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________________ २७७ दुसत्तरिमो संधि मणियोंकी धाराओंसे अभिषिक्त था, अभिषेककी धाराओंके समान साफ-सुथरा था, जो मूंगों और मरकत मणियोंकी आभासे ऐसा लगता मानो इन्द्रधनुषकी धाराओंसे युक्त गगन हो, जो इन्द्रनील मणियोंकी मालाओंसे ऐसा लगता मानो दीवालपर स्त्रियाँ चित्रित कर दी गयी हों, उसमें पद्मराग मणियोंशा सा ऐसः पौभिः सारे सलिल साध्य लालिमा हो, जहाँ सूर्यकान्त मणियोंसे खिन्न होकर, सूर्य सत्तर दिशाकी ओर चला गया, जहाँ चन्द्रकान्त मणियोंके खण्ड नये चन्द्रों के समान लगते हैं, उन्हें देखकर कुमार आपस में कह रहे थे, यहाँ तो बहुत-से चन्द्र हैं, क्या यह आकाश है, मोतियोंके समूह को देखकर वे समझ बैठते कि ग्रह कोई पहाड़ी झरना है, और वे उसमें अपने पाँव धोने लगते । उन कुमारोंने मणितोरणवाले द्वारोंसे रावणके घरमें उसी प्रकार प्रवेश किया, जिस प्रकार अज्ञ लोग प्रत्याहारोंके माध्यमसे उत्तम व्याकरणमें प्रवेश करते हैं ॥१-११॥ [४] अंग अंगद आदि कपिध्वजियोंने भवनके भीतर प्रवेश किया, मानो सिंहोंने गिरिवरकी गुफाओंमें प्रवेश किया हो । मानो महानदियोंके समूहने समुद्र में प्रवेश किया हो। मानो सूर्यको किरणोंने अस्ताचल पर्वतमें प्रवेश किया हो। कोम न करते हुए कितने ही वानर दौड़े, परन्तु खम्भोंसे टकररा कर उनका वेग धीमा पड़ गया; बहुत-सी स्फटिक मणियोंकी शिलाओं द्वारा टकरा जानेसे उनके सिर लोहूलुहान हो उठे। कितने ही इन्द्रनील पर्वत से नीले हो गये; और किसी प्रकार अपने को बचा सके। कोई अपनी जातीय लीलाका प्रदर्शन करते हुए उठते गिरते और चट्टानोंसे जा टकराते। कितने हो सूर्यकान्त मणिकी ज्वालासे जल उठे, वे शूरवीरता छोड़कर नगरमें चले
SR No.090356
Book TitlePaumchariu Part 4
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorH C Bhayani
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages349
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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