरिसिहं सक्षणे । हमारेचि पासु सम्माणवि । बहुसारिक वरासणे ॥१॥
किय विणण कियरथीहुएं ।
सासु पजि दहमुह- दूएं ॥ २ ॥
'अ अ राम राम रामा-पिय । सुरवर-समर समूहिं अकम्पिय ॥ ३ ॥ ॥ अहाँ अहाँ सयष्ठ-पिडिमि-परिपाळण | मायालुग्गीचन्त मिहारण ॥४॥
अहाँ अहाँ दम-दणु-विदावण |
हरि-वरण-जण-जूरावण ॥५॥
वाणर- विवाहर- परमेसर ॥६॥
इन्दह- कुम्मयण्णु मेलिवर ॥७॥
छत्तहूँ पीढइँ हम-गय-रवर ||८||
सीय रणिय वति डिउ ॥९॥
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वत्त माध
लक्ष्मण ) से सहित थी, मीनकुलकी तरह, दशमुख (रावण और हृदमुख ) से आशंकित थी, नील कमलकी तरह नील और नल ( नीलिमा मृणाल, नल और नील योद्धा ) से शोभित थी, गधम वन मांति कुन्द फूल विशेष, इस मामका योद्धा) से वर्द्धनशील थी, निशा-आकाशकी भाँति तारा और इन्दु (तारे चन्द्रमा और इस नामके योद्धा) से युक्त थी। और पास पहुँचनेपर उसे दरबार दिखाई दिया, उसे लगा, जैसे समुद्रमन्यनकी तरह उससे रत्न निकल रहे हो, प्रलय सूर्यकी भाँति वह दरबार तेजसे दीन था, और सतीके चित्तकी भाँति परपुरुषके लिए एकदम अभेद्य था । दूतने देखा कि राम और लक्ष्मण, अलंकारोंसे शोभित, ऐसे लगते हैं, मानो स्वर्ग से इन्द्र और उपेन्द्र उत्तर आये हों" ||-२०॥
[७] राम और लक्ष्मणने प्रसन्न होकर शोन इस दूनको बुलाया, और सम्मान देकर अपने पास बदिया आसनपर विठा दिया। यह देखकर रावणका दूत कृतार्थ हो उठा। उसने
अत्यन्त विनयपूर्वक रामके सम्मुख निवेदन किया, "हे सीताप्रिय राम, आप सचमुच सैकड़ों देवयुद्धोंमें अडिग रहे हैं, अरे
ओ राम, आप समूची धरतीके प्रतिपालक हैं। आपने मायासुग्रीवका अन्त अपनी आँखों देखा है, अरे ओ राम, आप दुर्दम दानवोंका संहार करनेवाले हैं, अरे ओ राम, आप शत्रुओंकी अंगनाओंको कँपा देते हैं, आप वनावर्त धनुष धारण करते हैं, आप बानरों और विद्याधरोंके परमेश्वर है। आप रावणके साथ सन्धि कर लें, इन्द्रजीत और कुम्भकर्ण को छोड़ दें। इसके बदले में लंकाके दो भाग तीनों खण्ड धरती, छत्र, अश्व, गज, बड़े-बड़े पीठ, उत्तम योद्धा, निधि रत्न, सब कुछका आघा. आधा भाग ले लीजिए, केवल सीला देवीके बारेमें अपनी इच्छा
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२१७
पडमचरित
घत्ता मिहिन हय-वाय-रज्जू । अहहुँ पर सीवएँ कज्जू ॥१०॥
सम्बई सो में लएड
[]
॥ दुबई ॥ तं णिसुग्गेवि वयष्णु काकुस्थहाँ ईसीसि पि या कम्पिओ ।
तिण-समु गणे वि सयल अग्थाणु दसाणण-दुइ जम्पिओ ॥१॥ 'अहो घलएव देव मा बोल्लहि। कन्नौ तणि वत्त भामेलहि ॥२॥ लकहिब हेमन्त में वीयउ। जो णिपिसु वि णज होइ णिसीयउ।३। जो त्तिहिउ परिकमगप्पण। दीसह सुविणएँ असिवर-दष्पणे ॥३॥ जेण धणड कियन्तु किड णिप्पहु । सहसकिरणु पालकवह सुर-पछु ।।५।। जेण वरुणु समरहण धरित्रउ । भट्टावउ पावउ उद्धरियर ॥६॥ तेण समउ जा सन्धि ण इछाहि । तो अवजा जीवन्तु ण पंच्याहि ॥ सं णिसुणेवि कुइ3 मामण्डल। णं उहिउ स-खग्गु भाषालु ॥१॥ 'अरें पल खुद स-मउड स-कुण्डलु पारमि सीसुजेम तालहों फल ॥९॥ को सुई कहाँ केरउ सो रावणु। मुखमा अम्पहि अ-सुहावणु'।१०।
पत्ता
सक्खणु घोसह एम सिसु-पसु-तसि-तियाहुँ
'सउ रामही केरी साणा । कि उत्तिमु मेगाह पाणा ॥१॥
। दुवई । दुम्मण दुषिपद दूसीले भयाणं ।
सरहों माहिदन्त-परिसर-पडिय-पूसय- समाणेणं ॥
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२४१
सत्तरिमो संधि का त्याग कर दें। यह सुनकर रामने उत्तर में कहा, “निधियाँ
और रत्न, अश्व और गज एवं राज्य सत्र कुछ वही ले लें, हमें तो केवल सीता देवी चाहिए" ॥१-१०||
[८] रामके संकल्पको जानकर सामन्तक दूत जरा भी नहीं हरा | पूरे दरबारको तिनका बराबर समझते हुए उसने कहा, “अरे बलराम देव, और अधिक मत बोलो, केवल पत्नीकी बात छोड़ दो, लंकाधिपति दूसरा हिमालय है, यह सिय (सीता और शीत) को एक पलके लिए भी नहीं छोड़ सकता । जो रात-दिन तलवार रूपी दर्पणकी भाँति स्वप्न में शत्रुसेनाको दिखाई देता है, जिसने कुबेर और कुलान्तको भी पलसम्म बना दिया, सहस्र किरण नलकूबर और इन्द्रको भी, प्रभावहीन कर दिया, जिसने वरुणको संग्रामभूमिमें ही पकड़ लिया, जिसने अष्टापद और पावकका उद्धार किया। ऐसे (प्रतापी) रावणके साथ, यदि आप संधि नहीं करते तो निश्चय ही अयोध्या नगरी जिन्दा नहीं बचेगी।" यह सुनते ही भामण्डल ऐसा भड़क उठा, मानो तलवार सहित इन्द्र ही भड़क गया हो। उसने कहा, "अरे दुष्ट नीच, मैं मुकुट और कुण्डलके साथ, तुम्हारे सिरको तालफलके समान धरतीपर गिरा दूंगा। कौन तू और कौन तेरा रावण, जो तू बार-बार इतना अशोभन बोल रहा है," तब उसे मना करते हुए लक्ष्मणने यह घोषणा की, "तुम्हें रामका आदेश है । और फिर क्या यह ठीक होगा कि तुम शिशु,पशु, तपस्वी और स्त्रियों के प्राण लो" ॥२-१|
[२] प्रति शब्दमें पठित 'प' के समान यह सिरको पीड़ा देनेवाला दुष्ट, दुर्मुख, दुर्विदग्ध, दुःशील और अज्ञानी है। इसको मारने में कौन-सी वीरता है, इससे अकीर्विका बोझ बढ़ेगा और कुलको कलंक लगेगा। यह सुनते ही भामण्डलका
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एण हृएण कष्णु सुहङत्तणु ।
तं शिसुर्णेवि पसमित कोवाण काल त्रिखहुएं
'चङ्ग मिच्चु देव पहूँ लद्धउ । सिर-विहीणु णउ लग्गइ काहुँ
पउमचरित
अयस - मारु केवल कुल लम् ॥२॥
।
शिय-मासणें शिविट्टु मामण्डलु || ३॥ पर्माणि राहवु रामण-दुएं ||३|| जिह सु-कन्वें अवसद् णिवद्ध ||५|| तिह अवियद विषद् हुँ अण्णहुँ । ६ । लवण-रसेण समुद्र व खार ॥७॥ रण्ड जस लक्ष्य रोषाविय ॥८॥ बलु वुझउसइँ जें महारणे ||९||
आएं होहि तुहु मिलहुमार | अहवछ करूँ जि आवह पाजिय । एहिं जड़ों का अकारणें ।
जो एक सतीऍ
सो पहरण- लक्खे
1
घत्ता
एही अवत्थ दरिघावइ ।
कड़ विहय जेव उडाव ||१०||
[10]
|| दुधई || तुम्ह सिरुप्प लाई तोडेपिणु पीड रषि तस्थे । इन्द्रह- माशुक्रष्ण-वणवाहण मेल्लेसह सहत्थे ॥१॥
हिऍ वासुव बलए ।
लेसह सहूँ जे सोय भवलेवें ||२||
अहवह जद्द वि आउ सह झिजड़ | तुम्हारिसेंहिँ तो विजिल | श
किं नोईज सीह करतेंहि । किं खज्जोऍहि किड रवि णिप्पहु । किं सरिसोर्ह कुछइ सावरु | किं चाकिजाइ विभ्झ पुलिन्दे हि ।
किं वसिकिज गरुतु यहिं ॥४॥ किं चप्प-तिहिं धरिद्द हुवहु ||५|| किं करेहिं छाइब ससहरु ||६|| हासद शह तुम्हें हिं कु गरिन्दे हि ' ॥७॥
1
1
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सप्तरिम संधि
२४३
क्रोध ठंडा पड़ गया और वह अपने आसनपर जाकर बैठ गया। इस अवसर पर कुछ हड़बड़ाकर रावणके दूतने फिर रामसे निवेदन किया, "हे देव, आपको यह अच्छा अनुचर उपलब्ध है ठीक वैसे ही, जिस प्रकार सुकाव्य में अपशब्द निबद्ध होता है, शोभाहीन होकर भी, जैसे वह अपशब्द कान में नहीं खटकता, उसी प्रकार अन्य विद्वानह मूर्ख भी नहीं जान पड़ता, परन्तु इससे आपका ही हलकापन होगा, उसी प्रकार जिस प्रकार समुद्र नमक के रससे खारा हो जाता है । कल ही आपको आपत्तिका सामना करना होगा, राँड़की भाँति ( विधवाकी भाँति ) सबको रुलाओगे। इस समय व्यर्थ गरजने से क्या लाभ? महायुद्धमें तुम स्वयं अपनी ताकत जान जाओगे। एक शक्ति लगनेसे तुम्हारी यह हालत हो गयी, लाखों हथियारोंके चलने पर तो बानर पक्षियोंकी भाँति उड़ जायेंगे ॥१-१०॥
[१०] युद्धभूमि में रावण तुम्हारे सिर कमलको तोड़कर, अपना पीठ बनायेगा, और इन्द्रजीत, भानुकर्ण एवं मेघवाहनको अपने हाथों मुक्त कर देगा। वासुदेव और बलदेव ( लक्ष्मण और राम ) के मारे जानेपर वह अहंकारके साथ सीताको ग्रहण कर लेगा । चाहे उसको आयु भी क्षीण हो जाय, परन्तु तुम जैसे लोग उसे नहीं जीत सकते | क्या हरिण सिंहको देख सकते हैं, क्या सर्प गरुड़को वश में कर सकते हैं, क्या जुगुनू सूर्यको कान्तिहीन बना सकते हैं, क्या वनतृणोंसे आist बन्दी बनाया जा सकता है, क्या नदियोंके प्रवाह समुद्रका बाँध तोड़ सकते हैं, क्या हाथोंसे चन्द्रमाको ढँका जा सकता है । क्या शयर विन्ध्याचल हिला सकते हैं, तुम जैसे छोटे-मोटे राजा तो उसके लिए एक मजाक है ।" यह सुन
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२४४
तं पिसुवि भहिं गलथलिउ | गख स पराहवु लङ्क पराइड ।
दुथ कहखण राम ज जाणहि तं वि
पउमचरित
टक्कर- पश्यि घाऍहि बलि ॥ ८॥ कदिउ 'देव हउँ कह विप घाउ ||९||
पट्टणें बोसण मि
अच्छमि साणारूड
घत्ता
ण करन्ति सन्धि उ बुतउ ।
आय खय-काल सिउ ॥१०॥
[ ११ ]
|| दुबई | सम्बु कुमारु जेहिं विनिवाइट घाइ खरु वि दूसणो । जेहिं महणी समुल्लङि पक्ष-ग्गाह भीसणी ||१||
।
हस्थ-पहरथ जेहिं संचाइय । आणि जेहिं त्रिसला-सुन्दरि । तेहिं समाणु णव सोहर विग्गहु तं त्रिवि णरवइ चिन्ताविङ । 'होसड़ कंम कज्जु गाउ जाणमि किं पादमि समसुती पर-वलें ।
इन्दइ- कुम्मयण्ण विणिचाइय ॥२॥ झुंड जीवाचं लक्ष्ण- प्रेसर ॥३॥ लहु वइ देहि देहि मुर्गे सङ्ग' ||४|| महगावन्थ समुद्र व पावित ||५ किं उक्सन्धे बन्धेवि आणमि ॥६॥ किं सरधोराण लायमि हरि-वलें ॥७३३
जइ विस- साहस- मुहु समप्यमि । तो विण रामहों गेहिणि अप्पमि || अधु उबाट एक्कु जे साहमि ।
बहुरुवियि विज आराहमि ||१||
धत्ता
जीव भट्ट दिवस मम्मीसमि | सन्तिहरु पईसमि ॥१०॥
[१२]
॥ दुबई | एम मणेवि तेण क्रुद्ध जे च्छुड माहों ताएँ विगमे । घोसि पुरे मारि हिणव- फरगुण-मन्दीसरागमे ||१||
|
।
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सप्तरिम संधि
२४५
कर सैनिकोंने उसका गला पकड़कर धक्के एवं एड़ीके आबा से उसे बाहर निकाल दिया। अपमानित होकर वह लंका नगरी पहुँचा। उसने रावणसे अपने निवेदनमें कहा, "हे देव, मैं किसी प्रकार मारा भर नहीं गया । लक्ष्मण राम अजेय हैं, उन्होंने साफ 'न' कह दिया है, वे संधि करनेके लिए प्रस्तुत नहीं । अब जो ठोक जानें उसे सोचें, निश्चय ही अब अपना क्षयकाल आ गया है ।। १-१० ।।
[११] जिसने शम्बुकुमारको मार डाला, जिसने खर और दूषणको जमीनपर सुला दिया, जिसने मगरमच्छों से भरा समुद्र पार कर लिया, जिन्होंने हस्त और प्रहस्तको मौत के घाट उतार दिया, इन्द्रजीत और कुम्भकर्णको गिरा दिया। जो विशल्या सुन्दरीको ले आये और अपना भाई जिला दिया, उसके साथ युद्ध शोभा नहीं देता सीता वापस कर दो, छोड़ो उसका संग्रह ।" यह सुनकर राजा रावण बोर चिन्तामें पड़ गया, उसे लगा जैसे उसकी समुद्रकी भाँति मंधनकी स्थिति आ गयी। उसने कहा, "मैं नहीं जानता कि काम किस प्रकार होगा, क्या उसे बाँधकर कन्धों पर लाऊँ, क्या मैं शत्रु सेनामें नोंद केला हूँ, क्या लक्ष्मणको सेनापर तीरोंको बौछार कर दूँ । भले ही मुझे सेना सहित आत्म-समर्पण करना पड़े, मैं सीताको बापस नहीं कर सकता । हाँ, अब भी एक उपाय है। मैं बहुरूपिणी विद्याकी सिद्धिके लिए जा रहा हूँ। सारे नगर में मुनादी पिटवा दो गयी कि कोई डरे नहीं, और आठ दिन की बात है, मैं ध्यान करने जा रहा हूँ। अब मैं शान्तिनाथ मन्दिरमें जाकर ध्यान करूंगा” ॥ १-१२ ॥
[१२] यह कहकर रायण शीघ्र ही चल दिया। इसी बीच
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२४९
पउमचरित
'अट्ट दिवस निणधरु जयकारहीं। अव दिवस महिमउ णीसारहों ।।२।। अट्ट दिवस णि-मवगइँ सारहों। अट्ट दिवस जीवाहूँ म मारहों ॥३॥ अट्ट दिवस समरङ्गणु छट्टहाँ। अटु दिवस इन्दिर-दणु दण्डहाँ ॥ अट्ट दिवस उबवास काजहों। अटु दिवस मह-दाणहूँ देजहाँ॥५॥ अट्ट दिवस अप्पाणउ मावहों। एयारह गुण-थाण, दावहाँ ॥६॥ भट्ट दिवस गुण-वयह पउञ्जहाँ। से जहाँ जजहाँ अणुहु जहाँ ।। अट्ट दिवस पिय-वयगई भासही। अणुवय-सिक्खादय पगासहौं ॥८॥ अव दियस आमेच्छहों मच्छरु। जाम्व पहु फग्गुण-गन्दीसह ॥१॥
घत्ता
पञ्चकवाणु लपहु सो वि तामरसाई
परिक्षणु सुणहाँ मणु खम्चा । सई भुए हिँ मखारट भमतों ॥१०॥
[७१. एकहत्तरिमो संधि ]
हरि-हलहर-गुण-गहहिं दूलहों वयणे हिं पहु पहरेवर परिहर । विजहें कारण रावणु ग-जगडावणु मन्ति-जिणालउ पइसरइ ।।
। [1] गन्दीसर-एहसार सारएँ। माहव-मासु गाई हकारएँ ॥१॥ सासय-सहु संपावणे पावणें । दरिसाविय-पुष्फ-ग्गुणें फरगुणें ॥२॥
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सरो संधि
वसन्तका भाह भी बीत गया, फागुनके अभिनव नन्दीश्वरत्रतके आगमन के साथ नगर में 'हिंसा' यन्द कर दी गयी। आठ दिन तकके लिए जिनवरका जयकार हो, आठ दिनके लिए 'महीमद' को निकाल दो, आठ दिन तक जिनमन्दिरकी स्थापना हो, आठ दिन तक जीवोंका वध मत करो, आठ दिन तक लड़ाई बन्द रखो, आठ दिन तक इन्द्रियोंके निशाचरोंका दमन करो, आठ दिन तक उपवास करो, आठ दिन तक महादान दो, आठ दिन तक अपना ध्यान करो, आठ दिन तक ग्यारह गुणस्थानों का ध्यान करो। आठ दिनों तक गुणोंका ग करो, उनका सेवन जप और अनुभव करो, आठ दिन तक प्रियवचन बोला, अणुव्रत और शिक्षात्रतका प्रकाशन करो । आठ दिन तक ईर्ष्या छोड़ दो । तबतक जबतक यह फागुनका नन्दीश्वर व्रत है । प्रत्याख्यान करो ( सब कुछ छोड़ो ) प्रतिक्रमण सुनो। मनको बशमें रखो। रक्तकमल तोड़कर अपने हाथोंसे आदरगीय जिनभगवानकी अर्चना करो ।। १-१० ।।
,
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[ ७१ इकहत्तरवीं संधि ]
राम और लक्ष्मणके गुणोंसे युक्त, दूतके वचन सुनकर, राजा रावणने आक्रमणका इरादा स्थगित कर दिया। जगसन्तापदायक रावणने विद्याके निमित्त शान्तिनाथ जिनमन्दिरमें प्रवेश किया ।
[२] श्रेष्ठ नन्दीश्वर पर्वके आगमन पर ( प्रकृति खिल उठी ) मानो बसन्त माहूको आमन्त्रित किया गया हो। नन्दीश्वर पर्व शाश्वत सुख प्रदान करनेवाला था, और फागुन
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पडमचरित गाव-फल-परिपकाणणे काणण: कुसुमिएँ साहारएँ साहारएँ ॥३॥ रिद्धि-गपहें कोकणयहें कणयहें। इंसम्मंसि कुचला. कु-बमएँ ॥४॥ महुअरें महु-मजन्तएँ जम्तएँ। कोविक कुल बासम्सएँ सन्त ।।५।। कीर-चन्हें उदन्त उन्तएँ। मलयागिलें आवन्स वन्तएँ ॥६॥ मभरि पण्डिसल्लाघरे लावएँ। जहिं ण वि तिन्ति रयहाँ तित्तिरयहाँ ।। गाउ प णानइ कि सुऐं किसुएँ। जहिं असेण गयणाहों णाहहीं ।६॥ तणु परितप्पाइ सीपहें सीयहाँ ॥९||
यप्ता
अच्छउ कि सामपणे कण वि अपणे जहिं अमुत्तम रह करइ । त जण-[मण-मज्जावणु सडन-सुहावणु को महु-मासु ण सम्मर ॥१०॥
[२] कथइ अङ्गारव-समासः । रेहद तस्बिरु फुल्लु पलास ॥ णं दावाणल भाउ गवसः। को मई दादु ण दद्ध पएसउ |॥२॥ कत्थषि मारुधियएँ णिय मन्दिरु। एन्सु णिचारिड सं इन्धिन्दिक ॥३॥ 'भोसर श्रोसर सुहँ अपवित्त । अपणएँ णव-पुफ्फवाइप छित्तज' flen करथइ चूअ-कुसुम-मञ्जरियड। गाई बसन्स-घायड भरिया ॥५॥ कत्थइ पवण-हपई पुषणायई। णं जर्गे उच्छलियाँ पुण्णायहूँ ।।६।। कस्था अहिणवाई भमर-उल है। धियई वसन्त-सिरिद गं कुरलई ॥७॥ फणसइँ भवुह-मुहा इत्र सङ्कएँ। सिरिहलाई सिरि-हक इव बड्इँ ॥८॥
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हरियो संधि
२४९
महीने में जगह-जगह फूल दिखाई दे रहे थे । बनोंमें नये फल पक चुके थे, आसका एक-एक पेड़ बौर चुका था । लाल कमल और कनेरने नयी शोभा धारण कर ली थी । कमल-कमल पर हंसों की शोभा थी। भोरे मधुमें सराबोर हो रहे थे, कोकिल-कुल वासन्ती तराना छेड़ रहा था, कीरोंके झुण्ड जहाँ-तहाँ उड़ रहे थे। दक्खनपer हिलकोरे ले रहा था, मधुकरियाँ मीठी-मीठी बातों में व्यस्त थीं, अनुरक्त तीतर पक्षियोंको तृप्ति नहीं थी । पलाशवृक्षों में तोतोंका नाम भी नहीं जाना जा सकता था, जिसमें कामदेव के वशीभूत होकर सीता देवीका शरीर शीत से कॉन रहा था। सगे प्रिय कैसे रह सकते हैं जब कि कोई दूसरा अत्यन्त उन्मुक्त प्रेमक्रीड़ा कर रहा हो, और फिर, जनों के मनको मस्त करनेवाला, सुहावना मधुमास किसे याद नहीं आता ?
॥ १-१० ॥
[ २ ] कहीं पर फुला हुआ लाल-लाल पलाश पुरुष ऐसा लग रहा था मानो अंगार हो, मानो दावानल उसके बहाने यह खोज रहा था कि कौन मुझसे जला और कौन नहीं जला । कहीं पर माधवीलता अपने घर आते हुए मधुकरको रोक नही थी, "हटो हटो तुम गन्दे हो, दूसरी पुष्पवतीने तुम्हें छू लिया है, कहीं पर आमकी खिली हुई मंजरी ऐसी लगती थी मानो उसने वसन्त पताकाको धारण कर लिया है। कहीं पचनसे हिलती-डुलती नागकेशर ऐसी लगती थी मानो सारी दुनियामें केशर फैल गयी हो । कहीं पर नये भ्रमरकुल ऐसे लगते थे मानो वसन्त लक्ष्मीके काले केशपाश हों, कहीं-कहीं पर दुर्जनोंके मुखकी तरह अत्यन्त कठोर नागरमोथा दिखाई दे रहा था, और कहीं पर नारियल श्री (लक्ष्मी) फलकी तरह वृद्धिंगत जान पड़ते थे। उस
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पजमचारिज
पत्ता
तेह' काल मणोहरें पय-णन्दीसरें लक्क पुरन्दर-पुरि व थिय । रणयरहि गुरु-असिएँ (?) अविचल-मत्तिएँ जिशहरें जिणहर पुश किय ।९।
[३] घरे घरे महिमा णोसारियउ। घर घर पदिमड अहिसारियउ ||३|| घर घर तुरई अफालियई। सीह-उलर ओरालिय. ॥२॥ घरै घर रवि-किरण-णिवारण। दिमय बिताण तोरण, ॥३|| घर पर मालउ गन्धुकबउ । घर घर शिवटिय चन्दण-छाड़।।" घरै वरें मोतिय-रावलिङ। घरै घरें दवशुलउ णव-फलिउ ।।५।। घरै घरें भहिणव-पुप्फञ्चणिय । घरै घर पर कोडावणिय ।।६।। घर घर मिहुण. परिश्रोसियई। बरें घरें मह-दाण धोसियर ।।७।। घरें घर मोयण-सामग्गि किय। घरें घरै सिरि-देवय णाई थिय ॥४॥
घत्ता
करें वि महोच्छउ पट्टणे दणु-दलबद्दणे सप्परिवारु णिराउहउ । अट्टावय-कम्पावणु सरहसु रावणु गउ सन्तिहरहों सम्मुहर ।।९।
कुमुमाउह-आउह-सम-णयणे। णीसरियएँ सरियर दहक्यणें ॥३॥ मणहरणाहरणालङ्करिए। स-पसाहण-साहण-पस्यिरिएं ॥२॥ दप्पहरण-पहरण-बजियएँ। राउल राउल गजियएँ ।।३।। जय-मङ्गले माले पोसियएँ। रमणियर-णियर परिओसिष' ।। जणु गिग्गड जिग्गउ णित्तरउ । महिरक्खही सलही थिउ पुरउ ।।५।। पप्प-रहिथ पर-हिय के विगा। उववासिय वासिय धम्म-पर ।।६।।
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२५१
एक चरिमो संधि सुन्दर नन्दीश्वर पर्व के समय, लंका नगरी अमरावतीके समान शोभित थी। अविचल और भारी भक्तिसे भरे हुए निशाचरोंने अपने प्रत्येक जिनमन्दिरमें जिनपूजा की ।। १-९॥
[३] घर-घरमें धरतीकी गन्दगी निकाल दी गयी, घर-घरमें प्रतिमाका अभिषेक किया गया, घर-घरमें सूर्य बजाये गये, मानो सिंहसमूह ही गरज रहा हो, घर-घरमें सूर्य किरणोंको रोक दिया गया । ऊँचे वितान और तोरण सजा दिये गये । घर. घरमें सत्कट गन्धसे भरी मालाएँ थीं, घर-घरमें चन्दनका छिड़काव हो रहा था, घर-घरमें मोतियोंको रौंगोली पूरी जा रही थी, घर-घरमें दमनलता नयी नयी फल रही थी, घर-घरमें नयी पुष्पअर्चा हो रही थी, घर-घरमें चर्चरी और दूसरे कौतुक हो रहे थे । घर-घरमें मिथुन परिपोषित थे, घर-घरमें महादानों की घोषणा की जा रही थी, घर-घरमें भोजनकी सामग्री बनायी जा रही थी, मानो घर-घरमें लक्ष्मीके देवता अधिष्ठित हो । दनुका संहार करनेवाले लंका नगरमें, सपरिवार रावणने नन्दीश्वर पर्वका उत्सव, निश्चिन्ततासे मनाया। और फिर अष्टापदको कपानेवाला यह हर्षपूर्वक शान्ति जिनालयकी ओर गया ।। १-९॥
[४] कामदेयके अनके समान नेत्रवाले रावणने वसन्तके अनुरूप क्रीड़ा की । सुन्दर अलंकारोंसे अलंकृत, और प्रसाधनों के सहित सेनासे वह घिरा हुआ था। दर्प हरण करनेवाले अस्त्र खनखना रहे थे | नगाड़ोंसे भरपूर राजकुल गूंज रहा था, जयमंगल और मंगल गीतोंकी घोषणा हो रही थी। निशाचर समूह सन्तुष्ट था। जनसमूह निकलकर धरतीकी रक्षा करनेवाले उस राक्षसके सम्मुख खड़ा हो गया । अहंकार शून्य और परोपकारी बहुत-से धर्मपरायण लोग नहीं ठहर गये। कोई भी
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पउमचरिउ
I
दह (?) - महिय महिय का वितिय । कंजय करि जय करि णाएँ सिब |७| कॉवयरि ||२||
कवि राम राम
र
२५२
वाल-महन्द्रालाएं णायर-लीं सन्ति-जिणालय दि कह वाहन्यस्वर-आवायें समहर-हंस खुट्टे विघति कमलु जिह || ९ ||
विमलं रवि रासि हरं सिहरं । बुद्धत्तण- जम्म रणं भरणं । वीसम व रम्म ऋणे भवणे । भाइ व अलिमा भसरे भमरे । तोड व हन्यलयं अल । मइले व उज्जयं जलयं । खड्डे व अवगिलयं गिलयं । जीए व सच सुहं वसु ।
घन्ता
दसाणणो समालयं ।
लोकश महोच्छवी ।
विसारिया च
बली
[ ५ ]
सन्ति-हरं तिहरं ॥१॥
वारे व कम्पवर्ण पवर्ण ॥ २ ॥ परइ च कुसुम- अवडं ॥ ३ ॥
(?) समि- समयं स प्रर्थ 18 आहड़ व अक रहे कर- हे ||५|| परि व दिब्बल वलयं ॥६॥ हस व परिमुक-मलं कमलं ||७|| धरइ व अहिठाणं अहि ठाणं ||८||
घसा
गुण- पवित्त बिसाल सन्ति-जिणालउ सन्चों लोगों सन्निरु | वरेकहाँ नयाँ पर-तिय-सहीं लङ्का हिवहीं अयमित करु ॥९॥
[ ६ ]
पट्टओ जिणाकयं ॥ १११ विताण-वण-मण्डवो ॥२॥ विद्ध तोरणावी ॥३॥
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तरिम संधि
२५६
अपने पतिसे पूजित विमान में ऐसे बैठ गयी मानो कमल में विजयशीला शोभा लक्ष्मी विराजमान हो। कोई स्त्री अपने प्रियसे बात कर रही थी, कोई-कोई पत्नियाँ दीपको तरह आलोकित हो रही थीं। बाल सिंह के समान नागरिकोंको शान्तिजिनालय ऐसा दिखाई दिया, मानो आकाश रूपी सरोवर में रहनेवाले चन्द्रमारूपी हंस ने कमल काटकर नीचे गिरा दिया हो ।। १-२ ।।
[५] उस मन्दिरके शिखर पवित्रता में सूर्य के प्रकाशको फीका कर देते थे, वह शान्ति जिनका घर था, जो जन्म-जरा और मृत्युका निवारण करता था, जो हवा के कम्पनको दूर कर देता था, जो मार्ग से अनविदूर होकर भी पुरुषोंसे परिपूर्ण था, जो भ्रमरोंके बहाने कह रहा था कि संसारमें घूमना असत्य है, चन्द्रमा के समान, जिसकी मृगमयता बढ़ती जा रही थी ( मृगलछिन और आत्मज्ञान ), जो इतना ऊँचा था, कि आकाशतलको तोड़ने में समर्थ था, अथवा जो अपनी किरणोंसे सूर्य के रथ पर बैठना चाह रहा था, अथवा जो स्वच्छ मेघोंको भलिन बना रहा था, अथवा दिशावछयका त्याग कर रहा था, मानो वह अपना धरतीका घर छोड़ रहा था, अथवा जो सुप्त जल कमलकी भाँति हँस रहा था, जो सर्व सुखवादी धरतीकी रक्षा कर रहा था, अथवा जो पाताललोक या स्वर्गलोकको पकड़ना चाहता था । पुण्य पवित्र और विशाल वह जिनालय सब लोगोंको शान्ति प्रदान कर रहा था, केवल एक वह अशान्तिदायक था, वह था तसे च्युत और दूसरोंकी स्त्रियों का संग्रहकर्त्ता लंकाधिराज रावण ।। १-२ ।।
[६] राबणने शान्ति के निवास स्थान, शान्ति जिनालय में प्रवेश किया। वहाँ उसने महान उत्सव किया, उसने एक विशाल मंडप बनवाया। उसमें नैवेद्य और घर बिखरे हुए थे, तोरण
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२५४
पडमचरित
समुग्मिया माया। जिणाहिसेय-यं । मलद-गन्दि-माला। सरा-भेस्सिालरी। स-दद्दुरा-रखुमा । स्उण्ड-बहनही । चवीस-स-कीसथा। पवीण षीण पाषिया । पसपिर-दण्ड-नम्बरा । सुराण णिवन्धर्ण । अमस्स सम्व-रक्लर्ण। को -रेणु-मेतयं । वणासहहि प्रश्चियं । सरस्सईएँ गाइयं ।
सियायषस चिन्धया ॥ समाइयं गहीरयं ॥५॥ हुहुम-तुका-काहला ॥६॥ देविन्याणिकसरी ॥७॥ स-साल-सङ्घ-संघरा ॥८॥ अपरक-मम्म-झिकिरी ॥९॥ क्षिा सत समासि-11:34 पडू खुशी सुहाविया ॥३॥ भणेय सेय चामर ।।१२|| कर्यच तेहि पेसणं | पहणेण पक्षणं ॥१४॥ महाधणेहि सिप्तयं ॥५॥ पराणाहि गभियं ।।१६ पउजिरहि वाइयं ॥१७॥
पत्ता
णरबह मामरि देपिणु गाहु णवेप्पिणु एछु खणन्तर ए कुमणु । रावणहत्या वाऍवि मालु गावि पुणु पारम्भइ जिण-हवशु ॥१८॥
आयतु ससु-सम्तापणेण । अहिलेउ जिणिन्दहाँ रावणेण ॥३॥ पहिलज जि भूमि-पक्खालणेण | पुणु मालग्गि-पजालणेण ॥२॥ भुवणिन्द-विन्द-परियोहणेण । अभिएण वसुग्घर-सोहणेण ॥३॥ वर-मैरूपीव-पक्खास्त्रगेण। अगोवाए रिव चालणेण(!) ॥४॥ कायनि-सेहर-बन्धणेण] कुसुमालि-परिमा-थावणेण ॥५॥ महि-संसण-कळस-णिरोहणेण। पुपरवि-पुकालि-पत्तप्रोण ॥६॥
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एकहतरिमो संधि मालाएँ बैंधी हुई थीं, विशाल पताकाएँ उड़ रही थीं। शुभ्र आतपत्र शोभित थे। सहसा जिन भगवान्के अभिषेक तूर्य बज उठे । मनन्द, नन्दी, मृदंग, हुडक, ढक, काहल, सरंज, भेरी, सल्लरी, दडिक हाथ की कर्तार, सदद्दुर, खुक्कड, ताल, शंख और संघड, डउपड, डक, और टट्टरी, झुणुक, भम्म, किङ्करी, वयोस, वंश, कंस तथा तीन प्रकारके स्वर वहाँ बजाये गये। प्रवीण, वीण और पाविया आदि पटहोंकी ध्वनि सुहावनी लग रही थी। सोनेके दण्डोंका विस्तार था, शुभ्र चमर बहुत-से थे, देवताओंको जो बातें निषिद्ध थीं वे भी उन्होंने वहाँ की। यमका काम सबकी रक्षा करना था, पवन बुहारता था और सब धूल साफ कर देता था, महामेन सोधनका काम करते थे, पमस्पतियाँ पूजा करती थीं, उत्तम अँगनाएँ नृत्य कर रही थीं, सरस्वती गीत गा रही थी और प्रयोक्ताओंने नृत्य किया। परिक्रमाके बाद स्वामीको नमस्कार कर, वह एक मणके लिए अपने मनमें स्थित हो गया। उसने अपने हाथों बाद्य बजाकर मंगल-नगान किया, और जिन भगवान्का अभिषेक किया ।। १-१८॥
[0] शत्रुओंको सतानेवाले रावणने जिनेन्द्रका अभिषेक प्रारम्भ किया। सबसे पहले उसने भूमिको घोया, फिर मंगल अग्नि प्रज्वलित की। फिर भुवनेन्द्रोंको सम्बोधित किया। तदनन्तर अमृतसे धरतीकी शुद्धि की, उसके बाद उत्तम मेरुपीठका प्रक्षालन किया । फिर वलय सहित अंगुलियोंसे अपना मुकुट बाँधा, सुमनमालाके साथ प्रतिमाकी स्थापना की। विश्व प्रशंसनीय कलशोंको उसने रोपा। फिर फूलोंकी अञ्जलि छोड़ी, अर्घ्य चढ़ाया, देवताओंका
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२५६
परमचरित
भग्धेण अमरावाहणेण । जय-मङ्गल-कलसुक्खिप्पणेण ।
णाणाविहेण अवधारणेण ।।७।। जलधारोवरि-परिधिप्पणेण ॥६॥
घत्ता भइरावय-मय-रिवें भसलाइ किङ्कर-पवर-पराणिऍण । अहिसिबिउ सुर-सारड सन्ति-मडारउ पुषण-पविर्ते पाणिाएँण ||
[-] करि-मयर-फरम्गप्फालिएण। भिङ्गार-फार-संचालिएण || महुअरि-उवगीय-वमालिपुण। अलि बलय-मुहल-सब-लालिएण ॥२॥ मह पर-दुक्खेण व सोयलेण। सजण-वयणेण व उजलेण ॥३॥ मलय-रुह-वणेण व सुरहिएण। सह-चिसण व मल-विरहिएण ||४|| अहिसिघिउ तेणामक-जलेण। पुणु णत्र-घरण महु-पिङ्गलेण ॥५॥ पुणु सङ्ख-कुन्द-जस-पण्डुरेण। मझा-तरह-उडमॉरेण ॥६॥ हिमगिरि-सिंहारेण व साडिएण। ससहर-विम्वेण व पाखिएण ॥७॥ मोत्तिय-हारेण व नुट्टएण। सरयम-उरेण व फुहएण ॥४॥ खीरेण तेण सु-मणोहरेण । पुणु सिसिर-पवाहें मन्थरंग ॥ ॥ अविणय-पुरिसेण व भदएप। गव दुमय व साहा-वचएण ॥१०॥ पुश परिमुवतण-धोवणेण । चुण्णेग अकेण गधोवएण ॥3114
धत्ता कपूरायस् बालिउ घुसिणुम्मीसित तं गन्ध-अलु स-णेउरहों। दिग्णु विवि राएं गं गणुराएं द्विपउ सम्बु अन्तेउरहों ॥१३॥
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एक हतरिम संधि
२५७
आह्वान किया, दूसरे तरह-तरह के विधान किये, जय और मंगल के साथ उसने घड़े उठाये और प्रतिमा ऊपर जलधाराका विसर्जन किया। ऐक मदजसे सह भ्रमरोंसे अनुगुंजित और अनुचर से प्रेरित पुण्यपवित्र अपने हाथसे दशाननने देवताओं में श्रेष्ठ आदरणीय जिन भगवान्का अभिषेक किया ॥ १-२ ॥
[८] उसने पवित्र जलसे जिन भगवान्का अभिषेक किया। उस पवित्र जलसे जो हाथी की सूँड़से ताड़ित था, भ्रमर समूहसे अत्यन्त चंचल था, भ्रमरियों के उपगीतों से कोलाहलमय था, भ्रमर समूहसे मुखर और चंचल, अथवा, शत्रुके दुःखकी तरह अत्यन्त शीतल, सज्जन के मुखकी तरह उज्ज्वल, मलय वृक्षोंके समान, सुगन्धित, सतीके चित्तके समान निर्मल था | फिर उसने मधुकी तरह पीले और ताजे घी से अभिषेक किया । इसके बाद उसने दूध से उनका अभिषेक किया, वह चूर्ण जल, शंख, कुन्द और यशके समान स्वच्छ था, गंगाकी लहरोंकी तरह कुटिल, हिमालय के शिखरकी भाँति सघन, चन्द्रबिम्बकी तरह शुभ्र, टूटे हुए मोतियोंकी तरह स्फुट, शरद क्षेत्रकी तरह बिखरा हुआ था, और शिशिरके प्रवाहकी भाँति मंथर था । फिर उसने प्रतिमाका उबटन, धोवन, चूर्ण और गन्ध जलसे अभिषेक किया, जो चूर्ण जल, अविनीत पुरुषकी भाँति सघन, और नये वृक्ष की भाँति साहाबद्ध (शाखाएँ और मलाईसे सहित ) था । कपूर और अगरसे सुवासित, केशरसे मिश्रित वह गन्धोदक रावणने अपने अन्तःपुरको दिया मानो उसने समूचे अन्तःपुरको अपना हृदय ही विभ्रक्त करके दे दिया हो
।। १-१२ ।।
૭
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पउमरिट
[१] दिवेण अणुलेत्रणेणं सुअन्धेग । सिरिखण्ड-कप्पुर-कुकुम-समिक्षेण ॥1॥ दिब्यहि जाणा-पयारेहि पुष्कोहि। रत्तप्पलिन्दीवरम्मोय-गुप्फेहि ॥२॥ अउत्तयासोय-पुण्णाय-पाएहिं । सयवत्तिया मालई-गरिजाएहि ॥ कणियार करवीर-मन्दार-कुन्देहि । विअइल्ल-वतिलय-घउलेहिं मम्महि ॥४॥ मिन्दर-बन्धुक-कोग-मुहि ! पण निशिप एवं व मालाहि अपग-रूपा। कण्णाहियाहि व सर-सार-भुआहि ।।६।। आदीरियाहि व वायाल-भसलाह। वर-लाहियाहिं व मुह-श्ण्ण-कुसलाहि ।। सौरट्रियाहिंघ सङ्ग-मउआहि । मालविणियाहिं व मझार-आहि ॥८॥ मरहटियाईि उदाम-बायाहिं। गेय-शुणिहि व अण्णग्ण-छायाहि ॥२॥
पत्ता
प्पाणाविह-मणिमइयहि किरणम्महहि चन्द-पुर-सारिस्कएँहि । अचण किय जग-णाहहाँ केवल-बाहहाँ पुषण-सएहि व अक्सएँहि ॥१०॥
[10] पच्छा प्ररुपण मणोहरेण । गङ्गा-बाहेण घ दोहरेण ॥ मुत्ता-णियरेण व पण्डरेण । सु-कलत-मुहेण व सु-महुरेण ॥३॥ वर-अमिय-रसेण व सुरहिएष। सुमपेण प सुख सणेहिएण ॥. तिस्पयर-वरेण व सिखएण । सुरएण व तिम्मण-रिद्धपण || पुणु दीपणाणाविहरि । घरहिम हि व अनदीहर-सिहहि ॥५॥ सुहडेहि व वणिऍपि वलियएहि । टिण्टाउत्तेहिं च जलियएहि ॥१॥
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पचहत्तरिमो संधि
२५९ [] फिर उसने परम जिनकी अर्चना की दिव्य सुग. धित चन्दन, कपूर और केसरसे मिश्रित अनुलेपसे। फिर दित्य नाना प्रकारके फूलोंसे, जिनमें लाल और नील कमल गुंथे हुए थे। अत्युत्तम अशोक, पुंनाग, नाग कुसुम, सपत्र, मालती, हरसिंगार, कनेर, कर वीर, मंदार, कुन्द, बेला, वरतिलक, बकुल, मन्द, सिन्दूर, वंधूक, कोरंट, कुंज, दमण, मरुआ, पिक्का, तिसज्म आदि फूलोंसे उसने जिनकी अचर्चा की। इसके अनन्तर, उसने तरह-तरह रूपवाली मालाओंसे जिनकी पूजा को, जो मालाएँ कर्णाटक नारियों की तरह कामदेवकी सारभूत धी, आभीर स्त्रियोंको तरह विदरूपी भ्रमरोंसे युक्त श्रीं, लाट देशकी वनिताओंको तरह मुखवों में अत्यन्त चतुर थी, सौराष्ट्र देशकी स्त्रियोंकी तरह सब ओरसे मधुर थीं, मालव देशकी पत्नियों की तरह मध्यमें दुबली पतली थी, महाराष्ट्र देशकी स्त्रियोंकी भाँति जो उद्दामवाक (बोली, छालसे प्रगल्भ ) थीं, गीत ध्वनियों की तरह एक दूसरेसे मिली हुई थीं। तरहतरहके मणि रत्नोंसे बनी हुई, किरण जालसे चमकती हुई, सूर्य चन्द्र जसो मालाओं एवं शत-शत पुण्य अमतोंसे, रावणने विश्वस्वामी परम जिनेन्द्रकी पूजा की ।। १-१०॥ _ [१५] उसके अनन्तर, उसने नैवेद्यसे पूजा की, जो गंगाप्रबाहकी तरह दीर्घ, मुक्कासमूहके समान स्वच्छ, सुन्दरीके समान सुमधुर, उत्तम अमृत रसके समान सुरभित, स्वजनके समान स्नेहिल, उत्तम तीर्थ करकी तरह सिद्ध, सुरतके समान तिम्मण( स्त्री, पक्यान्न ) से युक्त थी। फिर उसने नाना प्रकारके दीपोंसे उनकी आरती उतारी। वे दीप, मयूरों की भाँति अतिदीर्घ शिखा ( पूंछ और ज्वाला) वाले थे, जो सुभटोंकी भाँति अणित (प्रणों-घावों, स्त्रियों) से युक्त थे, जूताधिकारीको
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२६०
।
धूवेण विविध गन्ध पुणु फल. त्रिण सुखांहिष्ण ।
साहारेण व अह पक्कएण |
पहु-अण एम्ब करें जान ।
पउमचरिउ
क धुणे हुँ पयस्थ-विचित्तं । मोक्खपुरं परिपालय-गतं । सोम-सुई परिपुण्ण-पषितं । सिद्धि बहु-मुह दंसण-पत्तं । मावलयासर वामर-छतं । जस्स वाहिले खगतं । चन्द्र- दिवायर-सह- छतं । दयि जेण मणिन्दिव-छत्तं ।
मयण व जिणवर द्रढएण ॥७॥
करवेण वसव - रसाहिए ॥८॥
तण व साहा मुक्कए ||१||
गयणजे सुर बोन्ति ताम् ॥१०॥
धत्ता
'जह विसन्ति एहु घोसह कलए होसह सो वि राम लखगहुँ जउ । सिन्ध अरु
इन्द्रियसि करत हुँ
सोय
[ 11 ]
गाय - नराण सुराण विश्चित्तं ॥ १ ॥ सन्ति- जिणं सखि गिम्मक वतं ॥१॥ जस्स चिरं चरित्रं सु-पविचं ॥ ३ ॥ सील गुणव्वय सक्षम-पत्तं ॥४॥ सुन्दुहि दिन्वणी- पह-वत्तं ||५|| अट्ट सयं चिय लक्षण गतं ॥६॥ वारु-असोम महदूदुम छतं ॥१७॥ पोमि विणोत्तममम्बुज- शेषं ॥ ८ ॥
( दीध )
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एकहत्तरिमो संधि
२६1
भाँति जलित ( जलमय, ज्वालामय ) थे। फिर उसने नाना प्रकारकी गन्धवाली धूपसे जिनकी पूजा की, जो जिनवरकी तरह दग्धकाम श्री । उसके अनन्तर सुशोभित फल-समूहसे उन्हें पूजा, वह फल-समूह काल्यकी भाँति सब रसोंसे अधिष्ठित था । फिर उसने पके हुए आम्रफलांसे पूजा की, जी तककी भॉति शाखासे मुक्त थे | जब वह इस प्रकार भगवान जिनेन्द्रको पूजा कर ही रहा था कि आकाश में देवताओंकी ध्वनि सुनाई दी। ध्वनि हुई कि भले ही तू इस समय शान्तिको घोषणा कर रहा है फिर भी कल, जय राम लक्ष्मणको ही होगी। जो अपनी इन्द्रियों वशमें नहीं करते और दूसगेकी सीता वापस नहीं करते, बनको श्री और कल्याणकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ।।१-शा
[११] उसके अनन्तर, रावण विचित्र स्तोत्र पढ़ने लगा"नाग नरों और देवताओंमें विचित्र हे देव, तुमने अपने शरीर से मोक्षकी सिद्धि की है, चन्द्रमाके सदृश शान्त-आचरण शान्तिनाथ, सोमकी भाँति हे कल्याणमय, हे परिपूर्ण पवित्र, आपके चरित्र सदासे पवित्र हैं, तुमने सिद्ध वधूका घूघट खोल लिया है, शील, संयम और गुणरतोंकी तुमने अन्तिम सीमा पा ली है, आप भामण्डल, श्वेत छत्र और चमर, दिव्य ध्वनि और दुन्दुभिसे मण्डित हैं। जिसके संसारोत्तम कुलमें सुभगता है, जिसका शरीर १०८ लक्षणोंसे अंकित है, जिनके छत्रकी कान्तिसे सूर्य और चन्द्र लजाते हैं, जिनके ऊपर अशोक सदैव अपनी कोमल छाया किये रहता है। मन और इन्द्रियाँ, जिनके अधीन हैं, मैं ऐसे कमलनयन शान्तिनाथको प्रणाम करता हूँ।
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२६३
पउमचरितः
परं परमपारं। जरा-मरण-णास । णिराहरण-सोई। भयाणिष-पमाणं। महा-कलुण-मावं। णिराउह-करगं । हरं हुयवहं वा । ससि दिग्णयर वा।
सिर्व सयल-सारं ॥५॥ जय-स्सिरि-णिवास ॥१०॥ सुरासुर-विवो ॥११॥ गुरुं गिरुवमाण ॥१२॥ दिसाबह-सहावं ॥१३॥ विणासिय-कुमग्गं ।।१।। हरि चउमुहं वा ॥१५|| पुरन्दर-वर का 1॥१६॥
महापाव-मोरू पि एकल-धीरं । कला-माय-हीण पि मे सहि धीरं ॥१७॥ विमुत्त पि मुसायली-सपिणकासं । विणिमन्थ-मग पिगन्भाषयासं॥१८॥ महा-वीयराय पि सीहालणत्थं। अ-भूमङ्गुरस्थं पि णहारि-सरथं ॥१९॥ समाधम पि देवाहिदेवं । जिईसा-बिहीणं पि साचूठ-सेकं ॥२०॥ भणायप्पमाणं पि सम्व-पपसिखं । भणन्त पि सन्तं अणेयत्त-विद्धं ॥२॥ मलुलिस-गतं पि णिचाहिसेयं । मज पि लोए गिराणेय-णेयं ।।२२५६ सुरा-णाम-णासं पिणापा-सुरेसं । जब-जून-चार पि दूरस्थ-केसं ॥२३॥ अमाया-विरूवं पि विक्षिण्ण-सोसं सया-आगमिल्लं पि णिचं अदीस।।२।।
( भुजंगप्रयात)
महा-गुरुं पि णिग्मरं । परं पि सम्व-पच्छल ।
भणिष्ट्रिय पि दुम्मरं ॥२५॥ घरं पि णिश्च केवळ ॥२६॥
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एकहरिमो संधि
२५३ हे श्रेष्ठ प्रमा, हे सर्व मित्र, अपने जन्म, जरा और मृत्युका अन्त कर दिया है। आप जयश्रीके निकेतन हैं, आपकी शोभा अलंकारोंसे बहुत दूर है, सुर और असुरोंको आपने सम्बोधा है, अज्ञानियोंके लिए, आप एकमात्र प्रमाण हैं। हे गुरु, आपकी क्या उपमा हो, आप महाकरुण और आकाशधर्मा हैं। अस्त्रविहीन आप कुमार्गको कुचल चुके हैं, आप शिव हैं या अग्नि, हरि हैं या ब्रह्मा, चन्द्र हैं या सूर्य, या उत्तम इन्द्र हैं। महापापोंसे डरनेवाले आप अद्वितीय वीर है। आप कलाभागसे (शरीर ) रहित होकर, सुमेरके समान धीर हैं, विमुक्त होकर भी मुक्तामालाकी तरह निर्मल हैं, ग्रन्थमार्गसे (गृहस्थसे ) बाहर होकर भी ग्रन्थों (धन, पुस्तक ) के आश्रयमें रहते हैं, महा वीतराग होकर भी सिंहासन (मुद्रा-विशेष) में स्थित हैं, भौंहोंके संकोच के बिना ही, आपने शत्रुओं (कर्म) का नाश कर दिया है, समान अंगधी होकर भी आप देवाधिदेव हैं, जीतनेकी इच्छासे शून्य होकर भी, सर्वसेवारत हैं, प्रमाण ज्ञानसे हीन होकर भी सर्व-प्रसिद्ध हैं । जो अनन्त होकर भी सान्त हैं, और सर्वज्ञात हैं, मलहीन होनेपर भी, आपका नित्य अभिषेक होता है। विद्वान होकर भी, आप लोकमें ज्ञान, अजानकी सीमासे परे है। सुराके संहारक होकर भी नाना सुराओंके ( देवियोंके ) अधिपति हैं। जटाजूटधारी होकर भी जटाओंको उखाड़ डालते हैं, मायासे विरूप रहकर भी, स्वयं विक्षिप्त रहते हैं, आपका आगमन ज्ञान शोभित हैं, पर स्वयं
आप अदृश्य हैं। आप महान् गुरु ( भारी, गुरु) छोकर भी, स्वयं निर्भर ( परिग्रह हीन ) हैं। आप अनिर्दिष्ट ( मृत्युरहित, समवशरणसे जाने जानेवाले), होकर भी दुम्मर (मरणशील, मृत्युसे दूर ) है। आप पर (शत्रु, महान् ) छोकर भी,
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२६४
पहुं पि णिष्परिगाई |
सुहिं वि सुदु-दूरयं ।
रिवरं पिद्धयं ।
महेसर पिणं ।
अवियं पि सुन्दरं । सारियं पवित्ययं ।
एडमचरित्र
॥२३॥
हरं पि-नि अ-विग्रहं पिसूरयं ॥ २८ ॥ अमरं पि कुत्रयं ॥ २९ ॥
गयं विमुख बन्धणं ॥ ३० ॥
अ- वडियं पि दोहरं ॥ ३१ ॥ थिरं पिचिपत्यं ॥ ३२ ॥
( णाराचं )
धत्ता
अवि जिपिन्दर्हो भुत्रणाणन्दह महियले जणु जो करें वि । णासर गाजिब लाअणु अणिमिस-घांगु भित्र मर्गे भषल झागु घरं वि ॥ २३ ॥
[R]
नियमस्थ सुष्पिणु दहायणु ॥ ५ ॥ सुग्गोवह हणुवहीं जम्बवहीं ॥२॥ स- गणकहाँ तह गवयहाँ गयहाँ |२| कुमुग्रहों कुन्दहों मीलों णल्हों ॥ ४ ॥ पण तुत्तु 'लइ कि कहूँ ॥ ५ ॥ धि सम्ति जिणालाड पसरेंवि || ६ || रावण-अवरोहण दहवयणु ॥ * ॥ 'साहिय बहुरुविण बिल अड् ॥ ८ ॥ हरि परि एहऍ अवसरें मिड अरि ॥९॥
बहुरुविणि विज्ञान मणु । तो जाय बोल्ल वळें राहवहाँ । सीमित
हों यहाँ ।
तारों रम्महों मामण्डलों । अवरहु मि असेमहुँ किङ्करहुँ । अद्राहि आह परिषि | आराहइ लग्गई एक मणु । तं सुर्णेवि विडोस विष्णषड् । तो पण चिंहउँ गवि तुहुँ ण वि य
धन्ता
-3
चोर - जार-अहि-बदर हुअ वह डमर हुँ सोइ त्रिणासह वसणु पथासह
जो अवहेरि करें गरु । मूल-तलुकख जेम तरु ॥ १० ॥
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एक सरिमो संधि सर्चवस्सल हैं। आप वर (वधूयुक्त, प्रशस्त) होकर भी सदैव अकेले रहते हैं, आप प्रमु (स्वामी, ईश) होकर भी अपरिग्रही हैं, हर (शिव) होकर दुष्योका निग्रह करते हैं, सुधी (सुमित्र, पण्डित) होकर भी दूरस्थ है, विमहशून्य होकर भी आप सूर-वीर हैं, (वैरशून्य होकर भी अनन्त चीर हैं ), निरक्षर (अझरशून्य, क्षयशून्य ) होकर भी बुद्धिमान है, आप अमत्सर होकर ऋद्ध (कुपित, पृथ्वीकी पताका ) हैं, महेश्वर होकर भी निर्धन हैं, गज होकर भी बन्धनहीन है, अरूप होकर भी सुन्दर हैं, आप वृद्धिस रहित होकर भी दी है, आत्मरूप होकर भो, विस्तृत हैं, स्थिर होकर भी नित्यपरिवर्तनशील हैं, इस प्रकार भुवनानन्ददायक जिनेन्द्रकी स्तुति कर, धरती तलपर रावणने नमस्कार किया, अपनी आँखोंको नाकके अबिन्दु पर जमा कर अपलक नयन होकर उसने मनमें अविचल ध्यान प्रारम्भ कर दिया ॥१-३३॥
[१२] यह सुनकर कि रावण बहुरूपिणी विद्याके प्रति आसक्त होने के कारण नियमकी साधना कर रहा है, राम,इनू मान सुग्रीव और जाम्बवानकी सेनामें हल्ला होने लगा। सौमित्रि, अंग, अंगद, गवाक्ष, गवय, गज, तार, रम्भ, भामण्डल, कुमुद, कुन्द, नल और नीलमें खलबली मच गयी। और भी अनेक अनुचरों में से एक ने कहा, "बताओ क्या करें" वह तो युद्ध छोड़कर शान्ति जिनमन्दिर में प्रवेश कर बैठ गया है। वहाँ वह ध्यान कर रहा है। यदि कहीं उसे विद्या सिद्ध हो गयी तो न मैं रहूँगा और न आप और न ये बानर । अच्छा हो, यदि शत्रु अभी मार दिया जाय। चार, जार, सर्प, शत्रु और आग, इन चीजोंकी जो मनुष्य उपेक्षा करता है वह विनाशको प्राप्त होता है, वह उसी प्रकार दुःख पाता है जिस प्रकार जड़
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२६६
सक्केण वि किया अवहेरि चिरु |
संखड अप्पा
आशियन |
पउमचरि
[3]
जं बाषित वीस-सिरु ॥१॥ मिति अहियारु ण जाणियउ ||२|| 'जो रिड पणमन्त श्रहण ||३|| जो घ पुणु तवसि ण परिहरहु ॥ ४ ॥ वरि मिन्दद्द पिय-सिरें छार-हदि ||५|| तेचिट पहरन्तहुँ जसु समहू' ॥ ६ ॥ रहु-तर वृत्त अङ्गऍहिं ॥७॥ मणु हरेंवि कुमार सेण्णु चलिउ ॥12॥
संणिसुचि सांग
मत् ।
सो खत्तिय कुल कलङ्कु करई । वहीं किं पुलिजह चाह । जेलित दणु हुजउ संमबद्द | तं निसुर्णेवि कण्टङ्गऍहिं । 'सा खोह हुँ जाम झाणु दलिउ' ।
घत्ता
तं स विमाणुस वाहणु उक्खय-पहरणु णिवि कुमारहों तणच बलु । मिसियर पयरु पोलिउ थिय पञ्चालित महण-काले णं उचहि जलु ॥ ९ ॥
जमकर - लीक- दरिसम्तहिं । कचण-चाड - फोडन्त हि । मणि- कोटिम खोणि-खणऍ हि । अपपरिअड सच्चु जणु । शहिँ अवसरे सम्भासन्तु मउ । थि अनि साह अपणउ | मन्दोभरि अन्त ताम थिय । जं भाषतं करन्तु णउ |
[ 1 ]
रमन्तरे पसन्तएँ हिँ ॥ १॥ सिय-तार हार तोडन्त हि ॥ २ ॥ 'भरें रावण रक्खु' भणन्तहिं ॥३॥ साहारूण बन्ध तट्ट मणु ॥४॥ सह विदाहाँ पा गई ||५|| किय कालही फेश्चित जपणउ ॥ ६॥ 'किं रावण बोलण णत्रि सुद्दय ॥७॥ नन्दीसह जाम ताम समद्ध || ८||
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एकहत्तरिम संधि
२६७
खोखली होने पर पेड़ ॥ १-१०।
[१३] इन्द्र बहुत समय तक उपेक्षा करता रहा इसी लिए रावणने उसे बन्दी बनाया, इस प्रकार उसने खुद अपने विनाशको न्यौता दिया | वह नीतिका अधिकारी जानकार नहीं था ।" यह सुनकर रामने कहा, मीणा करते दशकु है, वह क्षत्रिय कुलमें आग लगाता है और फिर जो तपस्वीको भी नहीं छोड़ता, उसकी बहादुरीका पूछना ही क्या, इससे अच्छा तो यह है कि वह अपने सिर पर राखका घड़ा फोड़
शत्रु जितना अजेय होता है, ( उसके जीतनेपर ) उतना हो यश फैलता है ।" यह सुनकर उनके अंग-अंग रोमांचित हो उठे । उन्होंने कहा कि हम उसे क्षोभ उत्पन्न करते हैं कि जिससे वह अपने ध्यानसे डिंग जाय । तत्र कुमारकी विमानों, वाहनों और हथियार सहित सेनाको देखकर, निशाचरोंकी नगरी में खलबली मच गयी, निशाचर - नगर, अचरज में पड़ गया कि कहीं यह समुद्रमन्थनका जल तो नहीं है ? ॥१-२||
[१४] मृत्यु लीलाका प्रदर्शन करते हुए नगरके भीतर प्रवेश करते हुन् सोनेके किवाड़ और सफेद स्वच्छ हारोंको तोड़तेफोड़ते हुए मणियोंसे जड़ित धरतीको रौंदते हुए अंग और अंगद चिल्ला रहे थे कि रावण अपनेको बचाओ। लोगों में अपने परायेकी चिन्ता होने लगी । उनका पीड़ित मन सहारा नहीं पा रहा था। उस अवसर पर अभय देता हुआ मय संनद्ध होकर रावणके पास पहुँचा, और अपनी सेना अड़ाकर स्थित हो गया । उसने यमका बाहन तोड़ दिया। इतनेमें मन्दोदरीने बीच में पड़कर कहा कि क्या तुमने रावणको घोषणा नहीं सुनी कि जो अन्याय उन्हें अच्छा लगे, वह वे करें; जब तक
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२६८
पउमपस्टि
घाता तं णिसुणवि दूमिय-मणु आमेलिय-रणु मउ पयह अप्पणउ घरू । पषियम्भिय अजय मत्त महागय गाई पट्टा परम-सरु ॥९॥
गवर पविपरममाणेहिं दोहि पि सुगीव-पुत्तेहि। अण्णाय-चन्तहि अण्ण-खरगेहि रेकरिमी रावणो । सह वि श्रमणो ण सोहं गओ सध्ध-रामाहिरायस्स निकम्पमाणस्स तहलोड-चोकवीरस्स सकारिणो ॥१॥ मलयगिरि-बिन-सम्झस्थ केलास-किहिन्ध-सम्मेय. हेमिम्दकीलमणुजेमत-मेहहिं धीरसणं धारिणी ॥३।। पवल-बहुरूविणी-दिव्य वजा-महाकरिस-उहाण-दावग्गिा जालावली-जाय-जजखमाण-कामस्थियो । असुर-सुर-बन्दि-मुमशुम्मिरस-योरंसु-धारापुसिजन्त-णीलीक्य-त्त-चिन्ध-पदायाक्षिणो ॥५॥ धणय-जम-ग्रन्द-सूरग्गि खन्देन्द-देवाइ-चूडामणिन्दु. प्पाहा-वारि-धारा-समुध्य-पायारविन्दस्स से ॥३॥ गरुय-उवसम-विग्वे समारम्मिए [प] समुरिंगणणाणा रह-दट्टाइरं जाव-सेपणं समुबाइयं ।।७।। फरस-वयणाहि हकार-इकार-कार-हुकारभीसावणं पिरितकणं पणट्ठा कइन्ददया ) III
पत्ता मग्गु कुमारहुँ साहशु गलिय-पसाइणु पच्छल गाउ जक्स-बलु । (ण) णव-पाउसे अइ-मन्दहाँ तारा-चन्दहो मेह-समूह गाई स-जलु ॥१॥
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२३०
पडमचरित
सहि अवसर जणिय महाषण । जं अविउ पुजिउ राहग ॥१॥ तं जमान-संपणु सेपणहों पवर। थिट अग्गा खरगुग्गिपण-करु ॥२॥ 'अरे जहाँ स्मग्वही किङ्करहो। जिह सकहीं तिह रण उन्धरहों ॥३॥ बलु वुवाहो महाँ आइयणे। पक्षन्तु सुरासुर श्रिय गयणे ॥३॥ ता अच्? रामण-मामहु मि। समस्ङ्गणु अन्हह तुम्हहु मि ॥५॥ तं णिसुर्णेवि दहमुह-वयिषऍ। दोरिछय सन्तिहरारशिखएँ हिं ।।६।। 'दुम्मणुसहाँ छुट्टहाँ दुम्मुहहो। जं किय दोहाई दहमुखहाँ ॥७॥ सं सो जि भणेसह सध्वहु मि। तुम्हहँ हरि-बल-सुग्गीबहु मि' ॥८॥
धत्ता
त गितुङ्गेषि आसष्ट्रिय माग-कलिय जाख परिष्ट्रिय मुवि छलु । पुगु वि समुण्गय-खागा पटलं लग्गा जाव पल रिउ राम-बलु ॥९॥
[ ] पल गरहिउ मल-पदाणऍहि। बहु-भूय-मविस्मय-जाणएँ हि ॥१॥ 'भों पर-परमेसर दासरहि। जइ छु मि भणिति एम करहि ॥२॥ सो होसइ कहीं परिहास पुर्ण । णियमा हणन्तहुँ कवण गुणु' ॥३॥ तं सुर्णेवि चुलणारायण । 'ऍड वीलिड कवणे कारणण || महों नहीं जापही दुरुचारिमहौं। दुही चोरहों परयारियहाँ ॥५॥ साहन देन्तहुँ कवा गुण । कि मई आरुष्टुं सम्ति पुणु' ॥६॥ तं गरहिउ देयहुँ चित थिउ । 'सञ्चट आम्हहिं अनुत्तु किउ ।।७।। सवड विस्यारउ दहयषणु । ण समापद पर-कलस-स्या ' ॥८॥
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एकत्तरिमो संधि
२.१ [१६] उस अवसर, महायुद्धके रचयिता राघवने जैसे ही 'अंघी' की पूजा की वैसे ही सेनामें प्रबल यक्ष सेना टूट पड़ी
और अपनी तलवारें निकालकर उनके सामने स्थित हो गयी। तब देवताओंने कहा, अरे रावणके अनुचरो, जिस तरह सम्भव हो, युद्ध में आक्रमण करो, अपनी ताकत तौलकर युद्धमें लड़ो।' देखने के लिए देवताआकाश में स्थित हो गये।" यक्षोंने कहा, "राम
और रावणका युद्ध रहे. अभी हमारी तुम्हारी भिड़न्त हो ले।" यह सुनकर, शान्तिनाथ मन्दिरकी रक्षा करनेवाले रावण पक्षके अनुचरोंने उन्हें डाँटा और कहा, "अरे दुर्मन, दुष्टो, तुमने रावणके साथ धोखा किया है, अब वही रावण तुम सबको और रामकी सेना और सुप्रीवको मजा चखायेगा।" यह सुनकर आशंकासे भरे हुए और कलंकित मान यक्ष छल छोड़कर भाग खड़े हुए, फिर भी तलवार उठाये हुए वे पीछा करने लगे। इतने में शत्रु रामकी सेना आ गया बार-५।।
[१७] तब बहुत-से भूत और भविष्यको जाननेवाले प्रधान रक्षकोंने रामकी निन्दा करते हुए कहा-“हे मनुष्य श्रेष्ठ राम, यदि तुम्ही इस तरह अन्याय करते हो तो फिर किसका परिहास होगा ? साधनामें रत व्यक्ति पर आक्रमण करने में कौनसा गुण है." यह सुनकर नारायणने कहा-"तुम यह किस कारण कहते हो; अरे चरित्रहीन यक्षो, दुष्ट चोरो, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण करनेवालो, तुम्हें अनुग्रहीत करनेमें क्या लाभ ? मेरे रूटनेपर क्या शान्ति रह सकती है ?" यह निन्दा यक्षोंके मन में बैठ गयी। वे सोचने लगे, हमने सचमुच अनुचित काम किया, सचमुच रावण बुरा करनेवाला है, यह दूसरे
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२७
पउमरित
घत्ता एम मणेवि स-बिलकल हि बुधई जहि 'हरि अवाहु एक खमहि । अग्ण वार जा आवहुँ मुहु दरिसाबहुँ तो सई भु ऍहि सच दमहि' ।।५।।
पुण वि पडीय हिं सकहिं गमणु किट
७२. दुसचरिमो संधि
जिणु जयकारे वि विक्रम सारे हि । अजय-पमुई [हिं] कुमारहिं ।।
[१] बेहाइन्छे हिं
उपय-सग्गेदि। पवर-विमाणे हिं
धवल भयगंहि ॥१॥ पदम-विसन्त हिं
कपिपहालिय । प्राई विलासिणि कुसुमोमालिय ॥२॥ (सम्मेटिया) जा ण वि लचिजह रवि-सह। दहवस-तुरङ्गम-मय-गएहि ॥३॥ महिं मस महागय-मलहरीहि । गजे वड छवि जलहरेहि ॥४॥ जहि पहरे पहरें भोसरह दूरु। बहु-सूरहुँ उचरि ण जाह सूरु ।।५।। पाहि रामरणण-पन्देहि धन्दु पारिश किसह तेय-मन्दु ॥६॥ जहि उण्हु ण णावह बहिणोण। बहु-पुण्डरीय-किय-मरवेण ॥७॥ जाहि पाउसु करिकर-सीपरहि। उट्ठन्ति नाड दाणोनाहि ॥८॥ मणि-मणि तुरय-खुरेहि पंसु। बोलह रविकन्त-पहाएँ हंसु ॥९॥ मोसिम-सण णक्खन-वन्दु । बहु-चन्दन्ति कन्सीऍ चन्दु ॥१०॥
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T
दुसरिम संधि
२७३
को स्त्री वापस नहीं देता" । यह सोचकर बिलखते हुए यज्ञोंने कहा, “हे राम. आप हमारा एक अपराध क्षमा करें। यदि हम दुबारा आयें और आपको अपना मुँह दिखाये तो अपने हाथों हम सबका दमन कर देना " ||१२||
बहरवीं सन्धि
पराकममें श्रेष्ठ अंग और अंगद वीरोंने, जिन भगवान्की जय बोलकर फिरसे लंका नगरीकी ओर कूच किया ।
[१] क्रोधसे अभिभूत तलवार उठाये हुए, बड़े-बड़े विमानोंमें, धवल ध्वजोंसे सजे हुए, पहले-पहल घुसते हुए उन्होंने लंका नगरी देखी जैसे फूल-मालाओं से सजी हुई कोई विलासिनी हो; रावणके घोड़ोंसे भयभीत सूर्यके अश्व उसको लाँघ नहीं पाते। जिसमें मतवाले हाथियोंकी गर्जनासे मेघोंने गरजना छोड़ दिया है, जिसमें सूर्य पह-पहरमें दूर हटता जाता था, क्योंकि वह शूरवीरोंकी उस नगरीके ऊपर से नहीं जा सकता । जहाँ स्त्रियोंके मुखचन्द्रोंसे पीड़ित चन्द्रमा अपना तेज छोड़ देता है। जिसमें नये कमलोंसे बने नये मण्डपों में गरमी नहीं जान पड़ती। हाथियोंकी सूढ़ोंके जलकणों से जहाँ वर्षा जान पड़ती और मन्दजलकी धाराओंसे नदियों में बाढ़ आ जाती, जिसमें घोड़ोंकी टापोंसे उड़ी हुई मणिमय भूमिकी धूल सूर्यकान्ति मणिकी आभासे सूर्य की तरह लगती, मोतियोंके बहाने नक्षत्र समूह, बहुत-से चन्द्रकान्त मणियोंको कान्तिसे चन्द्रमाकी
१८
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२०४
किं रवि रिक्ख ससि निष्प बहु-विसुण
डिड्डु स- मोलिउ
णाईं स-तार बहु-मणि-कुट्टिमु
नाइँ विस
दुक्ख-पइट वहि णाएँ विरुद्ध-प्रण
पउमचरिउ
चिन्ताविय 'केस किरन्द-ड-मगेण वन्ति । फिर फलिह-प्रहेण समुच्चलन्ति । मरगय-विदुम-मेणि णिएबि । पेक्यवि आलेक्खिम-सप्प सयहूँ । पहें लगा नीलमणि-सार-भूएँ । पुणु राय सन्ति मणि हेण ।
सूरकन्सि-कुष्टिम-पण ।
सहचरिउ घर विश्वमवाहरु
घन्ता
पण त्रि जे जियन्ति बावारें । अवसे जम्ति सण-वस्थारें ॥११॥
[२]
रावण - पङ्गणु ।
सस्य - शहङ्गणु ॥ १ ॥
वहु- रयणुज्जलु |
स्वायर-जल ॥ २ ॥
पण दया करें ॥ ४ ॥ कद्दम भइयऍ पईसरन्ति ||४|| आयासासङ्कऍ पुणु वलन्ति ||५|| पर दैन्ति ण 'किरणावलि' मणेवि ॥ ५ ॥ 'मज्जेस हुँ' मनेंबिण दिम्ति पराई ॥ ७ ॥ चिन्तविट 'पडेस अन्धकूएँ || ८ || ऑसरिय विलेस किं दद्देण ॥९॥ सङ्क्रिय 'दशेस हुभवद्देण ' ॥ १०॥
चत्ता
लसिकरणुवङ्ग-तारा । जम-सणि- राहु-केट अङ्गारा ॥ ११ ॥
[ 1 ]
सुइ-वय- वन्धुरु | मोतिय-दन्तुरु ॥। १॥
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I
दुरिम संधि
२७५
तरह प्रतीत होता है। क्या सूर्य, क्या तारे, क्या चन्द्रमा और भी जो अपने व्यापार ( गमन) हैं, वे दुङ स्वजनके उत्थान से अवश्य कान्तिहीन हो जाते हैं ॥ १-१॥
[२] मोतियोंसे जड़ा हुआ रावणका आँगन ऐसा लगा मानो ताराओंसे जड़ा शरदुका आँगन हो बहुत-से रत्नोंसे उज्ज्वल और मणियोंसे निर्मित धरती ऐसी लगती मानो रत्नाकरका विशिष्ट जल हो; वे सोचने लगे कि कहाँ पैर रखा जाय और किस प्रकार रावणको वध किया जाय; शायद वे चन्दनके छिड़काव के मार्ग से जाने पर कीचड़के भयसे पैर नहीं रख पाते; शायद स्फटिक मणियोंके रास्ते जाते परन्तु आकाशकी आशंकासे लौट आते; पन्नों और मूँगों की धरती देखकर, वे समझते कि यह किरणावलि है, इसलिए पैर नहीं रखते; चित्रोंमें सैकड़ों साँपों को चित्रित देखकर वे इसलिए उनपर पैर नहीं रखते कि कहीं का न खाये; फिर भी नील मणियोंसे बने हुए मार्गपर जाते हैं, परन्तु फिर सोचते हैं कि कहीं अन्धकूपमें न चले जाँय । फिर वे चन्द्रकान्त मणियों के पथपर जाते हैं, परन्तु लौट आते हैं कि कहीं तालाव में न डूब जाय, फिर वे सूर्यकान्त मणियोंके पथसे गये, पर शंका होती हैं कि कहीं आगमें न जल जाँय । दुःख से प्रवेश पानेवाले चन्द्रकिरण, हनुमान, अंग, अंगद और तारा ऐसे लगते मानो यम, शनि, राहु, केतु और अंगार हों ।। १-११||
[३] शत्रुका घर हँस-सा रहा था, वह मुखपटसे सुन्दर था, मूँगा उसके अधर थे, मोती ही दाँत थे, सुमेरु पर्वती तरह मस्तक से आसमान छूता हुआ-सा यह देखनेके लिए तुम्हारे हमारे बीच में कौन अधिक ऊँचा है, जो चन्द्रकान्त
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२७६
पत्रमचरित
छिवाह व मत्थए
मेरु-महीहरु । 'नुन वि मझवि कवणु पईहरु ॥२॥ जं चनकन्त-सलिलाहिसित्तु।। अहि सेग्र-पणाल प फुसिय-चिम ११३।। मं विद्नुम मागय-कन्तिकाहि। घिउ गणु व सुरवणु-पतियाहिं 11॥ जं इन्दगील-माल-मसोएं। आलिम व दिस-भित्ती लीग ।। ।। सहि पामराय-मणि-गणु विहाइ। थिउ अहिणव-मना-राउ गाई ।।६।। जहिं सूरकन्ति-गवनमाणु। गड उत्सरएसहाँ गाई भाणु ||७|| जहि चन्दकन्ति-मणि चन्दियाउ। णव यन्द-उमा बन्दियाउ ||८|| 'अच्चरिङ' कुमार चवन्ति एव । 'बहु-चन्दीहयउ गयणु केम ||५|| पेवेविषणु मुक्ताहल-णिहाय । गिरि-गिभर' मणेचि धुवन्ति पाय॥१०॥
सं दहवयण-घर वर-वायरशु जिह
घत्ता ते कुमार मणि-सोरण-दारे हिं। अ-बुह पहला पच्चाहारे हिं ।।११।।
पहट कश्य
मजामन्तरे। पचाणण
गिरिवर-कम्हरे ॥१॥ पवर-महापइ.
णिवह व सायो। वि-किरणा इव
अस्थ-महाहरे ॥२ धावन्ति के विण करन्ति खेड। रखम्भेहि घिडन्ति मल्लन्ति बेड ।।३।। बहु-फलह-सिला-भित्तिहि मिडेवि । सरहिर-सिर परियन्ति के वि || के वि इन्दणील-गोलंहिं जाय। पंहि मि थिय मुगा र एथु आय ||५|| जसवन्ध-लील के वि दन्ति | उम्ति पडान्त सिलेहि भिडन्ति ।।६।। के वि सूरकन्त-काहि मिण्ण। बहु सुर मल्लेवि पुरवइप ग ||७||
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२७७
दुसत्तरिमो संधि मणियोंकी धाराओंसे अभिषिक्त था, अभिषेककी धाराओंके समान साफ-सुथरा था, जो मूंगों और मरकत मणियोंकी आभासे ऐसा लगता मानो इन्द्रधनुषकी धाराओंसे युक्त गगन हो, जो इन्द्रनील मणियोंकी मालाओंसे ऐसा लगता मानो दीवालपर स्त्रियाँ चित्रित कर दी गयी हों, उसमें पद्मराग मणियोंशा सा ऐसः पौभिः सारे सलिल साध्य लालिमा हो, जहाँ सूर्यकान्त मणियोंसे खिन्न होकर, सूर्य सत्तर दिशाकी ओर चला गया, जहाँ चन्द्रकान्त मणियोंके खण्ड नये चन्द्रों के समान लगते हैं, उन्हें देखकर कुमार आपस में कह रहे थे, यहाँ तो बहुत-से चन्द्र हैं, क्या यह आकाश है, मोतियोंके समूह को देखकर वे समझ बैठते कि ग्रह कोई पहाड़ी झरना है, और वे उसमें अपने पाँव धोने लगते । उन कुमारोंने मणितोरणवाले द्वारोंसे रावणके घरमें उसी प्रकार प्रवेश किया, जिस प्रकार अज्ञ लोग प्रत्याहारोंके माध्यमसे उत्तम व्याकरणमें प्रवेश करते हैं ॥१-११॥
[४] अंग अंगद आदि कपिध्वजियोंने भवनके भीतर प्रवेश किया, मानो सिंहोंने गिरिवरकी गुफाओंमें प्रवेश किया हो । मानो महानदियोंके समूहने समुद्र में प्रवेश किया हो। मानो सूर्यको किरणोंने अस्ताचल पर्वतमें प्रवेश किया हो। कोम न करते हुए कितने ही वानर दौड़े, परन्तु खम्भोंसे टकररा कर उनका वेग धीमा पड़ गया; बहुत-सी स्फटिक मणियोंकी शिलाओं द्वारा टकरा जानेसे उनके सिर लोहूलुहान हो उठे। कितने ही इन्द्रनील पर्वत से नीले हो गये; और किसी प्रकार अपने को बचा सके। कोई अपनी जातीय लीलाका प्रदर्शन करते हुए उठते गिरते और चट्टानोंसे जा टकराते। कितने हो सूर्यकान्त मणिकी ज्वालासे जल उठे, वे शूरवीरता छोड़कर नगरमें चले
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पउमपरित
के वि चन्दकन्स-कन्तेहिं जाय। मुह-यन्दही उप्परिणाएँ आप ॥८॥ के कि पउमराय-कर-णियर-सम्ब। पं अहिणवण-लीलावलम्ब ।।। के वि मालेक्सिम अरहो त?। केवि सीहहुँ के वि एण्णयहुँ गट्ट॥१०॥
মম্বা णिगय तहाँ घरहों
पुणु वि पद्धवा तेहि जि वारे हि । उभय-महीहरहाँ
रबि-यर प्याई अणेयागार हिं ॥११॥
ते दहमुह-धरु
मुएंवि विसाल। गय परिमोसे
सन्ति-जिणारउ ॥१॥ तहि पाइसन्ते हि दिछ सणेउर । समण केरड
इटम्तैउरु ||२| चिहुरेहिं सिहण्डि-ओलम्बु भाइ। कुरले हिँ इन्दिन्दिर विन्दु गाई ॥३॥ भउहे हि अणण-घणुहर-लय स्व। णयपहिणीलुपल-काणणं व ॥४॥ मुह-विम् हि मयलक्रण-कलं व । कल-वाणिहिं कल-कोहल-कुर्स व ॥५॥ कोमल-वाह हि लयाहरं व पाणिहि स्तुप्पल-सरवर व ॥६॥ णक्रयहि काइ-सूई-धसंव। सिहि हि सुखपण-वड-मण्डल व ॥७॥ सोहग्गे बरमह-साहणं ध। रोमावलि-गाइणि-परियणे व ॥८॥ शिवलिहि अणा-पुरि-खाइयं व । गुडझेहि मयण-मजश-हरं च ।।१।। ऊरूहि तरुण-केली-वर्ण व । चलणग्गे हि पल्लव-काणणं ॥१०॥
इंस-उलु व गह (ए) हिं चाच-दलु व गुणे हि
घत्ता कुश्मा-जुहू व वर-सोलाहिं । छण-ससि-चिम्खु-व सयक-कलाहिं ॥११॥
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परमो संधि
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गये । कोई चन्द्रकान्त मणियोंको कान्तिसे ऐसे हो गये जैसे चन्द्रमाके ऊपर उनकी स्थिति हो । कितने ही पद्मराग मणियोंके समूहसे लाल लाल हो उठे मानो उन्होंने युद्धकी अभिनय लीलाका अनुसरण किया हो; कितने ही चित्रों में लिखित हाथियोंसे त्रस्त हो उठे, कोई सिंहोंसे और कोई नागोंसे भयभीत हो उठे। वे वानर उन्हीं द्वारोंसे बरसे बाहर हो गये, जिनसे गये थे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार उदयासे सूर्य किरणें नाना रूपों में निकल जाती हैं ॥१-११॥
[ ५ ] रावणके उस विशाल घरको छोड़कर, वानरोंने सन्तोषकी साँस ली। वे भगवान शान्तिनाथके जिनमन्दिर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि रावणका सनूपुर अन्तःपुर स्थित है, जो केशोंसे मयूर कलापकी भाँति शोभित है; कुटिल केशपाशमें भ्रमरमालाकी तरह, भौंहों में कामदेवको धनुषलताकी तरह; नेत्रों में नीलकमलवनकी तरह, मुखबिम्बमें चन्द्रमाकी वरह; सुन्दर बोलीमें सुन्दर कोकिल कुलकी भाँति कोमल बाहुओंमें लताघरकी भाँति हथेलियोंसे लाल कमलकि सरोवर की तरह नखोंमें केतकी कुसुमके काँटोंके अग्रभागोंकी तरह स्तनों में स्वर्ण कलशोंकी तरह; सौभाग्य में कामदेवकी प्रसाधन सामग्रीकी तरह: रोमावलीमें नागिनों के परिजनोंकी तरह; त्रिवलिमें कामदेवकी नगरीकी खाईको तरह; गुप्तांग में कामदेव के स्नानघर की तरह ऊरुओंमें तरुण कदलीवनकी तरह; चरणोंके अप्रभागमें पल्लवोंके काननकी भाँति जो शोभित था । गमनमें जो हंस कुलकी भाँति वर क्रीड़ाओं में हाथियोंके झुण्डोंकी भाँति गुणोंमें धनुषशक्ति की भाँति और सम्पूर्ण कलाओं में पूर्णिमाके चन्द्रमाकी माँति शोभित था ।१-११॥
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२४०
पउमचरित
[१] 'भवि य परिन्दहो यय-सम-विष्णहो। काई कोसहुं
झाशुत्तिण्णहो ॥१॥ परि अरमास?
एव भणन्तु । थिउ रमणिहि णिथ- हियएँ गुणन्तु व ॥२॥ सिर-णमणु जिणाहिब-यन्दणेण। पिय-वन्धणु फुक्ल-णिवत्रणेण ॥३॥ भवहादिपशु पारा। सो दलग-दोन मा णासउद फुरणु फुलणेण। परिजम्वणु घसाऊरणेण ॥५॥ अहरकण पीडी-खण्णे ण । पिण-कण्ठ-गहणुसुहावणेण ||३| अहिंसेय-कलल-कपट-गहेण । अवरुण्णु थम्मालिणेण ॥४॥ पिय-फारशु छेवाकरण । कुरुमाळणु वीणा-प्राधणेण |६|| कर-घायणु मिन्दुव-धायणे। सिकारु कुसुम आखचणेण ॥९॥
कम-धाय असोय-पहरणेण ॥१०॥
धत्ता कुडम-चन्दण है
सेन-फुरिज वि गरुना भारा । कि पुणु कुण्डलाई
कमय-मउज-फरिसुत्ता हारा ।।११।।
[-] का वि देविर
काह वि णारिहि । दिन्ति सु-पेस
ऐसणयारिधि ।।१।। 'हके ललियनिए
लइ णाराई। जाई जिणिम्दहो अषण-जोग्गई ॥२॥ हले दालिमी दालिमाई देहि । विजउरिप, विजउरा छेहि ॥३॥ बहुफलिएँ सुअन्धई बहुफला। स्तुप्पलीएँ रसप्पलाई ॥४॥ इन्दीवरीए इन्दीवराई। सयवत्ति समवत्ता अराह् ।।५।।
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२८१
दुससरिमो संधि [६] अन्तःपुर सोध रहा था कि हम क्या करें ? क्योंकि सैकड़ों घावोंसे चिहित प्रिय अभी ध्यानमें लीन है। वह जैसा कह रहा था कि चलो हम भी अभ्यास करें। इस प्रकार रातमें अपने मनमें विचार करता हुआ यह बैठ गया। जिनराजको बन्दनामें ही उसका सिर नमन था; फूलोंके निएन्धनमें ही प्रिय बन्धन 7 जय श्री को शिमा , दर्पण देखनेमें ही नेत्रोंका शिकार था; फूल सूंघने में ही नाक फड़कती थी, बाँसुरी बजानेमें ही चुम्बन था, पान खाने में ही अधरों ललाई थी. सुहावने अभिषेक कलशके कण्ठ ग्रहणमें प्रियका कण्ठ प्रहण था; स्वम्भेके आलिंगनमें ही आलिंगन था; बूंघट कादनेमें ही प्रियका दुराव था; गेंदके आघातमें ही करका आचात था: फूलोंके लगानेमें ही सीत्कारकी ध्वनि थी; अशोकपर प्रहार करनेपर ही घरणाघात होता था। रावणका जो अन्तःपुर कुंकुम चन्दन आदिके भी लेपभारको सहन नहीं कर सकता था, तो फिर कुण्डल, कटिसूत्र, कटक और मुकुट और हारोंकी तो बात ही क्या है ॥१-१३॥
[७] कोई देवी, आज्ञापालन करनेवाली स्त्रियोंको सुन्दर आदेश दे रही थी, "हे ललिताझे तुम नारंगी ला दो, जो जिनेन्द्र भगवान्की अर्चा करने योग्य हो । अरे दाडिमी, तू सुन, दाडिम लाकर दे, हे विद्याकरी, तुम विद्यापुर ले लो, हे बहुफलिते, तुम सुगन्धित बहुत-से फल ले लो, हे रक्कोपले, तुम रक्तकमल ले लो, हे इन्दीवरे, तुम इन्दीवर ले लो, हे शतपत्रे,
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२८२
पटमचरिंड
कुसुमि, कुसुम हिँ अधण करेहि । मणिदीविएँ मणि-दीवर धरेहि ||६|| कापूरि, उहें करपूर-दालि। विद् बुमिएचढावहि विद्यमानि 1101 मुसावलि लहु मुत्तावलीउ। संचूरे वि कुहु रावलीउ ॥८॥ मरगऍ मरगय-वहाँ चडेवि सम्माणु करें कमला लेवि ॥१॥ हले लबलि चन्दण-कडउ देहि । गन्धावलि गन्धु छवि एहि ॥१०|| कुङ्कमलेहिए लइ घुसिण-सिप्पि। भालावणि आलावेहि किं पि ॥११।। किषणरिएँ तुरिड पिगरउ लोहि । तिलयावलि तिलय-पयाइँ देहि ॥१२॥ आयएँ लीलऐं अच्छन्ति लाव। भासपणीहअ कुमार ताय ।।१३।।
घसा
रावण-जुवइ-पशु णं करि-करिणि-घड
अब गिक्षि मीसद्धि। सीहालोयणे माण-कलहिउ ॥१४॥
[] सन्ति-जिनालय
मामरि देपिणु । सन्सि-जिणेन्दहो यषण करेप्षिणु ॥१॥ पासु दसासहो
सुक्क फहन्छय । णाई महन्दहो
मस महागय ॥२|| उहाले वि हत्यहाँ अक्ष-सुत्तु। दससिक सुग्गीव-सुरण वुत्तु ||३॥ 'पड काई राय आउत्तु रम्भु। थिङ णिशलु णं पाहाण-खम्भु ॥३॥ तर क्यणु धीरु को वाऽहिमाणु। सा कवण चिज इट कवणुझा ॥५॥ उपाय लोपहुँ काइँ भनित । पर-णारि जयन्तहाँ कवण सन्ति ॥६॥ किं भाणुकषण-इन्दइ-दुहेण । उ बोलहि एक्केण वि मुहेण ॥७॥ किं लक्लग-रामहुँ भोसरंथि। थिङ सन्ति ममणु पईसरोत्रि' 1160
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दुसतरिम संधि
२८३
तुम शतपत्र ले लो, हे कुसुमिते, तुम कुसुमसे पूजा करो, हे मणिदीपे, तुम मणिदीप स्थापित करी, हे कर्पूरी, तुम कपूर जला दो, हे विद्ययी, तुम विद्युद्माला चढ़ा दो, मुक्तावली, तुम मोसी की माला चूर कर शीघ्र ही रांगोळी पूर दो, हे मरकते, तुम मर कत वेदीपर चढ़कर कमलों से उनका परिमार्जन करो, हे लवली, तुम चन्दनका छिड़काव करो, हे गन्धावली, तुम गन्ध लेकर आओ, हे कुंकुमलखे, तुम केशरका पुट लेकर आओ, हे आलापिनी, तुम कुछ भी आलाप करो, हे किन्नरी, तुम अपना किन्नर ( वीणा विशेष ) ले लो, हे तिलकावली, तुम अपने तिलकपद रखो।' वे इस प्रकार लीला करती हुई समय बिता रही थी कि इतने में कुमार वहाँ आ पहुँचे । अंग और अंगदको देखकर रावणका युवतीजन सहसा आशंका में पड़ गया, मानो हाथी और इथिनियों का समूह सिंहको देखकर गलित मान हो उठा हो ॥१- १४ ||
[८] तब कपिध्वजी शान्ति जिनालय में पहुँचे । प्रदक्षिणा देकर उन्होंने जिन भगवान्की बन्दना की। फिर वे रावणके पास पहुँचे, मानो सिंह के पास हरिण पहुँये हों । रावणके हाथ से अक्षमाला छीनकर सुग्रीवसुतने उससे कहा, "हे राजन, तुमने यह क्या होंग कर रखा है, तुम तो ऐसे अचल हो जैसे पत्थरका खम्भा हो, यह कौन-सा वप है, कौन-सा धीरज है, कौन-सा चिह्न है, वह कौन-सी विद्या है, यह कौन-सा ध्यान है, तुम लोगों में व्यर्थ भ्रान्ति क्यों उत्पन्न कर रहे हो । सोचो, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण करनेसे तुम्हें शान्ति कैसे मिल सकती है ? अरे क्या तुम इन्द्रजीत और भानुकरणके दुःखके कारण एक भी मुखसे नहीं बोल पा रहे हो ? क्या तुम राम और लक्ष्मणसे बचकर शान्तिनाथ भगवान्के मन्दिर में छिपकर
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२८४
शिवमच्छेवि एम कइन् । आदत्त चन्धहुँ हुँ हुँ ।
वहाँ अन्तेरहों णं णत्रिणी-बाहों
पउमचरिउ
जाहँ गइन्द्र-ससि ताई विय
महविं हानिएहिं ॥ ९ ॥ बिच्छादारहणहुँ हुँ ॥ १०॥
धत्ता
म उप्पण्णुमहिं हि । मस- गइन्हें हिँ सरु पसन्ते हि ॥ ११ ॥
[3]
का विवरण
कडिय थाणहो ।
वर- उजाड़ो ॥१॥
कुसुम-ल्या व सामल- देहिय
हार- पयासिरी ।
म चलाया बलि
णं पाउस -मिरि ||२॥
}
कवि कडिय णेवर चलवलन्ति सरवर-लपिक कमल म्ति ||३|| कवि कडिद्वय रसना दाम लेखि | सु-निहि सुभङ्गमुषमिकरेवि ||४|| कषि कड्किय तित्रफित खवन्ति । कामाउरि परि
I
पाडत ||५|| सुरति ॥६॥
कवि कहिय मण भयको जन्ति । किस रोमावलि क विडिय धन-लसुरुवहन्ति । लावण-वारि-पूरें व तरन्ति ॥ ॥ कषिकङ्क्षिय कर-कमलई धुणन्ति । छप्पय रिन्क्रांकि मुच्छलन्स (2) ॥ ८॥ क विक्रयि सब सर जति सुनावलिपि कण्ठएँ धरन्ति ||९|| कवि कविडय 'हा रावण' भणन्ति दीडर सुत्र -पअपसरन्ति ॥ १०॥
घन्ता
बहिण हरिण हंस-सयणिजा । अबसें सूरण होन्ति सहेबा ॥ ११॥
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तरिम संधि
ક
"
बैठे हो ?" कपिध्वजियनि उसकी इस प्रकार खूब जिन्दा की, और फिर ईर्ष्यासे भरकर कहना शुरू कर दिया - "बाँधू पकड़ ले लूँ, बिखरा हूँ, विदीर्ण कर दूँ, मांस ले जाऊं ।" योद्धाओं की इस आपसी भिड़न्तसे रावणका अन्तःपुर ऐसा भयभीत हो उठा जैसे मतवाले हाथियोंके प्रवेश से कमलिनियों का वन अस्तव्यस्त हो उठता है ।। १-११।।
[९] कोई उस अंगना, अपने घरसे ऐसे निकल आयी, मानो कोई श्रेष्ठ लता, उद्यानसे अलग कर दी गयी हो। उसके श्यामल शरीर पर बिखरा हुआ हार ऐसा लगता था, मानो पावसकी शोभा में बगुलोंकी कतार बिखरी हुई हो। कोई अपने नूपुर चमकाती हुई ऐसी निकली, मानो सरोबरकी शोभा कमलोंपर फिसल पड़ी हो, कोई बाला अपनी करधनीके साथ ऐसी निकली, मानो नागको वशमें कर लेनेवाली कोई सुनिधि हो, कोई अपनी त्रिवलीका प्रदर्शन करती हुई ऐसी निकली, जैसे कामातुरता जन्य अपनी पोड़ा दिखा रही हो, कोई निकल कर मर्दनके बरसे आतंकित होकर जा रही थी, अपनी काली रोमराजीके खम्भेका उद्धार करती हुई। कोई अपने स्तनयुगलका भारवहन करती हुई ऐसे जा रही थी, मानो सौन्दर्य के प्रवाह में तिर रही हो। कोई अपने दोनों करकमल पीटती हुई जा रही थी, उससे भौरोंकी कतार उछल पड़ रही थी। कोई निकलकर किसीकी भी शरण में जाने के लिए प्रस्तुत थी, फिर भी मोतीको मालाने उसे गले में पकड़ रखा था । कोई निकलकर दे रावण' चिल्ला रही थी, और उसकी बाँहोंके लम्बे अन्तराल में प्रवेश पाना चाह रही थी। गजराज, चन्द्रमा, मयूर, हरिण और हंस जिनके स्वजन और सहायक होते हैं, उनके व्याकुल होनेपर, शूर (विवेकी, राम जैसे पुरुष )
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૨૬
का विनियम्विणि
केस - विसम्धुल
उठिमय करयल दद्दयहाँ अग्गएँ
'आहाँ दुम-दाणव- दुष्प-लण | जम-महिंस-सिङ्ग - णिवली - हिट्ट ।
पउमचरिउ
[१०]
परमेसर कि ओहह-धामु । किं अपने साहि चन्द्रहासु । किं अणें वसिति उब-सोण्ड । किं अणें मग्गु कियन्त-राउ | किं अण्णें गिरि कइलासु वेव । किं अण्णें विजिउ सहस किरणु
किं वहाँ जि भुव इतुहुँ दहषमणु
सो वि झाणों अलु णिरिव जोग व सिद्धिहें
सिंह लग्गय-मशु
सिविल - णिण |
परालय - कोयण || १ ॥
सुह-विच्छाय |
रुमइ वराइय ||२॥
सुर-मउष्ठ- सिहामणि- किहिय-चलण | ३| सुरकरि-विसाण सूरण पहट्ट ||४|| 操 राम कहीं षिणामु ॥ ५॥ किं योंकि त्रिणासु ॥ ६ ॥ वण-इन्थि जिगस पप ||७|| किं अण्णह बसें सुग्गोड जाउ |||| हेलए जें तुलिउ हिन्दुवड जे ||९|| फेडिल मलकुन्चर-स-फुरणु ॥१०॥
घसा
वरुण राहिब-धरण-लभस्था । तो किं रह रह अवस्थ' ।।११।।
[१]
टालिज राणड | मेरु-समाज || १||
राव भों। भिंड पठु विजजहाँ ॥ २॥
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२८७
दुससरिमो संधि सहायक नहीं होते ॥१-११॥
[१०] किसी वनिताके वन एकदम ढीले ढाले थे, बाल बिखरे हुए, और आँखें गोली-गोली। दोनों हाथोंसे मुखको ढककर यह बेचारी प्रियके सम्मुख रो रही थी,-"अरे दुर्दम दानवोका दमन करनेवाले ओ रावण, तुम्हारा चरण देवताओंके मुकुटोंके शिखरमणि पर अंकित है । तुमने यमरूपी महिपके सींगोंको उखाड़ फेंका है, इन्द्र के ऐरावत हाथीके दाँतोंको तोड़-फोड़ दिया है। हे परमेश्चर, आज आपकी शक्ति कम क्यों हो रही है, क्या रावण किसी दूसरे का नाम है ? क्या चन्द्रहास तलवारकी साधना किसी और ने की थी? क्या कुबेरका विनाश किसी दूसरेने किया था। क्या वह कोई दूसरा था जिसने सूंड़ उठाये हुए, प्रचण्ड निगमग हाधीको अपने पक्षाने किया था: सा कृतान्तराजको किसी दूसरेने अपने अधीन बनाया था? क्या सुग्रीव किसी दूसरेके अधीन था ? क्या किसी दूसरेने कैलास पर्वतको गेंदकी भाँति उछाला था ? क्या सहस्र किरणको किसी दूसरेने जीता था। नलकूबर और इन्द्रकी उछल-कूद किसी औरने ठिकाने लगायी थी। क्या वे किसी दूसरेकी भुजाएँ थीं जो वरण-जैसे नराधिपको उठानेकी सामर्थ्य रखती थीं ? यदि तुम्ही दशवदन हो, तो फिर हमारी यह हालत क्यों हो रही है ?" ||१-११॥
[११] इससे भी रावण अपने ध्यानसे नहीं डिगा। मेरु पर्वतकी तरह वह एकदम अचल था। ठीक उसी प्रकार अचल था जिस प्रकार योगी सिद्धिके लिए, या राम अपनी पत्नीकी प्राप्तिके लिए अडिग थे। रावण भी इसी प्रकार विद्या
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पसमचरिख
संखुहिउ ण लाहिवहाँ छि। भर नभुलिहसु । मन्दोयरि कदिदय मरण। कप्पदुम-साह व कुञ्जरेण ॥४॥ हरिणि व सौहण विरुद्धएण। ससि-पडिम व राहुं कुखएण ॥॥ उरगिन्दि व गरूद-विहङ्गमण। लोगाणि न पसर-जिणागमेण ॥६॥ परमेसरि तो विण भयहाँ जाइ। जिप परिष्ट्रिय धरणि णाई ।।७।। 'रेरे जं किउ महु केर-गाहु । अण्णु धि महएबिहुँ हियम बाहु॥६॥ सं पाव फलेसह परऐं पातु । दहगीर गिलेसद वलुजे साबु' ।। तं णिसुणेवि किय-करमाणेण। मिठमच्छिय सारा-गन्दणेण ॥१०॥
घत्ता
'काई विहाणाण सहुँ अन्तेउरेंण
अजा जि पिक्स्वन्तहाँ दहगीवहीं । पर महरविकरमि सुग्गीवहीं ॥१९॥
एम भणेप्पिणु
रित रेकारिता 'रक्स दसाणण
म. पचारिज ॥१॥ हर सो अङ्ग
तुलसह । ह मन्दीयरि
पहु सो अवसर'.॥२॥ बं एक वियोहहाँ ण गड रात्र । तं विम पासण-कम्पु जाउ ॥३॥ भाइय अन्धारउ जड करन्ति । बहुरूविणि बहु-रूवई धरन्ति ॥४॥ पिय अगएँ सिबों सिद्धि जे. । 'कि पेस पहु' पमणम्ति एवं ||५|| किं दिजड वसुमइ बसिरेवि। किंदिलउ दिस-करि-प(१) धाषि।।६॥ कि बिजट फणि-मणि-स्यणु लेवि । किं दिजउ मन्दरु दरमलेषि ॥५॥
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दुसत्तरिमी संधि
मी सिद्धिके लिए भिरप्निल शा। मानदेशाला चित्त एक क्षणके लिए भी जब नहीं डिगा, तो अंगद आगकी भाँति अल उठा, मानो उसमें घी पर गया हो। इसने ईर्ष्यासे भरकर मन्दोदरीको ऐसे बाहर निकाला, मानो हाथीने कल्पवृक्षकी डाल काट दी हो, या सिंहने इरिणीको पकड़ लिया हो, या क्रुद्ध राहुने शशिके बिम्बको निगल लिया हो, या गरड़राजने नागराजको दबोच लिया हो, या महान् आगम प्रन्थोंने लोकोंको अपने वशमें कर लिया हो !" परन्तु इससे भी रावण हिला-डुला नहीं। धरतीकी भाँति वह एकदम अडिग और
और अटल था | तब परमेश्वरी मन्दोदरीने कहा, "अरे देखते नहीं इसने मेरे बाल पकड़ लिये हैं। मुझ महादेवीके हृदय में असह्य जलन हो रही है ? हे पाप, तुम्हारा यह पाप, कल अवश्य फल लायेगा, दशानन कल समूची सेनाको नष्ट कर देगा।" यह सुनते ही तारानन्दन कुड़मुड़ा उठा । उसने भत्सेनाभरे शब्दों में कहा, "अरे कल क्या, आज ही मैं रावणके देखते देखते तुम्हें सुप्रीषकी महादेवी बना दूंगा!" ||१-१२॥ __ [१२] यह कहकर दुश्मनने ललकारना शुरू कर दिया, "हे रावण बचाओ अपनेको, मैं कहता हूँ। मैं हूँ वही अंगद, तुम लंकेश्वर हो, यह रही मन्दोदरी, और यह है वह अवसर!" जब इससे भी रावण क्षुब्ध नहीं हुआ तो विद्याका ( बहुरूपिणी ) आसन हिल उठा। वह अन्धकार फैलाती हुई
आयी ! वह बहुरूपिणी विद्या थी, और नाना रूप धारण कर रही थी। वह आकर, इस प्रकार स्थित हो गयी, मानो सिद्धके आगे सिद्धि आ खड़ी हुई हो। वह बोली, "क्या आशा है देव ? क्या धरती वशमें कर दी जाय, क्या दिग्गजोंका झुण्ड भेंट किया जाय, क्या नागका मणिरत्न लाया जाय, क्या
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२५०
पउमचरित
किं विजाड सुरणन्दिणि दुहेवि। किंदिल अमु गिय हिंसाईषि !!४॥ किं दिन उ बन्धेवि अमर-राह। किं कुसुमसराउहु रह-सहाउ॥१॥ कि दिजउ धणयहाँ सणिण रिद्धि । किं दिज्जउ सम्वोवाय सिद्धि ||१०॥
पत्ता सहुँ देवासुर हि
कि इलोक्कु वि सेव करावमि । गवर पसहिवा
एषकहाँधवाइहण पहामि ॥११॥
[ ३] तं णिसुणेप्पिणु
सुर-सन्तावणु। पुषण-मणोरा
उहिउ रावणु॥॥ जा सन्तिहरहों
देह ति-भामरि । मुक कुमार
सा मन्दोवरि ॥२॥ अजय पट्ट पट्ट सेण्णे । सम्पत्त वत्त कारय-कणे ।।३।। 'परमेसर सुर-सन्धावणासु। परिपुषण मणोरह रामणासु ||३|| उपन्य विज णिचूद्ध धीर।। एहि णिचिन्तुतियसहुमि चोम || गंउ जाणहुँ होसइ एट केष । लह सीयाँ अण्डहि ससि देव' ।।६।। तं वयणु सुणेचि कुमार कुइज । खय-काले दिषायरु णाई उड्ड ।।७।। 'गासहाँ गासहों अइ णाहि ससि । हउँ काषण एक्क करेमि तत्ति |८|| कहाँ तणिय विजकहाँ सणिय सन्ति । कछएँ पेमखेसहो तहाँ असन्ति ।।५।। मई दसरह-णन्दणे किय-पहनें। विस्यहँ अत्याहे मलमणिों ।।१०।।
पत्ता तोणा-जुयल-जलें
अशु-पेला-कलोल-रो । झवा खण
महु केर' णाराय समुऐ ॥१॥
[१४] साव णिसायर
णाहुस-बिखत। पंस-मलतड
सुखाइ विकार ||
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दुरूहस्मिो संधि
२११ सुमेरुपर्वत दलमल कर दिया जाय, क्या कामधेनु दुहकर दी जाय, क्या यनको जंजीरोंसे बाँधकर लाया जाय, क्या इन्द्रको चाँधकर लाया जाय, क्या रति स्वभाववाला काम लाया जाय, क्या कुबेरकी सम्पदा, या सर्वोपायसिद्धि नामकी विद्या दी जाय । क्या देवता और असुरोंके साथ तीनों लोकोंकी सेवा कराऊँ । हे राजन, मैं केवल एक चक्रवर्तीके सम्मुख अपने आपको समर्थ नहीं पाती" ॥१-११॥
[१३] यह सुनकर देवताओंको सतानेवाला, पुण्य मनोरथ, रावण उठ बैठा । उसने शान्तिनाथ भगवानकी तीन परिकमाई दी ही थी कि इतने में कुमारने मन्दोदरीको मुक्त कर दिया 1 अंग और अंगद भाग गये, सेना भी तितर-बितर हो गयी। यह बात रामके कान तक जा पहुँची। किसीने जाकर कहा, “हे परमेश्वर, रावणको इच्छा पूरी हो गयी है । उसे विद्या उपलब्ध हो चुकी है। अब वह निवृत्त और धीर है। अब बह, वीर, देवताओंसे भी निश्चिन्त है। नहीं मालूम अब क्या होगा । हे देव, सीतादेवीकी आशा छोड़ दीजिए।" यह वचन सुनकर कुमार लक्ष्मण इतना कुपित हो गया, मानो प्रलयकालमें सूर्य ही उग आया हो। उसने कहा, "जाओ मरो, यदि तु में शक्ति नहीं हैं, मैं अकेला लक्ष्मण आशा पूरी करूँगा। कहाँको विद्या, और कहाँ की शक्ति । कल तुम उसका अनस्तित्व देखोगे। हे दशरथनन्दन, मैंने जो प्रतिमा की है, वह समुद्र के समान अलंघनाय है। दोनों तरकस जलकी भाँति हैं. धनुषकी तट लहरियोंसे यह प्रतिज्ञासमुद्र भयंकर है, मैं अपने तीरोंके समुद्र में उस दुष्टको डुबाकर रहूँगा" ! ५-११ ॥
[१४] अपनी बहुरूपिणी विद्याके साथ, निशाचरराज रावण ऐसा लगता धा, मानो सपत्नीक इन्द्रराज ही हो । उसने आकर
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पठमचरित
पेक्षा दुम्मणु
सोडिय-हारउ । णिय-अन्तेउरु
गहु व अ-भाउ || || तही मज्झे महा-मिरि-मागणेण । मन्दोघरि दिह सागण ।।३।। छुड छुड आमेछिय अङ्गपण। णं कमलिणि मत-महागण ॥३॥ नं कुतपसि-वाणि जिणागमेण। णं गाणि गरुट-विरामण ॥५|| णं दियर-संह वराहवेण। णं पवर-महाड हुअवहेण ॥६॥ णं ससहर पटिम महग्गहेण। मम्मोसिय विजा-सरहण ।।७।। 'एकल जेहउ केण सहिछ। अणु वि बहुरूपिणि-विज-सहित ८॥ किउ जेहि णियाम्विगि एउ कम्मु । छह वह वहाँ एसहर जम्मु ॥२॥ जइ मणुस होन्ति सो का, पश्य । हुरुन्नि परिटिज गिग मेथु ॥१॥
श्रेण मरष्टिपण कल्टएँ सासु धणे
वत्सा सासें सुहार लाइय हस्था। पेल्खु काई दक्वमि अवस्या' ॥११॥
[१५] एम मणेपिणु
दशु-विदावणु। जय-जय-सह
स-रहसु रावणु ॥३॥ चलित उपगड
उष्ट्रिय कलयल्ल । णं रयणायन
परिवजिय-जलु ॥॥ णवर पहुणो चलन्तस्स दिण्णा महामन्द-मेरी मउन्दा दडी दद्धुरा । पसह टिविला य बाहरी झल्लरी मम्म मम्मीस कंसाल-कोलाहला ॥३॥ मुख तिरिडिकिया काहला दहिया सम्मुक ढका हुडका परा। तुणव पणवेकपाणि ति एवं च सिझेवि (!) संसा उणा (?णो) केण ते
युजिाय! ॥३॥
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दुसत्तरिम संधि
२९३
देखा कि उसका अन्तःपुर उन्मन है। उसके हार टूट-फूट चुके हैं, और वह ताराविहीन आकाशकी भाँति है । अन्तःपुरके मध्य में उसे लक्ष्मीसे भी अधिक मान्य मन्दोदरी दिखाई जिसे अवदने हाल ही में मुक्त किया था। उस समय वह ऐसी दिखाई दी, मानो मदगल गजने कमलिनीको छोडा हो, यह जिनागमने किसी खोटे तपस्वीको वाणीका विचार किया हो, या गरुडराज नागिनपर झपटा हो, या मेघ दिनकर की शोभापर टूट पड़ा हो, या आग प्रवर महाटवीपर लपकी हो, या चन्द्र प्रतिमाको महामहने मसित किया हो। विद्या संग्राहक रावणने मन्दोदरीको अभय वचन दिया। उसने कहा, "मैं अपने जैसा अकेला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है, जिसके पास बहुरूपिणी विद्या हो । हे नितम्बिनी, जिसने तुम्हारे साथ ऐसा बर्ताव किया है, समझ लो उसका इतना ही जीवन बाकी है। यदि वे आदमी होते तो उस समय मेरे पास आते कि जब मैं नियम में स्थित था। जिस घमण्डीने तुम्हारे सिरमें हाथ लगाया है, कल देखना मैं उसकी पत्नीकी क्या हालत करता हूँ” ।। १-११॥
[१५] यह कहकर दानवोंका संहार करनेवाला रावण हर्ष के साथ यहाँसे चल दिया। चारों ओर 'जय जय' की गूँज थी। सगुण यह जैसे ही चला, कल-कल शब्द होने लगा, मानो समुद्र में जल बढ़ रहा हो। रावण के इस प्रकार प्रस्थान करते ही, भेरी, मृदंग, दड़ी, दर्दुर, पटह, त्रिविला, ढड्ढड्ढरी, झल्लरी, भम्भ, भम्मीस और कंसालका कोलाहल होने लगा । मुरच, तिरिडिकिय, काहल, ढष्ट्रिय, शंख, धुमुक्क, ढक्क और श्रेष्ठ हुड्डुक्क, पणव, एक्कपाणि आदि वाद्य वाज उठे । और भी दूसरे वाद्य थे, उन सबको भला कौन जान सकता है
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२९४
परमचरिउ काह मि छलिये चलन्तण अन्तेउरं चोर-मुसाक्ली-हार-केजर-कशो
कलावहिं गुप्पन्तयं । पहल सिरिखण्ड-कापूर-कस्थूरिया-कुमुप्पील-कालागरुम्मिस्स चिक्लितल्ल -
पन्धेसु खुपतये ।। पघल-घय-तोरण-उछत्त-चिन्ध-प्पडायावली-मण्डवरमन्तरालिन्द-पीसन्ध
यारे विसूरन्तयं । मुहल-एल-णेउरुग्वाय-नाकार-वाहित्त-मज्माणुलागन्त-हंसेहि चुमन्स-हेला.
गई-णिग्गमं ॥६॥ फलिह-मणि-कुष्टिमे भूमि-माए वियहि छाया-छलेग (1) धुम्बिजमा.
पाणणं गवर पिसुणो जणो तं च मा पेच्छहीमीए सकाएँ पायम्युहि व
छायातयं गलिय-मणि-मेहला-दाम-सकायमपणोषण-जाहिमाणेण मुचन्तयं । कसण-मणि-सोणि-छायाहिं रजिजमाणं व दगुण देवन्तयं ॥८॥
कहि मि पाव-पाडली-पुष्फ-गन्धेम आयढिया छप्पया । णवर मुह-पाणि-पायग्ग-सुप्पलामोय-माहं गया ॥ ९ ॥ तहि मि चल-चामरुच्छोह-दिरछेव-छिप्पन्त-मुख्याधिया । सुरहि-सुह-गन्धवारण मन्दाणुसीएण संजीविया ॥१०॥
पत्ता एम पइछु घर जय-जय-सई इम्द-विमाण । वसुमइ वसिकरें वि णाइ स यंभुव माहिष-गन्दा ॥११॥
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तरिम संधि
पड़ा।
बड़ी
उसके चलनेपर अन्तःपुर भी मालाएँ, हार, केयूर और करधनीसे वह शोभित था । प्रचुर चन्दन, कर्पूर, कस्तूरी, केसर और कालागुरुके मिश्रण की कीचड़से मार्ग लथपथ हो रहा था। सफेद पताकाओं, तोरण, छत्रचिह्न, पताकावलियोंसे सने हुए मण्डपके भीतर भरे गुनगुना रहे थे, उसके सघन अन्धकारमें वह अन्तःपुर खिन्न हो रहा था। मुखरित और चंचल नूपुरोंकी झंकारसे आकृष्ट होकर हंस, उसके मध्यभागसे आकर लग रहे थे, और उससे उनकी कीड़ापूर्वक गतिमें बाधा पड़ रही थी । स्फटिक मणियोंसे जड़ी हुई धरतीपर, जो उसकी प्रतिच्छाया पड़ रही थी, विदग्धजन उसके बहाने उसका मुख चूम रहा था। कहीं दुष्टजन न देख लें, इस आशंकासे उसने चरणकमलोंसे छाया कर रखी थी । गिरी हुई मणिमय मेखलाएँ और मालाएं एक-दूसरेसे टकरा रही थीं और इस कारण वह अन्तःपुर लज्जा और अभिमान छोड़ चुका था । काले मणियोंकी धरती की कान्तिसे वह रंजित था। जहाँ-तहाँ वह अपनी दृष्टि दौड़ा रहा था । कहीं-कहीं पर नवपाटल पुष्पकी गन्धसे भरे मँडरा रहे थे। ऐसा लगता था, मानो वे मुख हाथ और चरणोंके लालकमलोंके क्रीडामोहमें पड़ गये हों। वहाँ कितनी ही रमणियाँ चंचल चामरोंके वेगशील विशेपसे सहसा मूर्छित हो उठीं। फिर सुगन्धित शुभ शीतल मन्द पवनकी ठण्डक से उन्हें होश आया । इन्द्रका मर्दन करनेवाले रावणने जय-जय ध्वनिके साथ अपने घर में इस प्रकार प्रवेश किया, मानो नाभिनन्दन आदिजिन अपने बाहुबलसे धरतीको बशमें कर गृहप्रवेश कर रहे हों ॥ १-११ ॥
२९५
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२५५
पउमचरिउ
[ ७३. तिसतरिम संधि ]
तिहुवण-दामर बीह मङ्गल-तूर-रवेण
[1]
पइमिव मिच अवयजिय । यि पिय-लियों तुरिय विसजिय ॥ 5 ॥
कषय- सेवहिं सहित दहम्मुडु | ओसारियाँ असेसाहरणइँ ।
गढ़ मजरा सरह सम् ॥२ दुरि दियरेण णं किरणएँ ॥ ३७
लय पोसिरिसण दया हव । गुल्झावरणसी माया इव ॥ ४ ॥
पल्लव-गहिय महा वणरा व ॥ ५ ॥ विविधामणेर्हि अकमक्रिज ॥६॥
-संवाद संचाहि ॥ ७ ॥ सम्बजित पासेउ बलग्ग ॥८॥
सण्ड सुत्त वाचरण कड़ा इव । वर वारङ्गणेहिं सम्वति ।
राउ आयाम भूमि रहसा हिउ ।
ताव विमटि जान पहचाउ ।
मयरद्वय सर-सहि णयणु । ममाणड पसइ दहवयणु ॥
छुद्ध उग्गहूँ सरी णं तुट्टेण समेण
पुणु धारकति उच्चट्टिउ ।
राज चामियर दोणि परमेसर ।
घन्ता
पासेस-पुडिङ्गहूँ निम्मछहूँ । कवि दिष्णइँ मुसाहहूँ ॥ ९॥
[२]
पणं करि करिणि करेहिं विष्टि ॥ ३
णं कणियारि-कुसुम-थति महुअर ॥ २
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सिसमरिमो संधि
२९७
तेइत्तरवों सन्धि
यह रावण त्रिभुवनमें बेजोड़ और भयंकर वीर था। उसकी आँखें कामदेवके बाणकी तरह पैनी थीं । मंगल तूर्यकी ध्वनिके साथ उसने स्नान के लिए प्रवेश किया।
[१] अपने भवनमें प्रवेश करते ही, उसे नौकर दिखाई दिये । उसने उन्हें तुरन्त अपने अपने घर जानेको छुट्टी दे दी। अपने इने-गिने सेवकोंके साथ रावण स्नानघरकी ओर गया। उसने अपने समस्त आभरण उसी प्रकार हटा दिये, जिस प्रकार दुर्दिनमें दिनकर अपनी सब किरणें हटा देता है। उसने नहाने को धोती ग्रहण की, मानो आदिनाथने 'दया' को ग्रहण किया हो। माताके समान वह अपने गुप्त अंगको ढक रहा था। व्याकरणकी कथाकी भाँति उसने सण्ड सूत्र (?) बाँध रखा था। विशाल वनराजिकी तरह वह पल्लवयुक्त था। उत्तम वारांगनाओंसे वह परिपूर्ण था। विविध मंगिमाओंसे उन्होंने असकी ओर देखा । फिर हर्षसे विभोर होकर वह व्यायामशाला में पहुँचा। वहाँपर मालिश करनेवालोंने उसकी खूब मालिश की। सबेरे तक उसकी मालिश करते रहे। उसका अंग-अंग पसीना-पसीना हो गया। शरीरपर पसीनेकी स्वच्छ (दें ऐसी झलक रही थीं मानो समुद्रने सन्तुष्ट होकर अपने मोती निकालकर दे दिये हों ।। १-२ ।।
[२] फिर उत्तम विलासिनियोंने उसका ऐसा उबटन किया मानो हथिनीने अपनी सूंडसे झार्थीका मर्दन किया हो। इसके बाद सोनेकी करधनी पहने हुए रावण गया। वह ऐसा लग रहा था मानो कनेर कुसुमके किनारे मधुकर बैठा हो, दरवाजे
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२१८
पउमरिट
वारिहें माँ पट्टु व कुझर । दप्पण-मिरिहं व छाया-णावर ॥३n सरसिह मन्छे छ परिमा ससहरु। पुध्व-दिसा व तहण-दिवायरु ॥४॥ गम्घामक हि बिहुर पसाहिय। परिव मावि वन्धेवि साहिय॥ ॥ पुणु गउ पहषण-वीद्ध श्रागन्दें। पर-कहन्दिण-जय-अब-साई॥६॥ फलिह-सिला-मणियाँ (?)थिउ अबइ। हिम-
सिरोल्लि घणु गाई ।। पण्ड-सिल व काम-करि-केसरि। बहुल-पक्खु पुषिणव उपरि८॥
पत्ता माल-कलस-कराड दुचाउ णारित पसरहीं। णाबाई सयल-दिसाउ अण्णय-महाड माहीहरहो ॥५॥
[३] पवर पहुणोऽहिसेयस्स पारम्भए । हम-कुम्भेदि उक्खित-सारस्मए | पवर-अक्षिसेय-तूरं समुप्फालयं । वहु-कच्छेहि माहि ओरालिरं ॥२॥ कहि मिसु-परेहि गामणेहि प्रकार मासं बन्दि-लीगण उचारियं ॥३॥ कहि मि घर-स-वीणा-पचीणा पारा । गन्ति गन्धश्च विजाहरा किण्णरा॥४॥ कहि मि कम होय-माणिक-सिप्पी-
विष्ण।
संकुन्दिओ(?) कम्प(!)-चन्देण आलिम्दभो ॥५॥ कहि मि सिरिखण्ड-कप्पर-कथूरिया-कुखमप्पा-गरण एकमो भाहमो॥५॥ कहि मि अहिसेयन्सअम्बु-धारा-णिवाय
पवाहेण दूराहि एकमो सिनिओ ॥७॥ कहि मि णह-दस्त-फम्फाव-वन्देहिं सोइग्ग-सुराण ।
___णामावलि से समुबारिषा ।।।।
घत्ता एवं जणुरुलावेग पल्हत्यिय कलस गरेसरहों। सुर-जय-जय-सदेण अहिलेय-समएँ जिव जिणवरहीं ॥९॥
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सिसत्तरिमो संधि
२९९ में हाथी घुसा हो, या दर्पणमें किसी श्रेष्ठ नरकी छाया पड़ी हो, या सरोवरमें चन्द्रमाका प्रतिविम्य हो, अथवा पूर्व दिशामें दिनकरको प्रतिमा हो। गन्धामलकसे उसने अपने केश सुवासित किये, फिर शत्रुकी तरह उन्हें अलग-अलग कर बाँधा और सजित किया। फिर आनन्दके साथ वह स्नानपीठपर जाकर बैठ गया। नट, कवि और वन्दीजन उसका जय-जयकार कर रहे थे । स्फटिक मणिकी वेदीपर बैठा हुआ वह ऐसा जान पड़ रहा था मानो हिमशिखरपर मेघ गरज रहा हो या पाण्डुशिला पर तीर्थफर हो, या पूर्णिमाके ऊपर कृष्णपक्ष स्थित हो। स्त्रियाँ मंगलकलश अपने हाथों में लेकर उसके निकट इस प्रकार पहुँची मानो उन्नत मेघोंसे युक्त दिशाएँ महीघरके पास पहुँची हों ॥ १-२ ॥
[३] प्रमु रावणका अमिपेक प्रारम्भ होनेपर स्वर्णिम कलशोंसे जलधारा छोड़ी आने लगी। बड़े-बड़े नगाड़े बज उठे। काँछ बाँधकर योद्धा गरज उठे । फहीपर वन्दीजन सस्वर गानसे अंकृत मंगलोंका उच्चारण कर रहे थे । कहीं पर उत्तम बाँसकी बनी वीणा बजानेमें निपुण मनुष्य, किन्नर, गन्धर्य और विद्याधर गा रहे थे। कहीपर वन्दीजनौने स्वर्ण माणिक्यके समूहसे देहलीको भर दिया था। कहीपर चन्दन, कपूर, कस्तूरी और केशरकी कीचड़ एकमेक हो रही थी। कहीं पर अभिषेकशिलाकी जलधाराके प्रवाहसे लोग दूरसे ही भीग रहे थे। कहीं पर नट, छत्र, फम्फाव और धन्दीजन, सौभाग्यशाली वीरोंकी नामावलीका उच्चारण कर रहे थे । इस प्रकार अनानन्ददायक कलशोंसे रावणका अभिषेक हो रहा था। जिन भगवानके अभिषेककी भाँति देवता 'जय-जयकार' कर रहे थे ॥ १-२॥
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पउमचरि
[ ४ ]
कवि अहिसिन
- कुम्भ ।
छि पुरन्दरं व विमलश्मे ॥ १ ॥ कवि रुप्पिम कसे जल-गाहें पुष्णिव ससिमित्र जोण्डा-वाहें ॥२॥ कवि मरगय कळलेण उर-स्थलु । णलिणिव णकिण उडेण महीयलु ॥३॥ * वि कुङ्कुम-कलसेणायतें । सम्झ व विवसु दिवायर-विवें ॥३॥ मायएँ कीलऍ जयसिरि- माणणु । जब जय सऍ हाउ दलाणणु ॥५॥ विमल - सरोरु बाउ सक्केसरु | णं उप्पण्ण णाणु तिस्थवस ॥ ६ ॥ दिग्ाई सणु-लुहणाएँ सु-सह। खल- कुणि कणा इत्र लण्ड ॥७॥ मेल्लिय पोति जिपणेण व दुग्गइ । मोभाषिय केसा हूँ जलुग्म ॥८॥ पिणु सेयम्वक विसाव (?) । वेडिं सीसुरु
॥९५
३००
सोहडू धवलवण
सुरसरि वाहण
घत्ता
भावेदि दुससिरसिंह पवरु |
कलासह तण तु-सिहरु ॥ ६० ॥
[ ५ ]
गम्पिणु देव भवणु जिणु बन्देवि । वार-बार अध्यानन निन्देवि ॥ ५॥
कण-बीजें परिद्विड राणउ ॥२४
मोयण-भूमि पट्ट पहाणड । जयणि मायि अस व धुहि । मनुह-मह द वायर ग व सयर सुहिं पिय-जासेंहि । महकइ किसि व सीस-सहासमि
सुतेंहिं ॥३॥
I
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1
तिसत्तरिम संधि
६०१
[४] कोई स्वर्ण कलशसे वैसे ही अभिषेक कर रहा था, जैसे लक्ष्मी विमल जलसे इन्द्रका अभिषेक करती है। कोई जलसे भरे रजतकलशसे उसका अभिषेक कर रहा था, मानो पूर्णिमा चनी प्रवाहसे चन्द्रमाका अभिषेक कर रही हो। कोई मरकत कलशसे उसके वक्षःस्थलका अभिषेक कर रहा था, मानो कमलिनी कमल कुण्डलोंसे महीतलको सींच रही हो। कोई आरक्त केशर कलासे अभिषेक कर रहा था, मानो सन्ध्या feवाकरके बिस्से दिनका अभिषेक कर रही हो। जयश्रीके अभिमानी रावणने इस प्रकार विविध लीलाओं और जय-जय शब्द के साथ स्नान किया । चक्रवर्ती रावणका शरीर ऐसा पवित्र हो गया मानो तीर्थंकर भगवान्को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ हो। फिर उसे शरीर पोंछने के लिए वस्त्र दिये गये जो दुष्ट दूतीके वचनों के समान सुन्दर थे। उसने धोती उसी प्रकार छोड़ दी जिस प्रकार जिन भगवान खोटी गति छोड़ देते हैं। जलसे गीले बाल उसने सुखाये । उसने स्वयं सफेद कपड़ा ले लिया और उससे अपना सिर उसी प्रकार लपेट लिया, मानो उसने शत्रुका नगर घेर लिया हो। सफेद कपड़े से ढके हुए रावणका सबसे बड़ा सिर ऐसा लगता था, मानो गंगाकी धारा से हिमालयकी सबसे बड़ी चोटी शोभित हो ॥ १-१० ।।
[५] जिनमन्दिर में जाकर उसने भगवानकी स्तुति की। उसने बार-बार अपनी निन्दा की। उसके बाद उसने भोजनशाला में प्रवेश किया। वहाँ वह स्वर्णपीठपर बैठ गया। उसके बाद जेवनार उसी प्रकार घुमायी गयी, जिसप्रकार धूर्तलोग किसी असतीको घुमाते हैं, जैसे व्याकरणके सूत्र अपण्डितकी बुद्धिको घुमाते हैं, जैसे अपना सर्वस्व नाश करनेवाले सगरपुत्रोंने गंगाको घुमाया था, जैसे हजारों शिष्य महाकविकी
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२०२
दिण्णहूँ रुप्पिम - कण थारू हूँ । विध्यारित परिषलु पहु फेरउ । सरवरो य लयवत - विसहज | हि सिपि सङ्घ-सन्दोहज
विज्जइ अभिग्राहारु गाव सरहु बिसालु
म हरण कसण-सरी थियाएँ
पउमचरि
धूमवधि परिपिऐवि पहाण मरुण पसाहिब अप्पर । पुणु तम्बोल दिष्णु चडरवर । पुणु दिगम्बर अमोल । बे-विषय- मिडुण व सुअन्धइँ सुदङ्गण चित्ताएँ व सदअहूँ । दोहई दुज्जण दुष्वयणाएँ व । बिरहियाँ व बहुकामावरथई ।
।
विषभूसी । पसरहियो गइन्दभ ।
सुपुरिस-चिस व विसाल हूँ ॥५॥ अरता व कम्ति-जणेर ॥६॥ पण पइसारु च वधु-वर ॥ ७ ॥ वर-व-पशु व कशी सोड ११८ ॥
बहु-खण्ड-पयारु सुहावेणउ । पण महारस - दावणउ ॥९॥
[]
मुवि श्रवण वा थिउ राज४ ॥१॥ मधु रूपन्तु णाएँ घिउ छप्पड ॥२॥
-वेक्षण णाएँ बहु-रक्कउ ॥३॥ जिण चयणाएँ व अम्मरुडुलइँ ॥ ४ ॥ अहोरसाइँ व घडिया-बन्ध ॥५॥ टुकुर-दागाइँ व ॥ ६ ॥
पिष्ट गाइ- पुठिणाइँ च ॥७॥ वन्दिण-जण चन्दहुँ व जियावहूँ ॥ ८ ॥
घसा
विष्फुरिय-समुजक-मणि- गणहूँ । बहुल-पक्खें तारायण ॥९॥
[ ७ ]
सुरिन्द- दन्ति दूसणो ॥१॥ शिवारिपाटि - जिन्दभो ॥२॥
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तिसत्तरिमो संधि कीर्तिको सब ओर घुमाते हैं। उसे सोने और चाँदीकी थाली दी गयों, जो सत्पुरुषोंके चित्तोंकी भाँति विशाल थी। फिर रावणका थाल रखा गया, जो तरुण दिवाकरकी भाँति धमचमा रहा था, जो सरोवरको भाँति शतपत्रसे सहित था, जो नगर प्रवेशकी तरह बहुविध था, जो समुद्रकी भाँति सीप और शंखोंके समूहसे सहित था, जो उत्तम स्त्री समूहकी भांति कंची ( करधनी, कढ़ी) से युक्त था । इसप्रकार उसे तरह-तरह का अमृत भोजन दिया गया जो भरत ( मुनि) की तरह दूसरे-दूसरे महारसोंसे परिपूर्ण था॥ १-२॥
[६] कपूरसे सुवासित पानी पीकर और खाकर गजा रावण दूसरे निवासस्थानपर आकर बैठ गया। उसने अपनेआपको चन्दनसे अलंकृत किया। वह ऐसा लग रहा था जैसे भ्रमर गन्ध ग्रहण कर रहा हो ।फिर चार रंगका पान उसे दिया गया जो नटप्रदर्शनकी तरह रंग-बिरंगा था। फिर उसे अमूल्य वस्त्र दिये गये, जो जिनवचनों की भाँति दोनों लोकों में श्लाघनीय थे जो मलयदेशके मिथुनकी भाँति सुगन्धित थे, जो आधीरातकी भाँति घड़ियोंसे बँधे हुए थे, जो मुग्धांगनाओंके चित्तोंकी भाँति खिले हुए थे, जो दुष्टोंके दानकी भाँति क्षुब्ध करनेवाले थे। जो दुर्जनोंके वचनोंके समान लम्बे थे, जो गंगा नदीके किनारोंकी भाँति एकदम फैले हुए थे। जो वियोगिनीकी भाँति नाना कामावस्था वाले थे। जो वन्दीजनोंके समूहको भौति द्रव्यविहीन थे। तदनन्तर उसने मणियोंसे चमकते हुए आभूषण ग्रहण किये। वे गहने उसके श्याम शरीरपर ऐसे मालूम होते थे मानो कृष्णपझमें तारे चमक रहे हों ।।१-२॥
[७] उसके अनन्तर ऐरावत को भी मात देनेवाले त्रिजगभूषण हाथीको सजा दिया गया । अपनी सैंडसे, वह भौरोंकी
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पउमचरिट
पलम्व-घण्ट-जोसो। पसपण-कण्ण-वामरो। मणोज-गेज कण्ठो । विसाल उन्मू-चिन्धो गिरि व तुङ्ग-गत्तओ। घणो म्ह पूजासगो। मणो व लोल-वेयओ।
वहन्त-दाण-सोती । णिमीलियच्छि-उदारी ॥ मिसी-गिह-मट्टी ॥५॥ पहु ग्व पह-यन्धनो ॥६॥ महपण व मसी ॥७ जय सुटु भीसणो lil रवि व उग्ग-यो ।।५।।
धत्ता सम्बाहरणु णरिन्दु सहि कसण-महग्गएं घडिज किह । उपणय-मोह-णिसषणु लक्खिाइ विशु-विलासु मिह ।।१०॥
[-] अप-जय-सारे सत्तु-स्त्रयाणणु। सौयह पासु पयट्टु दसाणणु ॥ १॥ बहुरुधिणि रूबरे मावन्तः । खणे वासरु खणे मिसि दावन्तउ॥२॥ खण चन्दिम खणे मेहन्धारउ । खणे वालि-लि-जलधारउ ॥३॥ षणे णिहाय-सडि-वडण-बमालिउ । खणे गय-घग्घ-सि-ओरालिट ॥४॥ खणे पाउसु हेमन्तु उन्हाउ। खणे गयण-यलु सयतु सम-आलउ ॥५ सणे महि-कम्पु महीहर-हल्लिर । स्वर्ण स्पणायर-सलिछल्लिज ॥६॥
तेहड णिपधि समि मुहिय। तियरंपपुछिप जणयहाँ दुहिष।।७।। 'एड महन्तु काई अचरिपड । किं फेण वि जगु उससहरिपउ' ॥४॥
घत्ता पमण तियाषि 'बहुरूपिणि-रूवाविव-तणु । श्रावह रूगगड पहु सङ बयशु मिजाकड दहषयम' ।।।
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तितरियो संधि
कतारको दूर हटा रहा था। दोनों ओर विशाल पटे लटक रहे थे । मदजलकी धाराएँ बह रही थीं। कानोंके चनर हिलडुल रहे थे, दोनों आँखें मुँदी हुई थीं । सुन्दर गेय के समान उसका कण्ठ था। उसकी पोठपर भ्रमरियाँ मँडरा रही थीं । उससे विशाल चित्र बँधे हुए थे । राजाकी भाँति उसे पट्ट बँधा हुआ था। पहाड़की तरह उसका शरीर विशाल था, महार्णवकी भाँति गम्भीर था । महामेघ को तरह उस की ध्वनि गम्भीर थी । यमकी तरह वह अत्यन्त भीषण, मनकी तरह अत्यन्त वैगशील और पूर्व की तरह उसे सब अलंकृत उस कृष्णवर्णके हाथीपर इस प्रकार बैठा, मानो उन्नतमेघों में बिजलीकी शोभा विलसित हो ॥१-१० ॥
·
[ ८ ] शत्रुका क्षय करनेवाला रावण सीता देवीके निकट गया। वह बहुरूपिणी विद्याका ध्यान कर रहा था। कभी दिन दिखाई देता था और कभी रात । कभी चाँदनी और कभी मेका अन्धकार | एक ही क्षण तूफान और जलधारा दिखाई देने लगती । एक पलमें बिजलीके गिरनेकी आवाज सुनाई देती और दूसरे ही पलमें गज, सिंह और बाघकी गर्जना । एक पलमें गर्मी सर्दी और वर्षा और दूसरे पलमें शान्त ज्वालाका आकाशतल । एक क्षण में धरती काँप उठती और पहाड़ हिल जाता, दूसरे क्षणमें समुद्रका जळ उछल पड़ता । यह सब देखकर जनककी बेटी चन्द्रमुखी सीतादेवीने त्रिजटासे पूछा, "ये अचरज भरी बातें क्यों हो रही हैं, क्या किसीने संसारका संहार कर दिया है।" यह सुनकर त्रिजटादेवीने कहा, "अपने शरीर में बहुरूपिणी विद्याका प्रवेश कर, रावण तुम्हें देखने आ रहा है" ।। १-२ ।।
२०
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२०६
पउमरित
[९] संणिसुणेवि महाला कम्पिय । वा भरन्ति चक्खु दर जम्पिय ।।१।। 'माएँ " आणहुँ काई कोसइ । सीलु महारड किं मइलेसर' ।।२।। साव सुरिन्द-बिन्द कन्दावणु। कण्ठाहरण-विविह-क-दावणु ||३|| सीयहें पासु पहलिउ सरहसु । णावा कम्मइसरों पुणवतु ॥४॥ यावह दोह-समासु विहत्तिहें। णाषर छन्दु देव-गाइसि || शोधाविः कोइहि एनपी होलि ण झोलि साणण-केसरि ॥६।। सुबउ ण सुअन महारत हसु । दिछु ण दिटुबिउवण-साहस ।।७।। एवहिं कि करन्ति ते हरि-वक । जल-सुग्गांव-णील-माम ॥८॥
अग्ण वि जे जे मुह एवहि कहि णासन्ति
से ते महु सम्ब समावरिय । सारश व सीवहाँ कमें परिप ॥५॥
[१०] सीमन्तिणि मयरहरुत्तिण्णहाँ। लुहमि कीह कहनुप-सेन्जहाँ ।। रामु तुदार अम-पहें लायमि । इन्दा कुम्मणु मेलामि ॥२॥ जो विसाल किंठ कह पि विसल्लएँ। सो वि मिास्तु ण शुक्षा कक्षाएँ॥२॥ जीवियास तहुँ केरी पहि। बहु विमाणे अपाणउ मण्डहि ॥३॥ सरयण स-निहि पिहिमि परिपालहि। ना? मेरु जिणहरई गिहालहि ॥५॥ पेक्स समुा दीव सरि सरवर। गन्दण-पण महनुम मसिहर ।।
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लिससरिमो संघि [९] यह सुनकर, वह महासती काँप गयी 1 उसके हाथ फूल गये और आँखें कुछ-कुछ काँप गयीं । वह सोचने लगी"हे माँ, न जाने वह दुष्ट का दगा ? नाही कलंकित कर देगा।" इतने में देयताओंके समूहको सतानेवाला रावण अपने कंठोंके आमरण और मस्तक दिखाता हुआ सोतादेवीके पास इस प्रकार पहुँचा, मानो अनंगशराके पास पुनर्वसु चक्रवर्ती पहुँचा हो, मानो दीर्घ समास विभक्तिके पास पहुँचा हो, मानो छन्द वेव गायत्रीके पास पहुँचा हो । उसने कहा, "हे देवि बोलो, चाहे मैं दशानन सिंह होऊँ या न होऊँ, चाहे मेरा साहस तुमने सुना हो या न सुना हो, चाहे तुमने मेरी विक्रिया-शक्ति का प्रभाव देखा हो या न देखा हो, इस समय राम और लक्ष्मण, नल, सुग्रीव, नील और भामण्डल, मेरा क्या कर सकते हैं। और भी, इनके सिवा जितने दुष्ट हैं उन सबको मैंने धरतीपर लिटा दिया है । वे लोग भी अब कहीं न कहीं उसी प्रकार नष्ट हो जायेंगे जिस प्रकार सिंह के पैरोंकी चपेटमें आकर हरिण मारा जाता है ।। १-२॥
[१०] हे सीमन्तनि, मैं समुद्र पार करनेवाले कपिध्वजियोंको सेनाके नाम तककी रेखा मिटा दूंगा, तुम्हारे रामको यमपथपर भेज दूंगा। इन्द्रजीत और कुम्भकर्णकी भेंट हो जायगी और जिसे विशल्याने शल्य विहीन बना दिया है, वह लक्ष्मण भी कल लड़ाई में किसी भी प्रकार बच नहीं सकता। इसलिए तुम उन सबके जीनेकी आशा छोड़ दो, विमानमें बैठकर चलो और अपनी साज-सज्जा करो।" रत्नों-निधियों से सहित इस धरतीका पालन करो, मैं सुमेरु पर्वत जा रहा है, चलो जिन मन्दिरोंकी वन्दना कर लो। समुद्र, द्वीप, नदियाँ, सरोबर, महावृक्ष, पहाड़ और नन्दनवन चल कर देखो। अभी
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पउमचरित
अह एत्तउद काल जं घुक्की। अइ वि तिलोसिम रमाएधी। वार-यार से सई अन्मस्थमि। सुई में एक महरविय चुच्चाह ।
सं मड्डु जय-बारहरि गुरुको पा आ ण समिच्छ, सा ण लएवी 1.1 दर करि अन्तउरु अवहस्थमि ||९|| वामर-गाक्षिणा मा मुखहि ।.१०||
सुरवर संव करन्तु लक्षण-रामहुँ सत्ति
पत्ता षण छरड दिन्तु पुरै पइसरहि । दुष्षुद्धि व दू परिहरहि' ॥११॥
जाणेवि दु-कम्मु पारग्मित। बहुरूविष्णि-बहु-रव-वियम्भिउ ||१|| चिन्तिड दसरह-गन्दण पत्ति 'सखण-राम भिणइ विणु मन्तिएँ।॥२॥ बासु इम इ एव चिन्धई। बहुरूविणि-बहु-रूबई सिख ॥३॥ अण्ण इ सुरवर संक कराविय। चन्दि-बिन्द कलुगाई कन्दाविथ ।। १ ।। सो कि मई ण लेइ पिउ ण दणई' । आसझेवि देषि पुणु पभणइ ।।। 'दहमुह भुवण-विणिग्गय-गामें। खणु मि ण जिमि मरम्लें समें ॥६॥ जेस्थु पईधु तेत्थु सिह पज्जाइ । जेधु अग तस्थु रह जजइ ।।७।। जेधु सणेहु तेरथु पणयञ्जलि। जत्थु पया तेरधु किरणावलि ||८||
__ घत्ता जाहि ससहरू सहि जोह जहि परम धम्मु तर्हि जोत्र-दछ । जहिं राहड सहि सीम' मा एम मणेपिणु मुछ गय ॥५॥
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तिसत्तरिमो संधि
२०५
तक जो तुम बचो रही, वह केवल मेरी इस भारी व्रत-वीरताके कारण कि मैंने संकल्प किया है कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी उसे मैं जबर्दस्ती नहीं लगा : फिर चाहे वह तिकोनता शा रम्भा देवी ही क्यों न हो? यही कारण है कि में बार-बार तुम्हारी अभ्यर्थना कर रहा हूँ। मुझपर दया करो । मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हें अन्तःपुर में सम्मानसे प्रतिष्ठित करूंगा, तुम्ही एकमात्र महादेवी होगी । स्वर्ण चामरोको धारण करनेवाली सेविकाएँ तुम्हें कभी नहीं छोड़ेगी। देवता तुम्हारी सेवामें रहेंगे। घने छिड़कावके बीचमें-से तुम नगरमें प्रवेश करोगी। अब तुम राम और लक्ष्मणको आशा तो दुर्बुद्धिकी तरह दूरसे हो छोड़ दो ॥ १-११॥
[११] इस प्रकार जान-बूझकर सषणने दुष्टता शुरू की । उसने बहुरूपिणी विद्याके सहारे तरह-तरह के रूपोंका प्रदर्शन प्रारम्भ कर दिया। यह देखकर दशरथपुत्र रामकी पत्नी सोचने लगी - "निश्चय ही अब राम-लक्षमण जोत लिये जायेंगे। भला जिसके पास इतने सारे साधन है, जिसे बहुरूपिणीसे बड़े-बड़े रूप सिद्ध हो चुके हैं, और दूसरे बड़े-बड़े देयता जिसकी सेवा करते हैं, चारणोंका समूह जिसे नासे अपना सिर झुकाते हैं, क्या वह प्रियको मारकर मुझे नहीं ले लेगा" | इस आशंकासे वह देवी फिर बोली, "हे दशमुख, भुवन विख्यात रामके मरनेके बाद मैं एक मण भी जीवित नहीं रह सकती। जहाँ दीपक होगा वहीं उसकी शिखा होगी, जहाँ काम होगा रतिका वहाँ रहना ही ठीक है, जहाँ प्रेम होता है प्रणयाञ्जलि वहीं हो सकती है, जहाँ सूर्य होगा किरणावली वहीं होगी। जहाँ चाँद होगा चाँदनी वहीं होगी, जहाँ परमधर्म होगा जीवदया भी वहीं रहेगी। जहाँ राम, सीता भी वहीं होगी।" यह कहकर
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१०
पउम चरित
[२] मुच्छ णिएप्पिणु रहुबइ धरिणिहँ । करि ओसरिज व पासहाँ करिणि ॥३॥ "चिद्धिगाथु परयार मसारउ । दुग्गइ -गमणु सुगइ -विणिधारउ ॥२॥ म. पावेण काइँ किउ प्रहर। में विच्छोइड मिहुशु स-गेहउ ।।३।। को दि मई सरिसर विरुवारड । दूहर दुम्मुख दुहिय-गारउ ॥४॥ दुजणु दुटु दुरासु दुळवणु। कु-पुरिसु मन्द-भग्गुअ-षियक्वगु॥५॥
दुषणयवन्तु विणय-परिवजिउ । दुचारितु कु-सील अ-शभिउ |६|| णिज-सन्तायत सतिसगान भर इन-मावउ ॥॥
वरि पसु वरि विहङ्ग किमि कीवर | उ अम्हारिसु जग-परिपीटउ 1॥८॥
पत्ता वरि तिणु वरि पाहाणु वरि लोह-पिण्ड वरि सुक्-तरु। उ णिग्गुणु वय-हीणु माणुसु उप्पणु महीह मरु ||
[१३] अहाँ अहाँ दारा परिमन-गारा। कयलि व सम्पलि णीसारा ।।१॥ चालणि ब्व केवल-मस-गाहिणि । सरि व कुरिल हेटामुह-वाहिणि ॥२॥ पाउस कुहिणि च दूसञ्चारिणि । कुमुइणि व गहवइ -उबगारिणि॥३॥ कमलिणि ब्च पण ण मुश्चई। मणु दारं दार से वुत्ह ॥४॥ वणिय घणेइ सरीरु समत्ता । गणिय गणेइ असेसु वित्तउ ||५||
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सिसप्तरिमो संधि सीता देवी मूञ्छित हो गयीं ॥ १-९॥
[१२] रामकी पत्नी सीता देवीको मूञ्चित देखकर, रावण उसके पाससे वैसे ही हट गया जिसप्रकार हथिनीके पाससे हाथी हट जाता है । वह अपनी ही निन्दा करने लगा, "धिक्कार है मुझे । परस्त्री सचमुच असार है, वह खोटी गतिमें ले जाती है और सुगतिको रोक देती है। मुझ पापीने यह सब क्या किया, जो मैंने एक प्रेमी जोड़े में बिछोह डाला । मुझ जैसा बुरा करनेवाला अभागा दुर्मुख और पापो कौन होगा, सचमुच में दुर्जन. दुष्ट, दुरामा दुलनाम, कपरप, सन्दभाग्य और अपण्डित हूँ । अनयशील, विनयहीन, चरित्रहीन, कुशील और लज्जाहीन हूँ। दूसरेको स्त्रीको सतानेवाले मुझसे अच्छे तो जलचर-थलचर और पनपशु हैं । पशु होना अच्छा, पक्षी और कीड़ा होना अच्छा, पर मुझ जैसा जगपीडक होना अच्छा नहीं । तिनका होना अच्छा, पत्थर होना अच्छा, लोहपिण्ड और सूखा पेड़ होना अच्छा, परन्तु निर्गुण ब्रतहीन, धरतीका भारस्वरूप आदमीका उत्पन्न होना ठीक नहीं ॥१-२॥
[१०] रायणने फिर कहा, "अरे-अरे स्त्रीका अपमान करनेवाले, तुम्हारा सर्वांग कदली वृक्षकी तरह सारहीन है, चलनी. की भाँति, तुम कचरा ग्रहण करनेवाले हो, नदीकी तरह नीचेनीचे और टेदे-मेढ़े यहनेवाले हो, पावसके मार्गोंकी भाँति संचरण करनेके योग्य नहीं हो, कुमुदिनीकी भाँति चन्द्रमाका उपकार कर सकते हो, कमलिनीकी भाँति तुम कीचड़से मुक्त नहीं हो सकते, स्त्री मनका विदारण करती है. इसीलिए दारा कहते हैं, वह वनिता इसलिए कहलाती है कि शरीर आहत कर देती है, और गणिका इसलिए है क्योंकि सब धन गिना लेती है,
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२१२
परमचरिड
दायहाँ दइउ ले ते दहया। पर निविहेण रेण तियमइया ||५|| धणिय धणेई अप्पु अवयारें। जाय जाइ पीअन्ती जारें ॥॥ फु वसुन्धार सहि मारि कुमारी। णा पर तापु अरिसे गारो ॥५॥
व सुरष जेम दमि विहाण सीय
वत्ता
धन्धेपिशु लक्खा रामु रणे । सञ्चा परिमुन्झमि जेम गणें ॥९॥
[१५] एम भागेपिणु गड णिय-गेहहाँ। भन्नेउरहों पहिय-णेहहाँ ।।१।। रायहमु ण हंसी-जूहहौं। गं गयवरु गणियारि-समूहहों।।२।। र्ण मयसक्छणु तारा-बन्दहौं। धुमगाउ लिपि-मयरन्दही ॥३॥ पणही पण पगवन्तउ । माणिगीड साई सम्माणन्त ॥धा रसगा-दामपहि वजन्ता । लीला-कमल हि ताजिनान्सड ॥५॥ एवं परिष्ट्रिउ गिसि-सम्मोर्गे । सिङ्गारंग विविड-विणिउम्र्गे ॥६॥ सीय चि गिय-जीवियही अगिट्टिय । ण दसपिरही सिरप्ति समुद्विय ॥७।। वाव पिणहाय पहिय महि कम्पिय । 'जट्ट लक' गई दंव पम्पिय ।।।
'दहसुइ मृढन का णरहि सुरबइ जेच
पत्ता
पर-णात रमन्तहाँ रुषणु सुहु । णिय-रज्जु सई भुञ्जन्तु तुहुँ' ॥९||
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तिसप्तरिमो संधि
३१३ दयिता इसलिए कहते हैं क्योंकि वह प्रिंयके 'दैव' को छीन लेती है, वह तीन प्रकारसे शत्रु होती है, इसलिए तीमयी कहलाती है। धन्या इसलिए है कि अपकारसे हमें कष्ट पहुँचाती है । जाया इसलिए कि जारके द्वारा ले जायी जाती है । धरतीके लिए वह 'मारी' है इसलिए उसे कुमारी कहते हैं। मनुष्य नसमें रतिसे नृप्त नहीं होता इसलिए उसे 'नारी' कहते हैं। कल मैं इन्द्रकी तरह युद्ध में राम और लक्ष्मणको बन्दी बनाऊँगा और तब उन्हें सीतादेवी सौंप दूंगा, जिससे मैं दुनियाकी निगाहमें शुद्ध हो सकूँ" || १-९॥
[१४] यह कहकर, रावण स्नेह से परिपूर्ण अपने अन्तःपुरमें उसी प्रकार गया जिस प्रकार, राजाहस हसिनियों के झुण्डमें जाता है या जैसे हाथी हथिनियों के समूह में, चन्द्रमा तारासमूह में, भौंरा कमलिनीके मकरन्दमें प्रवेश करता है। उसने वहाँ प्रणयिनियों के साथ प्रणय किया, माननी स्त्रियोंके साथ मान किया। किसीको करधनीको डोरसे बाँध दिया, किसीको लीला कमलसे आहत कर दिया। इस प्रकार वह विविध विनियोगों और शृंगारसे रात भर भोग भोगता रहा। उसने समझ लिया कि सीतादेवी उसके लिए अनिष्ट है । रावणको लगा जैसे उसके सिर में पीड़ा उठ रही है। ठीक इसी समय एक भारी आघात हुआ, उससे धरती काँप उठी। आकाशमें देवसाओंने घोषणा कर दी कि लो लंका नगरी नष्ट हुई। हे रावण, तुम मूर्ख क्यों बने हुए हो, परस्त्रीके रमण करने में कौन-सा सुख है ? क्या तुम अब इन्द्र की तरह अपने राज्यका भोग नहीं करना चाहते ॥ १-६ ॥
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३६४
पउमचरित
[७४, चउसत्तरिमो संधि]
दिवसयर विउन्हें विवाई। स-रहसइँ पाड्य-कम बलाई
रण-रसिय अमरिस-कुछाई । भिडियइँ राहव-समय-वल, ।।
[1]
जाब रावणु जाइ णिय-गेहु । अन्तेउरु पइसरह
रह रयणि सई भोग्गा आवरु । ता ताडिय चड-पहरि उअय-सिंहरै उहिउ दिवायरु ।।
( मसा-गुन्दु) कसरि बच गह-मासुर-कर-पसरन्तउ ।
पहरें पहर निसि-य-ध ओसारतउ ॥१॥ तहि अवसर पखालिय-णयणु । अत्याण परिट्रिउ दहश्यणु ॥२॥ सामरिस-सिायर-परियरिउ । णं जमु जमकरणाकरित ॥३॥ यं रेसरि हरारुण-नाहिउ । णं गहवाइ लारायण-सहिउ ॥॥ गं दिपायरु पसरिय-का-णियर। णे विफ्फालय-अलु भयरहरु ॥५॥ णं सुरवाइ सुर-परिवेजिटयठ । सोडन्तु करगं दादियउ ||६|| रोसुग्गर उम्मूलियत हाधु । णिकरिय-गयणु सीहासणथु ।।।। सुय-भायर-परिभउ सम्भरेवि। भाजाविउ रज्जवि परिहरषि ॥४॥
घत्ता
असहन्तु सुरासुर-उमर-कर जम-धणय-पुरन्दर-वरुण-धरु । सजग-दुजगहुँ जणन्तु मर फुरियाहरु आउह-साल गव ॥१॥
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घजसत्तरिमी संधि
चौहत्तरवों सन्धि
सूर्योदय होते ही सब जाग उठे। सेनाएँ रण-रंग और अमर्षसे भरी हुई थीं। हर्ष और वेगसे आगे बढ़ती हुई और कोलाहल मचाती हुई राम-रावणकी सेनाएँ एक-दूसरेसे जा मिड़ी।
[१] रावण अपने अन्तःपुरमें गया ही था और रातमें भोग भोग हो रहा था कि चारों पहर समाप्त हो गये । उदयाचलपर सूर्य उग आया। सिंहको भौति, वह अपना नहभास्वर ( नख भास्वर, नम भास्वर ) किरणजाल फैला रहा था, और इसप्रकार एक-एक प्रहर में निशारूपी गजघटाको इटा रहा था । प्रभातके उस अवसरपर, रावण अपनी आँखें धोकर दरबारमें आकर बैठा | वह अमर्षसे परिपूर्ण निशाचरोंसे ऐसा घिरा हुआ था, मानो यमकरणसे शोभित यम हो, महारुण ( लाल नाखून ) से युक्त सिंह हो, मानो तारागोसे सहित चन्द्रमा हो, मानो अपना किरणजाल फैलाये हुए सूर्य हो, मानो जलविस्तार• से युक्त समुद्र हो, मानो देवताओंसे घिरा हुआ इन्द्र हो ! वह मारे क्रोधके अपनी दादी नोच रहा था। आवेशमें आकर अपने हाथ तान रहा था। उसके नेत्र डरायने थे | वह सिंहासनपर बैठा हुआ था। उसे अपने पुत्र और भाईका अपमान याद हो आया। उसे अब न तो राज्य की चिन्ता थी और न जीवनकी । देवताओं और असुरोंको आतंकित करनेवाले, यम, धनद, इन्द्र और घरुणको पकड़नेवाले, सज्जनों और दुर्जनों दोनोंको भय उत्पन्न करनेवाले रावणके होठ फड़क रहे थे। वह तुरन्त अपनी आयुधशालामें गया ।। १-९ ।।
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१
पउमचरित
[२]
तार मा इणिमिमा उहाविड उत्तरित
भायबसु मोहिउ दु-बाएँग ।। हाहा-रउ उद्वियन
छिपण कुहिणि घण-कपण-णाएँग ॥ णिधि ताई दु-णिमित पय-सिर-पतिहिं ।
'जाहि माय' मन्दोयरि धुश्चह मन्तिहिं ।। ३ ।। 'मा णासड सुन्दरु पुरिस-मय। जह कह वितुहारउ करह षय |२|| तो परिश्रछावहि बुद्धि देवि'। भाका हि तेहिं पयह देवि 1३॥ विहाफर पासु दसाणणासु। हरि-मण करेणु व धारणा ॥७॥ णं सइ-महएवि पुरन्दरासु । र्ण रह सरसुव्य-धणुद्धरासु ॥५॥ पणषेपिणु कप्पिशु पणय कोउ । दरिसन्सि अंसु-जलु थोवु थोषु ।।३।। पमणइ 'परमेसर काइँ मूहु । मोहन्ध-फूचे कि देव छु।७।।
घन्ता
कु सरीरहों कारणे जाणइहें मा णिवाहि गरय-महागइहें । लाइ हि किमिच्छदि पुहवाइ कि होमि सुरक्षण सम्छि रइ' 16||
तं सुणेप्पिणु मणइ दहवाणु । 'किं स्म तिलोत्तमाहि उम्पसी अच्छर' कच्छिएँ । किं सोय' किं रह पई वि काइँ कुवलय-दलम्सिएँ ।
आहि कसे हउँ लग्गा बन्धु-पराहवे ।
थरहरम्ति सर-धोरणि लायमि राहवे ||१|| लक्षणे पुणु मि सति संचारमि । मङ्गल्य जमउरि पइसारमि ॥२॥ पारमि वाणर-बंस-पईयहाँ। मथएँ दज्ज-दण्ड सुग्गीवहाँ ।।३।।
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चउसञ्चारमो संधि
[२] इसी बीच असं कितने ही अपशकुन हुए। उसका इवासे उत्तरीय उड़ गया, आतपत्र मुड़ गया। हा-हा शब्द सुनाई दे रहा था, एक अत्यन्त काला नाग रास्ता काट गया । इन सब अपशकुनोंको देखकर नतसिर मन्त्रियोंने मन्दोदरीसे जाकर निवेदन किया, "हे माँ, आर जायें। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषरत्नको नष्ट नहीं होने देना चाहिए । हो सकता है वह तुम्हारा वचन किसी प्रकार मान ले। बुद्धि देकर समझाइए उन्हें । इस प्रकार कहकर मन्त्रिवृद्धोंने देवीको राजी कर लिया। वह भी हड़बड़ी में रावणके पास इस प्रकार गयी, मानो सिंहके भय से हथिनी हाथी के निकट गयो हो, मानो स्वयं इन्द्राणी इन्द्रके पास गयी हो, मानो रतिमाला कामदेव के पास गयी हो। कंपा देनेवाले अपने प्रियको उसने प्रणाम किया और तब प्रणय कोपकर उसने रोते-विसूरते हुए निवेदन किया, "हे परमेश्वर, आप मूर्ख क्यों बनते हैं ? मोहान्धपमें क्यों गिरना चाह रहे हैं ? सोताके खोदे शरीरके कारण नरककी महानदी में मत गिरो। लो बोलो, हे राजन् , तुम क्या चाहते हो, मैं क्या हो जाऊँ, क्या लक्ष्मी, रति या देवांगना ? ||१-८11
[३] यह सुनकर रावणने उत्तर दिया, "रम्भा और तिलोसमासे क्या, अप्सरा उर्वशी और लक्ष्मी भी मेरे लिए किस कामको | सीता या रतिसे भी मुझे क्या लेना देना । कमलों जैसी आँखोंवाली तुमसे भी क्या प्रयोजन है। हे प्रिये, तुम जाओ। मैं भाईके पराभवसे दुःखी हूँ, मैं रामपर थरी देनेवाली तीरवृधि करूँगा । लक्ष्मण को दुवारा शक्ति मारूँगा, अंग और अंगदको यमपुरीमें भेज दूंगा। यानर वंशके प्रदीप सुत्रीवके मस्तकपर मैं वदण्डसे चोट पहुँचाऊँगा, चन्द्रोदरके पुत्रपर चन्द्रहास, पवनपुत्रके रथपर वायव्य अस्त्र, भयभोषण
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३१५
पउमचरिड
छन्दहासु चन्दोयर-गन्दणें। वाय वाउएव-सुपसन्दणे ।।।। वारुणु भामण्सुले मय-मोसणे। धगधगम्सु अग्गेउ विहीसणे या पागवासु माहिम-अहिन्दहुँ। पाइसपणन्धु कुमुभ-कुन्देन्द हुँ ।। मोडमि गवय-गवरसहुँ चिन्धाँ। पञ्चावमि गल-णील-कवन्बई ॥७॥ सार-सुसेण देमि बलि भूयहूँ। अवर विणेमि पासु जम-यहुँ ।।८।।
वत्ता जसु इम्दादेव वि माणकर दासि व कियअकि स-धर धर । सो जाइ पारूसमि दहवय तो हरि-घक सपळ कवणुगहणु' ।।९।।
तेण वयणे कुइय मइएवि । 'हेवाइड सुरवरहि तेण तुज्छ एष विकमु । खर-दूसग-तिसिर-चन्हें किग्ण गाउ लक्मण-परस्मसु ।।
जेण मण्य पायालय उदालिय ।
दिण्ण तार सुग्गीवहाँ सिल संचालिप ॥२॥ अण्ण वि वहु-युप-जयरा। चरिपइँ हणुवम्तहाँ केराइँ ॥२॥ पई रावण का ण विट्वाई। हियवएँ सल्लई व पइट्ठा ।।३।। अज्ज वि अच्छन्ति महन्ता। बुजण-चयण व दुहन्ता ||॥ अण्ण इ णल-पील केण सहिय । रणे हस्थ-पहत्य जैहि वहिब ।।५।। रहुषहहें णिहालिउ केग मुहु। छ-चार बिरह कियउ सुहुँ ॥६॥ शाहि किर को गहणु। किउ तेहि मि महु क्षेस-महणु ।।७।।
वत्ता मायासुग्गीय-विमरणही एतिय मेत्ति वि रहु-णन्दणहाँ । गव-मालइ-माला मउभ-भुल बज वि अपिज्जाउ जणय-सुप' ॥४॥
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चउसत्तरिमी संधि
१९ भामण्डलपर वारुण, विभीषणपर धकधकाता हुआ आग्नेय अस्त्र, माहेन्द्र और महिन्द्रपर नागपाश, कुमुद, कुन्द और इन्द्रपर वैस्रावण अस्त्र चलाऊँगा। गवय और गवानके चिह्नोंको मोड़ दूंगा | नल और नीलके भुंडोंको नचाऊँगा। तार और सुसेनकी मनिह होंके लिए दे दंग पर सरकार बाहे यमदूतोंके पास पहुँचा दूंगा। जिसकी आजा इन्द्र तक मानता है, पहाड़ों सहित धरती हाथ जोड़कर जिसकी दासी है, ऐसा रावण यदि रूठ गया तो राम और लक्ष्मणको पकड़ना उसके लिए कौन-सी बड़ी बात है ! ।। १-२॥
[४] रावणके इन शब्दोंको सुनते ही मन्दोदरी गुस्सेसे भर उठी। उसने कहा, "देवताओंने तुम्हारा दिमाग आसमानपर चढ़ा दिया है, इसीलिए तुम्हारा इतना पराक्रम है । परन्तु क्या, खरदूषण और त्रिशिरके वधसे तुम्हें लक्ष्मणका पराक्रम ज्ञात नहीं हो सका ? उस लक्ष्मणने एक पलमें बलपूर्वक पाताललंका नष्ट कर दी, सुग्रीवको तारा दिलवा दी और शिला उठा ली। और हनुमानकी करनी तो बहुच दुःख देनेवाली हैं। क्या तुमने उन्हें नहीं देखा जो शल्य की भाँति हृदयमें चुभी हुई हैं। उनके बड़े-बड़े योद्धा आज भी हैं. जो दुर्जनोंके मुखकी तरह दुःखदायक हैं। नल-नीलको युद्धमें कौन सहन कर सकता है उन्होंने हस्त और प्रहस्तको भी मार डाला। उन रामका भी मुख कौन देख सका, जिन्होंने तुम्हें छह बार रथहीन कर दिया । अंग और अंगदको पकड़नेकी तो बात ही छोड़ दीजिए उन्होंने तो मेरे केशों तकमें हाथ लगा दिया। मायासुप्रीवका मर्दन करने वाले रघुनन्दनमें इतनी क्षमता है, इसलिए नघमालतीमालाकी भाँति भुजाओंवाली सीतादेवीको आज ही वापस कर सकते हो ।। १-८॥
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३.२०
पर पक्खें पसंसियऍ जाला सब पज्जलिङ
[ ५ ]
पिय पक्खहाँ दिल्ण अहिखेवें । दस सिरहिंद अहो वाण छित] ॥
पलिप्तड ।
पउमचरिउ
(वि) फुरियाहरू मतिय-करुप्पलु | यि गण्ड भू - भङ्गुरुताडिय महिय || १||
'अड् अण्णें क्रेण वित्तु एव ।
सिरुपामि ताल- हलु जेम ॥२॥
तुएँ पणणि पण
चुक्क । ओसरु पासों मा पुरउ ढुक्क ॥ ३॥ किष्ण कर मिसम्धि वहिं जें कालें। खर-दूषण-रणे हय- कोहवायें ॥४॥ रामागमें एकोरपवासें ॥५॥ इन्दद्द-घणवाहण-वन्दि धरणें ॥६॥ एकतरुता मि महु मि अज्जु || ७||
- मन्दिर - विणा
।
मनिहत्य - पत्थ- मरणें ।
एवहि पु दूसम्धवट कक्षु |
एहिं तु यहिं विभव- तुम जिम लक्षणं-राम मग्गहि
दूर अप्फा लिइँ
सज्जिय रह जुन्त हय
घन्टा
विहिं गद्दहिं समप्यमि प्रणय-सुत्र | जिम मह पाहि भि विमाऐं हि ' ॥ ८ ॥
1
[4]
एम भणेवि पहय रण-भेरि ।
दिग्ण स उमिय महय । सारिसकिय दम्ति दुञ्जय ||
मिटिड सेण्णु किउ कळयलु रण- परिभ्रोसँग । णिरवसेसु जगु बहिरिद्ध
तुर - निघोसँग || १॥
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३२१
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उसत्तरिमी संधि [५] मन्दोदरीका इस प्रकार अपने पक्ष की निन्दा करना, और शत्रुपक्षको प्रशंसा करना रावणको अच्छा नहीं लगा। उसके दशों सिर जैसे आगसे भड़क उठे । पवनसे प्रदीन आगकीभाँति उनसे सैकड़ों ज्वालाएँ फूट पड़ी। उसकी आँखें लाल-लाल हो रही थीं, होठ फड़क रहे थे, वह दोनों हाथ मल रहा था, गाल हिल-डुल रहे थे, भौहें टेढ़ी थीं, और वह धरतीको पीट रहा था। उसने कहा, "यदि दूसरा कोई यह बकवास करता तो मैं उसका सिर तालफलकी भाँति धरतीपर गिरा देता । सू मेरी प्रिया होकर भी प्रणयसे चूक रही है, मेरे पाससे हट जा, सामने खड़ी मत हो। अब इस समय मैं उससे सन्धि क्यों न कर, शत्रुने जो खर-दूषणके युद्धमें कोतवालको मार गिराया, उद्यान उजाड़ दिया, आवास नष्ट कर डाला, उसकी स्त्रीके आगमनपर, भाई धरसे चला गया। पहली ही भिड़न्त में जिन्होंने हस्त और प्रहस्तका काम तमाम कर दिया । इन्द्रजीत
और मेघवाहनको बन्दी बना लिया। अब तो यह काम, एकदम दुष्कर और असम्भव है। अब तो उसके और मेरे बीच युद्ध ही एकमात्र विकल्प हैं । इस समय तुम्हारे वचनोंसे, दोनों में-से एक बात होनेपर वैभवके साथ सीता वापस की जा सकती है, या तो राम लक्ष्मण नष्ट हो जायें, या मेरे प्राण निकल जायें ।। १-८॥
[६] यह कहकर, उसने रणभेरी बजवा दी। नगाड़े बज उठे। शंख फूंक दिये गये और महाध्वज उठा लिये गये। अश्वोंसे जुते हुए रथ सजने लगे। अजेय हाथियोंपर अंधारी सजा दी गयी । युद्धसे सन्तुष्ट सेना मिली, और उसमें कोलाइल होने लगा। नगाड़ोंकी आवाजसे सारा संसार गहरा
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पउमचरित बहुरूपिणि-किय-मायाविरगह। सजिउ तुरित गइन्द-महारष्ट्र ॥२॥ तुझ रहाणहं ण माइज। वीमा मन्दर पं उपाइङ ।।३।। तर्हि गयवर-सहासु जोसेपिपणु । दस सहास पय-रक्ख करेपिश | जय-जय-सार चाड दसाणणु। गिरि-सिहरोवरि पजाणणु ॥५॥ दहहिं मुहंहि मयङ्कर दह मुहु । मुवण-कोसुणं जलिउदिसा-मुहु ॥३।। विधिह-वाहु विविहुक्खय-पहरणु, गाई विरुवण धिड सुर-वारणु ॥। दस-विह लोय-पाल मण सावि | दइवें मुणा उप्पाएँ यि ।।६॥ भुवन-
मरु कहाँ वि ण भावह । दण्ड जमेण विसजिड पाषा ॥२॥
पत्ता
धय-दण्ड समुहिम सेय-वडु णिजीवउ लङ्काहिब-सुहड्ड । पुर (1) सायरै रह-वोदित्य-कउ परमल-परतोरही गाई गई ।।१।।
[-] रह गिरतरु मरिट पहरणहुँ। सम्माइ सारस्थि किड बहुरूपिणि-विज्ञा-विणिम्मिट । कण्टइएं रावणेश
ण मन्तु सण्णाहु परिहिउ ।। पाहु-दण्ड विहुप्रीपिपणु रणे दुखलियण ।
पहरणाई परिगीतई रहसुच्छलियण ॥१॥ पहिबएँ करें पशुहरु सर बीयएँ । गय? कयन्त गयासणि तहपएँ ।।२।। सङ्खु चढस्थएँ पञ्चमे भर। छटै असि सत्समें बसुणम्दउ ॥३।। अgमें चित्त-दण्ड पवमएँ । असु दसभेयारसमएँ सम्वल ॥1
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घउसत्तरिमा संधि
२२३ गया। बहुरूपिणी विद्यासे राघणने अपना मायावी शरीर बना लिया। उसके महारथ और अश्व सजा दिये गये | उसके रथ के ऊँचे पहिये आकाशमें भी नहीं समा पा रहे थे। ऐसा लगता था जैसे दूसरा मन्दिर ही उत्पन्न हो गया हो। उसके महारथमें एक हजार हाथी जोत दिये गये, और उसके साथ दस हजार पद रक्षक थे। राषण जय-जय शब्द के साथ जस महारथमें ऐसे जा बैठा, मानो विशाल पहाड़की चोटोपर सिंह चढ़ गया हो। रावण अपने दमों मुग्बोंसे भयंकर लग रहा था, मानो भुवनकोश दिशामुख ही जल उठे हों। उसके विविध हाथों में विविध अस्त्र थे, जो ऐसे लगते थे मानो मायासे निर्मित ऐरावत हाथी हों, मानी दसों लोकपालोंका ध्यान कर विधाताने उन्हें दुनियाके विनाशके लिए छोड़ दिया हो । विश्व भयंकर वह कहीं भी अच्छा नहीं लग रहा था, ऐसा जान पड़ता था मानो यमने अपना दण्ड छोड़ दिया है। स्वेतपद वाला ध्वजदण्ड निरन्तर फहरा रहा था। यह क्रूर लंकेश्वर सुभट ग्थरूपी जहाजमें बैठकर नगरके समुद्रको पारकर शीघ्र शत्रसेनाके तटपर जा पहुँचा ।। १-१० ।।
[७] उसका रथ अस्त्रोंसे भरा हुआ था। सम्मतिको उसने अपना सारथि बनाया, वह बहुरूपिणी विद्यासे निर्मित था। रोमाचित होकर रावणने अपना कवच पहन लिया, परन्तु उसमें उसका शरीर नहीं समा रहा था। युद्धमें हर्पावेगसे अपने बाहुन दण्डको ठोककर, दुर्ललित राणने अस्त्रोंका आलिंगन कर लिया। पहले हाथ में उसने धनुष लिया, दूसरे हाथमें तीर, तीसरे हाथमें उसने गदासनी ली जो गजोंके लिए काल थी। चौथे हाथ में शंख था और पाँचवेंमें आयुध विशेष था । छठे में तलवार और सातवें हाथमें उत्तम वसुनन्दी थी। आठवें हाथ
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३२४
पउमचरित
मीसणु मिडिमाल बारहम। मकु असा था सेरहम ॥५॥ पर महन्तु कोन्तु चउदहमएँ। सत्ति मयकर पगारहम ॥६॥ सोलहम तिमूलु अई भोसणु । समारहमएँ कण दुरिसणु ॥७॥ भट्ठारहम मोगर दारुणु एगुणवीसमें घशु घुसिणार ॥८॥ बीसमए मुसलिम्गामिर। काले काल-दण्टु णं मामिउ ॥९॥
घसा वीसहि मि भुभ (दण्ड) हिंघीसा हि दसहि मि मिडि-माल-मुहाई। भीसावणु सवशु बाज किड सर्दै गहि कयन्तुविस जिइ ॥१०॥
[ ] दसहि कप डि दस में कहा है। दस-मालहि तिरुम दस दस-सिरहि दस मा पलिय। दहि मि कुपडक-युएँ हि इण्ण-जुअल सुकाक (1) मुह लिय ।।
फुरित स्यप-सवाब दसाणण-शेसुध ।
मह थिभी स-सारायणु पहल-पोसुक । परम-चपणु खय-सूर-सम-प्पड । सिन्दुरारुणु सुरह मि साहु ।।२।। बीयउ वय धवल पबलराउ । पुरिणाम-मन्द-विम्ब सारिंग्छउ ॥३॥ सम्यक्ष वयषु भुवण-मयगारड। अगारारुणु मुकार ॥४॥ घयणु उस्थत बुह-मुह-मासुक। पवमरण सा में णं सुर-गुरु ॥५॥ छट्टड सुक्कु सुम्प-सङ्कासह। दाणव-वक्खिर सुर-सन्यास सत्तम कल सणिकर-मोसणु दनुस पिया दाह पुररिसणु ॥७॥
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पडतरिमो मधि
१९५ में चित्रदण्ड और नयें हाथमें हल था । दस हाथमें झस और ग्यारहवें हाथमें सम्पल था। चारहवें हाथमें भीषण मिविपाल था और तेरहवें हाथमें अचूक चक्र था। चौदहवें हाथमें महान भाला था और पन्द्रहवें हाथमें भयंकर शक्ति थी। सोलहवें हाथमें अत्यन्त भीषण त्रिशूल था, सत्रहवें हाथमें दुर्दर्शनीय कनक था, अठारहवें हाथमें भयंकर मुगदर और उन्नीसवें हाथमें केशरके समान लाल धन था। बीसवें हाथमें वह भयंकर भुसुंडी लिये हुए था जो ऐसी लग रही थी मानो कालने अपना काल दण्ड ही घुमा दिया हो। बोसों हार्थोमें बीस आयुध लेकर और भृकुटियोसे भयंकर अपने दसों मुखोंसे रावण इतना भयानक हो उठा माना समस्त ग्रहों के साथ कृतान्त ही कुपित हो उठा हो ॥ १-१०॥
[4] उसके वस कण्ठोंमें दस ही कंठे थे, दस सिरोंमें दस मुकुट चमक रहे थे, दसों कर्णयुगलोंमें कुण्डलोंके दस जोड़े थे। उनमें जटित रत्नसमूह रावणके क्रोधकी भाँति चमक रहा था। अथवा ऐसा लगता था, मानो ताराओं सहित कृष्ण पक्ष हो । उसका प्रथम मुख, भयकालके सूर्य के समान या, सिंदूरके समान अरुण, और सूर्य से भी अधिक असल था । दूसरा मुख धवल था, आँखें भी धवल थीं और वह पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान स्वच्छ था । तीसरा मुख मंगलग्रहके समान लाल अंगारे उगलता हुआ दुनियाके लिए अत्यन्त भयंकर था । चौथा मुख बुधके मुखके समान भास्वर था, पाँचवें मुखसे वह ऐसा मालूम होता था मानो स्वयं वृहस्पति हो । छठा मुख शुक्रमुखकी तरह सफ़ेद था, दानवोंका पक्ष प्रहण करनेवाला और देवताओंके लिए सन्तापदायक । सातवाँ मुख शनिदेवताके समान अत्यन्त काला था । अत्यन्त दुदर्शनीय दाँत और दाढ़े निकली हुई थी।
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३२६
परमञ्चरित अट्टमु राहु-वयणु विकरालऊ। गधमउ धूमकेत धमालउ ॥ दसमउ दयणु दसाणण-फेरठ। सव-जणहो मय-दुक्ल-जोरत ॥५॥
।
घत्ता
बहु-रूबर बहु-मिरु बहु-क्यणु वहुविड-वोलु बहुषिहणयणु । बहु-कण्ठ -करु चि बहु-पर पं गड-पुस्सुि रस-भाव-गज ॥१०॥
।
[९] तो णिएपिणु णिसियरिन्दस्स । सीसई णयणई मुहई पहरणाई यणियर-मीसा । आहरण इच्छ-यल राहवेण पुचित विहोसणु ।
'किं तिकूट सेलोवरि दीसह णव-षणु' ।
'देव देव पं णं ऍहु घिउ राषण' ॥५॥ "f गिरि-सिहर जहें दीसिगई'। 'णं आयर दससिर-सिराहँ' ॥२॥ 'किं पालय-दिवायर भण्डलाई। ' आयई मणि-कुण्डलाई' ॥३॥ 'कि कुवलपा माणस-सरहों। नणं णयण. लकैसरहों ।।५।। "कि गिरि-कन्दरई भयाणणाई। 'fi दहवांगें इमाणणाई ॥५॥ 'किं सुर-पाषर साधुत्तमाई', 'fण कण्ठाहरण इमाई' ॥६॥ "कि तारा-यण, तणुज्जलाई। 'णं गं धवलई मुखाहलाई ॥७॥ 'किं कसणु विहीलण गयण यलु' । 'नं णं साहिव-पहचवलु' १८॥ 'कि दिस-वेसण-सोप-पयरो' । 'णं णं दाहकम्धर-कर-णियरो' ॥५॥
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I
वसन्तरिम संधि
आठवाँ मुख राहुके समान अत्यन्त विकराल था । नौवाँ मुख धूमकेतुकी तरह धुएँसे भरा हुआ था। रावणका दसवाँ मुख सबके लिए भय और दुःख देनेवाला था। उसके बहुत-से रूप थे, बहुत-से सिर थे, बहुत-से मुख थे, बहुत प्रकार के गाल थे, बहुत प्रकार के नेत्र थे, बहुत-से कण्ठ, कर और पैर थे। वह ऐसा लग रहा था मानो भावमें डूबा हुआ नट हो ॥ १-१० ॥
३२०
[९] निशाचरेन्द्र रावणके सिर, आँख, मुख, अलकार और अस्त्र देखकर रामने निशाचरोंमें भयंकर विभीषण से पूछा, "क्या ये त्रिकूट पर्वत पर नये मेघ हैं ?" विभीषणने उत्तर दिया, "नहीं-नहीं देष, यह तो रथ पर बैठा हुआ रावण है।" रामने पूछा - "क्या ये आकाशमें पहाड़को चोटियाँ दिखाई दे रही हैं ?" विभीषणने उत्तर दिया, "नहीं-नहीं देव, ये तो रात्रणके दस सिर हैं ?" रामने पूछा, "क्या यह प्रभातकालीन सूर्यमण्डल है।" विभीषणने उत्तर दिया, "नहीं नहीं ये तो मणिकुण्डल हैं ।" रामने पूछा, "क्या ये मानसरोवरके कुवलयदल
।" विभीषणने उत्तर दिया, "नहीं-नहीं, ये दशाननकी आँखें हैं।" रामने पूछा, "क्या ये भयानक गिरि-गुफाएँ हैं ?" विभीषणने उत्तर दिया, "नहीं-नहीं, ये तो रावणके मुख हैं ?" रामने पूछा, "क्या यह धनुषों में श्रेष्ठ इन्द्रधनुष है" । विभीषणने उत्तर दिया, "नहीं-नहीं, ये कण्ठाभरण हैं"। रामने पूछा, "क्या ये शरीरसे उज्ज्वल तारे हैं ?” विभीषणले उत्तर दिया, "नहीं-नहीं, ये सफेद मोती हैं ।" रामने पूछा, "विभीषण क्या यह नीला आकाशतल है ?" उसने उत्तर दिया, "नहीं-नहीं, यह रावणका वक्षःस्थल है ।" रामने पूछा, “क्या यह दिग्गज की सूड़ोंका समूह है, " विभीषणने उत्तर दिया, "नहीं-नहीं यह,
२२
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૨૮
पउमचरिय
घत्ता
तं वय सुपि लखण कोयणहूँ विधिलें चि तखर्गेण । अवको रावणु मच्छर प्रणं रासि गण सणिच्छण ॥१०॥
क
घिउ लक्षणु गरुड रहें वळु वज्जात धरु
[ 10 ]
गारुडस्यु गरुड-सह | सीह - विन्धु वर - सोह- सन्दणु ॥
गय-चित्धु गय रहवरु प्रमय-महद्धव । विष्फुरन्तु किकिन्धाहिजे सण्णउ ॥१॥
अलोणि-पञ्च- सहि समाणु । मामण्डलु भक्लोहणि सहासु । अङ्गङ्गय अक्खोइणि-सएण | पनि लक्ख संखोहणीहि । सीसोणिलु अहि-माणि । तीसह दहिहु तीस महिन्दु । सोलह कुह सक्छु । दोयरसुड सप्तहिं सहाउ ।
सुग्गी णिवि समजामाणु ॥२॥ कुल पासु ॥३॥ ल-गील ताएँ अपुर्ण ॥४॥ मारु चाळीस खोपी ॥ ५ ॥ रहें घवि विडीसणु सूल-पाणि ॥ ६ ॥ बीसहिँ सुसेणु वीमहिं जें कुन्दु || ७ || कारहहिं गव अहिं गवक्खु ||८|| सुड वालि तेहत्तरिहि आउ ॥९॥
वसा
सष्णहें वि पासु कहूँ वहाँ अक्षोणि-वोस सहूँ बड़ीं । विवि बहु संचलियाँ उहि मुद्दे उलियाँ ॥१०॥
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१२९
पडसत्तरिम संघि रावणके हाथोंका समूह है"। यह सब सुनकर लक्ष्मणने उसी समय अपनी आँखें तरेर ली। उसने रावणको ईष्यांसे ऐसा देखा मानो राशिगव शनिश्चरने ही देखा हो ॥ १-१०॥
[१०] लक्ष्मणने अपना सागरावर्त धनुष हाथ में ले लिया। वह गरुड़ रथपर बैठ गया। उसके पास गारुख अस्त्र था और गरुड ही उसके ध्वजपर अंकित था। रामने वावर्त धनुष ले लिया। उनका सिंह रथ था और सिंह ही उनके ध्वजपर अंकित था। किष्किन्धा नरेशके हाथ में गदा थी, उसके पास गजरथ था। उसके ध्वजपर बन्दर अंकित थे। तमतमाता हुआ वह भी तैयार हो गया। पौंग-३ क्षौहिणी सेपाके साथ सुग्रीषको तैयार होता हुआ देखकर भामण्डल भी एक हजार अझौहिणी सेनाके साथ, सन्नद्ध होकर लक्ष्मणके पास आ पहुँचा । सौ अौहिणी सेनाओंके साथ अंग और अंगद एवं उनसे आधी सेनाके साथ नल और नील वहाँ आये । शत्रुके लिए लाख अक्षौहिणी सेनाके बराबर हनुमान चालीस अक्षौहिणी सेनाके साथ आया। तीस अक्षौहिणी सेनाके साथ अधिक अभिमानी विभीषण हाथमें त्रिशूल लेकर रथमें चढ़ गया। दधिमुख और महेन्द्र तीस-तीस अक्षौहिणी सेनाओं,
और बीस-बीस अझोहिणी सेनाओंके साथ सुसेन एवं कुन्द, कुमुद सोलह अनौहिणी सेनाके साथ और शंख चौदह अक्षौहिणी सेनाके साथ, गवय बारह अक्षौहिणी सेनाके साथ और गवान आठ अक्षौहिणी सेनाके साथ, चन्द्रोदरसुत सात अभौहिणी सेनाके साथ, और बलिका पुत्र तेहत्तर अक्षौहिणी सेनाओंके साथ वहाँ आये । सन्नद्ध होकर सब लोग रामके पास पहुंचे। उनके पास कुल बीस सी अक्षौहिणी सेनाओंका बल था। वे व्यूह बनाकर चल दिये, मानी समुद्र के
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३३०
पउमचरिउ
[ 11 ] बुद्ध कल्यलु दिष्ण रण-भेरि ।
चिन्धाएँ समुदयहूँ गय- घड पोइय
राम- सेष्णु रण-रहसिउ कहि मि ण माइजु |
॥
जगु गिलेषिणं पर-बलु गिलहुँ प्रधाइ ||१|| PODGERS550) 115 11 पोवार रणबहु- फेडाविय मुद्दवडाहुँ ||३|| खर-पवणन्दोलिय-धयवढाहुँ ||४|| रोसाविय भासी बिसह राहुँ ॥५॥ संजकिय दिसामुह- दुग्धणाहुँ || ६ || जूराविय सुरकामिणि-जना हुँ |७|| विहि-कोट्टि हयरा ॥८॥ उच्छळिय- ववल मुत्ता हा हुँ || ९ || घत्ता
॥७॥
nitaag zug Vitara मा औरसिय-सङ्घ-सय-संघडा हुँ । उदङ्गुस घाड्य-गय- घढाहुँ । कम्पाधिय-सयल - वसुन्धरा हुँ । मेलाविययण हुवासणाहुँ । जयलच्छि बहुअ-गेण्हणन्मणाहुँ । उग्गा मिय मा मिय असिवरा हुँ । निलय कुम्भि कुम्भाला हुँ ।
-
भड-धड-गय-चडहिं भिडन्तर्हि स्व-नियरु समुट्टि सिकिह
खड् काय किय हेइ-सङ्गद्द |
सुक्क तुरयवाहिय महारह ||
गय-पय-मर- मारिएँ अब विमुच्छावियों
रह-तुरयति तुरि भिडन्त हि । शिय-कुलुमन्तु दु-पुतु जिह ||१५||
[ १२ }
हरि-खुराह र समुच्छ लिउ ।
धर जाएँ पीसासु मेडिय अन्धयारु जीउ व मेलिङ ॥
अह णरिन्द-कीवाणलेण बज्झन्ति । वहल-धूम-बिच्छयूँ धूमायति ॥ १ ॥
-विसा ॥२॥
अहवइ दोहर-रणिन्दणालेँ । जय-कमले दिसामुह-दरण मे इणि ऋणिय मोहमार्गे । 1हरि-मर खुर विडिजमार्णे ॥ ३ ॥
1
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चउससरिमो संधि
३३० मुख ही उछल पड़े हों ।। १-१०॥
[१०] कोलाहल हो रहा था। रणभेरी बज रही थी । चिह्न उठा दिये गये। वानरोंने अस्त्रोंका संग्रह कर लिया । हाथियों के झुण्ड प्रेरित कर दिये गये । अश्य हाँक दिये गये। रथ चल पड़े। युद्धके हर्षसे भरी हुई रामकी सेना कही भी नहीं समा पा रही थी। मानो संसारको निगल कर शत्रसेनाको निगरनेके लिए ही वह दौड़ पड़ी हो। क्रुद्धमन राक्षसों और वानरोंमें युद्ध छिड़ गया। सैकड़ों शंख बज उठे। दोनोंमें रणलक्ष्मीका चूंघट पट उठाकर देखनेकी होड़ मची थी। अंकुश तोड़फर गजघटाएँ दौड़ रही थीं। तीनपवनसे वजपट आन्दोलित थे । सारी धरती काँप उठी थी। नागराज कुद्ध हो उठे थे। आँखोंसे आग बरस रही थी, दिशाओंके मुख इंधनकी भाँति जल उठे। सबके मन विजयश्री को ग्रहण करनेके लिए उत्सुक थे। दोनों देवनारियोंको सताने में समर्थ थी। दोनों सेनाएँ तलवारें निकाल कर घुमा रही थीं। अश्यवर लोट-पोट हो रहे थे। हाथियों के कुम्भस्थल फाड़ डाले गये, एनसे मोती उछल रहे थे। योद्धाओंके समूह और गजघटासे भिड़न्त होनेके बाद शीघ्र अश्व-रथों में संघर्ष छिड़ गया। शीघ्र ही उससे ऐसी धूल अठी मानो अपने कुलको कलंकित करनेवाला कुपुत्र ही उठ खड़ा हुआ हो ॥ १-१०॥
[१२] अश्वोंके खुरोंसे आहत धूल ऐसी उड़ रही थी, मानो हाथियोंके पदभारसे धरती निश्वास छोड़ रही हो, अथवा मूर्छित परती आँचके समान अन्धकारको छोड़ रही हो, अथवा राजाके कोपानलसे दग्ध धुंधुआती धरतीसे धुंआ उठ रहा हो अथवा धरणेन्द्र का कमलदण्ड हो, दिशाएँ ही मानो
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पढमचरिज
मिन्दु मयर नाइँ |
चड व समर-पद-वासचुण्णु : वाह व रणु त्रिविण वि बलाएँ । तनहूँ।
माइ व मण महा-गया है । बीसम व उत्त धहि चषि ।
रम-णि वहीं धरिति जाइ ॥४॥ णास व सोज्जे रहु तुरय छष्णु ॥ ५ ॥ साइज दे व बच्छाएँ ॥ ६ ॥ भाड न जाणारें परा॥७॥ णच्च व कण्ण-ताले हिंसा (!) | तत्र वगण विद्वेषि ॥ ९ ॥
घत्ता
लक्विड कवि
परन्तु महन्तु रज कष्युरज | महि-मड गिळतहों स-रहसों णं केप-भारु रण - स्वस नहीं ॥१०॥
[12]
सो पण सन्दणु सोण मायङ्गु I
तुरमुणविय घट पर णिम्म आय
जाज सुट्ट समरऋणु दूसंचार । तहि मि के चि पहरम्लिस साहुकार ॥१॥ केहि मि करि-कुम्मइँ परमदुहूँ । केहि मि लक्ष्यइँ नर-सिर-पवरहँ । केहि मि हिमहूँ वला वि-छत्तएँ । केहि भि चक्खु पेसरु अलहन्ते हि केण स खग्ग-ट्टि परिव्यय । केण वि करि-कुम्मस्थलु काहि ।
।
गायवस्तु जं मज करुङ्किङ । महुँ चितुमणि सक्रिय ॥
णं सङ्ग्राम- सिरिहें यहाँ २ || णं जयहच्द्धि-वरण- मरएँ ॥३॥ णं जयसिरि-कोला -सयवसहूँ ॥४॥ पहरिउ वालालुसि कातें हिं ॥५॥ रण- रक्वस हो जीणं कविय ॥ ६ ॥ णं रण-ममण चारू उघारि ॥७॥
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परसपरिमो संधि
उस जग-कमलकी आठ पत्तियाँ थीं। युद्धभूमि उसकी कलियाँ थीं। अथया मानो धूलके व्याजसे धरती आकाशकी ओर जा रही थी। अथवा युद्धरूपी पटका सुवासित चूर्ण उड़ रहा था। अश्वोंसे विहीन रथ नष्ट हो रहे थे। मानो षह धूल दोनों सेनाओंको युद्धके लिए मना कर रही थी, अथवा वक्षःस्थलोंको स्वयंका आलिंगन दे रही थी। बड़े-बड़े श्रेष्ठनरोंका यह मुख मैला कर रही थी, रथघरोंके ऊपर वह चढ़ रही थी, मानो गजोंके मदजलसे नहा रही थी, मानो कर्णताल को लयपर नाच रही थी। छत्र ध्वजोंपर चढ़कर विश्राम कर रही थी या आकाशके आंगनमें पड़कर तप कर रही थी। फैलती और उठती हुई पीली और चितकबरी धूल ऐसी दिखाई दे रही थी, मानो धरती के शवको हर्षपूर्वक लीलते हुए युद्धरूपी राक्षस का केशभार हो ॥१-१०॥
[१३] ऐसा एक भी रथ, हाथी, अश्व, ध्वज और आतपत्र नहीं था जो खण्डित न हुआ हो। उस युद्ध में केवल योद्धाओं का चित्त ऐसा था जो मैला नहीं हो सका था। संग्रामभूमि अत्यन्त दुर्गम हो उठी। फिर भी कितने ही योद्धा प्रशंसनीय ढंग से प्रहार कर रहे थे। किसीने हाथियोंके कुम्भस्थल नष्ट कर दिये, मानो संपामलक्ष्मीके स्तन हों, किसीने मनुष्योंके विशाल सिर उतार लिये, मानो विजयलक्ष्मी रूपी सुन्दरीके घमर हो। किसीने जबर्दस्ती शत्रुओंके छत्र छीन लिये मानो विजयलक्ष्मीका लीलाकमल हो। किसीने आँखसे दिखाई न देने पर, बाल नोंचते हुए प्रहार किया। किसीने तलवार रूपी लाठी निकाल ली, मानो रणरूपी राक्षसकी जीभ ही निकाल ली। किसीने हाथ के कुम्भस्थलको फाड़ डाला, मानो युद्धभषन
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पउमचरिस
करमा मुसुथरिय असि-धाह। मोतिय-दन्तुव इसियत बहरेंहि ॥८॥ करवाद रहिर-पवाहिणि धापा। जाट महाहा पाउसुभाषइ ॥९॥
घसा सोणिय-जल-पहरणगिरहि वसुइन्तराल पाहयल-गएँ हि । पजालइ पलह धूपाइ रणु गं अग-खय काळें काल-वयण ॥१०॥
[1 ] नाव रग-उ भुषणु महलन्तु । रवि-मण्डल पइसरह तहि मि सूर-कर-णियर-तत्तः । पचिखलेंवि दिसामुहि सुड़ियनासु णावइ णियसउ ॥
सुर-मुहाई अ-लहन्तउ थिउ हेहामुह ।
पलय-धूमकेत व धूमन्त-दिसामुक ॥१॥ सक्तिनइ पालहन्तु रेणु। रण-वसहहोणं रोमन्ध-फेशु ॥२॥ सोमित्तिहें रामही रावणासु । णं सुरहि विसजिउ कुसुम-बासु ॥३॥ रणविहें णं सुरवहु-जणेण । धूमोटु दिपणु गह-मायणेण ॥४॥ सर-पियर-णिरन्तर-जजरात। गं धूलिहोवि गहु परहुँ का ॥५॥ लयमेव सूर-कर-वंइड म्य। तिसिउप सुटटु पासेहउ रुष ॥ जल पियह व गय मय-दहें अथाह पहाइव सोणिय-वाहिणि-पधारे ५७॥ सिञ्चह घ कुम्मि-कर-सीयरेहि । विजिजाई व्ष घल-बामरहिं ॥८॥ गं सावराहु असिवर-कराहँ । कम-कमलदि णिचकह गरया ॥९॥
पत्ता मुअउ प पहरण-सय-सलियर दक्षुध कोवग्गिहें घल्लिया। सहसति समुजलु जाउ रण खल-विरहिज णं समग-अषण ।।१०॥
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घासतरिमो संधि का द्वार ही उखाड़ लिया हो। कहीं असिधाराओंसे मारकाद मची हुई थी। कहीं अधरोंसे मोती जैसे दाँत चमक रहे थे। कहीं रक्तकी प्रवाहिनी दौड़ रही थी। ऐसा लगता था मानो युद्ध पावस बन गया हो। धरतीके विस्तार और आकाशमें व्याप्त रक्तजल और अखोंकी आगसे युद्ध कभी जल उठता
और कभी धुंआ उठता, ऐसा जान पड़ता मानो युगान्तका कालमुख ही हो ॥१-१०॥
___ [१] युद्धकी धूलने सारे संसारको मैला कर दिया । वह सूर्यमण्डल तक पहुँच गयी । वहाँ वह सूर्य किरणोंसे संतप्त हो उठी। वहाँसे लौटकर वह छिन्न-भिन्नकी भाँति थकी-मादी दिशामुखोंमें फैलने लगो। देवताओंका मुख न देखने के कारण उसका मुख नीचा था । प्रलय धूमकेतुके समान, सब दिशाओंको उसने धूलसे भर दिया । लौटती हुई धूल ऐसी लगती मानो युद्धरूपी बैलकी जुगालीका झाग हो, अथवा लक्ष्मण, राम और रावणपर देवताओंने कुसुमरजकी वर्षा की हो, अथवा देववधुओंने आकाशके पात्र में रखकर रणदेवीके लिए घूम-समूह दिया हो । अथवा तीरोंके समूहसे निरन्तर क्षीण होता आकाश ही धूल होकर गिरा पड़ रहा था । अथषा स्वयं ही सूर्यकी किरणोंसे खिन्न और ऋषित हो प्रस्वेदकी तरह मानो वह धूल गजमदके तालाश्में पानी पी रही थी अथवा रक्तकी नदीके प्रवाहमें नहाना चाह रही हो । हाथियोंके कुम्भस्थलोंके मद जलकण उसे सींच रहे थे, चंचल चमर उसे हवा कर रहे थे। सैकड़ों प्रहारोंसे विंधे मृतकके समान, कोपाग्निके प्रहारसे दग्धके समान वह रण सहज ही उज्ज्वल हो उठा | मानो दुष्टताविहीन सजनका मुख हो ॥१-१०॥
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३३.६
एि
[14]
ऍ पट्टएँ जाउ रणु घोरु ।
राइव-रावण-वल हुँ
र- विवज्जिय
रह रहा हूँ पर
मिडिय मत माय
को विबभदु भिडेंविण इच्छ की विसराकरिय करु भाषड् । कासु बाहु-दण्डु वाणग्गे । कासु इ वाण णिरन्तर लग्गा । जिंग्गुण जड् विधम्म- परिचत्ता | जच्च कहि नि रुण्डु रण भूमिहें। कासु शुभ-भत्रका
अम्धार
करण-ध-सर-पहर- णिड हुँ । सुरज णाएँ अणुरस-मिण हुँ । रहँ तुरङ्ग तरकहुँ ।
मत्त माय हुँ ॥१॥ समागमणु सहुँ सुरेहिं परिच्छ ४२ रण बहु-अवरुण्डन्त जावई ॥ ३ ॥ जिड भुजङ्गु गंगा विह ॥४॥ पचिव ण देवि ण फेण चि भग्गा ||५ वे नि वन्धु जे अवसर पत्ता ||६|| नीरिशु हुड णिय- सिरेण सु- सामिहें।
माँ सीसु अन्धषिय | गयणहाँ गम्पि पडीवर वष्टिय ॥८ राहु-विम्बु ससि विश्वेंची
बालीणउ ।
॥९॥
घता
केण चिसि दिष्णु लामि-रिपों उरु वाणहुँ हिंड सब्बु जिणों । सडनहुँ सरीरु जीविड कमी अइ-चाएं णासु होइ कहाँ ॥ १०॥
[६]
को विगड वरविकासिणिएँ
कुम्मयल-पओहरे हिं कर-किन्तुच्चाइय
मिष्णु दन्ति-दन्तगँ लग्गड् । को वि जाहि-उप्परे लग्ग ||
।
वें दिष्णु सिर-तउ || १ |
को बिसुद्ध हासु विउ चिन्तन्
"कि
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सतरिम संधि
[१५] धूल के नष्ट होने पर उन दोनों ( राम-रावण ) में तुमुल युद्ध हुआ । करणबंध और तीरोंके प्रहारमें निपुण, राम और रावणकी सेनाओंमें ऐसा घोर संग्राम हुआ, मानो अत्यन्त अनुरक्त प्रेमीयुगलकी अन्धकार विहीन सुरत कीड़ा हुई हो । रथोंसे रथ, मनुष्योंसे मनुष्य, अश्वोंसे अश्व, और मतवाले हाथियोंसे मतवाले हाथी जा भिड़े। कोई सुभट सुभट से भिड़कर भी स्वर्ग जाना पसन्द नहीं करता, वह देवताओंसे युद्धकी इच्छा रखता है। कोई योद्धा अपने हाथों में तीरोंको लिये हुए दौड़ रहा है मानो वह रणलक्ष्मीका आलिंगन करना चाहता है | किसीका बाहुदण्ड तीरके अग्रभागमें हैं जो ऐसा लगता है मानो गरुड़की चपेट में साँप आ गया हो, किसीको निरन्तर तीर चुभ रहे थे, वह पीठ नहीं दे रहा था. और न किसीसे नष्ट हो रहा था। चाहे निर्गुण हों और चाहे धर्मसे च्युत, परन्तु सच्चे भाई वे ही है जो अवसर पर काम आते है । युद्धभूमिमें कहीं-कहीं धड़ नाच रहा था, मानो सुभट अपने सिरसे स्वामीका ऋण दे चुका था। किसी सुभटका सिर आकाश में उछला और फिर वापस धरती पर आ गिरा। धवल आतपत्र में एक सिर ऐसा लगता था, मानो राहुबिम्बने चन्द्रबिम्बमें प्रवेश किया हो। किसी एक सुभटने स्वामीके ऋणमें अपना सिर दे दिया, तीरोंके लिए अपना वक्षःस्थल और हृदय जिन भगवान के लिए ॥१-१०॥
[१६] एक योद्धा गजघटाकी उत्तम विलासिनीके कुम्भस्थल रूपी पयोधरोंसे जा लगा, कोई गजोंके दन्ताममें अटका था, कोई सूँडसे ऊपर जा गिरा और कोई उसके नाभिप्रदेशसे जा लगा। कोई एक अपना मुख नीचे किये सोच रहा था कि हतभाग्य विधाताने मुझे तीन सिर क्यों नहीं दिये। उनसे
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સાટ
पवमचरि
गिरिशु होमि सोहि मि जगहुँ । सामिय-सरणाइय-सागहुँ' ॥२॥ सिर-कमलेईि पत्त-वा कर ॥३॥
कषि सामि अग्ऍ वावरइ ।
विशिर
॥४॥
सारमि गय-ष-पीछे कुदु' ||५||
'वे बाहर सहयउ हिरत छु । कासु विस वाडु असि द्वि गय कस्थ अन्तहिं गुप्पन्तु हउ ।
।
णं सोरग चन्द्रण- हवस- कय ॥ ६ ॥१ सामिड लेपिणु जिय सिमिरु गउ ॥ ७ ॥
धत्ता
कत्थ गय- घड कोनारुहिय धाय सुहवहाँ सम्सुहिय । सिरु घुराइ ण तुक्कट पालु किह पहिखारएँ रऍ जव हुआ जिह्न ॥ ८ ॥
[ 10 ]
दन्त मुसलेहिं ।
असिषण कुम्भमयलु दारइ । करें वि धूलि धत्रले नाव ॥
कोघि मग आविन्दु जिह कढ़तें चि मुत्ताहरू हूँ को वि दन्त उपाबि माइन् मुअ से जें पहरणु अण्णहों गय-विन्दहों ॥ १ ॥ उद्दण्ड-सोण्ड-मण्डर्वे विसावें ।
।
करि कृष्ण चमर-विनिजमाणु । गय-मय-इ-रुहिर-रुहिर-गहूइ-यवाई । असि कवि फह तप्पड करेवि । करि-कुम्मन्दोय-पायवी । उमय-बलाई पेला जणु करेवि ।
भिज्जन्त-दन्ति सन्तरा ॥ २ ॥ णं सुबह को विरण बहु-समाणु ॥ ३ ॥ विहि वेणी में दहें मथाई ॥ ॥ ॥1 जुज्क्षण-मण वीर धरन्ति के वि ॥५॥ सोमादि गावा-भक-गी ॥१६॥ अन्दोषिय अन्दोखन्ति के वि ॥७॥
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चउसत्तरिमो संधि मैं तीनौका कर्ज चुकता कर देता, अपने स्वामी, शरणागत और सबनका । कोई अपने स्वामीके आगे अपने हाथ की सफाई दिखा रहा था। उसने सिर-कमलोंके पत्रपुट ( दोने) बना दिये । किसी ने युद्ध की अग्रभूमिमें अत्यन्त असहाय होकर जूझते हुए सोचा, “मैं शीघ्र ही अपने दोनों हाथों और हृदयको अविलम्ब गजघटाकी पीठपर बैठाना चाहता हूँ। किसीकी बाहुलता तलवारके साथ ही कट गयी, वह ऐसी लगवी 'भो सानो सांप सहित जहा वृक्षनी सा हो। कोई अपनी
आँतों में कैंसता हुआ मारा गया, उसका स्वामी उसे उठा कर शिविरमें ले गया। कहीं पर क्रोधसे चमतमाती गजघटा सुभट के सम्मुन दौड़ पड़ी, वह उसके पास अपना सिर धुनती हुई उसी प्रकार पहुँची जिस प्रकार प्रथम सम्भोग के लिए नववधू अपने पसिके सम्मुख पहुँचती है॥१-८॥
[१७] कोई दाँतरूपी मुसलोंके सहारे, सिंहके समान मदको धार बहाते हुए गजपर चढ़ गया । तलवारसे उसका कुम्मस्थल फाड़ डाला, उसके सब मोती निकाल लिये। उन्हें चूर-चूर कर सफेदी फैला रहा था। कोई मतवाले हाथीका दाँत उखाड़ कर उससे अन्य गजसमूह पर आघात करता। कोई एक सुभट रणवधूके साथ सो रहा था। उठी हुई सूड़ोंके विशाल मण्डपमें भिड़ते हुए हाथियोंके अन्तरालमें, गजकर्णो के चमर उसे बुलाये जा रहे थे। कितने हो वीर योद्धा हाथियोंके मदजालको नही और रक्तकी नदीके प्रवाहोंके अथाह संगममें अपनी तलवार निकाल कर और फरसेको नाव अनाकर लड़नेके मनसे उसमें तैर रहे थे। कितने ही योद्धा हस्तिह्ढोंकी रस्सियोंसे दोनों ओर बँधे हुए हाथियोंके सिरोंके चंचल पादपीठपर खड़े होकर दोनों सेनाओको देखकर फिर आन्दोलन छेड़ देते थे। कितने ही
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१४०
पउमचरिउ
रण-पिति (१) रहवर -लाडि करेवि । गय-पाला पिहु पाढन्सि के षि ॥ ८॥ कत्थ इसिन सुबह हियउ केवि । गय वेस व चा सर्व्हे करे वि ॥९॥
यता
कर इ म गय-च-पेलिय मावि आय। सहाँ मे लिय । पलट्ट पडीवड असि घरंचि णं सामिहें अवसरु सम्मवि ॥१०॥
[96]
तहि महाहवें अमित हनुस् ।
सुग्गीव अश्यक विदण्ड नीलो विरुद्ध । जमघण्टु सार-सुआह मय-परिन्दु जम्मवहीँ कुछ ॥
सीहणाय सीहोर गवय-गवखहुँ । विज्युदाह-विज्जुपहस सुसहुँ ॥१॥
तारागणु तारह ओडिउ । जालक्खु सुसे हों उत्थरि ।
भट्ट लिहाँ । सन्मागलगजिङ दहिमुद । घणघसु पसम्नकिति विहों । पवि कुन्दद्दों कुमुह सोहरदु । धूमाणणु कुधु अणुद्धर । विडोय महुस ओडिड ।
एव णरात्रि उत्थरिय दणु-दारण-पहरण-संजु हिं
कलोल तरकड़ों अग्नि डिउ || ११ | चन्द्र चन्दोरु धरि ॥॥॥ पात्रखसवणु भामण्डलों ॥४॥ हयगीड महिन्दहों अहाँ ||५||
खुचिहीसण-पविहाँ ॥ ६ ॥ सहाँ हुम्मुटु दुब्बिसहु ॥ ॥ जाकन्धर-राउ वसुन्धरहीं ॥८॥ तडिकेसि स्य कैसिहँ सिडि ||९||
घत्ता
स रहस सामरिस ऐस-मस्यि । पहरन्त परोप्पस भुऍ हि ॥ १०॥
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________________ घड़ससरिमी संधि 301 रणके पदपर रथवरोंको गोटी बनाकर गजरूपी पाँसोको गिरा रहे थे। कहीं पर सियारिन सुभटका कलेजा लेकर इस प्रकार जा रही थी, मानो वेड्या ही सैकड़ों प्लाटुन एँ करायी हो। कहींपर कोई योद्धा गजघटाके दबाव से घूमकर आकाशमें पड़ता, फिर तलवार लेकर वापस आता, मानो उसे स्वामीके अवसरकी याद आ जाती // 1-10 // [18] उस महायुद्धमें हनुमानसे अमित, सुप्रीवसे महाकाय और नीलसे वनदण्ड विरुद्ध हो उठा। तारासुतसे यमघंट, और मृग राजा जाम्बवान से क्रुद्ध हो उठा। सिंहनाद सिंहोदर गयय गवाक्षसे विद्युद्दाद विधुत्पभसेशंख सुशंखसे एवं तारामुख तारसे भिड़ गया। कल्लोल तरंगसे भिड़ गया, जालाक्ष सुसेनपर टूट पड़ा, चन्द्रमुखने चन्द्रोदर को पकड़ लिया, कृतान्तवक नलसे लड़ा और नक्षत्रदमन भामण्डलसे / संध्यागलगर्जित दधिमुखसे, हतग्रीव महेन्द्रसे, घनघोष प्रसन्नकीर्ति राजासे, वज्ञान विभीषण राजासे, पवि कुंदसे, सिंहरथ कुमुदसे, दुर्मुख दुर्विष शार्दूलसे, क्रुद्ध धम्रानन अनुरुद्धसे, जालंधर नरेश वसुन्धरसे और विकटोदर नहुषसे लड़ा / तडिकेशी रत्नकेशीसे भिड़ा। युद्ध में इस प्रकार राजाओं की भिड़न्त हो गयो। सबके सब हर्ष, उत्साह और रोषसे भरे हुए थे। दानवोंका संहार करनेवाले हथियारोंसे युक्त वे स्वयं अपनी मुजाओंसे एक-दूसरेपर प्रहार कर रहे थे / / 1-10||