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चउससरिमो संधि
३३० मुख ही उछल पड़े हों ।। १-१०॥
[१०] कोलाहल हो रहा था। रणभेरी बज रही थी । चिह्न उठा दिये गये। वानरोंने अस्त्रोंका संग्रह कर लिया । हाथियों के झुण्ड प्रेरित कर दिये गये । अश्य हाँक दिये गये। रथ चल पड़े। युद्धके हर्षसे भरी हुई रामकी सेना कही भी नहीं समा पा रही थी। मानो संसारको निगल कर शत्रसेनाको निगरनेके लिए ही वह दौड़ पड़ी हो। क्रुद्धमन राक्षसों और वानरोंमें युद्ध छिड़ गया। सैकड़ों शंख बज उठे। दोनोंमें रणलक्ष्मीका चूंघट पट उठाकर देखनेकी होड़ मची थी। अंकुश तोड़फर गजघटाएँ दौड़ रही थीं। तीनपवनसे वजपट आन्दोलित थे । सारी धरती काँप उठी थी। नागराज कुद्ध हो उठे थे। आँखोंसे आग बरस रही थी, दिशाओंके मुख इंधनकी भाँति जल उठे। सबके मन विजयश्री को ग्रहण करनेके लिए उत्सुक थे। दोनों देवनारियोंको सताने में समर्थ थी। दोनों सेनाएँ तलवारें निकाल कर घुमा रही थीं। अश्यवर लोट-पोट हो रहे थे। हाथियों के कुम्भस्थल फाड़ डाले गये, एनसे मोती उछल रहे थे। योद्धाओंके समूह और गजघटासे भिड़न्त होनेके बाद शीघ्र अश्व-रथों में संघर्ष छिड़ गया। शीघ्र ही उससे ऐसी धूल अठी मानो अपने कुलको कलंकित करनेवाला कुपुत्र ही उठ खड़ा हुआ हो ॥ १-१०॥
[१२] अश्वोंके खुरोंसे आहत धूल ऐसी उड़ रही थी, मानो हाथियोंके पदभारसे धरती निश्वास छोड़ रही हो, अथवा मूर्छित परती आँचके समान अन्धकारको छोड़ रही हो, अथवा राजाके कोपानलसे दग्ध धुंधुआती धरतीसे धुंआ उठ रहा हो अथवा धरणेन्द्र का कमलदण्ड हो, दिशाएँ ही मानो