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एकुणसत्तरीमो संधि बहुत सन्तुष्ट हुए । उन्होंने कहा, "हे अक्षय तृणोर लभमण, तुम उठो"। एक ही क्षणमें उसने विशल्या सुन्दरीको भेज दिया, उसके साथ एक हजार कन्याएँ और थीं। राजा द्रोणजेयकी अच बोलकर, कैकेयी अपने घर चली आयी । हनुमान भरत और भामण्डलको विशल्या सुन्दरीने इस प्रकार देखा, मानो बीच में स्थित धरतीने चारों समुद्रको देखा हो ॥१-९||
[१६] अजेय उन लोगोंने विशल्याको देखा, मानो चारों दिग्गजोंने लक्ष्मीको देखा हो । नीलोत्पल के समान आँखोंवाली उसे रोमांच हो आया। उदाम करनेपर, लक्ष्मी किसे नहीं मिलती। उन्होंने लक्ष्मणकी प्रशंसा की और कहा, "संसारका सार बस यही है, यदि किसी प्रकार लक्ष्मण श्रीषित हो आप तो वह धन्य है, क्योंकि उसकी यह पत्नी है।" तत्र भामण्डलने उसे पुकारा और शीघ्र ही अपने विमानपर चढ़ा लिया। वे तीनों आकाशमागसे चल पड़े। शीघ्र ही वे लंका नगरी पहुँच गये। जैसे-जैसे यह कन्या निकट पहुँच रही थी, वैसे वैसे, दिशाएँ पवित्र होने लगी। तब रामने कहा, "लो जामवन्त अब सवेरा होना चाहता है, मैं भी लक्ष्मणके समान अपने आपको जला दूंगा!" तब सुप्रीवने रामको ढाढस बँधाते हुए कहा कि ये दिशाएँ तो विशल्याके प्रभावसे निर्मल हुई हैं, "हे आदरणीय राम, अभी यह क्या कह रहे है, अभी तो तीन पहर रात बाकी है" ॥१-६|
[१७] उसने कहा, "न सवेरा है और न सूरज, वह तो सुन्दरी विशल्याका तेज हैं । राम और जाम्बवान में जब ये बाते हो ही रही थी कि इतने में लक्ष्मणके शरीरसे शक्ति ऐसे निकली, मानो परमपुरुषके पाससे वेश्या निकली हो, मानो विन्ध्याचल